कुल पेज दृश्य

रविवार, 12 दिसंबर 2021

"कुम्हलाए बच्चे"


 बच्चों की दुनिया बड़ी अजीब होती है। बड़ों से एकदम उलट दिखने वाली दुनिया में तमाम यातनाएं होती हैं। बच्चों और बड़ों की दुनिया में अघोषित शीत युद्ध चला करता है । अक्सर बड़े, बच्चों से भागते हैं और बच्चे बड़ों की संगत से डरते हैं। हमने अपने इर्द गिर्द ऐसा ही समाज बना रखा है । जहाँ हम बच्चों की भावनाओं से जाने अनजाने खिलवाड़ करते हैं ।

बच्चे की चाहत लिए एक परिवार कितने गर्व से बच्चों को इस धरती पर लाता है। फिर खेल खिलौनों की उम्र तक बच्चे प्यारे लगते हैं। धीरे धीरे बच्चों की दुनिया में हम बड़े अपनी धाक जमाने लगते हैं। और मासूम सा बचपन कुम्हलाने लगता है ।
कुछ दिनों पहले मैंने फैसला किया था। कि चलो कुछ दिन बड़ों की संगत छोड़ बच्चों की संगत देखी जाए। एक शाम मोहल्ले के बच्चों को घर पर शॉर्ट फिल्म दिखाने बुलाया। मोहल्ले के बच्चों के साथ ऐसा पहली बार होने वाला था। उन्हें बर्थडे पार्टी के निमंत्रण आते थे। पर शार्ट फ़िल्म देखने को पहली बार उन्हें बुलावा आया था। मैंने भी तुरत फुरत उनके अभिभावकों से शार्ट फ़िल्म दिखाने की इजाजत ले ली थी। जिससे बच्चों के भीतर कम से कम उस समय अपने माँ बाप का डर न सताता।
6 - 7 बच्चे आए। उनके लिए सत्यजीत रे की शार्ट फ़िल्म "टू" का प्रसारण घर की बड़ी टीवी पर किया गया। कमरे की लाइट्स ऑफ। पहले कुछ मिनट बच्चों को इस नए माहौल में एडजस्ट होने में लगा। फिर बच्चे फ़िल्म वाले दो बच्चों के संग हो लिए । यह फ़िल्म दो विपरीत परिस्थिति के बच्चों के गहरे संवाद पर आधारित है। फ़िल्म खत्म हुई । लाइट्स वापस जला दी गयी। बच्चों की प्रतिक्रिया प्रश्नवाचक थी। मुझे भी उन्हें सवालों के साथ छोड़ना था। सो छोड़ दिया।
बाद में मुझे उनके अभिभावकों से पता चला कि बच्चे उस फिल्म के दौरान बोर हो गए। लेकिन मेरे लिए वो बोरियत भी काफी लाभदायक लगी। कम से कम बच्चों ने पहली बार एक साथ मिल के कोई ढंग की फ़िल्म देखने का अनुभव किया। अगली बार उन्हें कोई फ़िल्म अच्छी भी लग सकती है । मेरे लिए बच्चों की संगत नया अनुभव था। मुझे बेहद पसंद आया।
दो दिन पहले एक विवाह समारोह में जाना हुआ। वर और वधु पक्ष अपने अपने पाले में तैयारियों में जुटे थे। सजी धजी पोशाकें । गले , उंगलियों और पैरों में सोने चाँदी के भारी भारी जेवरातों के साथ लोग उत्सव में तल्लीन थे। मैं फिर से बड़ों की दुनिया से निकल बच्चों की दुनिया में पहुच गया। वर एवं वधु पक्ष के बच्चे पाले की सीमाएं लाँघ कर साथ खेल रहे थे। उत्सव लॉन की मखमली घास पर बच्चे दौड़ लगाएं। खूब गुत्थिम गुत्था होता रहा। वो सभी बड़ों से दूर थे। इसलिए बेरोकटोक खूब खेले। मैं उन के खेल देखता रहा। वो कई बार गिरे , कपड़े झाड़े और फिर खेलने लगे। बीच बीच खाने पीने के स्टालों पर कुछ खा पी आते। खेलते खेलते बच्चों के चेहरे लाल पड़ चुके थे।
बड़े जहाँ भी खेलते बच्चों को देखते । आँख दिखाते। ऊंची आवाज में उन्हें अनहोनी का डर दिखाते। कई बार बच्चों ने बड़ों की चपत भी खायी। 
कुछ देर बाद फिर से सब सामान्य। उन सभी बच्चों में तीन बच्चों में जबरदस्त ऊर्जा थी। तीनों लगभग एक ही कद काठी के । वो शायद पहली बार मिल रहे थे। लेकिन उनके खेल के संयोजन और सामंजस्य को देख लग रहा था। जैसे वो साथ ही रहते हों। कुछ ही घंटों में वो तीनों बच्चे बड़ों की दुनिया में शैतानियों के लिए मशहूर हो गए । उनकी चर्चा होने लगी। मैं उनमें से एक बच्चे की माँ से मिला। उन्होंने मुझसे तड़ाक से सवाल किया। " मिले मेरे खूंखार बच्चे से" । मैंने भी मुस्कुरा के उनका खूंखार होना स्वीकार किया।
उन तीन बच्चों के खेल से सबसे ज्यादा बुजुर्ग आतंकित थे। वो दूर से बैठे बैठे इन बच्चों की गालियों से बलैयां ले रहे थे। बच्चे उन बुजुर्गों के पास गए तक नही। फिर भी उनकी त्योरियां इन बच्चों पर चढ़ी रही। वो उनकी चुगलियां बच्चों के माँ बाप से करते। माँ बाप बीच बीच तैश में आकर बच्चों को हाँक लगाते। यह देख कर बुजुर्गों को कुछ तसल्ली मिलती। मैं उन बुजुर्गों के पास थोड़ी देर बैठा। वे सभी अच्छे अच्छे सरकारी नौकरियों से रिटायर्ड सभ्य समाज के झंडाबरदार थे। उनमें से किसी एक ने कहा " ये तीनों बच्चे बड़े हरामी हैं " । दूसरे ने सुर मिलाते कहा " आज कल के बच्चे बर्बाद हो गए हैं" । तीसरे ने अभिभावकों पर लानत फेंकते हुए कहा " माँ बाप ने ही बच्चों को बिगाड़ रखा है" । हमारे जमाने में मजाल है बच्चे बड़ों की बात न मानते। मुझ से वहाँ ज्यादा देर बैठा न गया। उनकी बातों में हिन्सा थी , क्रोध था और बच्चों को मसल देने की घुड़की थी। मैं फिर बच्चों के बीच आ गया। उनके पास आकर काफी हल्का लग रहा था। एक छोटी सी बच्ची मेरे पास आती है। मुझसे हाँथ मिलाती है। मैं उसके साथ खेलने लगता हूँ।
कार्यक्रम खत्म हो चुका था। मुझे वो सारे बच्चे और उन बुजुर्गों की बातें रह रह कर याद आ रही थीं। आधे रास्ते मैंने अपनी गाड़ी एक ढ़ाबे पर रोक दी। दो तीन सिगरेट लगातार पीने की तलब लगी। मैं ढाबे के पास वाली पान की दुकान पर गया। लगभग उन्ही तीन बच्चों के हमउम्र दो बच्चे पान की दुकान पर मोबाइल में कुछ देख रहे थे। एक आदमी दुकान में सो रहा था। मैंने सिगरेट माँगी। बच्चों ने मोबाइल किनारे करते हुए पूछा कौन सी सिगरेट ! उनके कपड़े ग्रीस और मोबिल से सने थे। वे बहुत दुबले पतले मगर फुर्तीले दीख रहे थे। दोनों किसी ट्रक मेकैनिक के यहाँ सहायक का काम करते हैं। अभी पानवाले को राहत देने के लिए कुछ देर यहाँ बैठे हैं। मुझे बच्चों से सिगरेट लेने में अजीब सी हिचकिचाहट हो रही थी। एक बच्चे ने सिगरेट मेरी तरफ बढ़ाई। उसके नन्हे नन्हे काले हाँथ । हंथेली में पाना रिंच से धट्ठे पड़े हुए। हंथेली के ऊपर ताज़े जले के निशान थी। मैंने बच्चे से पूछा कैसे जल गए ?
उसने ट्रक के इंजन की तरफ हाँथ उठा के इशारा किया । वो मुस्कुरा दिए। फिर से मोबाइल में गुम हो गए । मेरा हृदय भर आया। मुझसे और वहाँ न रुका गया।
घर आते ही मेरे बच्चे ने दरवाज़े पर ही खबर दी। कि मम्मा बहुत गुस्से में है। वो तीन दिन से मुझे पढ़ा रही है। मैं लर्न करता हूँ और भूल जाता हूँ। मम्मा भूलने पर बहुत मारती है।
मैं हताश हो गया था। बच्चों की दुनिया में और रहने व उनकी संगत का फैसला तुरंत रद्द कर दिया। मेरे भीतर उनकी दुनिया के तनाव लेने का ताब नही बचा था। मैं हार चुका था। मगर बच्चे उस दुनिया से मुस्कुराते हुए निकल आते हैं। 

मैं आ रहा हूं ... #imamdasta

  जो सिनेमा हमारे नज़दीक के थिएटर या ओ टी टी प्लेटफार्म पर पहुंचता है । वह हम दर्शकों को तश्तरी में परसा हुआ मिलता है । 150 से लेकर 600 रुपए...