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रविवार, 24 मई 2020

रोहिणी !

- तुम्हे जाना नहीं है ? रोज रोज देर होने का ताना देते रहते हो ! जैसे मेरी ही वजह से तुम्हे हर रोज दफ्तर के लिए देर हो जाती है .
* जाना है यार ! पर आज थोड़ा लेट जाऊँगा .
- क्यों ?
* क्यों क्या होता है ! अभी नहीं जाना तो बस नहीं जाना. तुमने खाना बना के रख दिया है . तुम्हारा काम ख़त्म . बाकी का मुझपर छोड़ दो .
- कैसे छोड़ दूँ ? मेरी कोई अपनी लाइफ नहीं है क्या ?
* मतलब ?
- मतलब ये कि मैं तुम्हारे हिसाब से चलती रहूँ . सुबह से लेकर देर रात तक . तुम्हारी सुबह की  चाय. तुम्हारा ब्रेकफास्ट , तुम्हारा टिफिन , तुम्हारे माँ बाप का खाना पीना, उनका ख्याल . शाम की चाय . रात का खाना . बिस्तर लगाना . और सोने से पहले कभी तुम्हारा सर तो कभी तुम्हारे पैर दबाना .
* अरे रे रे रे   !!!! तुम बात को कहाँ ले जा रही हो ? तुमसे तो बात करना बेकार है .
(रिषभ झन्न में लैपटॉप बन्द करता है , टिफिन उठाता है और निकल जाता है दफ्तर के लिए )

रोहिणी बाहर का दरवाज़ा बन्द कर के रसोईं समेटने लगती है ... मां के सीढियों से उतरने की आवाज़ सुनकर रोहिणी दौड़ी दौड़ी उन्हें सहारे से उतार लाती है डाइनिंग टेबल तक . टेबल पर नाश्ता लगा के वो अपने कामों में फिर से व्यस्त हो जाती है .
बहू ओ बहू !  ज़रा बाबू जी से भी पूछ लेती नाश्ते के लिए .
अच्छा माँ ...
बाबू जी को अखबार और नाश्ता पहली मंजिल पर बने कमरे में अपने बेड पर ही चाहिए होता .
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उस बन्द घर की चाहरदिवारों की परिक्रमा करते करते रोहिणी के पैर भर आते . अक्सर सिर दर्द की शिकायत रहती  . कूल्हों के बीच रीढ़ की हड्डी अक्सर  चिनग उठती  .एक के बाद एक कामों को निबटाने की उलझन में वो अपना ख्याल कम ही रख पाती  वो ये सब किसके लिए करती ? जवाब एक ही होता " अपने परिवार के लिए !
फिर भी किसी न किसी का मुंह फूला बना रहता . शिकायतें और काम दोनों ख़त्म होने का नाम नहीं लेते. मानों दोनों ने एक दूसरे से अपनी अपनी सुविधानुसार संधि कर रखी  हो .

इधर कुछ दिनों से रिषभ का बिगड़ा मिजाज रोहिणी को खाए जा  रहा था . बिना पूछे कोई काम करो तो कहेगा ' पूछा क्यों नहीं ? .. पूछ लिया तो मुझसे क्यों पूछ रही हो . छोटी छोटी बातों में तुनुकमिजाजी शरीर का खून पतला कर देती है . उसने अब सोचना कम कर दिया है . सोचने से क्या होता है सिवाय खुद का कलेजा जलाने  के . उसे मालूम है कि उसे जैसे तैसे किसी भी तरह अपने आप को काम करने लायक बनाए रखना है . शायद जिम्मेदारी इसी को कहते हैं . जो हर स्त्री अपने कन्धों पर न चाहते हुए भी उठाये रखती है . पति की घर के प्रति बेफिक्री भी शायद इसी जिम्मेदारी की परछाईं में पलती हो .

रोहिणी दोपहर का सारा काम ख़त्म कर के नहाने चली गयी . उसके पीछे कभी फोन की घंटी तो कभी डोर बेल घनघनाती रही  . माँ बाबू जी के जवाब दे चुके घुटनों ने उन्हें ऊपर वाले कमरे में बाँध कर रख दिया था . बार बार उन्हें नीचे - ऊपर, उतरने -  चढ़ने की हिम्मत नहीं पड़ती . रोहिणी की  बे - हिसाब खातिरदारी ने उन्हें और  ठौर ठीहा कर दिया था .  रोहिणी चाह के भी बीच नहान में घंटियाँ  अटेंड  नहीं कर सकती थी . मगर जेहन में वो घंटियाँ लगातार बजती रही . नहाने के बाद वो फोन में पड़ी मिस कॉल चेक करती हैं . उसमें 4  मिस कॉल रिषभ की, 1  उसके भाई की और एक किसी अननोन नंबबर से थी .
  फोन स्क्रीन पर स्क्रोल करते हुए भाई के पास कॉल बेझिझक लग जाती है . उधर से उत्साह से भरी खनकती आवाज़ में "दी हैप्पी एनिवर्सरी" सुनाई दिया . थैंक यू भैया !  मुस्कुराते हुए अचरज से पूछती है भाई तुम्हे कैसे याद रही  मेरी एनिवर्सरी ? .. तुम्हे  मेरा जन्मदिन तो याद नहीं रहता .  क्या दीदी तुम भी ! शादी के बाद से जन्मदिन की छुट्टी हो जाती है . बस वेडिंग एनिवर्सरी रह जाती है . जोर से ठहाका लगाकर वो पूछता है " और क्या ख़ास हो रहा है दीदी आज के दिन ? कुछ नहीं भैया बस रोज का रूटीन ... और बचा ही क्या है जीवन में .
खैर ! तुम सुनाओ कैसी चल रही है तुम्हारी पढाई और घुमाई ? बस दीदी सब ठीक ही चल रहा है .
  कॉल वेटिंग में रिषभ का नंबर देख रोहिणी भाई से कॉल स्वैप करने की  इजाजत लेती है और कहती है  भाई फुर्सत मिलते ही तुम्हे करती हूँ कॉल . !
     रिषभ का कॉल अटेंड करते ही वह बोली ....  हां बोलो ! दूसरी तरफ से ऊँची आवाज़ में ...फोन क्यों नहीं उठाया ? 6 बार कॉल कर चुका हूँ . बाहर दरवाज़े पर कोई तुम्हारा इंतजार करके चला गया . पता नहीं कहाँ व्यस्त थीं . मैंने तुम्हारे लिए बुके भेजा था . वो बेचारा डिलीवरी मेन इंतज़ार कर के वापस चला गया .  मैरिज एनिवर्सरी विश  करने के लिए फोन किया था . सारा मूड ख़राब कर दिया . नान सेन्स ...... !!!! कह कर  रिषभ  ने फोन डिस्कनेक्ट कर दिया .
        रोहिणी की आँखों में पानी भर आया  , गला रुंध गया .  उसने दो बार पलट के कॉल की . पर इस बार मशीनी आवाज़ में " आपके द्वारा डायल किया गया नंबर अभी व्यस्त है , कृपया कुछ समय पश्चात प्रयास करें " आपके द्वारा डायल किया गया नंबर स्विच्ड औफ़ है कृपया कुछ समय पश्चात् कॉल करें "  सुनाई दिया . उसने फोन साइलेंट  मोड पर सेट कर चुप चाप जाकर अपने कमरे में लेट गयी . वैसे उसे दोपहर में सोने की आदत नहीं है या यूँ कहें समय नहीं होता . पर आज भारीपन के कारण  उसकी आँख लग गयी . टुकड़े टुकड़े सपनों के ताने बाने में उलझती , सिहरती वो विचरती रही .  डोर बेल की अधीर आवाज़ के साथ उसकी नींद टूटी .
        रिषभ दरवाज़े पर उसके सामने हाँथ में कुछ थैली भर सामान लिए खड़ा था . ये सामान रखो , अभी मैं कुछ देर में आता हूँ . हमारी एनिवर्सरी पर मैंने कुछ दोस्तों को इनवाईट किया है . पीछे पड़ गए थे स्साले पार्टी के लिए . तुम खाने की तैयारी करो . लेट मी ग्रैब सम ड्रिंक्स .
       रोहिणी ने सामान रसोई में रख दिया . और फोन देखने लगी . कई छूटी हुयी कॉल्स . उनमें से  कुछ जानने वाले लोगों की और वही अननोन नंबर से मिस्ड कॉल्स . उसके पास उन मिस कॉल्स का जवाब देने के लिए न तो समय था न ही इच्छा .  शाम की चाय के साथ ग्रैंड डिनर की तैयारियों में एक बार फिर से वह रसोईं वाले खूंटे में बन्ध गयी . रिषभ वापस आकर ड्रिंक्स फ्रिज में लगा कर फ्रेश होने चला जाता है . वह नहा धो कर फ्रेश मूड से खाने में रोहिणी की मदद करने लगता है . दोनों बिना किसी संवाद के डिनर की तैयारी में जुट जाते हैं .
        सीढ़ियों से बाबू जी के खट.....एक अंतराल .... पट उतरने की  आवाज़ आती है. रिषभ उनके पैर छू कर उन्हें सोफे पर बैठाल देता है . पापा  आज हमारी वेडिंग एनिवर्सरी है . सो मैंने सोचा कि एक पार्टी रख लेते हैं . घर का माहौल बदलेगा . महीनों एक जैसे दिन काट काट के हम सब बोर हो जाते हैं . सोचा फॉर अ चेंज .....
        हां हां बेटा क्यों नहीं ! 6  साल हो गए तुम्हारी शादी को . वक़्त निकलते पता ही नहीं लगता . लगता है जैसे अभी अभी रोहिणी ब्याह के घर आई हो . रोहिणी और तुम लोग खुश तो हो ना ?
       हां पापा ! आप और माँ के आशीर्वाद से सब कुछ ठीक चल रहा है . बस एक ही कमी खलती है . बच्चे की .
   तुम किसी डाक्टर से कंसल्ट कर तो रहे हो ! क्या रेस्पोंस है उसका ?
पापा कई डाक्टर से कंसल्ट कर चूका हूँ . पर डाक्टर प्रसाद की बातों में दम खम लगता है . कहते हैं यह साल नहीं चूकेगा . और यदि स्वाभाविक तौर पर नहीं संभव हुआ तो आई वी एफ (इन विट्रो फर्टिलाइजेशन गर्भधारण करवाने की एक कृत्रिम प्रक्रिया) वाला औप्शन कहीं गया नहीं .
 अच्छा अच्छा ठीक है ! चलो तुम लोग पार्टी की तैयारी करो मैं ज़रा घूम के आता हूँ . और हाँ तुम्हारी पार्टी में मैं भी शामिल रहूँगा . हा हा हा ....!
रिषभ रसोईं में पहुँचते ही काम कर रही रोहिणी को  कंधे से धकेलता है . रोहिणी को गुदगुदाते हुए कहता है  6 साल हो गए हमारी शादी को ! गहरी सांस लेते हुए ! बस एक बच्चा हो जाता , तो सारी कमी पूरी हो जाती . हम सब की .
    रोहिणी झुंझलाकर कहती है ! मुझे नहीं चाहिए बच्चा वच्चा ! मुझे लगता है हम अभी बच्चे को अच्छी परवरिश देने के लिए तैयार नहीं हैं . हमारे बीच बढती दूरियों का क्या असर पड़ेगा उस पर ? किसी के पास समय है, उस बच्चे की देख रेख करने को ? माँ बाबूजी वक़्त से पहले ही रिटायर हो चुके हैं . काम से भी और शरीर से भी . तुम्हारे पास काम से ज्यादा काम का रोना है . मेरे पास घर का चुल्हा चौका , झाड़ू पोछा और तुम सब मानसिक बीमार लोगों की तीमारदारी की जिम्मेदारी . एक अच्छी भली नौकरी करती थी . बाहर निकल कर खुली हवा में सांस लेने का जरिया था वो . अपनी झूठी शान में तुम सब लोगों ने वो भी छुडवा दी .
  रिषभ के भीतर करेंट सा दौड़ गया . जस्ट स्टॉप दिस नान सेन्स . अदरवाइज़ ......
नहीं तो क्या ? रोहिणी का पारा सातवें आसमान पर था . रिषभ की  तरफ उसके तने हुए हाँथ हथियार हो चले थे .
माहौल को गर्माता देख रिषभ कुछ ठंढा होता है ... जस्ट लीव इट , आई कांट अफोर्ड दिस , राईट नाऊ .
फ्रीज़ से एक बियर निकाल के एक सांस  में आधे से ज्यादा उड़ेल लेता है . दिस टाइम विल पास औन ... डोन्ट वरी .... एक बार बच्चे के कदम घर में पड़ते ही सब कुछ ठीक हो जाएगा.
       डोर बेल बजती है . रिषभ दरवाज़ा खोलता है . उसके चार पांच दोस्त " वैरी वैरी हैप्पी एनिवर्सरी " कह कर घर पर धावा बोल देते हैं . मजाक ठहाकों से घर गूँज उठता है . मेहमानों की दूसरी खेप में रिषभ के आफिस कलीग आते हैं . जिसमें उसके ऑफिस में रिसेप्शनिस्ट के तौर पर काम करने वाली  रेखा भी शामिल है. रेखा को देखते ही रिषभ की माहौल को ख़राब होने की  चिंता कुछ कम हुयी  . रेखा आओ चलो मैं अपनी वाइफ से तुम्हे मिलवाता हूँ . अच्छा हुआ तुम आ गयीं . रोहिणी का हाँथ बंट जाएगा . रेखा को देख कर रोहिणी भी नार्मल हुयी . रिषभ ने रोहिणी से कहा जल्दी से तुम तैयार हो जाओ . नाऊ वी आर इन सेलिबेरेशन जोन .
       रोहिणी रेखा को काम समझा कर अपने रूम में तैयार होने चली गयी . साइलेंट फोन की स्क्रीन पर वही अन नोन नंबर फ्लैश हो रहा था . उसने फोन पलट कर रख दिया . शावर से निकलने वाली गुनगुनी बूंदों से रोहिणी ने अपनी सारी जहनी और जिस्मानी थकन धो डाली . मन पसंद ड्रेस पहनी . शीशे के सामने बैठ कर गहरी - लम्बी साँसे समेटती - छोडती  . उसने ड्रेसिंग टेबल पर  एक उदास मुखौटा उतार के रख दिया और दूसरा पार्टी टाइप पहन लिया .  फोन पर अभी भी वो अन नोन नंबर फ्लैश कर रहा था . फोन को अन लॉक किया . उस अन नोन नंबर की 26 मिस कॉल्स .
        रोहिणी ने नंबर डायल किया . फोन के दूसरे छोर से भारी , गहरी ठहरी हुयी आवाज़.... हेलो रोहिणी   !
 एक लम्बी चुप के बाद ..  कौन ..... राकेश ?
हाँ ! मैं राकेश बोल रहा हूँ .
ओह ! कैसे हो ?
मैं ठीक हूँ , तुम कैसी हो ?
मैं भी ठीक हूँ .
परसों से मैं तुम्हारा नंबर ट्राई कर रहा हूँ . उठ ही नहीं रहा . थोड़ी सी फिक्र हुयी . मुझे तुम्हारी एनिवर्सरी याद थी . इत्तेफाक से मैं शहर में ही हूँ . कल रात मैंने रिषभ का नंबर खोजा . याद आया तुमने एक बार दिया था . कहीं डायरी में लिख लिया था . आज सुबह सुबह मैंने उसे कॉल कर के विश किया . मैंने बोला था उसे तुमको मेरी कॉल के बारे में बताये और मेरी विशेज भी पंहुचा दे...उसने मुझे भी इनवाईट किया था आज शाम को . मैंने सोचा तुम्हारी मर्ज़ी भी तो जरुरी है .
रोहिणी के दिमाग में दिन का पूरा घटनाक्रम रिवाइंड हो गया . उसके  चेहरे पर अभी अभी खिली मुस्कान राकेश तक पहुच चुकी थी . व्यस्तता के चलते मैं कोई उपहार नहीं ले सका . पहुँचता हूँ मैं थोड़ी देर में . और उसने कॉल डिस्कनेक्ट कर दी .
 बाहर लिविंग एरिया का  माहौल मस्ती  में सराबोर था . रेखा डिनर को फिनिशिंग टच दे रही थी .
रोहिणी को देख कर रेखा ने उसके सुन्दर दिखने की तारीफ़ की . दोनों उस शोर में शामिल हो गए .
 रोहिणी पहले की तरह अब असहज नहीं थी . उसके दिमाग में राकेश की बातें चल रही थी . राकेश जो कि अब रोहिणी की  दुनिया में नहीं है .फिर भी गाहे बगाहे हाल चाल लेने भर की बातें फोन पर  हो जाती . कई सालों से वो मिले तक नहीं थे. रिषभ से विवाह होने के बाद दोनों ने ही आपसी समझ से एक दूसरे से दूरी बना ली थी . उसका इतनी बार कॉल करना , शहर में होना ... अजीब सा इत्तेफाक है . खासतौर से तब जब रोहिणी अपने आप को बेहद अकेला फील कर रही थी . वो खुद को वापस राकेश से खींच रेखा के पास ले आती है . रेखा दोनों के लिए ड्रिंक्स बनती है . रोहिणी ने नशे के नाम पर कभी कुछ नहीं चखा था . फिर भी उसने रेखा को मना नहीं किया . रेखा पहली ड्रिंक ख़त्म करके दूसरी पर आ गयी . लेकिन रोहिणी की  ग्लास वैसे ही रखी है ... वो दोनों बाकी आदमियों के बीच होते हुए भी अलग ही थे . रोहिणी चाह कर भी खुद को स्थिर नहीं रख पा रही है .   उधर रिषभ अपने सारे दोस्तों के सामने प्रेम, शादी और परिवार पर डींगे हांक रहा है . कई बार रोहिणी का मन हुआ रिषभ से राकेश की कॉल के बारे में पूछने का ....लेकिन उसने टाल दिया . रिषभ ने भी अभी तक राकेश का कोई जिक्र नहीं किया था . 
        हाई नोट्स पर बज रहे संगीत के बीच डोर बेल बजती है . इस बार वो केवल रोहिणी को सुनाई देती है .  रोहिणी यूँ ही अपने मोबाइल में अपना चेहरा देखती है . वो दरवाज़े की धीरे धीरे बढती है . दरवाज़े कि सिटकिनी खोलती है . देहरी के उस पार बाबूजी को देख कर उसके माथे पर फिर से उदासी की लहर रेंगने लगती है . वो खुद को देहरी के उस पार छोड़ बाबूजी को सहारे से  भीतर ले आती है . पूरा घर सुरूर में बहकने लगता है . इस बार रोहिणी ने भी अपनी ग्लास का ड्रिंक ख़त्म कर लिया था . पूरी महफ़िल में रिषभ और रोहिणी ही चर्चा के केंद्र थे . दोनों बगैर आपस में बात किये हुए औरों कि हाँ में हाँ मिला रहे थे . सब रोहिणी के हांथों बनाए स्नैक्स  की तारीफों के पुल बांधते रहे . 

बाबूजी हाँथ में आखरी ड्रिंक उठाये चियर्स करते हुए गर्व से कहते हैं .... रिषभ की पसंद पर मुझे नाज़ है जिसने रोहिणी जैसी बहू का चुनाव किया . डिनर ख़त्म होता है . अस्त व्यस्त घर छोड़ के सारे मेहमान एक साथ बाहर निकल जाते हैं . रिषभ और रोहिणी भी बाहर तक सबको सी औफ़ करने आते हैं . रिषभ दोस्तों के साथ कुछ दूरी तय करता है . रोहिणी पलट के घर के अन्दर प्रवेश करने को मुड़ती है . दरवाज़े के बाहर किनारे वाली बेंच पर एक किताब और कुछ फूल पाती है . किताब के कवर पर काँटों में उलझी एक काया नज़र आती है . नीचे बॉटम में किताब का नाम " रोहिणी " लिखा होता है . पहले पन्ने पर " हैप्पी एनिवर्सरी " फ्रॉम राकेश लिखा देख कर रोहिणी अवाक रह जाती है . अपने कमरे में जाकर फोन से " थैंक यू " का मेसेज उस अन नोन नंबर पर भेज देती है . और अस्त व्यस्त पड़े घर को संभालने में लग जाती है ... 

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शुक्रवार, 22 मई 2020

"पता नहीं" अब राज पथ है !


" सब कुछ तो कहा  जा चुका है हमारे बीच  . अब कहने सुनने को कुछ बचा नहीं ."  तुम्हारा यही जवाब मैं लिए लिए फिरता हूँ . पर यह जवाब मेरे लिए काफ़ी नहीं रहता  . बनिये की तरह जब मैं तुम्हारे इस जवाब को आने वाले समय के साथ तौलता हूँ . तो जीवन का हिसाब  किताब गड़बड़ाने लगता है . उम्मीद का जहाज डगमगाने लगता है . तुम्हारी ही कही हुयी कोई बात , मेरे लिए सबक का ककहरा बन जाती है . जीवन के सूक्ष्म तत्वों में फैलाव की असीम संभावना बन तुम मुझमें भर उठती हो .
         मैं खुद से बे - अदब  तौल  करने की  शिकायत करता हूँ . डांटता हूँ खुद को .. कई बार रूठ कर बैठ जाता हूँ खुद से. अंततः सोचता हूँ मेरा  रूठना तुम्हारे रूठने से कहीं कम है . यह रूठना मनाना चलता रहता है खुद से . जानता हूँ इसके अलावा कोई दूसरा रास्ता भी तो नहीं , जो मुझे तुम तक ले जा सके . सारे रास्ते तुमने बन्द कर रखे हैं .  रास्तों का बन्द होना , मुझे मेरे भीतर के रास्तों के खुलने जैसा आभास कराता है .  सब कुछ तो कहा जा चूका है . सारे रास्ते तय हो चुके हैं . बाहर के .
         तब  तुम्हारी  गूढ़ जीवन सी भरी बातें मेरी समझ से परे थीं  . मैं अक्सर तुम्हारी बातों को हवा में उछालता . दूर छिटक के खड़ा हो जाता . तुम्हारी बातों को बारिशें बनते देखता . तुम उनके माध्यम से  प्रेम में डूबी हुयीं स्त्रियों की कहानियाँ कहतीं  . मैं हसंता , मुस्कुराता आगे बढ़ जाता . तुम अचंभित मुझे उस पल से बिना किसी भार के निकलते हुए देखती .
उफ्फ्फ !!!!!!!!!
तुम्हारे टूटने में कोई आवाज़ नहीं होती . बड़ी साहिस्तगी से तुम उसे गहरे जुड़ने से जोड़ देती . पर रूठना तो दिमाग की एक रासायनिक प्रतिक्रिया  है . तुम्हारे रूठने  से मैं डर जाता . छिप के  किसी किशोर प्रेमी की तरह रोते रोते रटता रहता . एक बार बात कर लो ! एक बार कॉल उठा लो  ! एक बार मेरे मेसेज का जवाब दे दो ! एक बार मिल लो ! कुछ भी न हो सके तो कम से कम एक बार मुझे एहसास दिला दो कि तुम हो मेरे लिए, मेरे साथ . तुम कहती आभासी दुनिया कोई दुनिया है क्या !
हुंह !!!!!  साथ ..... कैसा साथ ?
सच ! हमारे बीच अब फासला ही बचा है .
जैसे हमारे बचे हुए जीवन का फासला  !
बड़प्पन - लड़कपन का फासला !
हमारी आजादी का फासला !
हमारे एकांत का फासला !
हमारे फैलाव का फासला !
मुझे मालूम है . जिस रास्ते तुम्हे जाना नहीं, उन रास्तों का पता तुम अपने पास नहीं रखती . तुम्हारे जड़  अनुभवों से उपजे निष्कर्षों  ने तुम्हे कठोर  बना दिया . नमी अब तुम्हारा स्वार्थ है  . तुम्हारे  कहे को अनसुना करना तुम्हे बर्दाश्त नहीं . सब कुछ तो कहा  जा चुका है हमारे बीच  . अब कहने सुनने को कुछ बचा नहीं.
         फिर भी ,  मैंने  सुने जाने की जिद दिल - ओ - दिमाग में पाल ली है  . जिद फितूर नहीं होता शायद . धीरे धीरे सुने जाने की अर्जियां बेचारी होने लगती हैं . बेचारगी की लम्बी तानों के बीच एक स्वर " पता नहीं " का फूट पड़ता है  . स्वर के फूटते ही मैं खाली हो जाता हूँ . "पता नहीं" राज पथ हो जाता है  .
     मन करता है "पता नहीं" को सीने से लगाये चलता रहूँ जिन्दगी भर . ठौर मिले तो सुकून से छलक जाऊं . एक ऐसा सुकून जैसे नदी एक छोर पर आकर ख़त्म हो जाए . सिर्फ मेरे लिए . उसके बाद कोई सवाल न पूछा जाए . बहस की कोई गुंजाइश न रहे . मैं चुप , उस चुप पर उठने वाले सारे सवाल चुप .

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गुरुवार, 14 मई 2020

पलायन !














एक दिन जब मैं
चैन से सो रहा होऊंगा ...
पीछे छूटी सैकड़ों मील थकन 
पैदल चलने का दर्द नहीं रहेगा 
कर्ज की कोख में उपजे साधन 
समाधान हो जायेंगे 
परिवार के बोझ से 
काँधे हलके हो चुकेंगे 
दूर देश 
मैं सपनों की गठरी बांधे 
अपने बच्चों में 
तारे बाँट रहा होऊंगा !

एक दिन जब मैं 
चैन से सो रहा होऊंगा ...
खेतों में बालियाँ ठूंठ हो चुकेंगी 
घरों के चूल्हे बुत चुकेंगे
महामारी में मडैया चल निकलेंगी  
दुध मुहें बच्चे 
सूखे  स्तनों से चिपटे 
मुझ तक आ पहुचेंगे 
मैं गहरी नींद में लोरियां गुनते 
थपकियाँ देकर उन्हें सुला दूंगा 


एक दिन जब मैं 
चैन से सो रहा होऊंगा
जंग के बाद
जीत का जश्न होगा 
मजदूरों से खाली मकान होगा  
सरकारें मेरे नाम से 
राशन बाँट चुकी होंगी

एक दिन जब मैं 
चैन से सो रहा होउंगा 
सिर्फ सो रहा होऊंगा 
सिर्फ सो रहा होउंगा. 

तस्वीर : साभार गूगल

रविवार, 10 मई 2020

उदास मौसम की चिट्ठियां
















उदास मौसम की चिट्ठियां
बन्द  हैं लिफाफों में
पतों पर लिखा  " यहाँ सब ठीक ठाक है "
नाम की जगह "अपना ख्याल रखना " .


महामारी के संक्रमण काल में
संपर्क की मनाही है
दूरियां , वक़्त की मांग है 
बन्द कमरों का उदास मन
साइक्लोजिकल डिसआर्डर से बचता
रोज चिट्ठियां लिखता है .


एक अरसे से डाकखाने बन्द हैं
डाकिये , दवाखानों में व्यस्त हैं
लिफाफों से पत्र पेटियां भर चुकी हैं
लाचारी  के दौर  में
उदास मन
और क्या लिखता भला ?


जो लिख रहा है , वो बच रहा है
जो पढ़ पा रहा है,  वो बच रहा है
जो लिखना पढना नहीं जानते
वो मर रहे हैं .


उजाड़  मन
निकल चुके हैं
लम्बी, अंतहीन यात्राओं पर
पुलिसिया पूछताछ से छिदते
कालकोठरी में समय हारते
धरती पर रेंगते 
पहुचते हैं 
एक और
उदास मौसम में .


गुरुवार, 7 मई 2020

कच्ची सड़क


उस दिन हमारी कॉफ़ी एक दूसरे का साथ निभा नहीं पायी थी . सच ! मुझे रत्ती भर भी अंदाज़ा होता कि तुम्हे डार्क कॉफ़ी पसंद है , तो मैं कुछ कुछ वैसी ही ऑर्डर करता . मुलाकातों का सलीका मुझे कभी नहीं आया . मुलाक़ात  पहली हो या आखरी . फोन पर मैंने ही तुम्हे अच्छी कॉफ़ी पिलाने का यकीन दिलाया था . मेरे लिए अच्छी कॉफ़ी वही थी जो मुझे पसंद थी . तुम्हारी पसंद और ना पसंद की  मैंने कोई जगह रख नहीं छोड़ी थी . शायद यही कारण था कि मेरा अब  तक कोई हकीकी दोस्त नहीं था . 
       तुम्हारा मेरे शहर आना बड़ी बात थी मेरे लिए  . पहले की  तरह ऐन वक़्त पर मुलाक़ात टलने का डर जरूर था .  पर उस डर पर मैंने अपनी तरह से काबू पाना सीख लिया था. हर मुलाक़ात की मुकर्रर तारीख पर मैंने अलग अलग जगह कॉफ़ी पीना शुरू कर दिया . पिछली दो बार से बिना किसी मुलाक़ात का ख्याल लिए कॉफ़ी हाउस की कॉफ़ी पर दिल आ गया था . तब से वो मेरे लिए शहर की  सबसे अच्छी कॉफ़ी हो गयी . अच्छी कॉफ़ी के पीछे एक कारण और था . उस रास्ते ढेर सारे गुलमोहर, अमलताश के पेड़ . तुम्हारी तस्वीर में तुम्हारे बालों का रंग और दहकती सड़क के दोनों और गुलमोहर  के बिखरे फूलों के रंग मुझे एक से लगते . तुम्हे तुम्हारी तारीफ़ करना एकदम पसंद नहीं . इसलिए मैंने तुमसे कभी इस बात का जिक्र नहीं किया .
        हरे लिबास में,  तुम तय समय से कुछ देर बाद ऑटो से उतरी . मुस्कुराते हुए ऑटो वाले को शुक्रिया कहा . और दाखिल हुयीं कॉफ़ी हाउस में . मैं अभी भी सड़क के उस पार था. काश मैं तुम्हे इंतज़ार करते हुए देर तक देख पाता. मुझे वक़्त से पहले पहुंचना पसंद है . वक़्त से पहले पहुँच वक़्त को निहारना सुखकर होता है. कॉफ़ी हाउस के शीशे की  आड़ से मैंने देखा, तुम बैठी हुयी थी बुद्ध की तरह  इत्मीनान से . जैसे तुम्हे किसी की  तलाश नहीं, किसी का इंतजार नहीं . मैंने खुद को असहजता से सहजता की ओर जाने के लिए तैयार किया. तुम्हारे पीछे से आकर अचानक तुम्हारे सामने प्रकट हो गया. एक औपचारिक मुस्कराहट लिए "हेलो" से बातों का सिलसिला ठहरता, चलता चल निकला.  
         तुम्हारी गहरी , भारी बातों के सामने मेरा उठ्ल्लापन कहीं टिक नहीं रहा था . हालाँकि हमारा बेवजह मुस्कुराना सम पर था. मैंने दो बार सर्विस काउंटर की तरफ देख कर सुनिए सुनिए की पुकार लगाई . तुमने इशारों में मुझे काउंटर पर लगे  सेल्फ सर्विस का बोर्ड दिखाया . ओह ! मुझे वो बोर्ड दिखाई नहीं दिया . तुमने मुस्कुराते हुए मुझसे कहा " देखने के लिए नज़र चाहिए ".  टेबल पर पड़े  लम्बे चौड़े मेन्यू कार्ड को मैंने तुम्हारी तरफ सरकाया . फिर वापस अपनी ओर खींच लिया . "इट्स माई कॉल" कह कर मैंने जाकर ऑर्डर कर दिया . दो कोल्ड कॉफ़ी, दो वेज सैंडविच . 
       मेरे  पास कुछ भी महत्वपूर्ण बताने के लिए नहीं था. सिवाय उस कोल्ड कॉफ़ी की तारीफ के . तुम बार बार शीशे के उस पार सड़क पर रेंगते शहर को देखतीं तो  कभी मेरे कॉफ़ी और सैंडविच पर टूटने को . मेरी कॉफ़ी और सैंडविच के साथ हमारी बातें जल्द ही ख़त्म हो चुकी थीं . तुमने यह कहते हुए अपने  सैंडविच का बचा बड़ा सा हिस्सा  मेरी तरफ बढ़ा दिया, कि खाने पीने के सामान को वेस्ट नहीं करना चाहिए  . मैंने उसे पहली मुलाक़ात का सबक  समझ के खा लिया . तुम्हारी छोड़ी हुयी आधे से ज्यादा कोल्ड कॉफ़ी को मैं पी लेना चाहता था . मुझे डर था कि कहीं उस कॉफ़ी को जूठा कह कर मुझे रोक न दो. मेजबान और मेहमान के नए नियम गढ़ते हुए  तुमने सारा का सारा बिल भर दिया .  हमारे उस कॉफ़ी हाउस से निकलते वक़्त मैंने उस छूटी हुयी कॉफ़ी को पलट के देखा....और तुम्हे मुस्कुराते हुए सी ऑफ किया ... तुम बिना पलटे उस सड़क से ओझल हो गयीं . 
      उस पहली मुलाक़ात में बहुत कुछ छूट चूका था. पहली मुलाक़ात का रुमान छूट चूका था , वो गुलमोहर, अमलताश वाली सड़क छूट गयी थी. नदी का किनारा छूट गया था. बहुत ठहरी हुयी मुलाक़ात छूट गयी थी . तुम बिना किसी वादे के अपने शहर लौट चुकी थीं . मैंने तुमसे खिलखिला कर फोन पर पूछा .  हाउ वाज़ अवर डेट ? तुमने कहा . मैं डेट वेट नहीं जानती कैसी होती है, और क्या होती है . मैंने फिर पूछा  हाउ वाज़ कोल्ड  कॉफ़ी ? तुमने कहा तुम्हे ज्यादा दूध वाली कॉफ़ी पसंद नहीं.
      

मंगलवार, 5 मई 2020

सहन के उस पार !



रामी ने अब ठान लिया था कि वो गुल्टू को लेकर  घर वापस  कभी नहीं आएगी .  जिग्गा ने इस घर में रहना नरक कर दिया था . शराब के नशे में जिग्गा आदमी नहीं रह जाता . वो जानवर से भी बदतर व्यवहार करता . आये दिन मार पीट, बलात्कार, गाली गलौज और  बच्चे को जान से मार कर खुद मर जाने की धमकी रामी से सहन नहीं होती .
 जिग्गा की  वहशत उसकी पहली पत्नी ने सहन नहीं की . तो वो क्यों करे भला ! उसने खुद को आग लगा ली थी . कोर्ट कचहरी के डर से घरवालों ने उसे घर में ही दफना दिया था . रामी 5  सालों  से जिग्गा और उसके परिवार को  सहन  करती आ रही थी . पर अब नहीं ... अब और नहीं ....! रात में वो किसी समय गुल्टू को लेकर कहीं दूर चली जाएगी . 
     रामी.... रामी ! कहाँ मर गयी , दरवाज़ा खोल ! जिग्गा की लहराती हुयी, ऊँची , कर्कश आवाज़ सुन रामी सिहर जाती है . झट से वो आजादी के सपनों से भरी गठरी  को तख़्त के नीचे सरका देती है . अपने चेहरे से साहस और डर पोछते हुए दरवाज़ा खोलती है . शराब के नशे में धुत्त 6 फीट का जानवर,  रामी के कन्धों पर अपना धढ़ फेंक देता है . दांतों को किटकिटाते  हुए वो पूरी तरह से उसे छाप लेता है . रामी  उसको ठेल देने की भरपूर कोशिश करती   है.  पर  जिग्गा उसकी देंह पर हावी होता रहता है ... रामी की साँसे भारी होने लगती हैं .
      दोनों के बीच बढ़ते संघर्ष की आवाजें दीवारों को हिलाने लगती हैं . दहशत  से गुल्टू की नींद खुल जाती है और वो जोर जोर से मां को पुकारने लगता है . गुल्टू के चीखने की आवाज़ ने रामी के भीतर न जाने कहाँ की ताकत भर दी . एक पलटे हुए दांव में वो जिग्गा की छाती पर चढ़ जाती है . अपनी जांघों से जिग्गा की  पसलियों को रौंदते हुए थप्पड़ों की  बारिश करने लगती है  .  छटपटाहट की एक झूंक के बाद  जिग्गा सिथिल पड़ने लगता है . कमज़ोर पड़ता देख रामी दौड़ के गुल्टू को अपने गोद में उठाती है . और तख़्त के नीचे रखी गठरी  लेकर, नंगे पैर  तेज़ी से खुले दरवाज़े की  देहरी लांघ लेने को  भागती है....और तेज़ भागती है .... भागती रहती है... खुले आसमान के नीचे .... भोर  होने तक....! 
 

शनिवार, 2 मई 2020

दूध


मां हमेशा दूध के लिए बहुत संवेदनशील रही . मसलन खुद से घंटों इंतज़ार कर के दूध लाना. उसको अपनी आँखों के सामने खौलाना . खौला कर उसको एकदम ठंढा करना. सुबह फ्रीज़ से निकले दूध की मोटी मलाई को निकाल कर एक अलग बर्तन में रख देना. फिर उस दूध को जरुरत के हिसाब से छोटे छोटे बर्तनों में बाँट के रख देना .  हर दिन फ्रीज़ में कम से कम तीन से चार छोटे बड़े बर्तनों में दूध रहता ही रहता है. इस पूरी कसरत का नतीज़ा महीने भर घी के रूप में घर भर के खाने का स्वाद बढाता रहता है. उन्होंने न जाने क्यों दही को कभी ज्यादा तरजीह नहीं दी . दही को वो अधिकतर बाईपास कर जाती . कई बार फरमाइश पर एक आध बार कभी जमा दिया तो ठीक . वरना दही का जावन बाहर से ही लाना होता.
        अपने, पापा और बच्चे का शाम का दूध , अक्सर खाने में रोटी के साथ मलाई और दाल , सब्जी रोटी के साथ घी का इंतजाम हमेशा रहता  . दूध और घी के बीच मक्खन पर भी कभी कभी हाँथ साफ़ हो ही जाता है. माँ दूध का प्रबंधन इस तरह से करती है कि मैं व्यंग के तौर पर उन्हें दूध का वैज्ञानिक कह दिया करता हूँ . और चूल्हे पर चढ़े बड़े से पतीले में धीमी आंच पर पकते दूध को भाभा एटोमिक रिसर्च सेंटर की चिमनी की संज्ञा दे देता हूँ .
         दर  असल माँ का दूध के प्रति यह पजेसिवनेस मैंने बचपने से देखा है. मुझे दूध से बने सभी उत्पाद बेहद पसंद हैं . पर दूध की प्रोसेसिंग को मैं कभी भी संभाल नहीं पाया . बचपने में कभी कभी माँ दूध चूल्हे पर रख के सोने चली जाती . सोने से पहले गर्म होते दूध की निगरानी का जिम्मा मुझे सौंप जाती . उधर खेल में मैं अटक जाता इधर दूध उबल  के बर्तन की  दहलीज़ पार कर जाता. बस उस दिन हमारी बन आती . माँ का पारा दिन भर चढ़ा रहता . वो किसी न किसी बहाने से उसकी खीज हम पर निकाल ही  देती . उसकी आँखें दिन भर बड़ी हुयी रहती . दूध की मलाई से कोई छेड़छाड़ वो झट से भांप लेती . माँ के हांथों की बनी खीर हमेशा गाढ़ी रही . उनकी खीर कभी भी अचानक नहीं बनी . और न ही बन सकती है . वो पिछले कुछ दिनों की बचत के बाद  ड्योढ़े दूध को गाढा कर के बनाती. माँ के हांथों की  खीर घंटे दो घंटे बाद थक्के ऐसी जमी होती.
        हालाँकि अब वो औसतन 10 में से 4 बार दूध को उबलने से नहीं रोक पाती है . कभी टी वी सीरियल तो कभी अन्य काम में पड़ कर भूल जाती है . लम्बे अरसे से वो डायबिटिक है . माँ ने उसको अपने बच्चों और पति के लिए बखूबी सम्भाला. घर में बहू के आने के बाद भी दूध की  चाबी उन्ही के हाँथ रहती है .
        दूध और दूध से बने उत्पाद मुझे बेहद पसंद हैं , बचपन से ही . कच्चा दूध पीने का चस्का मेरी बड़ी मां ने बचपने में लगा दिया था . गाँव में बड़ी माँ जब भी दूध लगाती . मैं दूध की धार की आवाज़ सुन अपनी ग्लास ले आता . वो ग्लास में ही दूध दूह देती . ग्लास में खूब सारा झाग वाला दूध . ग्लास से दूध पीने  के बाद लम्बी चौड़ी सफ़ेद मूंछ . अपने दुध्हड़ पने के सैकड़ों किस्से हैं . पर उनमें से सबसे यादगार ये है . 10 वीं क्लास कि बात रही होगी शायद , शहर में हमारा दूधिया " चौधरी " कई बार मुझे मजाक मजाक में दूध पीने का आमंत्रण देते रहे . मैं भी कह देता कि जिस दिन पिलाओगे , पछताओगे . एक दिन मैं खाली हाँथ पहुँच गया . चौधरी ने पूछा बर्तन ? मैंने कहा बर्तन कि जरुरत नहीं अंजुरी में पिला दो . बस वो बालटे से दूध नाते रहे और मैं अंजुरी से गट गट गट पीता रहा. उसके बाद गाहे बगाहे चौधरी का प्रेम उमड़ जाता. कभी कभी मुझे महसूस होता है कि माँ का दूध प्रेम शायद मेरी पसंदगी के कारण ही फलता फूलता रहा . उन्होंने कभी यह बात अपने मुंह से नहीं कही.
         मेरे व्यक्तिगत अनुभव से दूध को संभालना बहुत पेचीदा काम है . पढ़ाई के बाद ज्यादातर जीवन अकेले ही बीतता गया . कभी दूध का भार किसी हेल्प ने रख लिया , तो कभी चाय बाहर से पीता रहा . जब कभी दूध पीने की  शदीद इच्छा हुयी तो पैकेट वाला दूध लाकर कच्चा ही गटक लिया . एक तरह से देखा जाए तो दूध मेरे जैसे काहिल लोगों के लिए बहुत बड़ा सहारा बन सकता है. कभी दूध में रोटी , कभी दूध में ब्रेड , कभी दूध में जलेबी तो कभी दूध में चावल . लेकिन दूध के झंझावात ने खाने पीने  की  सहूलियत को हमेशा सुपरसीड किया. और मेरे अपने चूल्हे पर कम ही चढ़ा.
       अब 2020 ने अच्छे अच्छों को छठी का दूध याद दिला दिया. इस वैश्विक महामारी ने सबकी दशा और दिशा को प्रभावित किया . मैं भी इससे अछूता नहीं रहा . कोरोना वायरस की पकड़ को कमज़ोर करने को पूरे देश में लॉक डाउन का सहारा लिया गया . इस बार फिर से मैं घर से दूर . एहतिआत के तौर पर थोडा बहुत राशन, गैस , कुछ लाई चने की  पोटली का इंतजाम कर लिया था. चाय जो कि अब तक चाय पानी कि दूकान से पीता रहा . बंद हो गयी . इधर बीच एक कुत्ते से दोस्ती बढ़ गयी थी . एक पैकेट दूध का अपने लिए और एक छोटू पैकेट उसके लिए कुछ एक दिन से निरंतर ला रहा था . पुलिस के डंडों के डर से वो भी बंद हो गया . मेरे फ़ाज़िल दोस्त को मैंने दूध की बुरी लत  लगा दी थी . दो दिन जैसे तैसे कटा . फिर लगा कि दूध ही पार लगाएगा . इत्तेफाक से सामने यादव जी के मकान में दूध का इंतजाम 50 रुपये में तय हुआ. आधा किलो मेरा , आधा किलो दोस्त का . पर दूध को न संभाल पाने का डर वैसे का वैसा ही .
        शाम के 7 बजे दूध देने के वादे का इंतज़ार 6 बजे से ही होने लगा . एक किलो दूध लेने के लिए बिन ढक्कन वाला कमंडल लेकर पहली शाम माँ कि तरह तैयार होकर पंहुचा . चौधरी की तरह यादव जी का लड़का आधा लीटर का नाप लिए 1 लीटर दूध नाप दिया . कुछ फर्लांग की  दूरी तय करते वक़्त किसी प्रकार की टोकाटाकी का अंदेशा बना रहा . ग्रामीण क्षेत्रों में यह बात प्रचलित है कि दूध को खुले बर्तन में नहीं लाना चाहिए , यदि खुला हो तो कम से कम लाल मिर्च का कतरा डाल के लाना चाहिए . पर वैसा कुछ हुआ नहीं . पहले दिन बड़े हौसले से उस कमंडल को पेट्रोमैक्स वाले चूल्हे पर चढ़ा दिया . घड़ी देख कर 20 मिनट तक दूध की निगरानी . पेट्रोमैक्स की आंच का भरोसा कम ही करना चाहिए . वो लाख सुधरवाने पर भी अपने आप घटती बढ़ सकती है . माँ की  देखा देखी कभी लोहे की  गोल चलनी वाली ढकनी लाया था .
        सर्द मौसम में रात भर अच्छे से गर्म किया हुआ दूध ठंढाता रहा . सुबह जब आँख खुली तो दूध पर लगभग आधा इंच मोटी मलाई देख के मन गदगद हो गया . पूरा दिन दूध के इर्द गिर्द बीतता रहा . मैंने और मेरे दोस्त ने दूध की ऐसी मिठास और गाढ़ेपन को  शायद पहली बार चखा.  दही की वर्षों की चाह पूरी होने लगी . 10 रुपये के मोल लिए गए दही से जामन और फिर दिनों दिन दही जमाने का सिलसिला चल पड़ा . दही चावल दाल , दही चावल सब्जी , बूंदी रायता चावल , केला लस्सी . दूध दही - दही दूध .
        दिन का ज्यादातर हिस्सा, झाड़ू बुहार, खाना बनाने , खाने के बर्तन धुलने , दूध के बर्तन धुलने,  सुबह शाम की  चाय बनाने , दूध लाने , दूध का प्रबंधन करने  में गुजरने लगा . उधर दोस्त कुत्ते ने दूध दही का मज़ा चख कर कुछ और दोस्त बना लिए . चक्कर पे चक्कर में फंसते हुए एक समय लगने लगा " क्या यही लाइफ है , क्या यही प्यार है ? " मुझे माँ समेत दुनिया की हर औरत याद आने लगी जो इन कामों में फंस कर भी खुद को बचा लेती है . बच्चों को पाल लेती है , परिवार चला लेती है.
          मार्च आखीर और अप्रैल का पहला सप्ताह का ठंढा होना हमारे दूध और हमारे खाने  के लिए अच्छा रहा. अप्रैल की दूसरे  सप्ताह गर्मी के बढ़ते पहली बार दूध को संभाल नहीं पाया और वह फट गया .  दूध  के फटने ने मुझे भीतर तक झकझोर दिया . उस रोज चाय नहीं बनी , पर पनीर बना , पनीर भुजिया बनी. धुलने के लिए दो बर्तन और सूती कपडा बढ़ा  , पहली बार पता चला कुत्तों को फटे दूध का पानी, खराब दूध भी खूब पसंद है....वो मुझसे ज्यादा दूध के शौक़ीन हैं . किसी ने बताया शुद्ध दूध के खराब होने कि संभावना ज्यादा रहती है , लिहाजा 1 लीटर दूध में पाव भर पानी मिलाना जरुरी होता है. दूध तो दूध ! बढती गर्मी के साथ उसका कई बार गर्म होना अनिवार्य हो जाता है.  महीने भर के लॉक डाउन अंतराल में  जरा सी चूक पर दूध कई बार उबला , पेट्रोमैक्स पर उबले दूध की  मलाई परत दर परत जमती गयी , कुछ बार ख़राब हुआ . दही कुछ दिन अच्छा लगा ... वो और ज्यादा खट्टा होने लगा .
      लॉक डाउन  के 34  वें दिन  सारे बैरियर तोड़ते हुए अल सुबह मैं घर की ओर  भागा . उस सुबह मां चाय बना रही थी , दूध खौला रही थी , पत्नी झाड़ू लगा रही थी , पिता अखबार पढ़ रहे थे. शाम 7 बजे यादव जी की मेरे फोन पर मिस कॉल आयी .   मैं निश्चिंत था अगले दो दिनों के लिए या कहें आज़ाद था. उन दो दिनों में माँ और पत्नी को रसोईं संभालते हुए देखा, घर संभालते हुए देखा. वापसी पर दूध आधा लीटर कर लिया . अभी भी पाव भर पानी मिला लेता हूँ . अच्छी खबर यह है कि लॉक डाउन तीन हफ़्तों के लिए और बढ़ गया है.
       

वो , कि अब जाता ही नहीं


इन दिनों सब गड्ड मड्ड हो रहा है . लाक डाउन की लम्बी अवधि ने सब कुछ उघाड़ के रख दिया है . वक़्त , लोग , रिश्ते , दोस्त , सरकार सब फ़िल्टर हो कर आ रहे हैं कहीं से . पुख्ता सूचना के अभाव में जो जितना उपलब्ध हो जाए वही बहुत लगता है . दो वक़्त की रोटी हमें नसीब हो रही है , इससे बढ़कर क्या चाहिए हमें ? इस एक सवाल में हजारों उत्तर खड़े हैं हमारे  सामने . एक महामारी ने हमारे विकासशील मष्तिष्क को सबक सिखाने की  ठान ली है . हमें घुटनों पर टिका दिया है .  जिस सभ्यता को विकसित करने में सैकड़ों साल लगे . जिस जुड़ाव को विकसित करने और जरूरतों को पूरा करने के लिए हमने देश दुनिया की  सीमायें लांघी , उसी पर एकदम से ब्रेक लेने की  चुनौती चट्टान की  तरह खड़ी है .

           संक्रमण काल के तीन माह गुजर जाने के बाद भी दुनिया बचाव के प्रभावी साधन नहीं ढूंढ पायी . विकासशील और विकसित देशों के रूप में बटी दुनिया अपनी देश को सँभालने में अक्षम है तो वो दूसरों कि मदद क्यों करे और कैसे करे !
    सावधानी और पैनिक के बीच का फासला अब लगभग ख़त्म होता दिख रहा है . लाक डाउन की आड़ में हम सावधानी को आम लोगों तक पहुचाने में विफल हो रहे हैं . " जो जहाँ है वो वही रहे " योजना को हमने पहले ही ध्वस्त कर दिया  .  "वो " का डर अभी भी बरकरार है . डींगे हांकते हुए हमने "वो " की शक्ल कल्पनाशीलता और वैज्ञानिक तथ्यों  के आधार पर  ढूंढ ली. लक्षणों और काल खंड के आधार पर एक अच्छा सा नाम  भी रख ही लिया, उसके अस्तित्व में आने के ठीक बाद . इतने दिनों तक " वो " नाम सुनते सुनते कान पाक गए हैं , अब वो नाम लेने में बहुत अटपटा लगता है .
      हमारे पैर अनिश्चितताओं कि बेड़ियों में जकड़े हुए हैं . ये संकट नहीं त्रासदी है .  हमारे जीवन पर पड़ने वाले असर का आंकलन करना बहुत मुश्किल है . जो हो रहा है उसे स्वीकार करते जाने के अलावा कोई चारा नहीं सूझता .
      एक तरह से देखा जाए  इस नए अनुभव में हम सब अपनी अपनी तरह से अभ्यस्त होते जा रहे हैं. बोरियत , अवसाद , खीज , एकाकीपन ने बीमारी की शक्ल ले रही है  . शरीर की तकलीफ दिखती है दर्द होता है तो दवा भी हो ही जाती है.  दिमाग में चलने वाली गतिविधियाँ केवल महसूस की  जा सकती हैं . उनके महसूसने को कुछ देर के लिए टीवी , मोबाइल , किताब व अन्य संसाधनों से  भरमाया जा सकता है . लेकिन वो हमारे व्यवहार में परिलक्षित हो रही हैं . दूरियों को नज़दीक से ठीक करने के भ्रम , पास के झंझावातों से दूरियां बढ़ने का डर . हावी है सब पर प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से .
  

मैं आ रहा हूं ... #imamdasta

  जो सिनेमा हमारे नज़दीक के थिएटर या ओ टी टी प्लेटफार्म पर पहुंचता है । वह हम दर्शकों को तश्तरी में परसा हुआ मिलता है । 150 से लेकर 600 रुपए...