कुल पेज दृश्य

शुक्रवार, 8 दिसंबर 2017

आर. जे. बी. के सदके एक और शहादत !

आर.जे.बी. नाम से शायद आप परिचित नही होंगे। पर प्रभु श्री राम की जन्म भूमि अजोध्या में तैनाती पर आए सिपाही के ज़ुबान पर यह नाम जिंदगी भर के लिए टँक जाता है। आर.जे.बी का मतलब राम जन्म भूमि। प्रभु श्री राम अपने ही जन्म स्थल पर न्यायिक हिरासत में हैं। इस हिरासत में केवल वो ही नही हैं, उनके हज़ारों प्रिय भक्त भी हैं जो उनके दर्शन को व्याकुल रहते हैं, और वो भी जो इस हिरासत की तामील कराने में ड्यूटी पर मुस्तैदी से तैनात रहते हैं। आर.जे.बी के एक रक्षक जो कि खुद कैद में रहता है, उसने अपने आप को मुक्त कर लिया। आज उसने प्रभु श्री राम के परम भक्त हनुमान के राजदरबार में आत्म हत्या कर ली। उसने एक तरफ अपनी जान देकर आंतरिक पुलिसिया उत्पीड़न का प्रतिरोध दर्ज करवाया, तो दूसरी तरफ आर.जे.बी की मजबूरियों को उजागर किया। बहुत सी शहादत बेआवाज़ होती हैं। उसकी शहादत को शायद ही कोई सलाम करे।
       एक युवा सिपाही की देंह हनुमान गढ़ी के ठीक पीछे किराए के कमरे में लटकी पाई गई।उसके साथ काम करने वाले पुलिस विभाग के ही सिपाहियों ने बताया कि वो पिछले कुछ दिनों से अवसाद में चल रहा था। वो हापुड़ के गढ़मुक्तेश्वर का रहने वाला था। हाल ही में उसकी तबियत ख़राब हुई, अस्पताल में 2 दिन भर्ती रहा, और फिर ड्यूटी पर सुबह 9 से 5। कुछ ने बताया कि पिछले डेढ़ महीने से आर.जे.बी की सभी छुट्टियाँ रद्द कर दी गईं। आज उसके 19 नंबर के कमरे के बाहर पुलिस मोहकमे का तांता लगा रहा। वहाँ आने वाले हर पुलिस वाले के पास कहने के लिए बहुत कुछ था, वो चीखना चाहते थे, चिल्लाना चाहते थे। पर वो उस मुक्त होने से बुरे अंजाम से ख़ौफ़ज़दा थे। पत्रकारों को देख कर उनके कान में फुसफुसा देते कि सर खबर में सच कह दीजियेगा। सुबह के अखबारों में जरूर लिख दीजियेगा कि उसने लगातार ड्यूटी और छुट्टी न मिलने से आत्महत्या कर ली। मौके पर मौजूद सिपाही और बड़े अफसरों के बीच की कड़ी फोन पर जी सर जी सर कहते रहे। बीच बीच में कहते "सर वो घर से दूर था". जाहिर सी बात है, मामला पुलिस विभाग के आंतरिक कमियों का था। सहेज कर हर काम करना था। पर सब ठीक हो जाएगा।
          आर.जे.बी में वो खज़ाना गड़ा है, जिसकी रक्षा के लिए इस देश के नागरिकों का लाखों रुपये रोज़ खर्च होता है। आर.जे.बी वो महत्वपूर्ण जगह है, जहाँ देश दुनिया की नजरें गड़ी रहती हैं। आर.जे.बी वो रण है जिसपर मीडिया वालों के सट्टे लगते हैं। आर.जे.बी वो इतिहास है, जिसे भविष्य बनाया जाता रहेगा। आर.जे.बी इस देश के करोड़ों लोगों की पेट की भूख है। आर.जे.बी को वजूद में रखने के लिए हम हज़ारों शहादतें बर्दाश्त कर सकते हैं। आर.जे.बी की शहादतें अपनी अपनी किस्म की हैं। आर.जे.बी को अपने पाले में कर लेने वाली शहादत, आर.जे.बी को महफूज़ रखने की शहादत, आर.जे.बी की राजनीति में जीवन खपा देने वाली शहादत, आर.जे.बी की रौ में सत्ता की शहादत। पता नही कितनी तरीके की शहादत आर.जे.बी के सदके के लिए तैयार हैं। आर.जे.बी वैकुण्ठ धाम है।

बुधवार, 6 दिसंबर 2017


अपना ईश !

जब समाज सोख लेता है सारे रंग
रह जाता, गेरुआ धवल अशेष
मन, तन के पार इच्छाएं
ढूँढ लाती हैं अपना ईश !


गुरुवार, 30 नवंबर 2017


ओ संता देख तो चिट्ठी आयी है !

"ओ संता देख तो... पुजारी जी चिट्ठी लाएं हैं, देख तो जरा कौन डेरा से चिट्ठी आयी है ? तीन दिनन से रोज चिट्ठी आये रही है "
    ये वो जगह है, जहाँ चिट्ठियाँ याद के सन्दूक से निकले काले नीले अक्षरों से भरी नहीं होती। यहाँ चिट्ठियाँ भूख का निवाला बन के आती हैं। चिट्ठी जिस दिन आएगी, उसमें किसी शाम या दोपहर का भरपेट भोज होगा। ये राम की नगरी अजोध्या का वो हिस्सा है, सीता माँ कभी विधवा के रूप में नज़र आएंगी, कभी किसी जंगल में फेंकी हुई 2 महीने की दुधमुंही बच्ची के रूप में तो कभी भरे पूरे घर से वनवास काटने वाली हिम्मत के रूप में। ये माईं- बाड़ा है। यहाँ वो माएँ हैं...जिन्होंने अपने इर्द गिर्द किसी पुरुष प्रधान समाज की दासी बनने से इनकार किया है।
     उन्हें दो चीजों का इंतज़ार रहता है, एक चिट्ठी का और दूसरा अपने भगवान के पास हमेशा हमेशा के लिए जाने का। बाकी उनके पास ढ़ेरों काम हैं, इतना काम कि उन्हें अपनी सुध नही रहती। पर उन्हें उनके हिस्से का वैराग्य हाँसिल नही, जितना एक पुरुष के हिस्से आता है। उनके हिस्से के वैराग्य का दान धर्म भी "चेलाही" के नाम से आता है। कभी चेलाही तो कभी चिट्ठी।

#माईंबाड़ा - 1
#राम_जू_की_अजोध्या

शुक्रवार, 17 नवंबर 2017

क्यों कि कलाकार कभी हार नही मानता !

इधर अत्यधिक काम के चलते फिल्में देखना बन्द सा हो गया है। महीनों से कोई फ़िल्म नही देखी, न कमर्शियल न आर्ट । पर हाँ पिछले एक महीने से एक फ़िल्म वाले के वेटिंग रूम या उसके बाहर कुल जमा 15-20 इंतज़ार के जरूर खर्च किए। इन इंतज़ार के घण्टों से मेरे भीतर के दम्भी पत्रकार ने इंतज़ार करना सीख लिया। और भी बहुत कुछ सीखा, पर वो साझा करना नही, सहेज के रखना चाहता हूँ ।
      कुछ दिनों पहले लखनऊ में फ़िल्म फेस्टिवल हुआ, 22 से गोआ में अंतराष्ट्रीय स्तर का फ़िल्म फेस्टिवल होने वाला है। न जाने कितने लोगों की मेहनत, पैसा, दिल दाँव पर लगता है। कोई दर्शकों के प्यार, कोई अवार्ड तो कोई कम से कम फ़िल्म के ऐसे अवसरों पर चयनित होने की ख़्वाहिश रखता है। पैसे कमाना तो इस इंडस्ट्री में दूर की कौड़ी है। जब पद्मावती जैसे बड़े बैनर की फिल्मों का हश्र सामने है तो छोटे - मोटे कलाकार कहाँ टिक पाएंगे। पर कलाकार कभी हार नही मानता। सृजन की धुन जगह नही देखती, पुरुस्कार नही देखती। सत्येंद्र करीब 15 साल से संघर्ष कर रहे हैं। उनका संघर्ष उनके भीतर की गंभीरता, अनुभव और हौसलों के पहाड़ से मापी जा सकती है। जीवन में कई चढ़ाव उतार की गणित में उतार का योग ज्यादा रहा। फिर भी अयोध्या जैसी छोटी सी जगह में रह कर उन्होंने वो काम किया जिसके बारे में सोचना इस क्षेत्र के पुरोधाओं की शायद बस की बात नहीं।
     अयोध्या की एक संकरी गली में इनका खुद का स्टूडियो है। स्टूडियो में इनहाउस शूटिंग के लिए सेट तैयार रहते हैं। प्रोडक्शन, डायरेक्शन, स्टार कास्टिंग, एडिटिंग, डबिंग, लोकेशन, प्रोमोशन और ऐक्टिंग समेत न जाने क्या क्या वो खुद ही कर लेते हैं। न कोई हंगामा, न कोई शो बिज़। बस काम काम और काम। उनकी ऐक्शन फ़िल्म " यू पी पुलिस रुद्र " इसी महीने के अंत में रिलीज़ होने को है। इस फ़िल्म का ट्रेलर देखने का आज अवसर मिला। यकीन ही नही हुआ कि इस फ़िल्म में एक गंभीर, रस्टी सा दिखने वाला लड़का बतौर लीड काम कर रहा है। फ़िल्म की लोकेशन में अयोध्या को ढूंढ पाना मुश्किल सा लगा। कम संसाधनों में एक्शन की बारीकियों को जस्टिफाय करने का प्रयास किया गया है। ट्रेलर से ऐसा प्रतीत होता है, जहाँ जहाँ फ़िल्म ने सत्येंद्र के समय और उसकी कार्य क्षमता के सीमा को लांघा है, वहाँ उसके ही जैसे किसी और सहयोगी के न होने की कमी महसूस हुई।

    फ़िल्म के सफल असफल होने की कहानी उसके रिलीज़ होने के बाद की है। अयोध्या फ़ैज़ाबाद जैसी जगह पर जहाँ शूटिंग, फ़िल्म मेकिंग, वीडियो कैमरा का मतलब  शादी विवाह, मुण्डन, बर्थ डे पार्टी की कैसेट तैयार करना हो। ट्राइपॉड को खूंटे की तरह एक जगह गाड़ के प्रवचन को रिकार्ड करना हो या छोटी छोटी क्लिप बना चोरी किये हुए भजनों से भक्ति अयोध्या का महिमा मण्डन किया जाता हो। वहाँ अपनी क्षमता से कहीं अधिक तन मन धन लगाकर किसी फ़िल्म को अंजाम तक पहुँचा देना बड़ी बात है। वो अपनी इस फ़िल्म के लिए न ही कोई अवार्ड का ख्वाब देखते हैं न ही कोई फ़िल्म नीति के तहत सरकारी इमदाद की। वो चाहते हैं कि उनकी इस फ़िल्म पर यू पी का ठप्पा लगा हो और दर्शकों की खट्टी मीठी प्रतिक्रियाएं। हालांकि इस फ़िल्म के रिलीज़ के बाद सत्येंद्र ने मुम्बई में काम करने का मन बना लिया है। वो यहाँ से हार के नही जा रहे हैं, वो अयोध्या, उत्तर प्रदेश  को जीत के मुम्बई को जीतने के लिए जा रहे हैं। हालांकि वो, राम की अयोध्या को प्रभु श्री राम की अर्धांगिनी द्वारा दिए श्राप को दोहराना नही भूलते, जिसमें अयोध्या में कुछ भी भली भांति सम्पन्न न होना था।

#राम_जू_की_अजोध्या

मंगलवार, 14 नवंबर 2017



कौन सुनेगा इनकी ? जहाँ राजा का ही गुणगान करने से फुर्सत नही। राजा तक आवाज़ पहुँचाने के लिए उतने ही ज्यादा जतन किए जाते हैं, जितना भीतर गलत होने का डर भरा होता है। लाउड स्पीकर, डी जे, राज्याभिषेक, पुष्पक विमान, महापूजा, महायज्ञ, महाभोज। जितना भव्य आयोजन उतनी उँची आवाज़। पर ऊँची आवाज़ पुकार कहाँ होती है। राजा राम को कम सुनाई देने लगा है, इन चिल्लाहटों से, ऊँची ऊँची आवाज़ों से अब वो चिढ़ते होंगे। वो देखते होंगे नीचे की ओर और दहाड़े मार के रोते होंगे। उनकी प्रजा खुश नही है, तो वो खुश कैसे हो जाएं ? उनके भक्त डरे हुए हैं, वो कैसे खुश हो जाएं। वो कम से कम अपने जन्म स्थान में तो राम राज्य देखना चाहते होंगे। उनके नाम पर राम राज्य का कौन सा स्वरूप उनके परम भक्त प्रस्तुत करना चाहते हैं, ये भक्त जानते हैं या मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु राजा राम।
सुनो राम, अब तुम्हारे 84 कोसी राज क्षेत्र में राम राज केवल मंदिर के भीतर आया है, सिंघासनों पर आया है। तुम्हारे परम भक्त हनुमान को तुम अयोध्या का राजा घोषित करके गए थे। वो पवन पुत्र सबसे बल शाली भक्त ने भी घुटने टेक दिए, इन नए राम राज्य की कल्पना करने वाले भक्तों के सामने। तुम्हारे राम राज्य में पैदा हुए बहुत से परिवार अब अपनी जमीने खो चुके हैं। तुम्हारे नाम की उपज देख कर सैकड़ों बाहरी बली महाबलियों ने उनकी जमीनों, रोजगार को छीन लिया है। उन्होंने तुम्हारी प्रजा को प्रसाद लेने कि कतार में खड़ा कर दिया है। चुटकी भर प्रसाद के बदले बोरी भर अनाज का दान तुम्हारी मेहनतकश प्रजा यहाँ रख जाती है। कुछ दिन अपना पेट काट काट के उस महादान को संतुलित कर पाती है। तुम्हारी प्रजा के घर टूट रहे हैं, उनपर नए भक्त राजाओं के महल खड़े हो रहे हैं। जिन्हें वो तुम्हारा ही मंदिर कहते हैं। तुम्हारे नाम से जो कारोबार चल रहा है, उसमें आस्था का सौदा हो रहा है। राम तुम देखते होगे बेबस ? तुमको भी तो कैद कर लिया गया है न राम ? तुम सूर्यवंशी थे न ?
तुम्हारे नाम की परिक्रमाएं होती हैं, 14 कोसी जानते होंगे न ? आज के 45 किलोमीटर होता है, नंगे पैर तुम्हारी प्रजा चलती है टूटी सड़कों पर, ककरीले कच्चे पक्के रास्तों पर। छाले पड़ जाते हैं, महीनों पैरों के घाव नही जाते । पंचकोसी जानते होंगे न तुम ? 15 किलोमीटर होती है। तुम्हारे राज्य की शहरी प्रजा चलती है नंगे पैर, जो कभी कच्ची जमीन पर नंगे पैर नही चलती। प्रजा तुममे आस्था रखती है, वो यहाँ के अत्याचारों से सहमी हुई है। पर तुम्हारी आस्था का फल राजा को ही क्यों मिलता है ? तुम तो सब राजाओं के राजा हो, पर तुम भोले हो अपनी प्रजा की ही तरह। तुमने वाकई कभी किसी एक छली, कपटी, आततायी, बुद्धिमान रावण का संहार किया था ?

ये तैयारी अंधेरे से लड़ने की नही है, ये अंधेरे को पूरे सम्मान के साथ महसूस करने की है। यहाँ अंधेरा उसी सम्मान के साथ मन्दिर प्रांगढ़ में प्रवेश करता है जैसे उजियाले की पहली पह प्रवेश करती है। अयोध्या में एकमात्र रामानुज सम्प्रदाय का भव्य विजय राघव मन्दिर शाम से ही अंधेरे के उत्सव की तैयारी करता है। यहाँ बिजली की व्यवस्था केवल शौचालय और गौशाला में है। बाकी मन्दिर के लगभग 4000 वर्ग फीट, तीन मंजिला परिसर में गर्भ गृह से लेकर 35 कमरों और अन्य जगहों पर लालटेन ही एकमात्र रोशनी का साधन है।
प्रसाद से लेकर भगवान का भोग, श्रद्धालुओं का भोजन अभी भी लकड़ी की आग में पकता है। खाने के लिए रसोईं में बने कुएं के पानी का इस्तेमाल किया जाता है। मन्दिर परिसर में स्थित गौशाला में बने कुएं से गायों के लिए पानी, एक अन्य कुएं से मन्दिर में आए श्रद्धालुओं की प्यास बुझती है। मन्दिर परिसर के मुख्य भाग में अभी भी छत में टँगे पंखे को झला जाता है। मन्दिर में जलने वाले सभी दीपक देशी घी में जलते हैं, यहाँ तक भोजन प्रसाद भोग सब हमेशा से देशी घी में बनते आ रहे हैं। अखण्ड दीपक व अन्य दीपकों से लेकर खाना पकाने में औसतन एक कुंतल प्रति माह घी की खपत होती है। दीपकों के लिए गौशाला में पल रही गायों के दूध से बने घी तथा खाने के लिए कहीं दूर किसी गाँव से आये घी से व्यवस्था होती है। मीठे में चीनी नही बल्कि पीली शक्कर का इस्तेमाल किया जाता है। यहाँ किसी भी लेटने वाली जगह पर गद्दे नही हैं, केवल कंबलों का इस्तेमाल होता है। सर्दी गर्मी चटाई कंबल बस।
पूजन अर्चन, भगवान के स्नान के लिए कोई एक सेवक लगभग 600 मीटर चल के सरयू का जल भर कर सुबह शाम लाता है। ऐसे ही तमाम आधुनिक, अत्याधुनिक व्यवस्थाओं को ठुकराकर मन्दिर, भगवान, साधक, सेवक, श्रद्धालु सब एक सा जीवन साझा करते हैं। ये व्यवस्थाएं पुरातन अवश्य लगती हैं, पर मठों मठाधीशों की चकाचौंध मंडी से इतर ये व्यवस्थाएं दिल में आस्था की अखण्ड लौ जलाए रखती हैं।


फीजी मूल के कुछ गुमशुदा भारतीय !
अजोध्या में कुछ डेढ़ सौ लोग ऑस्ट्रेलिया के पास बसे देश "फीजी" मूल के पिछले 10 दिनों से आयें हैं। जिनमें से ज्यादातर लोग अब ऑस्ट्रेलिया में रहते हैं। फीजी और ऑस्ट्रेलिया का शाब्दिक अर्थ नही मालूम। और न वहाँ रह रहे भारतीय एन आर आई की संख्या। फिर भी डेढ़ सौ लोग दूसरे मुल्क से यहाँ 10 दिनों से केवल हवन करने आये हैं। वो दिखते भारतीय हैं, हिन्दी समझने समझाने भर की, अंग्रेज़ी सलैंग वाली। वो फॉरेनर्स हैं फिर भी राम, रामायण अयोध्या पर फ़िदा हैं।
अभी पिछले ही महीने अमेरिका से कुछ दो एक भारतीय एन आर आई यहाँ किसी बड़े आयोजन के लिए आये थे। आयोजन में एन आर आई समेत 2000 लोग आने को थे। एक बड़े संगठन और अमेरिका के हिन्दू संगठन के लोगों ने एड़ी चोटी का जोर लगा लिया। पर मुश्किल से 100 लोग ही रहे उसमें से केवल दो एन आर आई।
अमेरिका के एन आर आई भारतीयों का कार्यक्रम फेल हो गया। भारतीय नागरिकता न होने के बावजूद फीजी वाला कार्यक्रम पूरे शानोशौकत से रहा। 10 दिन से चल रहे कार्यक्रम के तहत सबने बाकायदा सरयू में स्नान किया, मंदिरों में दर्शन किए और दिन में 3 बार 51 कुंडीय हवन किया। आखीर में दान धर्म का दौर भी चला। अखबारों में एन आर आई बता के कवरेज भी खूब हुई।
पर दोनों ही कार्यक्रमों में अमेरिका वालों के कार्यक्रम में ज्यादा पैसा खर्च हुआ था। भव्यता का आभासी सौंदर्य था। फिर भी वह असफल रहा। फीजी वालों ने बताया कि उनको राम पर आस्था है। नागरिकता न होने की वजह से उनके पास भारतीयता का सर्टिफिकेट नही है। पर वो भारतीयों और अप्रवासी भारतीयों से ज्यादा राम और राम की अयोध्या को याद करते हैं। उन्होंने बताया कि उनको नही पता ब्रिटिश राज के दौरान उनके पूर्वज किस जगह से किस जहाज पर अवैधानिक तौर से यहाँ लाए गए थे। उन्हें ये भी नही मालूम वो बिहार के हैं या दक्षिण के। उनकी पीढ़ियों से केवल अंग्रेज़ी दौर में जहाज में ठूंस कर फीजी आने के किस्से आये हैं। उसके बाद न सरकारों ने उनकी सुध ली और न ही वहाँ का आदमी ही सरकार से हिंदुस्तानी होने का अधिकार ले पाया। वो जब कुछ वर्षों पहले पहली बार बार भारत आ रहे थे। तो उन्हें कहा गया था भारत में सावधान रहना। वहाँ लूट होती है, छिनैती होती है, छेड़ छाड़ होती है, वहाँ आस्था के नाम पर ठगी होती है, कुछ भी हो सकता है वहाँ। फिर भी वो आए। और हर साल आने का प्रयास करते हैं। वो हर महीने वहाँ से धन भेजते हैं, यहाँ लगातार रामायण चलवाने का। उनके लिये बने आश्रम में पिछले 27 साल से रामायण का पाठ हो रहा है। उनकी आत्मा पूरे भारत से सिमट कर राम में आ गयी है। वो महसूस करने आते हैं, यहाँ राम चले होंगे, यहाँ विवाह, यहाँ से शरीर त्यागा होगा। वो हम सब से भारत को प्यार करते हैं।
वो कहते हुए भावुक हो उठते हैं, कि वो जानना चाहते हैं वो भारत के किस हिस्से से हैं, किस शहर या गाँव से हैं। पर शायद उन्हें नही मालूम जब तक उन्हें अपने मूल के होने की खबर नही तब ही तक वो शुद्ध भारतीय हैं। क्यों कि वो भारत को प्रेम करते हैं, उनको राम पर आस्था है, वो भारत की संस्कृति को महसूस करते हैं, रामायण उनके लिए जीवन का आदर्श है। पर यहाँ हम धर्म का इस्तेमाल कर रहे हैं, देश प्रेम का ढोंग रचते हैं, संस्कृति से खिलवाड़ करते हैं । उनमें से कई लोग फीजी आइलैंड से बेहतर भविष्य को स्वरूप देने के लिए अन्य देशों में चले गए हैं। न्यूज़ीलैंड के एक नागरिक अयोध्या चला आया, एक फीजी या भारतीय सी दिखने वाली अधेड़ महिला से 51 कुंडों के हवन को साक्षी मान कर फेरे लिए। उन हवन कुंड की गर्मी से 69 साल के गोरे के चेहरे की नसें धुएं में लाल होकर फटने वाली थीं। पहले से ही फेफड़ों में भरी खांसी का दम पिछले 10 दिनों से हवन कुंड में स्वाहा हो रहा था। उसके हांथों में रची मेहंदी में अंग्रेज़ी के अक्षरों से प्रेम लिखा था। उसके सफेद पैरों में महावर लगी थी। ये हवन उन सब के हिस्से के राम को अपनी ऊष्मा से उनके देश फीजी न्यूज़ीलैंड, ऑस्ट्रेलिया ले जाएगा।

रविवार, 15 अक्तूबर 2017


वो शहर
काट आया हज़ारों साल
किस्सों के बियांबां में
अब वो है, और उसकी तन्हाई

चाँद आता है ज़मीन पर
दो शक्ल लेकर
सुलग कर रात भर
राख होता है

मरने के मुक़द्दमें
ठहरे हुए हैं
ज़िन्दगी की दहलीज पर
ख़्वाब, कुछ और
मुल्तवी हुए हैं।

#राम_जू_की_अजोध्या

बुधवार, 4 अक्तूबर 2017


घर घर मन्दिर
मन्दिर के बाहर जन हैं

भीतर से टूटे मन
राम, धाम, भजन हैं

सेवा, पाप, पुण्य
कुछ और, मुक्ति बंधन हैं

#राम_की_अजोध्या

बुधवार, 20 सितंबर 2017


चारबाग की शाम में पंछियों का राग "जुटान"

कभी शहर लखनऊ के शोर शराबे, जाम से परेशान हों, और सुकून के कुछ पल तालशने हों तो चले जाइयेगा चारबाग रेलवे स्टेशन पर। बड़े मोटर साइकिल स्टैंड के सामने मंदिर के पास सुस्ता रहे रिक्शों पर बैठिएगा। शाम ढलते ही आसमान में हजारों की संख्या में चीं चीं करते पक्षियों का झुंड कुछ पेड़ों पर शाम बिताने आता है। वो उन पेड़ों पर बसेरा लेने से पहले आसमान में चक्कर लगाते हैं, सब एक साथ झुंड में, न आगे न पीछे, न छोटा न बड़ा, न रौंद के आगे निकलने की होड़ । वो रोशनी रहने तक चारबाग के आसमान के कई चक्कर लगाते हैं। और रोशनी खत्म होते ही सभी दो पेड़ों पर आकर ठहर जाते हैं। वो शोर करते हैं, उनकी एक साथ चीं चीं की आवाज़ को सुनकर लग सकता है कि वो लड़ रहे होंगे।  पेड़ों के करीब जाकर देखेंगे तो पाएंगे वो साथ की यात्रा को, साथ के बसेरे को उत्साह से उत्सव में बदल देते हैं। लखनऊ शहर के भीतर शायद ही किसी पेड़ के इर्द गिर्द मंडराते, पेड़ों पर बसेरा लेते इतने पक्षियों की आवाज़ें सुनाई दें। एक स्वर में पंछियों का कलरव शाम का कोई नया राग बन जाता है। राग "जुटान" । उस राग में भीतर के शोर, मंदिर के लाउड स्पीकर से उठती सीता राम की रट, जाम में फंसी गाड़ियों की पों पों, रेलवे स्टेशन की अनाउंसमेंट सब दब जाती हैं। यह राग रोज शाम को हज़ारों पंछियों द्वारा गाया जाता है।  इस मनोरम दृश्य को देख कर सुन कर ये सवाल भी उठ सकता है कि कौन सिखाता होगा उन्हें एक साथ रहना ? एक स्वर में अपने मन के भावों को पिरोना, ऊपर से उन्हें भी क्या आदमियों के झुंड एक साथ नज़र आते होंगे ?

मंगलवार, 19 सितंबर 2017


अजोध्या की सरजू

न न...राम की अजोध्या कहने में आपको कोर्ट के फैसले का इंतज़ार करना पड़ेगा। राम अपने ही जन्म स्थल पर अभी न्यायिक हिरासत में हैं। वो कैद हैं, 14 टुकड़ी पी ए सी, 2 टुकड़ी सी आर पी एफ (सेंट्रल रिजर्व पुलिस फोर्स) और सैकड़ों पुलिस कर्मियों की देख रेख में एक तिरपाल के नीचे। अजोध्या तो फिलहाल सरजू की ही है। उसको किसी के फैसले का इंतज़ार नही है। वो बह रही है निर्बाध। उसके किसी भी स्पर्श, भाव, विचार पर कोई पाबंदी नही है। कैसे लगाओगे पाबंदी ? वो तुम्हारी हद में नही है।  तुमने राम को जना, तो वो भौतिक संसार की भौतिकी से कैसे बच पाएंगे ? खुद फंसे हो और राम को उनके ही घर में कैद करके रखा हुआ है।
      अमानती सामान की जमानत, 5 जगह सघन सुरक्षा जांच, घंटे भर संकरे जाली नुमा पिंजड़े में जलेबी की तरह घूमते घूमते एक जगह किसी पंडे ने राम नामी प्रसाद पकड़ा दिया। सोचा आगे कहीं चढ़ाना होगा। जाली के ऊपर से आततायी बंदरों के पेशाब व लार गिरने का डर और कतार में बेकल श्रद्धालुओं की आपाधापी में वो जगह दिखी ही नही। जाली वाले पिंजड़े से जैसे ही बाहर निकला तो एक बोर्ड पर लिखा था "बाहर जाने का रास्ता"। मैं ठगा सा रह गया। ठीक उसी वक़्त दिमाग में अमानती लॉकर से लेकर बाहर जाने के रास्ते वाले बोर्ड तक वो यात्रा तड़क गयी। वो जगह कहाँ कब निकली , पूछने पर किसी ने कहा कि भगवान राम नाराज़ होंगे इसलिए नही दिखे। हा हा हा...जोरदार हंसी फुट पड़ी। जैसे सबने दर्शन किये हों राम के।
     उधर सूरज सरजू (सरयु नदी) के आलिंगन की तैयारी में था। प्रेम में डूबने को लालायित , वो अलौकिक प्राकृतिक छटा की लालिमा ने घसीट लिया वहाँ से विक्षत मन को, थके तन को । सूरज आहिस्ता आहिस्ता वृहद रूप ले रहा था। सरजू की लहरें कभी लाल तो कभी स्याह हो रही थीं। सूरज जैसे ही सरजू में विलीन हुआ। आसमान में तारे चमक उठे। अजोध्या सरजू किनारे आजादी की सांस लेती है। राम इंतज़ार में बैठे हैं।

............

चौरासी गुणा = महा गरीब/गरीब/राजा/महाराजा

चौरासी कोसी, चौरासी लाख देवी देवता, चौरासी गुणा...चौरासी चौरासी । चौरासी का महत्व तब समझ में आता है जब अजोध्या में पंडा पिंड दान करते वक़्त दक्षिणा को 84 से गुणा कर देता है। यजमान की दक्षिणा के आधार पर पुण्य और पाप दोनों ही 84 गुना होने की संभावना रहती है। पितरों के पिंड दान के समय पढ़े जाने वाले श्लोकों के बीच में ही दक्षिणा का संकल्प पंडा बड़ी चतुराई से करवा लेता है। संकल्प के दौरान पिंड दान करते हुए यजमान को महाराजा की तरह पिंड दान करने का संकल्प करवाया जाता है। पिंड दान की आखरी कड़ी में पंडा दक्षिणा रखने की बात करता है। फिर यजमान की स्वीकृति अस्वीकृति के बाद उसे महाराजा/राजा/गरीब/महागरीब घोषित करके पुण्य और पाप के 84 गुने हो जाने की हिदायत देता है। इस क्रिया क्रम में अंत खटास से ही होता है। या तो पंडा नाराज़ होगा, या यजमान का नाराज़ होना तय है। पितरे तो दोनों को ही देख के तर जाते होंगे कि अच्छा हुआ वो यहां से निकल गए। अब चौरासी का खेल देखिये, दक्षिणा 51 रुपये गुणे 84 = 4284 रुपये = महाराजा, दक्षिणा 21 रुपये गुणे 84 = 1764 रुपये=राजा, दक्षिणा 11 रुपये गुणा 84 =924 रुपये= गरीब, दक्षिणा 5 रुपये गुणा 84 = 420 रुपये = महागरीब। ये भी हो सकता है कि दक्षिणा को पितरों की संख्या के साथ गुणा कर दिया जाए। घर के जितने लोगों का पिंड दान उतने गुने दक्षिणा। और गो दान की दक्षिणा अलग से। जो कि इस पैकेज में शामिल नही होता।

तस्वीर - एक पंडा जजमान को 84 का गुणांक समझाता हुआ, मामला महागरीब से भी नीचे चला गया। जजमान 151 ही दे पाया।

राम के अयोध्या से पहली मुलाकात

सोमवार, 11 सितंबर 2017

मैं तुम्हे सम्मानित करता हूँ ...!

मुझे मालूम था , तुम्हे सम्मान पाना अच्छा लगता है। तुम खुश होगे जब मैं तुम्हे सम्मानित कर रहा होऊंगा। पर सम्मानित होने के बाद कभी भी शिकायत भरी नजरों से मत देखना, जब मैं किसी और को सम्मानित कर रहा होऊंगा। मैं औसतन हर दूसरे दिन किसी का सम्मान करता हूँ। मैं सम्मानित करने से सम्मानित महसूस करता हूँ। और सम्मानित होता हुआ दूसरे के गालों पर सम्मान की गुलाबी मुस्कान देखता हूँ। मेरे हर सम्मान समारोह में मंच पर बैठे सम्मान के चश्मदीद, मुझपर यकीन रखते हैं कि मैं एक दिन उन्हें भी सम्मानित करूँगा। सम्मान खालिस लेन देन का विषय है। ये मूक सहमति होती है सम्मान देने और पाने वाले के बीच।
       मुझे याद आ रहा है एक मंच सम्मान समारोह का। जहाँ एक व्यक्ति ने सम्मानित होने के क्रम को खंडित करते हुए पूछा था, ये सम्मान समारोह किस लिए, किसके लिए ? सबने खीझते हुए एक स्वर में पूछा क्या इस लिए तुम्हे इस समारोह में आमंत्रित किया गया था ? ये सम्मान का कार्यक्रम है, उसपर सवाल उठाने वालों का नही। विशिष्टिता, बौद्धिकता, सृजनात्मकता, रचनाधर्मिता सब आधुनिक काल के सम्मान शास्त्र पर आधारित हैं। तुम्हें नही मालूम ? सब सम्मान से ही चलता है, घर, व्यवहार, यहाँ तक सरकारें भी। प्रश्न उठाने वाले के चेहरे पर प्रतिरोध की सबल मुस्कुराहट देख कार्यक्रम में गहरी खामोशी पसर गयी । वो चल पड़ा दरवाजे की ओर, सम्मानित मंच और ऊंघते दर्शकों की खुली आँखों में झांकते हुए। मेरी नज़रे उसको सम्मान पूर्वक दरवाज़े तक छोड़ कर आयीं। उसके बाद वो हममे से किसी को नही दिखा। मेरी नज़रें तुम्हे खोजती है, मैं तुम्हे सम्मानित करना चाहता हूँ।

एक काव्य संग्रह के लोकार्पण कार्यक्रम में जैसा महसूस हुआ

गुरुवार, 7 सितंबर 2017

प्रिय हरदोई,

तुम शहर हो न वर्षों से। तुम्हारे पास वो सब है जो एक शहर के पास होता है। पक्की सड़कें, पक्के घर, बिजली पानी, स्टेडियम, स्टेशन, अस्पताल, कोर्ट कचहरी, प्रधान डाकघर, जेल, राजकीय विद्यालय और वो तमाम सुविधाएं जो किसी शहर को शहर होने के लिये जरूरी होती हैं, हैं तुम्हारे पास। फिर भी एक शहर की स्वायत्तता का अभाव तुम्हारे पास हमेशा से रहा। तुम शहर की तरह नही बल्कि व्यक्तित्व बन कर विचरते रहे प्रदेश के अन्य शहरों के बीच। व्यक्तित्व के आभामंडल ने हमेशा से तुम्हारी स्वायत्तता का हनन किया । तुमने जो मांगा, वो तुम्हारी झोली में डाला जाता रहा । तुमको मांग और आपूर्ति के बीच संघर्ष की कमी कभी खली ही नही। तुम्हारे इतिहास के संघर्ष दर्ज हैं सरकारी अभिलेखों में और स्वन्त्रता संग्राम सेनानियों के दिल में। फिर भी तुम आजादी के बाद से गुलाम होते गए। गुलामी की जड़ें इतनी गहरी उतरती गयीं तुम्हारे भीतर, कि तुम्हे वो नियति लगने लगी।
             तुम्हे आज़ाद भारत का गुलाम शहर कहना बिल्कुल भी नही भायेगा। तुम धधकते हो अंदर ही अंदर, सिसकते हो भीतर बाहर। तुम्हारी सारी बेचैनी भाप होकर एक डिब्बी में कैद हो जाती है। वो जिन्ह बनकर लहराती, उड़ती हुई पूछती है "बोलो क्या चाहिए" तुम बोल बैठते हो हुज़ूर जो भी मांगा आपने दिया। तुम्हे कभी महसूस नही हुआ कि जो दिया गया वही तुमने लिया। तुम्हारी हद बंदी है, आज भी। तुम्हारे भीतर खौफ रहता है, एक ऐसी ताकत का, जिसका कोई नाम नही, स्वरूप नही , अस्तित्व नही। वो ताकत तुम्हारे भीतर का डर है। तुम्हे फुसफुसाहट की आदत हो गयी है। तुम्हारी दर्द भरी धीमी आवाज़ को एम्पलीफायर में डाल कर उत्सव की आवाज़ बना दिया जाता है। दूर से वापस आती उसकी प्रतिध्वनि में तुम अपने खौफ को भुलाने की कोशिश करते हो। तुम एक शांति प्रिय आदर्श हँसते खेलते शहर हो जाते हो।
               तुम्हारी सहन शक्ति को सलाम करने का मन करता है। तुम्हारी हरियाली को बाँझ कर दिया गया, तुम्हारे तालाब पाट दिए गए, तुम्हारी जमीने हड़प ली गईं, तुम्हारी नदियों, नहरों को सुखा दिया गया। तुम्हारी शिक्षा व्यवस्था को नंगा कर दिया गया, तुम्हारी दशकों की मेहनत से बने स्वायत्त, स्वतंत्र, आर्थिक समृद्ध होने के संसाधनों को खत्म कर दिया गया। तुम सब सहन करते रहे सिसक सिसक कर।
               तुम्हारा एक गुण इन सब दुखों पर भारी पड़ता है। वो है तुम्हारी राजनीति में रुचि। तुम्हारी राजनैतिक महत्वाकांक्षा का कोई सानी नही है। तुमने कई कीर्तिमान स्थापित किये हैं, कई तोड़े हैं। तुम्हे सरकारों के पक्ष विपक्ष के केंद्र में रहने का हुनर मालूम है। उस केंद्र के घूमते चक्कों की गरारियों से सटी तुम्हारी क्षेत्रीय सरकार, सरकारी तंत्र , मीडिया रेशम के कच्चे धागे काता करती है। तुम और तुमहारे आम लोग टूटते जुड़ते रहते हैं इन धागों की तरह। तुम इस तिलिस्म को तोड़ पाओगी कि नही ? तुम्हारे आस पास के शहरों में, जनपदों में ऐसे ही कुछ मिलते झूलते गुण दोष होंगे। पर भीतर की ऊब, छटपटाहट, बेचैनी को तुमसे बेहतर कौन जानता होगा मेरी हरदोई ?

तुम्हारा शुभचिंतक
प्रभात

अपने शहर के नाम एक ख़त, जो कभी अपना नही लगा  !

शनिवार, 26 अगस्त 2017

एक स्कूल से पहाड़ की खिड़की खुली

एक स्कूल से पहाड़ की खिड़की खुली

शहर के बीचो बीच नगर पालिका की कुछ एक दुकानों में चलते स्कूल को जब शहर से 4 किलोमीटर दूर ही सही बड़ी सी इमारत मिली, तो बच्चों के भीतर स्कूल और माँ बाप के लिए फक्र के बांध टूट गए। बड़ी सी इमारत, बड़े से दो ग्राउंड आगे पीछे, ट्वायलेट, प्रिंसिपल ऑफिस, स्टोर रूम, असेम्बली एरिया और न जाने क्या क्या। पर इमारत की भव्यता, बस से बच्चों और टीचरों के साथ लंबी दूरी तय करने का सुख कुछ ही दिन का रहा। फिर वही, एक के बाद एक क्लास, हिंदी, इंग्लिश, संस्कृत,मैथ्स, साइंस, जियोग्राफी, सोशियल साइंस...बीच में इंटरवल।
       टीचरों में डबराल, थपलियाल, भट्ट, जोज़फ़, जोसलिन, जोजो, यादव, पांडेय,त्रिपाठी...आदि आदि। पहाड़ी, दक्षिण भारतीय नाम और उनके तेवर हम बच्चों के लिए किसी दूसरे ग्रह के लगते थे। दक्षिण भारतीय नाम के हम बच्चे आदी थे। पर डबराल, थपलियाल उपनाम बच्चों में हमेशा चर्चा में रहते। देहरादून की संस्था श्री गुरु राम राय पब्लिक स्कूल और जनपद हरदोई के लोकल मैनेजमेंट के बीच की राजनीति टॉप मैनेजमेंट से होते हुए टीचरों से छन के बच्चों तक आ ही जाती। संस्था की कोशिश रहती पहाड़ से आये हुए टीचर ज्यादा रहें, और लोकल मैनेजमेंट की कोशिश कि वो कम से कम रहें। खेमे बाजी का सिलसिला हाईस्कूल इंटर तक रहता। संस्था द्वारा समय समय पर ग्राउंड रिपोर्ट जानने के लिए एक टीम देहरादून से आती, जिसे लोकल मैनेजमेंट कुछ कुछ वैसे ही सजा के दिखा देता जैसे कार बाजार में थर्ड हैंड कार।
    पर इन सब के बीच कुछ कुछ जबरदस्ती सी पढ़ाई लिखाई के इतर एक सपना हर बच्चे के अंदर पलता था। वो था पहाड़ों की गोद में बसे देहरादून में आयोजित होने वाले बोर्ड के इम्तिहान। चूंकि मैंने अपने जीवन में कभी पहाड़ नही देखे थे, उन पहाड़ी टीचरों के नाम, गुनगुनायी गयी पहाड़ी धुनें, पहनावे उड़ावे, रहन सहन देख के पहाड़ के प्रति हमेशा कौतूहल रहा। आठवें तक ये लगता था, कि इतने महंगे स्कूल में हम इतने सालों तक टिक भी पाएंगे या नही। पर आठवां, नवाँ पार होते रहे। पढ़ाई से हमेशा छत्तीस का आंकड़ा रहा। फिर भी हर महीने दी जाने वाली फीस धक्का देती रहती थी पीछे से। बोर्ड का हौवा हम सब के ऊपर था। पर उस हौवे को हल्का करने वाला पहाड़ की गोद में एक महीने का प्रवास ज्यादा बलिष्ठ था। शायद ही देश के किसी भी अन्य स्कूल के बोर्ड इम्तिहान बच्चों के लिए इतने रूमानी तरीके से आते हों। सीनियर्स की फेयरवेल पार्टी में उस एक महीने के प्रवास के सैकड़ों किस्से होते । बोर्ड की धुकधुकी के बीच वो समय आ ही गया एक दिन।
      वैसे जनता और दून एक्सप्रेस अनाउंसमेंट और उसकी धड़धड़ाहट कानों में गूंजने लगी थी बहुत दिनों से। बेड होल्डाल, सूट केस में अलग अलग विषयों की प्रतिनिधि किताबें,माँ के हांथों बनाया हुआ नाश्ता, और ठंड के कहकहों से बचने के लिए गर्म कपड़े। स्टेशन पर हर बच्चा छोड़ने वाले अभिभावकों के हाँथ से छूट कर ट्रेन में चढ़ते ही बड़ा हो जाने वाला था। मेरे लिए पहाड़ जैसे रास्ता देख रहा हो, मैं उससे मिलकर बड़ा होना चाहता था। ट्रेन छूट चुकी थी, ट्रेन के भीतर बर्थ के साथ साथ साथियों की शैतानियां, अल्हड़पन खुलने लगा था। टीम को लीड कर रहे दो अदद टीचरों के भीतर भी कुछ खुला था। वो उतने सहज कभी नही महसूस हुए। तयशुदा रतजगे के बाद हरिद्वार, रायवाला, डोईवाला...गुजरते गए...एक के बाद एक। पीछे पहाड़ का बैकग्राउंड अभी भी फोटो स्टूडियो के पर्दे की तरह लग रहा था। देहरादून स्टेशन पर खिली हुई धूप ठंढ का हल्का दुशाला ओढ़े स्वागत करती है। किसी एक टीचर ने लाद दिया था हम कुछ चुनिंदा लड़कों के कंधों पर लड़कियों का जरूरत से ज्यादा भारी सामान। सामान के साथ टीचर की कुटिल मुस्कान और लड़कियों का खिलखिलाकर खाली हाँथ चलना उस दिन रेसिस्ट नही लगा। हम उस हॉस्टल पहुंच चुके थे। जहाँ हमारे भविष्य का मील का एक पत्थर आकार लेने वाला था। कई कमरों के बीचो बीच आंगन में रखी टेबलों पर मेरठ, हरदोई व अन्य शहरों के बोर्ड लगे थे। अपने शहर की टेबल पर सुबह का नाश्ता, दिन का लंच और रात का डिनर समयानुसार। दिन भी बिना सोये ही गुजरा वहाँ की आबो हवा से परिचय के साथ। रात में कमरे की बत्ती जैसे ही बंद हुई, तो खिड़की से दूसरी दुनिया की बत्तियां जगमगाने लगीं। सामने टिमटिमाता मसूरी सजा था, खिड़की की आयताकार प्लेट में। कमरे के भीतर लाइन से लगे सफेद बिस्तर की कतार में मेरा तेरा, यहां वहाँ से सरहदें खींची जा रही थी। मैं अपना बिस्तर खो चुका था। किताबें खो चुकी थीं। लगभग महीने भर के पहाड़ प्रेम ने बोर्ड एक्ज़ाम की सफलता में असफलता का एक दाग तो दे दिया था, पर कम्पार्टमेंट की शक्ल में पहाड़ से मिलने का दूसरा मौका भी दिया।
       आज लगभग 20 सालों बाद शाम के वक़्त स्कूल बंद था, पर असेम्बली ग्राउंड में पुराने बच्चों का शोर था, उन टीचरों की डांट थी, ..प्रिंसिपल ऑफिस में नाक पर चश्मा, हाँथ में पुलिस वाला रूल लिए प्रिंसिपल पी ए जोज़फ़ से गुलज़ार था। मैं स्कूल से पहाड़ की पहली मुलाकात के सफर में था।

बुधवार, 23 अगस्त 2017

मम्मा.....पापा की रेल टूट जाएगी क्या ?

4 साल का बच्चा बीती शाम से ही विचलित था, मैं अक्सर ट्रेन से लखनऊ और हरदोई के बीच यात्रा करता हूँ। लिहाज़ा  वह मां से बार बार सवाल करता "पापा की रेल टूट जाएगी", माँ कहती नही टूटेगी, इस सवाल का पीछा करता दूसरा सवाल , क्या पापा की ट्रेन प्लास्टिक की है ? बच्चे के लिए इस दुनिया में प्लास्टिक सबसे मजबूत द्रव्य है। माँ उत्तर देती है नही रेल लोहे की होती है, इसलिए नही टूटेगी। बच्चा फिर सवाल करता है लोहे की है फिर कैसे टूट गयी रेल....मम्मा....? बच्चे के दिमाग में टीवी, अखबार में रेल के आड़े तिरछे डिब्बों की तस्वीर नाच रही है, और उन तस्वीरों में उसका पापा दबा कहीं फंसा पड़ा है, यह दृश्य उसके गले में फंसा उसका गला बैठाए दे रहा है। देर रात जब घर पहुंचा तो पता चला उसकी बेचैनी...बताया गया कितनी मुश्किल से वो सो पाया। ऐसे ही न जाने कितने बच्चों की नींदें उड़ी होंगी, कितनी माओं को झूठ का सहारा लेना पड़ा होगा। पर हादसों का क्या...आंखें भी खोलते हैं, और कमियों पर पर्दा डालने की हिम्मत भी दे देते हैं।
     मानस रेल के लिए बचपन से ही दीवाना है, मुझे डर है कि हादसों की तस्वीरें उसके दिमाग में रेल के लिए नफरत न पैदा कर दें। एक जहाज लिया था परसों...अपनी ऑफिस टेबल पर रखने को,सोचा बच्चे को दूंगा। रेल की टूटी तस्वीर से दिमाग हटेगा। जब उसको जहाज दिया...उसका पहला सवाल था, पापा ये जहाज प्लास्टिक का है ? मैंने कहा लोहे का।

एक माह में दो रेल हादसों के बाद।

मंगलवार, 22 अगस्त 2017

The wheels of "KHELA" / द व्हील्स ऑफ "खेला**




पात्र परिचय.......!
दो हम उम्र बच्चियां, एक जमीन पर माइक साधे, दूसरी चार बांसों के सहारे 10 फुट की ऊंचाई पर हवा में 30 मीटर रस्सी पर करतब दिखाती। एक सी भेषबुषा, दो चोटी...माथे पर छोटी सी बिंदी, पतले से होंठों पर लिपस्टिक, हांथों में प्लास्टिक की रंग बिरंगी चूड़ियां, लाल रंग का कुर्ता और गज भर की मुस्कान लिए गजब की चुस्ती फुर्ती। उनके साथ एक युवा महिला जो खेला के सुरक्षित होने पर अपनी पारखी नज़र रखती है।

आकर्षण
(अलग अलग खेला के लिए अलग अलग फिल्मी गाने भोम्पू से बजते हैं, दोनों बच्चियों के बीच लोक भाषा में संवाद भी लय बद्ध कोई संगीत सा बजता है। बच्चियों के करतब हैरान करने वाले होते हैं, जो बिना संगीत के नही हो सकते, पूरा खेला आंखों, कानों, दिल को बांधे रखता है)



******* खेला शुरू *******

संवाद...
* नीचे माइक पकड़े लड़की : खेला दिखाएगी किया ?
- ऊपर रस्सी पर चलती लड़की : हाँ  दिखायेगीया...रस्सी पर चलकर दिखायेगीया...खड़े होकर झूल के दिखायेगीया...!

खेला - 1
(दोनों हांथों में बांस से संतुलन बनाते हुए, हवा में रस्सी पर इधर से उधर चलती,  कभी दाएं बाएं, कभी ऊपर नीचे...पैरों के अंगूठे और उंगली की पकड़ से रस्सी पर झूलती है)
--------------------

संवाद....
* अब कौन सा खेला दिखाएगी ?
- कलश वाला दिखायेगीया...!
* खेला में पास हो जायेगीया, कलश तो नही गिरायेगीया ?
- नही गिरायेगीया, पास हो जायेगीया...!

खेला - 2
(सर पर पांच कलश रखे हुए, लड़की दोनों हांथों बॉस से संतुलन बनाते हुए रस्सी पर चल के खेला पूरा करती है)
-----------------------

संवाद....
नीचे माइक वाली लड़की : पास हो गईया...! अब कौन सा खेला दिखायेगीया...?
ऊपर रस्सी पर चलती लड़की : चप्पल वाला दिखायेगीया !

*खेला में पास हो जायेगीया ? खुद तो नही गिरेगिया..?
- पास होकर दिखायेगीया..नही गिरेगिया...!

खेला - 3
(सर पर पांच कलश रखे लड़की चप्पल पहने रस्सी पर संतुलन बनाते एक छोर से दूसरे छोर पर पहुंच कर वापस आती है, इस बार चप्पल होने के कारण पैर के अंगूठे की पकड़ रस्सी पर नही है, जो और कठिन है)
-------------

संवाद....
* अब कौन सा खेल दिखायेगीया ?
- थाली वाला दिखायेगीया..!
* पास होकर दिखायेगीया, थाली तो नही गिरायेगीया ?
- पास होकर दिखायेगीया...!

खेला - 4
(सर पर पांच कलश, ऊपर हवा में लटकती रस्सी के ऊपर थाली, थाली में दोनों घुटनों के बल लड़की बांस पकड़े संतुलन बनाती है, दोनों पैरों को रस्सी से सटाये, पैरों के अंगूठे और उंगली से रस्सी को फंसाये आगे की ओर सरकती है। 40 मिनट में 30 मीटर लंबी रस्सी के एक छोर से दूसरे छोर पर थाली से सरकती है )

-------------
संवाद...

* पास हो गईया...अब कौन सा खेला दिखायेगीया...?
- साइकिल के पहिये वाला खेला दिखायेगीया...!
* पास होके दिखायेगीया, पहिया तो नही गिरायेगीया ?
- पास होके दिखायेगीया...!

खेला - 5
(सर पर पांच कलश, ऊपर रस्सी पर बांस से संतुलन बनाते हुए दोनों पैरों में साइकिल के पहिये की रिम फंसाये, पैर के अंगूठे और उंगलियों के सहारे पहिये को रस्सी पर आगे ढुंगाती है, 20 मिनट में रस्सी के एक छोर से दूसरे छोर पर)
--------------

संवाद...

* पास हो गईया...बहादुर लड़की हइया....सर्कस खूब दिखाईया...! आंटी, अंकल, भैया, बाबा का खूब पसंद हइया...!
सब ने 10 - 20 रुपइया दिया...सबका लाखों रुपइया का फाईदा हो, हम गरीबन की यही दुआ...!



(खेला खत्म होता है, सिमट कर साइकिल पर सवार दूसरी जगह के लिए निकल जाता है)

शुक्रवार, 18 अगस्त 2017


आओ कोई तस्वीर निकालें

थोड़ा पास आओ
मुस्कुराओ
थोड़ा और...
थोड़ा सा और
बस बस इतना ही
क्लिक...!

बाबा यहां बैठो
खेत सूखा है यहां
ऊपर देखो दहकता सूरज
दायां हाँथ माथे पर
बस बस ऐसे ही
क्लिक...!

लड़की की माँ कहाँ है ?
पास बैठालो बेचारी के
बलात्कार है न ये
बाकी सब थोड़ा किनारे
बस बस ठीक है
क्लिक...!

उम्म...सड़क जाम !
न न इस बार
बस फूंक दो
वरना फ्रंट पेज तय नही
छिछ...छिछ शुरू हो जाओ (इशारों में)
बस बस तैयार हैं हम
क्लिक...!

नेता जी
सीढ़ियों पर ही रहें
समर्थक जिंदाबाद
नेता जी, विक्ट्री साइन...वी...वी
बस बस परफेक्ट
क्लिक...!

#विश्व फोटोग्राफी डे पर, फोटो जर्नलिस्ट की डायरी ।
तस्वीर : प्रभात सिंह
 कलाकार 

वो चित्रकार है
-----------------
उसकी पेंटिंग के फ्रेम में हर रंग, हर छोटी बड़ी आकृति कुछ न कुछ कहती है, वो जब अपने हाँथ में पेंट ब्रश लेता है तो सब अपने आप ही बनता चला जाता है, वो अपने अंदाज़ से कैनवास पर एक बिंदी भी रख दे तो कहानी हो जाती है। वो अपने फन में इतना माहिर हो गया है कि अपनी उँगलियों की पोरों की बारीख रेखाओं को ब्रश बना लेता है। पेंटिंग एग्जीबिशन में उसकी पेंटिंग को लोग बिना छुए, बिना मोल तोल किये मेहेंगे दामों में हांथों हाँथ खरीद लेते हैं। वो उतनी ही पेंटिंग बनाता है जितनी बिक जाएँ। उसकी पेंटिंग में प्रेम का उन्माद होता है, विरह की पीड़ा होती है, गरीब का सहन होता है, मजदूर की मेहनतकश मांशपेशियां होती हैं, भूखे की अंतड़ियां होती हैं, तितलियाँ होती हैं, बादल होते हैं मौसम होते हैं। वो अपने आस पास रहने वाले किसी भी व्यक्ति से सीधे संवाद में नही है वर्षों से। उसकी जुबान उसके पेंट ब्रश में है, उसकी आंखें इंच बाई इंच का फ्रेम देखती हैं। उसके करीबी उसे मृत घोषित कर चुके हैं। पारखी नज़रें उसे जिंदा कहती हैं। वो खुद को तभी जिंदा महसूस कर पाता है जब उसके हाँथ में पेंट ब्रश हो !

वो शिल्पकार है
-------------------
उसके शिल्प में अजीब सा आकर्षण है, उसकी बनायीं हुयी कलाकृतियों में जान होती है, लगता है कि वो कलाकृतियां दुःख, सुख, क्रोध, शान्ति को समेटे हुए हंस पड़ेंगी, रो पड़ेंगी, चीख उठेंगी, गहरे मौन में चली जाएँगी। दरअसल वो शिल्पकार नहीं है जादूगर है जो मिट्टी में, पत्थरों में, लकड़ियों में धातुओं में किसी एक तरह के भाव डाल कर जड़ कर देता है, जब हम उस भाव में होंगे तो हमें उस भाव की कलाकृति में अपनापन महसूस होगा। हम उनसे बात करेंगे अकेले में। उसकी कलाकृतियों में देंह के उभार होंगे, तीखे चीख चीख के दिखाने वाले नयन नक्श होंगे, मुद्राएं होंगी, दो शरीर के सम्बन्ध होंगे, कोई अदृश्य शक्तियां आकृति में ढली होंगी। वो शौकीनों की दुनियां में सज जाएँगी, कुछ कुछ वैसी ही आकृतियों के बीच। उन्हें स्पर्श किया जायेगा, महसूस किया जायेगा। उस कोने तक जो भी पहुंचेगा वो उनकी चर्चा करेगा, शायद विमर्श भी करेगा, जहाँ वो रखी होंगी। वो दुनिया की हर चीज़ को आकार दे सकता है। केवल अपनी परछाइयों के अलावा। उसके हाँथ औजार हो गए हैं। वो अंदर से बेहद कठोर है अपने प्रति। 

वो कवि है
-------------
उसे भावों को शब्दों में पिरोना बखूबी आता है। वो जो देखता है, सुनता है उसे अपने पूर्वानुभव से तर करता है, महसूसने के अव्यक्त बीज से व्यक्त शब्दों की फसल खड़ी कर देता है। दुनिया में घट रहे सीन उसकी शब्दरचना में दिख रहे होते हैं। उसकी शब्द रचना में वो ताकत है कि जैसा वो दिखाना चाहे दिखा सकता है। कभी प्रेम को मखमली ख्वाब बना दे तो कभी काँटों का श्रृंगार । कभी क्रान्ति को महज़ घटना तो कभी घटना को ऐतिहासिक कृत्य। उसके शब्दों से आंसुओं की धार नदी भर देती है तो उन्हीं आँखों में रेगिस्तान खर खराने लगता है, वो शब्दों से खेलता है और कहता है कि शब्दों पर मत जाओ, उसके पीछे के अनकहे को समझो, मर्म को महसूस करो। उसके लिखे को समझने के लिए उतनी ही ऊष्मा, नमी चाहिए जितना उन रचनाओं को अंतिम रूप देते समय भरी गयी होगी।
शब्दों की उस जादू नगरी को कोई उसी दर्जे या उन्नीस बीस जादूगर समझ सकता है। उसके शब्द शब्द संसार में विचरते हैं,पढ़े जाते हैं, सुने जाते है। शब्दों के व्यूह में उसे समझ लिया जाना चाहिए। जो शब्द नही पढ़ पाता वो उसके लिए मृत है।

वो गायक है
----------------
उसकी धुन, उसके संगीत में नशा है, वो जैसे ही कोई धुन छेड़ता है। मन में तरंगें उठने लगती हैं, उसकी धुन और साज़ों की महफ़िल समां बाँध देती हैं। भावों के रथ पर बैठा कर किसी हसीन, तो कभी उदास दुनिया का एहसास कराकर वापस फेंक देती हैं, जहाँ से सुनने वाला आया हो। वो धुनें कानों में बजती रहती हैं। उनमें कहा गया लहराता हुआ सुनने वालों के नर्म गर्म एहसासों को सहलाता रहता है। उनमें दर्द भरे जाते हैं, 



लौट आये खुदा खुदा करके !


कलाकार पानी की तरह घुलनशील न हो, अपनी कला को शिद्दत से दिखाने का ताब न हो उसमें,जो उसने जना है एक लंबे अरसे तक जूझने के बाद उसको व्यक्त कर पाने में अक्षमता हो, कलाकार की उस कला के कद्र दानों से आंख मिलाने की हिम्मत न हो... ऐसे कलाकार किसी रटी रटाई स्क्रिप्ट को बिना संवेदनाओं के साथ मात्र बांचते हुए से नज़र आते हैं। और चाहते हैं कि महफ़िल उनके निशाँ को सदियों तक ढूंढे।
        ये गुस्सा है एक कला प्रेमी का...उन तमाम कलाकृतियों के पीछे की यात्रा को समझने की चाह रखने वाले का..उस कलाकार को कुछ देर हम राह बनाने की इच्छा रखने वाले का...उस कलाकार के प्रति...जिसे अपने ही सृजन पर यकीन नही है। ललित कला अकादमी लखनऊ में लगी एक चित्रकार की सोलो पेंटिंग प्रदर्शनी के दूसरे दिन की शाम का वाक़या है। हॉल पूरी तरह से खाली। दर्शकों के नाम पर केवल दो लोग। प्रदर्शनी में 50 से ज्यादा आर्ट पीस थे। मॉडर्न आर्ट की तर्ज़ पर चटख रंगों से पुती अधिकतर पेंटिंग्स, कुछ फोटोग्राफ्स और कुछ स्केचेज़। उन अधिकतर पेंटिंग्स के बारे में पूछने पर जवाब में केवल दो शब्द "कंटेम्प्रेरी" और "जीवन के रंग" ने कला प्रेमी और कलाकार के पेंटिंग्स से बने गैप को और बढ़ा दिया। परस्पर संवाद में न ही पेंटिंग्स थी और न ही कलाकार। ऊपर से न जाने कहाँ की झुंझलाहट। कलाकार की घुलनशीलता गायब थी।
        कला, आत्म अनुभूतियों को व्यक्त करने की अनूठी शैली है, जिसका प्रभाव आंख और दिमाग तक ही सीमित नही रहता। वो असर छोड़ती है गहरा और दर्शकों/कला प्रेमियों के भीतर धस जाती है, कलाकृतियों के कथ्य को संजोए रखती है। उनकी आंखों की चमक और चेहरे पर तृप्ति का भाव कलाकार को प्रोत्साहित करता है। वरना खाली कैनवास पर रंग भरना कोई चुनौती नही।

हिंदी दैनिक राष्ट्रीय प्रस्तावना के 18 अगस्त 2017 के अंक में प्रकाशित 

सोमवार, 14 अगस्त 2017


हिंदी दैनिक राष्ट्रीय प्रस्तावना के 15 अगस्त 2017 के अंक में प्रकाशित

रविवार, 13 अगस्त 2017


अहसासों के खारे समंदर में इंसानियत
यह बच्चा 6 दिन का है मात्र, जन्म देते वक्त माँ चल बसी। ये बच्चा यूँ पान की दुकान पर फटी आंखों से किसी कमी को न खोज रहा होता। आज इसकी माँ होती तो अपने सीने से चिपकाए घूमती, लाड़ करती दूध पिलाती। माँ के सामने बच्चा चला जाता तो भी चिपकाए घूमती कई दिनों तक। बच्चे को पान वाले ने रख लिया है। कहता है कि ज़ू में भेजते तो बड़े बंदर इसे परेशान करते। इसलिए उसने रख लिया, यहां बच्चे को बांधने की जरूरत नही पड़ी। वो शांत है बहुत। माओं वाले बच्चों जैसा उद्दंड, चुलबुला नही है। वो मान लेगा उस पान वाले को अपनी माँ। पान वाला दुकान के पास किसी को सिगरेट सुलगाने नही देता, इस नन्हे बच्चे की वजह से। ये इंसानियत के अहसासात इंसानियत से भरोसा उठने नही देते। दूध मुहे बच्चे के सामने माँ का चला जाना...धीरे धीरे घाव भर जाते होंगे बढ़ते वक़्त। पर माँ के सामने बच्चे का चला जाना...?

शनिवार, 12 अगस्त 2017

गोरखपुर के अस्पताल में आक्सीजन की कमी के चलते 60 बच्चों की मौत पर खुद और अपनी बिरादरी से सवाल

पत्रकार क्यों बचे जवाबदेही से ?

गोरखपुर की घटना के बाद सरकार कटघरे में है, प्रशासनिक व्यवस्था कटघरे में है, व्यवसायी कटघरे में है और पत्रकार ? चौथा खंभा...? दैनिक अखबार, इलेक्ट्रॉनिक चैनेल, न्यूज़ पोर्टल, सैकड़ों की संख्या में पत्रकार को इस काण्ड में अपनी विफलता दिखती है कहीं ? सी एच सी, पी एच सी से लेकर जिला अस्पताल  - मेडिकल कालेज के गेट, कैंटीन या दफ्तरों पर यह भीड़ झुंड में रहती है। क्राइम के बाद अस्पताल सबसे महत्वपूर्ण बीट मानी जाती है। फिर इतनी पारखी नज़रों से ये चूक कैसे ?...क्यों नही घटना से पहले खामियों की खबरों से हाहाकार मच गया, क्यों इतनी बड़ी खबर स्थानीय संस्करणों के पहले पन्ने पर बैनर की तरह घटना से पहले नही चमकी ? क्यों नही किसी खबर की कॉपी में इतनी धार थी कि शासन प्रशासन मजबूर हो जाता उस खामी को दूर करने पर।
       प्रदेश के मुख्यमंत्री का गोरखपुर अस्पताल दौरा केवल सरकार और जिला व अस्पताल प्रशासन के लिए महत्वपूर्ण नही था, पत्रकारों के लिए भी उतना ही था। उतनी ही जिम्मेदारी, उतनी ही लापरवाही, उतनी ही फिरी आंखें पत्रकारों की भी है, जो दिन के कम से कम 4 घंटे अस्पताल में बिताता है। सरकार, अधिकारी, कर्मचारियों, ठेकेदारों की बदली होती है, पर बीट का रिपोर्टर सालों साल वहीं रहता है, बढ़ता भी है तो उसकी नज़र और पैनी होती है। पर पत्रकार कहीं न कहीं समझौता करता है, कुंद हो जाता है।
        अस्पताल की हर सुविधा पर उसका हक़ आम जनता से पहले बन जाता है। अस्पताल की ठेकेदारी में उसका हिस्सा किसी न किसी रूप में मिल ही जाता है। बीट का रिपोर्टर अस्पताल की रग रग से वाकिफ होता है। क्यों नही वरिष्ठ/तेज़ तर्रार/तोपची/कलम उखाड़ पत्रकारों में से किसी एक कि आँखों में यह कमी किरकिरी नही बनी ?...हम बतौर पत्रकार इस जिम्मेदारी से बच नही सकते। हम हर घटना के बाद सरकार, प्रशासन, जनता को आइना दिखाते हैं और उस आईने के पीछे रह कर बाइज़्ज़त बरी हो जाते हैं। हमें ऐसी घटनाओं के बाद कुछ महत्वपूर्ण छूट जाने की ग्लानि तक नही होती। क्यों नही ऐसा महसूस होता कि हाँ उस जगह पर था पर ये खामी नही सूंघ पाया, ऐसा कुछ लिख नही पाया।
           क्यों कि हम उसी सिस्टम के पहिये हो जाते हैं, सिस्टम की खामियों से उपजे संकट के बाद उसी सिस्टम के प्यादों को फांसी पर चढ़ा देने की बात करते हैं। "खबर का असर" का असर दूसरे दिन के प्रकाशन में दिखता है, बेअसर खबर का कोई जिक्र नही होता। हमारी खबरें सिस्टम की तरह बासी हो चुकी हैं, अपनी धार खो चुकी हैं। हम उतने ही लापरवाह हैं, गैर जिम्मेदार हैं जितना सरकार और प्रशासन।

तस्वीर: सांकेतिक (साभार गूगल से)

बुधवार, 9 अगस्त 2017


                                "मियां जान"

पिछली बकरीद "सबा करीम" का जिक्र हुआ था। इस बकरीद "मियां जान" की बारी है। मियां जान बेहद रौबीले हैं। कद काठी लंबी गठीला है। इन्हें मालूम है इस बकरीद अल्लाह की नज़र में ज़िबह होना है। पर तुर्रे में कोई कमी नही है। इनका हुनर और बेलौसपन इन्हें अन्य से अलग पहचान देता है। दो पैरों पर चलने के शौकीन हैं ये शौक को इन्होंने आदत में शुमार कर लिया है, दीवार पर चढ़ने की कोशिशें हमेशा नाकाम रहती हैं हालांकि मुसलसल कोशिशें जारी रहती हैं।
      इनके रहबर दो खसी ख़रीद के लाये थे। इनके नयन नक्श, अदाएं और फुर्ती अल्लाह को बेहद पसंद आएगी। लिहाज़ा ज़िबह की कतार में अव्वल का मुक़ाम मियां जान को हांसिल होगा। मियां जान को क़त्ल की तारीख मालूम है, इसलिए वो ज़िहादी हो गए हैं। जिहाद के मायने होंगे किताबों में, ज़हनों में अलग अलग। क़त्ल की तारीख मुकर्रर हो पर जीने की छटपटाहट, जियाला पन कई लोगों की ज़ुबान की लज़्ज़त बढ़ा दे। इससे बड़ा ज़िहाद और क्या होगा भला। मियां जान अपनी खूबसूरती के चलते रहबर की चौखट पार कर मोहल्ले की आंखों का सुरमा हो गए
हैं। अल्लाह को भी खूबसूरती पसंद आती है। मियां जान की आंखों में खौफ नही है, जी भर जी न पाने का मलाल नही है। ज़िन्दगी छोटी ही सही जीने के सलीके से बनती बिगड़ती है। मियां जान को दोबारा देख पाना आंखों में खारा समंदर भर लेना है। दुआ है मियां जान ज़ुबान की लज़्ज़त भर ही न रह जाएं ज़िन्दगी के सबक बन जाएं।

तस्वीर : इठलाती मियां जान की एक सेल्फी

सोमवार, 7 अगस्त 2017


खलीफाओं का बिरहा

पन्ना लाल ख़लीफ़ा एक हाँथ में गमछा और दूसरे हाँथ में माइक पकड़े पहले लंबी तान लगाते हैं। फिर मंच के नीचे बैठे रमेश ख़लीफ़ा, मुन्नी लाल ख़लीफ़ा से बिरहा गाने की इज़ाज़त लेते हैं। अपने सहयोगी नगाड़े पर तैयार बाबा की सहमति से शुरू हो जाते हैं बिरहा गाने। पन्ना लाल ख़लीफ़ा दिन में चाट बताशे का खोमचा लगाते हैं और अक्सर शाम को बिरहा के मंच के बेताज बादशाह हो जाते हैं। वो बिरहा की विशेष धुन में गांधी- गोडसे, नेहरू-इंदिरा, शंकर पार्वती, पाकिस्तान - चाइना की चालाकियां, युद्ध के दृश्य, कुरान, गीता, बाइबल, समेत तमाम किस्सों को सुनाते हैं। कुछ तथ्यों के आधार पर कुछ अपनी गढ़ी हुई कहानियों पर। बीच बीच में गमछे को झटकते हुए, सामने कुर्सियों पर बैठे दर्शकों की आंख में आंख डाल के बैठते हैं और खड़े होते हैं जिससे कहानी का रोमांच बना रहे, और वो अपनी इसी अदा के लिए पहचाने जाते हैं । बिरहा गाते वक़्त आनंदित दर्शकों के इनाम का सिलसिला जारी रहता है।


    ....और नक्कारा बजता है
इस मंच पर सबसे महत्वपूर्ण होता है नगाड़ा वादक। जिसे नक्कारा भी कहते हैं। नक्कारे पर बाबा का जोश दर्शकों और ख़लीफ़ा की आंखों में ,थिरकन में साफ दिखता है। बगैर नक्कारा इस परंपरागत बिरहा का गायन संभव नही। बाबा बिरहा के तोड़ के बीच में सिगरेट जला लेते हैं, कभी एक घूंट में ठंढी चाय पी डालते हैं, तो कभी हीटर की आंच में सूखते नगाड़े को बदल लेते हैं, पर गायन की लय टूटने नही देते। बाबा के मुंह में भांग चढ़ी पान की गिलौरी उनके जोश को ठंढा नही होने देती। कड़..कड़..कड़..कड़म..कड़म..कड़..कड़..कड़ की झन्नाटेदार ताल और गायक की त्योरियों का तालमेल इतना जबरदस्त होता है, कि आये हुए इनाम का हक बिना मांगे दूसरे के पास चला जाता है। नक्कारे वाले कि सेवा सत्कार में एक दो लोग स्वेक्षा से लगे रहते हैं।

**********

लोक संगीत की तमाम विधाओं में बिरहा अपनी खास पहचान रखता है। पर इस दम तोड़ती बेहद पुरानी लोक कला को ज़िंदा रखने के लिए पुराने कलाकार अपनी दम पर इन्हें जिंदा रखे हुए हैं। ताज़्ज़ुब की बात है कि शहर लखनऊ में यह कला इन कलाकारों की वजह से सांस ले रही है। शहर के बीचो बीच निशातगंज में अक्सर बिरहा की महफिलें सजती हैं। लोगों में अभी भी इस लुप्त होती लोक कला के लिए प्यार है, उत्साह है और चाह है। खस्ताहाल जिंदगी की थकावट भरी शामों में बिरहा की शामें उनको तरो ताज़ा कर देती हैं।

      ....महफ़िल जो ख़त्म होने पर हिसाब न मांगे
बिरहा की महफ़िल सजने से पहले बाकायदा हाँथ से लिखे हुए पर्चे जगह जगह चाय, पान की दुकानों पर लगाये जाते हैं। नगाड़ा, दो या तीन तख्त, माइक/साउंड सिस्टम, एक हीटर (नगाड़े को गर्म करने के लिए) हैलोजन, रात की चाय का इंतज़ाम...बस....शाम की महफ़िल बिरहा के खलीफाओं के लिए तैयार। पुराने सुप्रसिद्ध बिरहा गायकों को ख़लीफ़ा कहा जाता है। ख़लीफ़ा मंच से एक दूसरे को मुंह तोड़ जवाब देते हैं, यहाँ तक गालियां भी गा सकते हैं। पर मंच के नीचे महफ़िल के बाद बेहिसाब इज़्ज़त देते हैं। खलीफाओं के अलग अलग घराने होते हैं, ये घराने अन्य जनपदों के भी हो सकते हैं और मोहल्लों के भी। ख़लीफ़ा की जीत और उसका रुतबा उसके दूसरे खलीफाओं को दिए गए करारे जवाब और देर तक मंच पर डटे रहने पर होता है। जिसका जितना करारा जवाब वो उतना बड़ा ख़लीफ़ा। जुगलबंदी में एक ख़लीफ़ा को जवाब देने में 2 घंटे तक लग सकते हैं। जो ज्यादा बेहतर तरीके से मंच लूट ले वो खलीफाओं का ख़लीफ़ा होता है। उनके अपने नियम हैं, कायदे हैं। न हिन्दू न मुसलमान। ख़लीफ़ा सिर्फ ख़लीफ़ा होता है बिरहा का। न चाट वाला, न मजदूर, न रिक्शा वाला, न मिस्त्री, न मिट्टी के बर्तन बनाने वाला।


गुरुवार, 3 अगस्त 2017


मैं मिट्टी हूँ

मैं मिट्टी हूँ
ताकती आसमान
तुम ऊंची इमारत हो डर के, असुरक्षित से

मिलने आओगे एक रोज़
पहले की तरह बेफिक्र
पर कुछ अलग रंग में, कठोर, टूटे से

मुझसे लिपट जाओगे
बारिश धुल देगी
मेरे गुमान, तुम्हारे डर

हम बह जाएंगे
रिक्त को भरने।

तस्वीर : गोमती किनारे

शनिवार, 29 जुलाई 2017


चाह कर भी ....!

चाह कर भी
न की गईं अनगिनत कॉलें
दर्ज़ होती हैं कहीं ?

नही न !

होती
तो वो वापस आतीं
बेवक़्त बेसाख्ता

आती हैं कुछ एक
सुबह, दोपहर, शाम
मियादी वक़्त पर
दवा की तरह ।।

एक बैग पैक की दस्तक
पहुंचती है तुम्हारे शहर
हर महीने मिलने
दर्ज़ होती हैं कहीं ?

नहीं न !

होती
तो न लौटती
बिना मिले, बे मन

लौटता है बैग पैक
अनखुले कपड़े, अनारक्षित टिकेट
शहर की खुशबू लिए
नई उम्मीद की तरह ।।

महीनों के दरम्यान
हाँ और न का
मूक संवाद
दर्ज़ होता है कहीं ?

हाँ न !

न होता
तो हम, हम न होते
दो किनारों पर तठस्थ

होते हैं हम,बे हम
जलते बुझते
उगते डूबते
दिन और रात की तरह ।।

गुरुवार, 27 जुलाई 2017


भीगने की ज़िद पर हम बड़े छाता लगा देते हैं, न खुद भीगने का साहस जुटा पाते हैं, न बच्चों की भीगने की चाह को एक बार भी पूरा होने देते हैं।कपड़े गीले हो जाएंगे, ज़ुकाम हो जाएगा, बुखार आ जायेगा, अभी नही भीगना, शाम को मत भीगना, दिन में होगी तब भीगना, अगले साल भीगना इस साल इम्तिहान हैं । भीगना उत्सव नही होता हम रूखे सूखे लोगों के लिए। सुरक्षा के लिए हमेशा असुरक्षित रहना हमारा शगल बन गया है।
     भीगने का डर इतना घर कर गया है, कि शदीद इच्छा के बावजूद भी पूरी बारिश निकल जाती हैं एक बार भी भीगने का साहस नही जुटा पाते, मजबूरन फंस जाने पर भीगना अभिशाप सा लगता है। शहर के लोग नाज़ुक हो जाते हैं पर शहर की बारिशें वैसी ही होती हैं । जैसे गावों के गलियारों में, विद्यालय की टूटी छतों पर, हाट बाज़ारों में, खेतों में।
      मैंने इस बारिश एक प्रयोग किया शहर में ही। वो भीगने का डर निकाल दिया, बचने की कोशिशों को किनारे रख दिया। खूब भीगा, सूखा फिर भीगा, भीगा फिर सूखा, यहाँ तक पूरी तरह भीग कर एकदम चिल्ड सिनेमा हॉल में 2 घंटे मूवी देखी, उसके बाद फिर भीगा। इस बार कि बारिश ने मुझे कहीं निकलने से नही रोका, न छाता न रेन कोट। इससे पहले के सालों में बचता रहा, एक हल्की बारिश भी बीमार सी कर देती थी। पर इस बार बारिश खिला देती है। हालांकि न हो तो उदास भी करती है। पर भीगना जरूरी है बेहद, अक्ल के छाते हटा के, भीगना जरूरी है बारिश को समझने के लिए, भीगना जरूरी है प्रकृति को महसूस करने के लिए। बच्चे को भी भीगने दिया पर एतिहाद के साथ।

तस्वीर - मेरे बेटे की

#monsoondiary
असामी मानुष

चाय और टाइगर ग्लूकोस बिस्किट का नाश्ता अभी अभी खत्म हुआ। नीले बार्डर की गुलाबी सूती धोती वाली औरत खिड़की की तरफ घूम के झोले से सफेद पन्नी निकालती है, पन्नी की गांठ हल्की थी, बार बार खुलनी थी लंबे सफर में। औरत पन्नी से दो हरे पत्ते निकालती है, एक सूखा और एक हरा। सूखे पत्ते पर चूने का टीका लगा कर बर्थ के दूसरे छोर पर बैठे उम्रदराज़ शौहर को पकड़ा देती है। झक्क सफेद बनियान, पाजामा और दाढ़ी वाला शौहर अंगूठे से हथेली पर सूखे पत्ते को खूब रगड़ता है, होंठ में दबा कर बैठे बैठे आंखे बंद कर लेता है।
   वो हरे वाले पत्ते में भीगी डली लपेटती है, सूखे हरे पत्ते के टुकड़े के साथ मुंह में धर लेती है। तर्जनी वाली उंगली के पहले पोर से चूना लपेटती है। हरे को चबाते हुए जब जब पोर पे लगे चुने को नीचे वाले दांतों से समेटती है। तब हरा और लाल होता जाता है। वो बारिश के मौसम में ट्रेन की खिड़की से अपने हरे वक़्त को तेज़ी से निकलते हुए देखती रहती है। खिड़की से आती तेज़ हवा उसके सर पर पड़ी ओढ़नी को टिकने नही देती है। वो अड़ी रहती है खिड़की पर ओढ़नी संभालते हुए। ये सफर उसके बाहर देखने का है। उसकी बड़ी होती आंखें ट्रेन की खिड़की से हर वो दृश्य पहचान जाती हैं, जिसे उन्होंने कभी नही देखा।

#monsoondiary
#traindiary

मंगलवार, 25 जुलाई 2017


तू चाहे चंचलता कह ले,
तू चाहे दुर्बलता कह ले,
दिल ने ज्यों ही मजबूर किया, मैं तुझसे प्रीत लगा बैठा।

यह प्यार दिए का तेल नहीं,
दो चार घड़ी का खेल नहीं,
यह तो कृपाण की धारा है,
कोई गुड़ियों का खेल नहीं।
तू चाहे नादानी कह ले,
तू चाहे मनमानी कह ले,
मैंने जो भी रेखा खींची, तेरी तस्वीर बना बैठा।

मैं चातक हूँ तू बादल है,
मैं लोचन हूँ तू काजल है,
मैं आँसू हूँ तू आँचल है,
मैं प्यासा तू गंगाजल है।
तू चाहे दीवाना कह ले,
या अल्हड़ मस्ताना कह ले,
जिसने मेरा परिचय पूछा, मैं तेरा नाम बता बैठा।

सारा मदिरालय घूम गया,
प्याले प्याले को चूम गया,
पर जब तूने घूँघट खोला,
मैं बिना पिए ही झूम गया।
तू चाहे पागलपन कह ले,
तू चाहे तो पूजन कह ले,
मंदिर के जब भी द्वार खुले, मैं तेरी अलख जगा बैठा।

मैं प्यासा घट पनघट का हूँ,
जीवन भर दर दर भटका हूँ,
कुछ की बाहों में अटका हूँ,
कुछ की आँखों में खटका हूँ।
तू चाहे पछतावा कह ले,
या मन का बहलावा कह ले,
दुनिया ने जो भी दर्द दिया, मैं तेरा गीत बना बैठा।

मैं अब तक जान न पाया हूँ,
क्यों तुझसे मिलने आया हूँ,
तू मेरे दिल की धड़कन में,
मैं तेरे दर्पण की छाया हूँ।
तू चाहे तो सपना कह ले,
या अनहोनी घटना कह ले,
मैं जिस पथ पर भी चल निकला, तेरे ही दर पर जा बैठा।

मैं उर की पीड़ा सह न सकूँ,
कुछ कहना चाहूँ, कह न सकूँ,
ज्वाला बनकर भी रह न सकूँ,
आँसू बनकर भी बह न सकूँ।
तू चाहे तो रोगी कह ले,
या मतवाला जोगी कह ले,
मैं तुझे याद करते-करते अपना भी होश भुला बैठा।

उदय भानु

सोमवार, 24 जुलाई 2017


मई 11 
............................
प्रिय जस्टिन,
तुम आये और चले गए, मुझे नही मालूम था कि तुम इतने दिलों की धड़कनों पर राज करते हो। सच पूछो तो मुझे बहुत शर्म आयी कि मैं तुम्हारे बारे में नही जानता। तुम्हारे लाइव कंसर्ट से लगभग एक हफ्ते पहले से यहां की मीडिया ने तुम्हारे बारे में राग "खबरिया" गाना शुरू कर दिया था। मैं तुम्हे डेढ़ अरब जनसंख्या वाले देश के सबसे रंगीले शहर मुम्बई में तुम्हे सुनने नही जा सका। मुझे अफसोस भी नही। क्यों कि मुझे नही पता तुम क्या गाते हो, क्यो गाते हो, किसके लिए गाते हो ? यहां तुम्हारे बारे में खूब खबरें चलीं, तुम्हारी मांग की लंबी फेहरिस्त और आयोजकों द्वारा उन मांगों को पूरा करने के लिए खर्च किये गए 100 करोड़ रुपये। मुझे पता चला कि तुम भारतीय खाने के बहुत शौकीन हो, इसलिए तुम्हारे खाने की थाली में यहां के 20 राज्यों के व्यंजन परोसे जाने के लिए तैयार थे। एक बारगी लगा कि शायद तुम अपने खाने के शौक को पूरा करने आये होंगे !
तुम दुनिया भर के सर्वश्रेष्ठ गायकों में से एक हो। ये देश भी सर्वश्रेष्ठ है, सर्वश्रेष्ठ होने में। दुनिया भर के सर्वश्रेष्ठों ने यहां आकर सर्वश्रेष्ठ होने का सुख लिया है। तुमने भी कहा कि यहां के लोग कूलेस्ट हैं। इतनी गर्मी में कूलेस्ट तो पश्चिम में भी शायद संभव न हो। यहां संगीत का बहुत महत्व है, पैदा होने से लेकर उठावनी तक यहां तरह तरह के गीत संगीत प्रचलित हैं। भारत देश विश्व गुरु होने की कगार पर है, फ्यूज़न यहां की भीड़ को खूब भाता है। तुम बेहद कम उम्र के हो, नौजवान देश को तुम्हारे तरह के लोगों की सख्त जरूरत है। तुम बार बार आते रहना यहां कभी उत्तर प्रदेश में, कभी बिहार में, कभी कश्मीर में, कभी नार्थ ईस्ट में। योग, अध्यात्म, संस्कृति, कला, भाषा, खाना, पहनावा, भूगोल इस देश को एकजुट रखने में फेल हो रहे हैं। तुम्हारे तड़कते भड़कते संगीत से यहां कि युवा धड़कनों को शायद कोई बिना भटकाव की दिशा मिले। ये देश दुनिया के लिए गरीब है पर हमारा दिल बहुत अमीर है। हम हर तकलीफ को नई तकलीफ से कम कर लेते हैं। हम तकलीफ से निकल कर किसी नए तरह के सर्वश्रेष्ठ संगीत में खो जाना चाहते हैं। तुम्हारे लिए तेज़ी से बढ़ती क्रेज़ी युवाओं की धड़कनों से मुझे यकीन हो चला है, कि तुम ही इस युवा देश की जरूरत हो। तुम्हे हम सर्वश्रेष्ठ बनाये रखेंगे ये हमारा दावा है। फिर आना जस्टिन !
तुम्हारी क्रेज़ी फैन फॉलोविंग का फैन
प्रभात सिंह
मुंबई में जस्टिन के शो के एक दिन पहले 

मई 23 
..................
उगना
हरा होना
गिर कर सूख जाना
पत्थर हो जाना
मिट्टी हो जाना
जीना हर शै को
जिंदगी की
मरने से ज्यादा !
........................
दो कदम हमसफर
ऐ शहर ये तुमको हुआ क्या है ?
५ जून २०१७ 

एक और रात नींद को सिरे से ख़ारिज़ करने के लिए आमादा थी। भीषण गर्मी से भट्ठी हुए कमरे में तंदूरी नाइट का खौफ सर पर आग के शोलों की तरह धधक रहा था। खुद से लंबे झगड़े के बाद खाली शाम हाँथ आयी चिल और मस्त रहने की सलाह ने बियर शॉप की राह दिखा दी। दो अदत चिल्ड बियर शरीर और रूम टेम्परेचर को दो घंटे ट्यून करती रही। घूंट घूंट रात बामुश्किल आधा सफर ही तय कर पाई। ख़्वामखां जौं के पानी से उम्मीद लगाई...आधी रात न नींद थी, न बेवक़्त किसी पुकार कि गुंजाइश और न ही नशा। अचानक जेहन में रमज़ान के वक़्त पुराने शहर के रौशन चौक चौराहे याद आये। पुराने शहर ने कई बार पहले भी नींद से छूटे अकेलेपन को भरा है। सोसाइटी के गार्ड की नींद तोड़ने का गिल्ट लिये निकल भागा अपने शहर में दूसरे शहर की ओर। रास्ते भर सड़कें खाली, जाने और आने वाली सड़कों के बीच डिवाइडर पर कतार में सोती सैकड़ों बेधड़क नींद। पुराने लखनऊ की गलियां सोई पड़ी थी। चौराहे पर इक्का दुक्का चाय की दुकान।
राम जाने रमज़ान के वक़्त कभी जश्न में डूबे शहर को अब हुआ क्या है ? अमीनाबाद, चौक, ठाकुरगंज दुकानों के ग्लो साइन बोर्ड चमक रहे थे। सहरी के वक़्त की तैयारियों में बाज़ार गुलज़ार नही था। अवैध बूचड़खाने, कुछ एक किस्म के गोश्त पर पाबंदी के सरकारी फरमान के पर्चे सड़कों, गलियों और चौराहों की हवाओं में चिपके हुए थे। शायद इससे ज्यादा कोई पाबंदी नही लगाई गई। फिर भी एक अजीब सा खौफ है। चौराहों पर पुलिस की जीप के मत्थे पर कई तरह की रंगीन रोशनी आंख टिकने नही दे रही थी।
खामोश पुराने लखनऊ में रूमी दरवाज़ा बुलंद खड़ा किसी याद में डूबा हुआ था। रूमी, इक्के वाले कि शक्ल में सोए हुए थे अपने इक्के (तांगा) पर दरवाज़े के ही पास। सहरी के वक़्त की अज़ान के ऐलान के बाद पुराना शहर निकल पड़ा इबादतगाह की ओर। चिड़ियों की चहचहाट भोर की अगुवानी में पेड़ों को झींके दे रही थी। गाड़ी के दो पहियों में रात लिपटती हुई जा पहुंची नए शहर के लोहिया पार्क में। जहां जॉगिंग ट्रैक पर बेखौफ कदम ताल स्वस्थ हवा को महसूस कर रहे थे। बिना सोकर जागे ही आदतन मोबाइल खोल लिया, दूर कहीं दूसरे देश के शहर लंदन में आतंकी हमले की खबर ने स्तब्ध कर दिया। मोबाइल बंद कर, पार्क में एक झूले की झींक और ठंढी हवा के झोंके ने कुछ देर बहलाये रखा। दो किशोर कूद के झूलते हुए झूले पर सवार हो गए मेरे दाएं बाएं। मोबाइल गेम में खो गए वो दोनों। मेरे पैर जमीन से टिके झूले को झूंक देते रहे।
लवर्स ऑफ फ्लेवर
14 जून २०१७ 
(एक बेहतरीन रोमांटिक ऐड शॉर्ट फ़िल्म )
हरे भरे खेतों से बेहतरीन अनाज की परख, माँ के हाँथ की रेसिपी का अनुभव और लज़ीज़ खाने से दिल में उतरने का हुनर टीआरएस (देव) बखूबी जानता है । लंदन में बीते आठ सालों में जमा खर्च लम्हों के साथ खट्टे हो चुके प्रेम की टीस ढो रही अनुषा से देव कुछ ही मुलाकातों में फिर से प्रेम का फ्लेवर बो देता है। 
*******************
पार्ट -1
अनुषा की माँ के घर में बची खुची तूर दाल का जल जाना, देव का अचानक मसूर दाल के साथ घर में दस्तक देना.... देव का अनुषा को काम वाली समझना , और अनुषा का देव को नमक वाला पानी पिलाना...इस प्यारी दोनों को नजदीक लाती चुहल के साथ देव का बेझिझक बेधड़क रसोईं पर कब्जा कर लेना, अनजान लोगों की पहली मुलाकात, तड़के वाली मसूर दाल से दो प्याज़ा हो चली।
*******************
पार्ट -2
अनुषा से अनु होने तक की कई मुलाकातों का सफर, माँ के न रहने से और तेज़ होना चाहता है। एक रोज़ गरजते बादलों के साथ खुली खिड़की पर अनु की आंखों से माँ की याद बरसने लगती है। इस बार वो रसोई के लिए रवा लाता है। देव और अनुषा की हथेलियां मुट्ठी भर भुने गर्म रवे को लड्डू का आकार देने लगती हैं। दोनों की लिपटती हथेलियां उन्हें दूर किसी दूसरे संसार में ले जाएं उससे पहले देव लड्डू पर किशमिश रख कर उस यात्रा को तोड़ता है, उसे हरे भरे खेत में सीने से लगा अपने होने का भरोसा दिलाता है।
*****************
पार्ट -3
देव दो सरप्राइज़ के साथ याद में खोई अनुषा की खामोशी को तोड़ता है। पहला अनुषा के बालों को उसके मनपसंद फूल जैस्मीन के गजरे से सजा देता है। दूसरा रसोईं के लिए इस बार उसके पास बढ़िया छोले होते हैं। अनुषा की चना मसाला की ख्वाहिश पर दोनों जैसे ही रसोईं की तरफ बढ़ते हैं, गरम मसाले का खाली डिब्बा दोनों की मुलाकातों और अनकही जज़्बातों के सिलसिले को तोड़ने वाला था। देव झट से गरम मसाला लेने बाज़ार की ओर जाता है, जब वापस लौटता है तो अपने ही समकक्ष किसी अन्य आदमी को अनुषा के इंतज़ार में खड़ा पाता है। देव मसाले को उस आदमी के हाँथ में पकड़ा कर दूर खड़ा आड़ से देखता रहता है। अनुषा सजी संवरी देव के लिए उस अजनबी आदमी से लिपट जाती है। अनुषा के हाँथ से बना चना मसाला खुशबू देव की ही दे रहा था। वो भागती है देव के पीछे पर देव निकल जाता है किसी अनाज की तलाश में। अनुषा और उसके हाँथ टिफिन में चना मसाले की खुशबू कैद किये इंतज़ार में जड़ हो जाते हैं ।
**************
टी आर एस(देव) की भूमिका में Manav Kaul
अनुषा की भूमिका में Anupriya Goenka
जून 17 

जब शहर के शहर पहाड़ों की ओर दौड़े चले जा रहे हों, तो क्यों न शहर में ही मिट्टी के टीले को पहाड़, घने शहर के बीच ठहरी नदी के किनारे को किसी घाटी के बीच कल कल बहती नदी, घिरती घटाओं को भरे बादल, कुछ जंगली पेड़ों को चीड़ देवदार, घुमावदार पगडंडियों को घूमते पहाड़ी रास्ते और तेज़ धूल भरी आंधी को बर्फीली हवाएं मान लिया जाए। मान लिया जाए कि ये सब वहीं से आ रहा है, जहां हम जाना चाहते हैं। हां वहां मैं तब जाना चाहूंगा जब वहां कोई नही जाएगा। जैसे अभी यहां कोई नही है।
गुड़िया
************
धक धक करती
खेली जा चुकी "गुड़िया"
सड़क पर
राहगीरों से पूछती
तुमने मुझे
दफनाया क्यों नहीं ?

तस्वीर - रमज़ान की मस्ज़िद के पास बुद्ध बाज़ार की व्यस्त सड़क पर सुन्न कर देने वाले सवाल की।
29 jun २०१७ 

सुनो भीड़,
तुम वही हो न, जो एक गोली, एक चाकू, एक लाठी, एक नोटिस, एक थानेदार, एक नेता, एक सरकारी बाबू, एक धर्म रक्षक से डरते हो और उनके इशारों पर नाचते हो। तुम वही हो न, जो घरों में महीनों गंदे पानी की सप्लाई पर कुछ नही बोलती। तुम वही हो न जो दिन दहाड़े सड़क पर तमंचा लहराते हुए बदमाश को देख कर खिसक लेती है। तुम वही हो न जो किसी गर्ल्स कॉलेज के सामने लड़कियों को स्कैन करती आंखों पर चुटकियां लिया करती हो। तुम वही हो जो घंटों लंबी कतार में इंतज़ार करती देखती है किसी रसूख वाले को कतार के नियम तोड़ते। तुम वही हो न जो सड़क पर मर रहे इंसान, जानवर को देखती हो दया और करुणा के भाव से और च च च...बेचारा कहकर किस्से बना देती हो। तुम वही हो न जो घंटों हज़ारों लाखों की संख्या में हाँथ जोड़े, आंख बंद किये मंद मंद झूमती हो आध्यात्मिक पांडालों में। तुम वही हो न , जो अपना सम्पूर्ण जीवन परिवार के कुछ लोगों की देख रेख, उनकी परवरिश, उनकी आर्थिक सामाजिक सुरक्षा, उनकी ऐशो आराम में झोंक देती हो। तुम वही हो न, जो किसी अपने के अंतिम संस्कार में अधिक से अधिक संख्या में पहुंचती हो और उनके परिवार को ढांढस बंधाती हो। तुम वही हो जो सपनों की खेती देखने जाती हो रैलियों में, तुम वही हो जो धार्मिक स्थलों पर जाती हो अपने बिगड़े को सुधारने के लिए।
ओ भीड़ जब तुम इतना भयभीत रहती हो हर समय, तो तुम्हारे भीतर किसी व्यक्ति को पीट पीट कर मार डालने की हिम्मत कहां से आती है ? कैसे तुम्हारा गुस्सा बेकाबू हो जाता है किसी व्यक्ति विशेष से, किसी घटना से कि उग्र जानलेवा जानवर की तरह टूट पड़ती हो उस पर। कैसे निकाल पाती हो समय अपने व्यस्ततम समय से, सड़क पर न्याय देने का। तुम्हारी खीज तुमको वहशी बना देती है। तुम लाखों करोड़ों की तादात में होते हुए भी डरती हो असुरक्षित महसूस करती हो, तुम्हारे इस डर और असुरक्षा की भावना को भुनाया जाता है।
ओ भीड़ तुम्हे सिर्फ घर और काम करने वाली जगह तक सीमित रहना चाहिए आंख कान नाक बंद करके, तुम्हारा परिवार तुम्हारी ताकत है और वही कमज़ोरी, उतनी ही तुम्हारी जरूरत। तुम कम से कम में जीते आये हो, और उतने में जीने की आदत है। ज्यादा की चाह, उसे हांसिल करने और उसे भोगने की तुम्हे हांकने वालों की है। कोई एक ही क्षेत्र में ताकतवर है भीड़ से ज्यादा। वो एक एक मिलकर तुम्हारा इस्तेमाल करते हैं, तुमको डर के साये में रखने के लिए। तुम डरे रहते हो सरकार से , समाज से, अपने ईश्वर से, खुद अपने ही परिवार से। दीर्घकालिक डर...डर और डर की कुंठा से तुम बेकाबू हो जाते हो, और बनते हो हथियार उन्ही का जो तुम्हे डराना चाहते हैं। तुम्हारे डर से वो भी डर जाते हैं जो इनसे आज़ाद होना चाहते हैं।
भीड़ से छिटका हुआ शुभचिंतक
प्रभात

मैं आ रहा हूं ... #imamdasta

  जो सिनेमा हमारे नज़दीक के थिएटर या ओ टी टी प्लेटफार्म पर पहुंचता है । वह हम दर्शकों को तश्तरी में परसा हुआ मिलता है । 150 से लेकर 600 रुपए...