कुल पेज दृश्य

मंगलवार, 25 अक्तूबर 2016

बन्दर की बहू

बेटा आज तेरे रिश्ते के लिए लड़के वाले आ रहे हैं।अच्छे से तैयार हो जा, मैं भी कुछ तैयारी कर लेती हूँ। शाम को साफ़ सुथरे चमकते हुए घर में लड़की वाले और लड़के वाले आमने सामने अपने अपने होने वाले वर वधु की तारीफों के पुल बाँधने लगते हैं। खैर दो घंटे के इस मेल मिलाप में सब कुछ तय हो गया। लड़का लंबा चौड़ा, सुन्दर गठीला डील डौल, लड़की भी लड़के से कम नहीं। अगली मुलाक़ात में कुंडली मिलान और बाकी के गुण दोष की चर्चा हुयी। शादी की तारीखें तय हो गयीं। लड़की वालों ने लड़के का घर, वहां के अड़ोसी पडोसी से लड़के और उसके परिवार वालों के बारे में ठोक बजाकर देख समझ लिया था। नवाबी शहर लखनऊ के डालीगंज में तीन हज़ार स्क्वायर फ़ीट में मकान कोई छोटी मोटी बात नहीं हैं। सुनने में ये भी आया था कि लड़के वाले पुराने जमींदार हैं। लेकिन जब से गाँव छोड़ा सब कुछ धीरे धीरे चुकता गया। ले दे कर बड़ा सा मकान और लड़के की ठीक ठाक नौकरी। बस लड़की के सुरक्षित भविष्य के लिए इससे ज्यादा क्या चाहिए।
   लड़की के घर वाले भी मजबूत। छोटे शहर में बिटिया की परवरिश जरूर हुयी पर माँ बाप ने पढ़ा लिखा दिया । नौकरी वॉकरी का कभी सोचा तो नहीं। लेकिन अंग्रेजी फर्राटेदार बोलती है। आधुनिक तौर तरीकों से भी वाकिफ। उठना बैठना, जीने का सलीका किसी बड़े शहर की रिहाइश की तरह उसे खूब आता था। शादी के दिन नज़दीक आते गए। लड़की और लड़के के बीच बात छोड़िये समधी और समधन के बीच सुबह शाम चोंचें लड़ने लगी। शादी दोनों ही परिवारों ने अपनी हैसियत से ज्यादा धूम धाम से की। बहू की आमद पर घर और परिवार वालों ने उसे हांथों हाँथ लिया। पूरा घर रिश्ते नातेदारों से पटा पड़ा। सारे रस्मों रिवाज़ के बाद दो दिन में घर से  एक एक कर
के सभी लोग विदा हुए। अब सिर्फ घर में कुल जमा चार लोग।
   बहू जा तू भी सो जा, बहुत रात हो गयी है और कई दिनों की थकावट भी होगी। जी माँ कहकर बहू अपने कमरे में चली गयी। दो दिनों में बहू ने घर का चप्पा चप्पा छान मारा था। बहु के दिमाग में घर के सदस्यों  पर अपनी गुड जॉब टाइप्स की छाप छोड़ने के लिए घर का काया कल्प करने की पूरी प्लानिंग चल रही थी। रात पति के साथ पुरानी बातों, नए फसानों पर गुटर गूं करके बीती। सुबह बहू अल सुबह नहा धो कर बाहर बड़े से उजाड़ लॉन में कपडे फैलाने गयी तो एक लंबी चीख के साथ वापस कमरे की तरफ भागी। सुबह के 6 बजे उसकी चीख से सब जग गए। बाहर लॉन में एक मोटे बन्दर की फ़ौज ने बहू के ऊपर लगभग हमला ही कर दिया था। नयी माँ, पिता और पति ने बंदरों को लेकर एक फेहरिस्त नुमा ऐडवाइसरी जारी की। इस समय वहां मत जाना, कपडे वहां फैलाना, बाहर जब भी निकलना तो पहले झाँक लेना,और एक मोटा सा डंडा दरवाज़ों के कोने पर रखा है। बाहर बन्दर होने की सूरत में पहले डंडे फटकाना, खूब जोर जोर से बंदरों को झिड़की देना आदि आदि। और हां एक बात और, कभी बंदरों की आँख में आँख डाल के मत देखना, न ही मुंह बनाना।
   बहू ने माँ पिता के सामने जी जी करके सब सुनती रही। शाम को इत्मीनान से पति से पूछा कि इतनी बड़ी बात आपने मुझे बताई नहीं। पति ने बाहों में भर कर कहा "इसमें भी कोई बताने वाली बात है" हम सब इसके आदी हो गए हैं और बंदरों ने हमारे तौर तरीके सीखे हैं और हमने उनके। मम्मी और पापा के घुटने जवाब दे गए हैं, और मैं दिन भर घर से बाहर रहता हूँ। अब बंदरों से तुम्हे ही मोर्चा संभालना है। बन्दर कुछ नहीं रखते न फूल न पत्ति। लॉन या छत पर जब कुछ सुखाना या और कोई काम हो तो उनपर नज़र रखनी होती। सब सीख जाओगी तुम धीरे धीरे चिंता की कोई बात नहीं। बहू ने मन ही मन बंदरों को उस परिवार का हिस्सा समझ लिया था। अगले दिन से बहू का एक पैर घर में घर के लिए और दूसरा पैर बाहर बंदरों के लिए। वह अक्सर उस उजड़े हुए लॉन को तकती रहती जहाँ उसने अपनी मन पसंद हरी भरी क्यारियां बनाने की सोची थी।

मंगलवार, 18 अक्तूबर 2016

अब जब तुम मुक्त हो गए हो ...!


अब जब तुम मुक्त हो गए हो, तो मैं बस इतना ही चाहती हूँ कि तुम जहाँ भी रहो खुश रहो। इस मुक्ति को उत्सव समझो, मैंने इस मुक्ति को उत्सव की तरह लिया है। तुम्हे पता भी नहीं चला इस मुक्ति के लिए मैंने कितना सहा है। मैंने कितनी यातनाएं झेली हैं। तुम उन यातनाओं को समझ नहीं पाये कभी, इसलिए तुम्हे तुम्हारी ही दी गयी यातनाओं पर मेरी चीख से नफरत हो चली, घृणा हो गयी ! आज तुम्हे तकलीफ क्यों हो रही है ? मैं मुक्त हुयी हूँ तो तुम भी तो हुए मुक्त। नहीं हुए क्या ? अगर नहीं हुए तो ये मेरी समस्या नहीं है। मैं अपनी जगह सही हूँ । तुम नहीं थे इसलिए तुम्हे शायद तकलीफ हो रही है। लेकिन मेरी एक बात सुन लो, तुम्हारी किसी भी तकलीफ का मुझसे कोई लेना देना नहीं है अब। मैंने तुम्हे खूब समय दिया सम्भलने का, माफ़ी के शक्ल में मैंने तुम्हारी गलतियों को नज़रअंदाज़ किया। हर बार सोचा कि अब सब ठीक हो जायेगा। पर ठीक कहाँ से होना था, तुम्हे मुक्ति चाहिए थी। हां मैं फिर कह रही हूँ मुझे नहीं तुम्हे। तुम्हे ही मुक्ति चाहिए थी मेरे अंदर जन्मे तुम्हारे प्रति अविश्वास से,
मेरे अंदर घर कर गयी तुम्हारे प्रति दोहरे चरित्र की छाप से, तुम्हारे होते हुए भी मेरे अन्तस् मन को भेदती तुम्हारे कहीं चले जाने की असुरक्षा के भाव से, तुम्हे मुक्ति चाहिए थी। मैं समझाती रही तुम्हे हर उस वक़्त जब तुम मेरे साथ निश्चिन्त थे किसी अनहोनी के आहट के होने के बावजूद। मेरे असंख्य बार आगाह करने के बाद भी तुम रमे रहे अपनी धुन में। कहते रहे सब ठीक हो जायेगा, मुझे यकीन था जो अविश्वास मेरे भीतर मुझे अनचाहे तुमसे दूर ले जाने की चाह कर रहा हो उससे डर कर तुम मेरे और करीब आओगे ! लेकिन  तुमने उनपर सवाल किये, बहस की, झगडे किये। तुमने मेरी बदहवासी नहीं देखी और न कभी समझने का प्रयास किया। कि आखिर क्यों मैं तृप्त नहीं हो पायी तुम्हारे होते हुए। ये तुम्हे जानना था। क्यों तुम्हारे हाँथ का स्पर्श मेरे अंदर सिहरन नहीं पैदा कर पाया ? साल मौसमी कपड़ों की तरह तह होते रहे और निकलते रहे केवल पहने जाने के लिए। साल का कोई भी दिन बेचैन नहीं दिखा उस अविश्वास को तोड़ने के लिए। मेरे अंदर का अविश्वास तुम्हारा द्वारा बोया गया बीज था, और उस अविश्वास को लेकर तुम्हारी चिढन उसका पोषक बनी। आज इतने सालों के बाद फल तुम्हारे सामने है मुक्ति। जो तुम चाहते थे, मैं नहीं। तुम मुक्त हुए तो मैं मुक्त हुयी। 

निकला हूं मैं दिन खर्चने

  निकला हूं मैं दिन खर्चने थोड़ा नमक थोड़ा सुकून  थोड़ी सी ले परेशानियां  निकला हूं मैं दिन खर्चने निकला हूं मैं दिन खर्चने  बहती यहां नदिया...