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गुरुवार, 24 दिसंबर 2020

थकना मना है !

 


मैं

अपने हांथों को तोड़ कर

पीठ दबाने लग जाता हूं

पंजों के ऊपर

मुड़ मुड़ के चूर 

हुए घुटनों के नीचे

जो एक टापू है

उसे निचोड़ता हूं

पैरों को हिलने नहीं देता

कमर से रेंगता बिस्तर पर

गूंथ देता हूं

पैरों को ।

दिन भर दौड़ते भागते

पैरों के निशान

रास्ते नहीं देखते

हाथों में भाव

काठ के हो जाते हैं

काम में देह को

थकना मना है।

सोमवार, 21 दिसंबर 2020

रिक्त आंगन !

शालू आज जब घर आई तो उसके सर पर गहरे जख्म के निशान थे। रोज़ वो समय से आती थी। पर आज कई घंटे बाद पहुचीं। दरवाज़े पर राह तकते भिन्ना को उसकी साइकिल सबसे पहले दिखी। साइकिल एकदम सधी हुई आ रही थी। शालू के पैर लड़खड़ा रहे थे। शरीर कांप रहा था। पर उसकी लक्कड़ कलाइयों ने साइकिल को मजबूती से थाम रखा था। दरवाज़े के ठीक पहले भिन्ना से बचती हुई वह साइकिल को यूं ही छोड़ भीतर के कमरे में जाकर लेट रहती है। अचेतावस्था में उसे किसी का कहा सुना सुनाई नही दे रहा था। वह सुन्न पड़ी थी बिस्तर पर । सखी रोए जा रही थी । शालू की छाती पर सवार सखी उसको झकजोर रही थी। कि वो उसे बताये उसे इतनी चोटें कैसे आयीं हैं। 

   " मेरा गला घूंट रहा है , कोई है जो मुझे मारे डाल रहा है " शालू की आवाज़ ने मानों एक क्षण में घर की नीवें हिला दीं। उसकी देंह में जबरदस्त ऐंठन से सब और घबरा गए। आनन फानन उसे मोटर साइकिल पर बिठा पास के अस्पताल ले जाया गया। प्राथमिक उपचार के बाद सामान्य बात कह कर डाक्टर ने सबको विदा किया। 

भिन्ना रास्ते भर सोचते आया कि उसकी 17 साल की बेटी इतनी बेसुध कभी नही रही। इधर गाँव में चोरी , डकैती और न जाने कौन कौन से ऐब आ गए हैं कहीं से। रंजिश में सब खून के प्यासे रहते हैं। भिन्ना के लिए रास्ता भारी होता जा रहा था। सखी बीच में ऐंठती बिटिया को लगातार भींचे जा रही थी। उसके सवाल शालू को सुनाई दे रहे थे यह कोई नहीं जानता। उबड़ खाबड़ पगडंडियों पर मोटसाइकिल के पहिए फिसल रहे थे। भिन्ना की लक्कड़ कलाई हैंडल को मजबूती से पकड़े थे। गाँव में घुसते ही " क्या हुआ " , कैसे हुआ ! की बौछारें पड़ने लगीं। भिन्ना को केवल भीतर का कमरा दिख रहा था। वह शालू को पलंग पर लिटा कर सखी से लोबान जलाने को कहता है। सर पर ठंढी पट्टी रखने , पैर सहलाने और प्रार्थना करने की सलाह देकर निकल लेता है। वो उस जगह पहुँचता है जहाँ शालू साइकिल समेत गिरी थी। उस जगह कुछ फूल , मटकी या अन्य टोटकों के सामान बिखरे पड़े थे। बस फिर क्या था , जैसे भिन्ना को कोई राह मिल गयी हो। सीधी सपाट। बस उसे सिर्फ लेकर दौड़ना है। जिसमें वो बहुत माहिर था। भिन्ना यह बात सखी के साथ जल्द से जल्द साझा करना चाहता है। घर के मोहरे से बहुत पहले उसे रोने , चीखने चिल्लाने की आवाज़ें आने लगीं। घर के भीतर लोबान का धुवाँ भरा हुआ था। शालू कोई और सी लग रही थी। जो शालू की दुश्मन थी। और सखी से एक जान को ले लेने या दे देने पर ऊँची आवाज़ में बहस चल रही थी। शालू की देंह रह रह कर सर्प की तरह ऐंठ रही थी। शालू सबके चेहरे भूल चुकी थी। वह लगातार अपने आस पास अजनबियों के होने पर ऐतराज कर रही थी। उन अजनबियों में केवल उसकी माँ थी और पिता थे। 

 भिन्ना का दिमाग काम करना बंद कर दिया था। लड़की बहुत पीड़ा में उसे महसूस हो रही थी। लेकिन घटनास्थल के दृश्य उसे दूसरी दिशा में धकेल रहे थे। उसके पास अपनी बच्ची को स्वस्थ करने के दो ही उपाय थे। एक पक्के रास्ते पर शहर का अस्पताल और दूसरा कच्चे रास्तों पर कोई तंत्र मंत्र का अड्डा । उसे बिटिया के दांत चबाते जबड़े और रह रह कर ऐंठी देंह पर तरस आ रहा था। उसकी बिटिया क्लास की टॉपर थी। चंचल , हंसमुख, चुलबुली घर आंगन में फुदकती चिड़िया। कॉलेज के सात से आठ घंटों के बाद भी उसमें देर रात माँ का हाँथ बंटाने में हिम्मत रहती। फिर अपनी पढ़ाई की आप ही जिम्मेदारी ! इस बड़ी बेटी के बाद ही भिन्ना के घर औलाद पैदा हुई थी। दो छोटी बहनों और छोटे भाई का लालन पोषण उसकी उम्र के साथ बढ़ा। 

 भिन्ना घर के अंदर बाहर कर रहा था। उसके पास इतने पैसे नही थे कि वो शहर के किसी अच्छे अस्पताल में दिखा सके। उसने धान के बोरे औने पौने बेच कर शहर के डॉक्टर को दिखाना उचित समझा। सखी उसके इस निर्णय से एक दम आश्वस्त थी। 

सुबह घुप्प कोहरे में भिन्ना की मोटरसाइकिल चल पड़ी। बड़े अस्पतालों के नखरे सहते उसके सखी और उनकी बिटिया के तीन दिन गुजर गए। एक कम्बल में अस्पताल के अहाते की रातें पता ही नहीं चली। कभी डॉक्टर की ढूंढ , कभी बेड का इंतज़ार , कभी दवाइयों की कतार में घड़ी की सुइयां मिट गयीं थीं। बिटिया के सर के जख्म भरने लगे थे। दौरे पहले से कुछ कम हुए थे।  मस्तिष्क , हृदय की जांचें सामान्य निकलीं।  फिर भी पांच हज़ार की दवा उन्हें सब कुछ ठीक होने की सांत्वना दे रही थी।

घर का बरामदा धान के बोरों से खाली हो चुका था। बाकी बच्चों को पहले ही मामा के यहां भेज दिया गया था। शालू ठहर गयी थी , सखी मुरझा गयी थी। गाँव का वह छोटा सा घर इससे बड़ा और खाली कभी नही हुआ था। चूल्हा बड़ी मुश्किल से जला। राख पर राख जमा होती रही। 

भिन्ना को अभी भी कुछ खटक रहा था। उसके दिमाग में घटना स्थल का दृश्या चस्पा हो गया था। गाँव गली में उसे जो जैसा बता देता करने लगता। उसकी मोटरसाइकिल और सखी कहीं जाने , दिखाने को तैयार रहती। आज वो गाँव से 70 किलोमीटर दूर आया था। पांच किलो रवा , 10 किलो चीनी , 10 किलो आँटा , 5 लीटर कड़वा तेल और मेवे वह मोटरसाइकिल में बांध के लाया था। दरबार में बिटिया के पहुँचते ही तख्त पर बैठा भीमकाय टीकाधारी झूमने लगता है। भिन्ना दंडवत हो जाता है। सखी काँधे पर हाँथ धर शालू को उस आदमी के नज़दीक ले जाती है। गुफा नुमा काले रंग से पुती उस खोह में सब को झुक के चलना पड़ता। उस आदमी ने शालू की पीठ पर हाँथ फेरा। और भिन्ना को भंडारा करने, नियम संयम रखने और खुद में सुधार करने की दलील दी। अंटी से 1001 की दक्षिणा ढीली करने के बाद उसे बताया गया कि 7 दिन में वह ठीक हो जाएगी। फिर भी भिन्ना और सखी का दिल न माने। नाते रिश्तेदारों ने जितने ठीये बताये थे। भिन्ना उन सभी जगहों पर अपनी बिटिया को ले गया। पर उसकी तबियत में कोई सुधार नहीं। 

  गाँव के एक किनारे बसे कुनबे में केवल भिन्ना ही अपने बच्चों को पढ़ा रहा था। शालू 11 वें में है। उससे छोटी आतू आठवें में पढ़ती है। बाबू पांचवें में पढ़ती है और सबसे छोटा बेटा दूसरी में है। बाप दादा से मिली जमीन का बड़ा सा हिस्सा महाजनी में चला गया। जो भी थोड़े बहुत खेत खुद के और बटाई के से जीवन कट रहा था। शालू पर आई इस बला ने घर की स्थिति डांवाडोल कर दी थी। शालू की तबियत पर उसका हज़ारों रुपया टूट चुका था। वो कर्जदार हो गया था। अब उसकी हिम्मत जवाब देने लगी थी। पूरा घर शालू की देख रेख में व्यस्त रहता। शालू के  मष्तिस्क के साथ साथ उसका शरीर भी सिथिल होने लगा था। 

    रात लगभग खत्म होने को थी। भिन्ना को आंगन के पास किसी के कदमों की आहट सुनाई दी। वो चुपके से उठा और आंगन की तरफ लपका। तब तक कोई मिट्टी की दीवाल फाँद के भाग निकला। पौ फटते ही भिन्ना ने ओस से गीली मिट्टी में कदमों के निशान का पीछा करना शुरू किया। लेकिन वो कुछ  ही दूरी पर ख़त्म हो गए। बड़े बड़े जूतों के निशान उसके दिमाग में जैसे छप गए हों। पूरा दिन वह गाँव घूमा लोगों के पैरों के निशान देखते देखते। गाँव के मध्य सरपंच का घर उससे न चाहते हुए भी छूटा रहा। ऊँची जात के लोगों के घरों में तांक झांक करना भी अपराध होता है। सवाल जवाब तो दूर की बात है। वह बिना किसी से इस घटना की चर्चा किए वापस आ गया। यहाँ तक इस बात का जिक्र उसने सखी से भी नही किया। लेकिन इस घटना को शालू की हालत से जोड़ के देखना भिन्ना को उचित नहीं लगा। इस रात भिन्ना चौकन्ना था। 

सुबह सुबह गाँव में हल्ला हो गया कि सरपंच के 22 साल के लड़के को पुलिस पूंछतांछ के लिए उठा ले गयी है। सरपंच के मोहल्ले में तीन साल की बच्ची के साथ बलात्कार और निर्मम हत्या के संदेह में।

शुक्रवार, 27 नवंबर 2020

ख्वाहिश !


 

उसके नन्हे पैरों के निशाँ अभी भी घर के मुख्य द्वार पर अंकित हैं . पलंग वाले कमरे की अलमारी के तीन खानों में उसकी किताबें , खिलौने और उसकी डायरी राखी रहती है . उस अलमारी का रखरखाव उसी के अधिकार में हैं . न कोई दूसरा उसे छू सकता है और न ही उस अलमारी की व्यवस्था में कोई हस्तक्षेप कर सकता है . गुड़ियों से उसे ज्यादा लगाव कभी नहीं रहा . उसकी अलमारी में एक भी गुड़िया नहीं है . उसके पापा जब भी घर आते एक गुड़िया जरूर लाते . वह उस समय गुड़िया को पापा की ख़ुशी के लिए रख लेती . पर जैसे ही पापा चले जाते वह किसी न किसी बहाने से गुड़िया अड़ोस पड़ोस के घर के बच्चों को दे आती . 

         माँ के बाद उसकी जुबान पर पापा का उच्चराण आया . पापा कहना उसकी मां ने ही सिखाया था .  पापा की पहचान मां  वह कोई तीन साल की रही होगी . उसकी मां उसे यहाँ ले आई थी . दादा दादी , नाना नानी और पापा से दूर . माँ का वह फैसला आज तक बुरा नहीं साबित हुआ . संघर्ष रहे एक दुधमुही बच्ची को सयाना कर लेने में . अपनी दम पर . बिना किसी सहारे के . उन तमाम संघर्षों में मां और बेटी हमेशा साथ रहे . बाकी सब भी रहे पर स्वादानुसार . जन्मदिन , दिवाली होली या किसी अन्य ख़ास मौके पर मां उनके आने , रहने का इंतजाम कर देती . जिससे निम्मी  को कभी यह नहीं लगे कि उसके संसार में वो लोग नहीं हैं जो किसी आम परिवार में होते हैं . किसी परिंदे के झुण्ड की तरह लोग आते , एक दो दिन रहते फिर सब अपने अपने ठीये पर . इस घर में निम्मी और उसकी मां रह जाती अपने बनाए , संभाले , सँवारे और सजाये घोसले में . 10 साल हो गए उन्हें इस घर में रहते हुए . घर का कोना कोना निम्मी की उपस्थिति का सौंदर्य लिए रहता . 

         इस बड़े से घर के दुसरे पोर्शन में एक और परिवार रहता है . अपने मम्मी पापा की चहेती तान्या भी लगभग निम्मी की हम उम्र है . पापा नौकरी करते हैं और मां घर संभालती है . उस सँभालने में बहुत कुछ संभालना होता है . पति को संभालना उनके माता पिता को संभालना और इन सब सँभालने के बीच तान्या की परवरिश . तान्या हमेशा गुमसुम रहती . अपनी तनिक सी उम्र में उसे बहुत कुछ ऐसा देखने और सहने को मिलता . जिसकी कल्पना मात्र से रूह काँप जाती . यूँ तो वो अपने पापा की लाडली है . पर शाम को जब उसके पापा नशे में धुत्त घर पर दस्तक देते . उसका कांपना शुरू हो जाता . उस समय घर का हर सदस्य दरवाज़ा खोलने से कतराता . लिहाज़ा यह जिम्मेदारी तान्या की होती . वह डरते डरते दरवाज़ा खोलती . पापा की सुर्ख लाल आँखें , डोलते कदम और गुस्से से तमतमाया चेहरा उसके कोमल ह्रदय को दहला देता . आये दिन उसे अपनी मां के प्रति घ्रणित व्यवहार , मार और प्रतारणा का सामना करना पड़ता . उसके दादा दादी इन घटनाओं के मूक दर्शक बने रहते . वो चाह के भी पुरजोर प्रतिरोध नहीं कर पाते . नतीजतन पूरा घर एक दानव के आतंक से जूझ कर थक हार कर सो जाता . सुबह सब कुछ सामान्य सा प्रतीत होता . जैसे कभी कुछ हुआ ही नहीं . 

        इन सब हाई टेंशन ड्रामे से निम्मी और उसकी मां को कोई खास फर्क नहीं पड़ता . क्यूंकि उन दोनों घरों के बीच एक बड़ी सी दीवाल है और दोनों घरों का निकास अलग अलग . हाँ तान्या और उसकी मां के प्रति दोनों की संवेदनाएं कभी कभी बेहद तरल हो जाती . दोनों आपस में इस विषय में बात करते लेकिन कुछ देर बाद जानबूझ कर इस विषय को बदल देते . निम्मी दोपहर स्कूल के बाद कुछ देर के लिए तान्या के घर खेलने चली जाती . तान्या के लिए केवल वही कुछ क्षण होते जिसे वो खुल के जीती . वो खूब खिल खिलाती . अचानक से एक दम चुप हो जाती . निम्मी उसे पज़ल्स देती खेलने को ... तान्या उसे घर घर खेलने को कहती ... वो अपनी सजी संवरी खूबसूरत गुड़िया दिखाती , अपनी मन की दुनिया सजाती ... उसके हर खेल में उसके पापा किसी न किसी सूरत में आ जाते ... और वो उदास होकर निम्मी को जाने के लिए कह देती . निम्मी कई सारे सवाल लिए वापस अपने घर लौट जाती . उसकी डायरी में सबसे ज्यादा अगर किसी के लिए लिखा गया है तो वो तान्या है ...

       आज निम्मी की मां के लिए बहुत बड़ा दिन था . जिसका सपना उसने वर्षों से देखा था . और इस दिन के लिए उसने कड़ी मेहनत की थी . वो घर की दीवारों , खिड़की दरवाज़ों , अलमारियों और आँगन को और ज्यादा महसूस कर पा रही है . उसको आज यहाँ से शिफ्ट कर के अपने नए घर जाना है .. जो है तो छोटा सा लेकिन उसके और निम्मी के लिए नई जिंदगी शुरू करने जैसा है . उसे दस साल पहले इस घर में मजबूरी में रहना पड़ा और दस साल तक तमाम  मुसीबतों के साथ निबाह करना पड़ा . उसे खुद कभी समझ में नहीं आता कि जिस घर ने उसे कभी सर छिपाने के लिए जगह दी . उसकी दुर्दशा को नज़रंदाज़ कर के उसे जाना पड़ेगा . जीवन में आगे बढ़ने के लिए कड़े फैसले लेने पड़ते हैं . दस साल पहले जो उसने फैसला किया था , उसका सुखद फल अब उसकी राह तक रहा है . निम्मी भी खुश है पर उसे तान्या को छोड़ने का मन नहीं कर रहा है . वो तान्या के कान में कुछ बुदबुदाती है ... निम्मी और उसकी मां घर के सामान के साथ आगे की और बढ़ चलती हैं . आधे रास्ते में वह अपनी मां से पूछती है ... माँ क्या हम तान्या को अपने साथ नहीं रख सकते हैं ... निम्मी की मां निम्मी को गले से लगा लेती है ..




गुरुवार, 26 नवंबर 2020

एक दिन जब मैं !

एक दिन जब मैं चैन

से से रहा होऊंगा

पीछे छूटे सैकड़ों मील की थकन

पैदल चलने का दर्द नहीं रहेगा

कर्ज की कोख में जन्में साधन

समाधान हो जाएंगे

परिवार के बोझ से 

कांधे हल्के हो चुकेंगे

सपनों की गठरी बांधें

अपने बच्चों में 

मैं तारे बांट रहा होऊंगा ।


एक दिन जब मैं

चैन से सो रहा होऊंगा 

खेतों की बालियां ठूठ हो चुकी होंगी

घरों के चूल्हे ठंडे हो चुके होंगे

दूध मुहें बच्चों को सूखे स्तनों से लगाए मां

मेरे पास ले आएगी 

सरकारें मेरे नाम का राशन

बांट चुकी होंगी।


एक दिन जब मैं नहीं होऊंगा

मुझसे उम्मीद लगाए दुनिया

उम्मीद से खाली हो जाएगी ।


गुरुवार, 29 अक्तूबर 2020

Kahna vyaktigat

Kitna kathin hota hai kehna
Kahne ko bahut si baaten
Roz chaunki jati hain
Din ke pateele mein 

Shaam ki piyali 
Aundhe munh girti 
Khanakti door Chali jati hai 

Kahne ko bacha hi kya hai
Humare tumhare darmiyan
Hum jab bhi kahne ko
Chalte hain , bhid jate hain
Choor choor ho jate hain
Haar ke rooth jate hain

Bagair kuch kahe sune 
Kayi saal kajal ki kothri
Mein surmayi sapnon ke 
Khwaab paarate hain 

Behtar hai 
Kahne ki aadat mein
Sunne ko ahmiyat dena
Sunna prakratik hai
Kahna vyaktigat !

सोमवार, 26 अक्तूबर 2020

रेशम !

 हम लांघ जाते हैं 

अपनी हदें

लांघने के बाद 

सहसा सांस 

रुक जाती है ! 

हम पाते हैं

अनजान मरुस्थल में

कोई दिशा नहीं

वजह कोई भी हो

हालात कैसे हों

हमने जो किया है

वह शह और मात है

न मानने की गुंजाइश

होती भी है

नहीं भी !

प्रेम आशा वादी लोगों

का समागम है। 

जो जानते हैं

पानी सा घुल जाना

मीठी बयार ही है

सांस ना मिले

तो बिगड़ना तय है !


शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2020

नंदी

 नंदी को पता नहीं उसकी मां उसको पैदा कर के क्यों चली गई ट्रेन में बैठ कर। उसको यह भी नहीं पता चला कि ट्रेन किस दिशा में गई। पता चलता तो आज वो मुक्त होता । वो मुक्त होता और व्यस्त होता उसके अपनों के द्वारा संवारी गई ज़िन्दगी में । 

उसकी मुस्कान में बोरिंग से निकलते हुए पानी की इतनी तरावट है। बड़ों के भार उसके मजबूत कंधों पर सवाल हो कर उसे उदास कर देते हैं। शाम को भौरियों ऐसे पाओं लेकर हांथी की तरह चलता है। उसकी खानगी को लेकर अक्सर लोग हंसते हैं। सुबह ग्यारह बजे वो कहता है हां खाना खा लिया। समय पूछने पर बीती शाम उसकी आंखों में तैरती है। वो गुल्लक में पैसे जमा कर रहा है। दिवाली में संभवतः उसे नए कपड़े खरीदना नसीब हो। वो  छह भाइयों का कथित भाई है। गालियां , मार और बुरा भला उसको बहुत अखरता है। वो लड़ता है , गुस्साया रहता है। सब के काम करता है। 

 वो खाली समय में सायकिल चलाता है। पास के कुत्तों के पिल्लों से खेलता है। उनका ख्याल रखता है। गुल्लक को बार बार उठाकर देखता है। वो जल्द ही बड़ा होना चाहता है। दिल्ली जाकर किसी ढाबे पर या किसी फैक्ट्री में काम करना चाहता है। वो मजबूत होकर जगह बदलना चाहता है। उसके दिन पहाड़ से होते हैं। रातें पता नहीं चलती बेहोशी में।  वह जल्द ही मुक्त होना चाहता है।


शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2020

बेलातलि !



कभी भूतों के किस्सों से मशहूर , भविष्य के बदलाव से अनिभिज्ञ बेलातली जरूर खुश होती होगी। इतना बड़ा काया कल्प , इतना सुन्दर प्रयास ! कुछ बतखें हरा पा लीं हैं। पानी पा गई है। चिड़िया , मछली और जलीय चर सफाई पाए है। बच्चों ने सपने पाए हैं।  नौकायान का नज़ारा, सुबह शाम की सैर इंसान की आंखों में तालाब जितना पानी हो जाना शुभ है। 

कभी विशालकाय शुगर फैक्ट्री का हलाहल पीने वाली बेलातालि को भूत चुड़ैल का अड्डा कहा जाता था। उस ओर जाती इमली रोड और बेलताली का गहरा नाता प्रतीत होता। पता नहीं कौन कौन कहानियां सुन बड़े हुए हम सब। अजीब सी घबराहट होती इस क्षेत्र से। 

सारी कहानियां अब सुबह की तरोताजा हवा हो गई है। एक तरफ खेत खलिहान , एक तरफ इंडस्ट्रियल एरिया एक तरफ नव उदारी करण के व्यू में दिखते होटल। सब कुछ अब तर गया। एक सुंदर सा उपवन जो अभी बढ़ रहा है। उसकी ठंडक अभी से उसके पास से ही महसूस होती है। सुबह शाम नौकाविहार से उत्पन्न पानी की छल छल कानों को हल्का करती हैं। तालाब के किनारे थोड़ा ही सही वेटलैंड बचा के रखा गया है। इस तालाब का बचना सबसे बड़ी बात है।

एक जमाना था जब हरदोई के कम्पनी गार्डन में पेडल बोट थीं। हिरन थे। उस छोटे से तालाब के किनारे स्कूली बच्चे बाज़ार लगाते थे। इंस्टीट्यूट ऑफ बाइबल या असेम्बली ऑफ गॉड के ठीक सामने अंग्रेज़ी स्टाईल मोटल कम्पनी गार्डन का हिस्सा होता था। नर्सरी , तरणताल, ट्रैक , मार्शियल आर्ट , देसी कसरत , रोज़ गार्डन और न जाने क्या क्या । वो तालाब सूखा फिर सारी रौनक चली गई। 

कभी एक जिलाधिकारी ने कोई तफ्तीश कराई थी। जिसमें तथ्य पाए गए थी । कि हरदोई में बहुत सारे जलाशय हैं। एक जलाशय का संरक्षण हुआ तो उसको सांडी पक्षी विहार से जाना गया। शहर और गांवों में तालाब ही तालाब हुआ करते थे । पर वो सब हलक में सूखते गए। 

फैक्ट्री बरसों से बंद है। यह तालाब सूख रहा था। इसे वर्षों बचाते बचाते खा जाने वाली नज़रों ने इसे छोटा जरूर कर दिया है। पर एक जिलाधिकारी के प्रयासों सेइसे नल कूप से भरने की कोशिश कई महीनों से जारी है। जो कि बिजली के बकाए से बंद हो जाता है कभी कभी। कोई प्रकृति का जानकार ही बता सकता है। कि इसमें पानी कब तक भरा जाएगा यूं ही। सवाल तो उठते ही हैं डलझील से लेकर नैनीताल तक। पर सूरत बदले और सीरत ना बदले तो क्या कहने। बेलाटाली की हजारों मछलियां आज कल ब्रेड खा रही हैं। आंटा खा रही हैं। हम भी जाते हैं अब हवा खाने।

रविवार, 27 सितंबर 2020

समाधान समस्या नहीं !


समाधान का काम 

समस्या से जटिल है

कहीं तो पीढ़ियां खप जाती

कहीं जन्म लेता बचपन

मुंह फेर लेता

शिकन माथे की

त्योरियां हो जाती 

बरसने को तैयार 

कारोबार 

यकीन नहीं करता


हम सब लोग ही तो हैं !

बड़े छोटे

ऊंचे नीचे


आपस में बात करना

चीन की दीवार होना

समन्दर में चांद होना

कोई मुश्किल नहीं है 

और न ही

बच्चे का 

ए से ज़ेड पढ़ना !


मैं सोचता हूं

बूढ़ा हो चला हूं

देह लुजगुन

पलट जाती है

कुछ ठोस

सुझाई नहीं देता 

पर हां 

वक़्त परिश्रम से

चलता है 

श्रम की गुंजाइश न हो

तो दिमाग से 

संसाधन को मानव 

साधन 

बन जाने दो !



मंगलवार, 15 सितंबर 2020

वो कहीं ...

 वो कहीं डर के छिपे है

मेरी किस्मत की तरह ...

बात दो बात की हामी

मेरी फितरत ही कहां...

शनिवार, 12 सितंबर 2020

शायद मैं न रहूं !





होना संसार की

सबसे छल शै  है ।


मैं जब नहीं था

और जब मैं हूं 

या मैं था

और अब नहीं हूं

रहूंगा या नहीं 

यकीनन नहीं रहूंगा ...


कौन आभास कराता है 

मेरे होने न होने को

रोज़ पैदा होता हुआ मैं

या मेरे पहले

पैदा करने वाले मुझे ?


या फिर 

रेंगती ज़िन्दगी में 

होने की बाँट जोहते  

बनते बिगड़ते समीकरण  

घटनाएँ , परिद्रश्य.... 


थक चला हूँ

अपने होने का प्रमाण देते देते  

कोई हक नहीं

मैं , मुझे मेरी जागीर समझूँ  

बेदखली से डरूं 

मैं रहूँ 

शायद मैं न रहूँ ....    


गुरुवार, 10 सितंबर 2020

मैं नहीं मानता !








मैं नहीं मानता आतताई व्यवस्था को

ठग पुलिस को ,

कुटिल जन प्रतिनिधि को

चौराहों पर खड़े गुंडों को ,

घरों में पड़े मुस्टंडों  को


मैं नहीं मानता ईश्वरीय मान्यताओं को

बंधन में बंधे रिश्तों को, 

पितृसत्तात्मक ढांचों को , 

रूढ़ियों की किरचों को


मैं नहीं मानता अपनी देह को

आती जाती सांसों को , 

चक्रव्यूह में फंसते मन को

अपने अकेलेपन को !


मैं मानता हूँ 

समस्याओं के जड़ में बैठे 

समाधानों को 

कर्म को , प्रकृति को 

सायास सरल रिश्तों को 

और मृत्यु को ! 

शुक्रवार, 21 अगस्त 2020

तुम कौन हो ?


रंग ने रंग से मेल किया 

निखर गए सब रंग 

मौसम , बारिश 

पानी , फसलें 

गए जो देखने संग .



बिंदी  

सफ़ेद बिंदी , लाल बिंदी 

पीली , हरी मैरून बिंदी 

टंगी पानी से छल छलाते 

सख्त ललाट पर 


घने जंगलों के 

ठीक भीतर 

सबसे ऊँची चोटी पर 

एक परिंदा रहता है 


देखने वाले महसूस होते दृश्यों ने 

बराबर की  दूरी रखी 

बोलना शांत हो जाता रहता 

बिंदियों के आकार पर 

न जाने बिंदी चाँद क्यों 

हो जाती है . 


बिंदियाँ रहती हैं 

नहीं होने पर भी 

जैसे चाँद नहीं रहता 

एक दिन . 



सुन्दर वन सी तुम 

डूबती समंदर में 

वन लता तुम कौन 

चढ़ती ऊँचें आकाश में 

पृथ्वी लिए ललाट पर 

तुम्हारी काया 

लिपट जाती है 

हरे से 

नीले से 

सुनहरी किरणों से .

शनिवार, 8 अगस्त 2020

गीत

कोई जो मुझे देखे .... याद ना आए ए ए ए 

कोई जो मुझे रोके .... साथ तो आए 

कोई ज़रा ..

कोई ज़रा ...

कोई ज़रा आ आ 

अकेला हूँ ... चला मैं अकेला 

साथ हैं साथी मिले गा सवेरा ...

बरसता हूँ बन के बादल 

गरजता हूँ बनूँ मैं हलचल 

मैं कागज़ हूँ 

कोई ज़रा 

ज़रा ज़रा .

मंगलवार, 28 जुलाई 2020

बारिश आंसू प्रेम !

बारिश आके जा चुकी
आंसू अब भी अटका

बाढ़ का समाचार 
बादलों में लटका 


साफ आसमान
सोंधी मिट्टी में लिसा तन
तल , ऊपर देखता

हारता जीतता
ड्योढ़ी लांघता दुख
टूटता आंखों से
गिरता बूंद बूंद
गली गलियारों  में

छाती पर कन्धों तक 
खड़ी फसल 
छोड़ती सूत तक ना 
मन लिपट कर 
धरती की छाती से 
पानी पानी होता 

न जाने कहाँ से 
आस  की पौध उगती रहती 
 खरपतवार की तरह  

प्रेम से छल जो जाता है
हर बार कोई
बारिश , आंसू प्रेम बनकर !

सोमवार, 13 जुलाई 2020

अनाम !







मेरी देहरी पर गिरा शख्स
मैं ही था, और कोई नहीं
उठा, झाड़ा और
पार कर गया देहरी !

मेरा दोष था
मैंने ही देहरी
ऊंची रखवाई

खिड़कियों को
दरवाज़ा समझाया
गली कुंचों को फब्तियां
बाहर के भीतर को आंगन

वो जो गिर के
संभला मैं वो नहीं
वो तुम हो !

भरोसे की कतरनों को
सीती तुम
कौन हो ?

रविवार, 12 जुलाई 2020

पानी पढ़ना !







भीतर जब बेचैनी हो
पानी पढ़ना !
झीने कपड़े , फटी निकरिया
पानी पढ़ना !
आसमान से बरसे हर्फ
पानी पढ़ना !

शुक्रवार, 10 जुलाई 2020

बारिश !












तुम्हे भीगना अच्छा लगता है ना ?
कितनी एक सी चाह है
हमारी !
और भली भी
बारिश भीगना !

मैं अपना भीगना जानता हूं
इसलिए तुम्हारा भी कुछ कुछ
एक लंबी भूख के बाद
थक हार के ढीले पड़े
पसीना पीते
बदन खारे हो जाते हैं !
उसी वक़्त
बारिश की ठंडी बूंदें
देंह के रुधिरों को
भेदते आत्मा तक पहुंचती !

जैसे धुल गए हों
तमाम सारे रोग,
इच्छाएं और मन के मैल !

शुक्रवार, 3 जुलाई 2020

बारिश !












मुक्त छंदों में गुंथें शब्द
तैरते कोरे कागज़ पर

बारिश की कोई नटखट बेल
चढ़ती खड़ी दीवार पर

टप टप टपकती
नेह ओस बन कर

मेघों का सौंदर्य
रच गया धरती पर

कोमल उंगलियों के स्पर्श ने
मानो धरा को
भर दिया
सौंदर्य बोध से !

रविवार, 24 मई 2020

रोहिणी !

- तुम्हे जाना नहीं है ? रोज रोज देर होने का ताना देते रहते हो ! जैसे मेरी ही वजह से तुम्हे हर रोज दफ्तर के लिए देर हो जाती है .
* जाना है यार ! पर आज थोड़ा लेट जाऊँगा .
- क्यों ?
* क्यों क्या होता है ! अभी नहीं जाना तो बस नहीं जाना. तुमने खाना बना के रख दिया है . तुम्हारा काम ख़त्म . बाकी का मुझपर छोड़ दो .
- कैसे छोड़ दूँ ? मेरी कोई अपनी लाइफ नहीं है क्या ?
* मतलब ?
- मतलब ये कि मैं तुम्हारे हिसाब से चलती रहूँ . सुबह से लेकर देर रात तक . तुम्हारी सुबह की  चाय. तुम्हारा ब्रेकफास्ट , तुम्हारा टिफिन , तुम्हारे माँ बाप का खाना पीना, उनका ख्याल . शाम की चाय . रात का खाना . बिस्तर लगाना . और सोने से पहले कभी तुम्हारा सर तो कभी तुम्हारे पैर दबाना .
* अरे रे रे रे   !!!! तुम बात को कहाँ ले जा रही हो ? तुमसे तो बात करना बेकार है .
(रिषभ झन्न में लैपटॉप बन्द करता है , टिफिन उठाता है और निकल जाता है दफ्तर के लिए )

रोहिणी बाहर का दरवाज़ा बन्द कर के रसोईं समेटने लगती है ... मां के सीढियों से उतरने की आवाज़ सुनकर रोहिणी दौड़ी दौड़ी उन्हें सहारे से उतार लाती है डाइनिंग टेबल तक . टेबल पर नाश्ता लगा के वो अपने कामों में फिर से व्यस्त हो जाती है .
बहू ओ बहू !  ज़रा बाबू जी से भी पूछ लेती नाश्ते के लिए .
अच्छा माँ ...
बाबू जी को अखबार और नाश्ता पहली मंजिल पर बने कमरे में अपने बेड पर ही चाहिए होता .
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उस बन्द घर की चाहरदिवारों की परिक्रमा करते करते रोहिणी के पैर भर आते . अक्सर सिर दर्द की शिकायत रहती  . कूल्हों के बीच रीढ़ की हड्डी अक्सर  चिनग उठती  .एक के बाद एक कामों को निबटाने की उलझन में वो अपना ख्याल कम ही रख पाती  वो ये सब किसके लिए करती ? जवाब एक ही होता " अपने परिवार के लिए !
फिर भी किसी न किसी का मुंह फूला बना रहता . शिकायतें और काम दोनों ख़त्म होने का नाम नहीं लेते. मानों दोनों ने एक दूसरे से अपनी अपनी सुविधानुसार संधि कर रखी  हो .

इधर कुछ दिनों से रिषभ का बिगड़ा मिजाज रोहिणी को खाए जा  रहा था . बिना पूछे कोई काम करो तो कहेगा ' पूछा क्यों नहीं ? .. पूछ लिया तो मुझसे क्यों पूछ रही हो . छोटी छोटी बातों में तुनुकमिजाजी शरीर का खून पतला कर देती है . उसने अब सोचना कम कर दिया है . सोचने से क्या होता है सिवाय खुद का कलेजा जलाने  के . उसे मालूम है कि उसे जैसे तैसे किसी भी तरह अपने आप को काम करने लायक बनाए रखना है . शायद जिम्मेदारी इसी को कहते हैं . जो हर स्त्री अपने कन्धों पर न चाहते हुए भी उठाये रखती है . पति की घर के प्रति बेफिक्री भी शायद इसी जिम्मेदारी की परछाईं में पलती हो .

रोहिणी दोपहर का सारा काम ख़त्म कर के नहाने चली गयी . उसके पीछे कभी फोन की घंटी तो कभी डोर बेल घनघनाती रही  . माँ बाबू जी के जवाब दे चुके घुटनों ने उन्हें ऊपर वाले कमरे में बाँध कर रख दिया था . बार बार उन्हें नीचे - ऊपर, उतरने -  चढ़ने की हिम्मत नहीं पड़ती . रोहिणी की  बे - हिसाब खातिरदारी ने उन्हें और  ठौर ठीहा कर दिया था .  रोहिणी चाह के भी बीच नहान में घंटियाँ  अटेंड  नहीं कर सकती थी . मगर जेहन में वो घंटियाँ लगातार बजती रही . नहाने के बाद वो फोन में पड़ी मिस कॉल चेक करती हैं . उसमें 4  मिस कॉल रिषभ की, 1  उसके भाई की और एक किसी अननोन नंबबर से थी .
  फोन स्क्रीन पर स्क्रोल करते हुए भाई के पास कॉल बेझिझक लग जाती है . उधर से उत्साह से भरी खनकती आवाज़ में "दी हैप्पी एनिवर्सरी" सुनाई दिया . थैंक यू भैया !  मुस्कुराते हुए अचरज से पूछती है भाई तुम्हे कैसे याद रही  मेरी एनिवर्सरी ? .. तुम्हे  मेरा जन्मदिन तो याद नहीं रहता .  क्या दीदी तुम भी ! शादी के बाद से जन्मदिन की छुट्टी हो जाती है . बस वेडिंग एनिवर्सरी रह जाती है . जोर से ठहाका लगाकर वो पूछता है " और क्या ख़ास हो रहा है दीदी आज के दिन ? कुछ नहीं भैया बस रोज का रूटीन ... और बचा ही क्या है जीवन में .
खैर ! तुम सुनाओ कैसी चल रही है तुम्हारी पढाई और घुमाई ? बस दीदी सब ठीक ही चल रहा है .
  कॉल वेटिंग में रिषभ का नंबर देख रोहिणी भाई से कॉल स्वैप करने की  इजाजत लेती है और कहती है  भाई फुर्सत मिलते ही तुम्हे करती हूँ कॉल . !
     रिषभ का कॉल अटेंड करते ही वह बोली ....  हां बोलो ! दूसरी तरफ से ऊँची आवाज़ में ...फोन क्यों नहीं उठाया ? 6 बार कॉल कर चुका हूँ . बाहर दरवाज़े पर कोई तुम्हारा इंतजार करके चला गया . पता नहीं कहाँ व्यस्त थीं . मैंने तुम्हारे लिए बुके भेजा था . वो बेचारा डिलीवरी मेन इंतज़ार कर के वापस चला गया .  मैरिज एनिवर्सरी विश  करने के लिए फोन किया था . सारा मूड ख़राब कर दिया . नान सेन्स ...... !!!! कह कर  रिषभ  ने फोन डिस्कनेक्ट कर दिया .
        रोहिणी की आँखों में पानी भर आया  , गला रुंध गया .  उसने दो बार पलट के कॉल की . पर इस बार मशीनी आवाज़ में " आपके द्वारा डायल किया गया नंबर अभी व्यस्त है , कृपया कुछ समय पश्चात प्रयास करें " आपके द्वारा डायल किया गया नंबर स्विच्ड औफ़ है कृपया कुछ समय पश्चात् कॉल करें "  सुनाई दिया . उसने फोन साइलेंट  मोड पर सेट कर चुप चाप जाकर अपने कमरे में लेट गयी . वैसे उसे दोपहर में सोने की आदत नहीं है या यूँ कहें समय नहीं होता . पर आज भारीपन के कारण  उसकी आँख लग गयी . टुकड़े टुकड़े सपनों के ताने बाने में उलझती , सिहरती वो विचरती रही .  डोर बेल की अधीर आवाज़ के साथ उसकी नींद टूटी .
        रिषभ दरवाज़े पर उसके सामने हाँथ में कुछ थैली भर सामान लिए खड़ा था . ये सामान रखो , अभी मैं कुछ देर में आता हूँ . हमारी एनिवर्सरी पर मैंने कुछ दोस्तों को इनवाईट किया है . पीछे पड़ गए थे स्साले पार्टी के लिए . तुम खाने की तैयारी करो . लेट मी ग्रैब सम ड्रिंक्स .
       रोहिणी ने सामान रसोई में रख दिया . और फोन देखने लगी . कई छूटी हुयी कॉल्स . उनमें से  कुछ जानने वाले लोगों की और वही अननोन नंबर से मिस्ड कॉल्स . उसके पास उन मिस कॉल्स का जवाब देने के लिए न तो समय था न ही इच्छा .  शाम की चाय के साथ ग्रैंड डिनर की तैयारियों में एक बार फिर से वह रसोईं वाले खूंटे में बन्ध गयी . रिषभ वापस आकर ड्रिंक्स फ्रिज में लगा कर फ्रेश होने चला जाता है . वह नहा धो कर फ्रेश मूड से खाने में रोहिणी की मदद करने लगता है . दोनों बिना किसी संवाद के डिनर की तैयारी में जुट जाते हैं .
        सीढ़ियों से बाबू जी के खट.....एक अंतराल .... पट उतरने की  आवाज़ आती है. रिषभ उनके पैर छू कर उन्हें सोफे पर बैठाल देता है . पापा  आज हमारी वेडिंग एनिवर्सरी है . सो मैंने सोचा कि एक पार्टी रख लेते हैं . घर का माहौल बदलेगा . महीनों एक जैसे दिन काट काट के हम सब बोर हो जाते हैं . सोचा फॉर अ चेंज .....
        हां हां बेटा क्यों नहीं ! 6  साल हो गए तुम्हारी शादी को . वक़्त निकलते पता ही नहीं लगता . लगता है जैसे अभी अभी रोहिणी ब्याह के घर आई हो . रोहिणी और तुम लोग खुश तो हो ना ?
       हां पापा ! आप और माँ के आशीर्वाद से सब कुछ ठीक चल रहा है . बस एक ही कमी खलती है . बच्चे की .
   तुम किसी डाक्टर से कंसल्ट कर तो रहे हो ! क्या रेस्पोंस है उसका ?
पापा कई डाक्टर से कंसल्ट कर चूका हूँ . पर डाक्टर प्रसाद की बातों में दम खम लगता है . कहते हैं यह साल नहीं चूकेगा . और यदि स्वाभाविक तौर पर नहीं संभव हुआ तो आई वी एफ (इन विट्रो फर्टिलाइजेशन गर्भधारण करवाने की एक कृत्रिम प्रक्रिया) वाला औप्शन कहीं गया नहीं .
 अच्छा अच्छा ठीक है ! चलो तुम लोग पार्टी की तैयारी करो मैं ज़रा घूम के आता हूँ . और हाँ तुम्हारी पार्टी में मैं भी शामिल रहूँगा . हा हा हा ....!
रिषभ रसोईं में पहुँचते ही काम कर रही रोहिणी को  कंधे से धकेलता है . रोहिणी को गुदगुदाते हुए कहता है  6 साल हो गए हमारी शादी को ! गहरी सांस लेते हुए ! बस एक बच्चा हो जाता , तो सारी कमी पूरी हो जाती . हम सब की .
    रोहिणी झुंझलाकर कहती है ! मुझे नहीं चाहिए बच्चा वच्चा ! मुझे लगता है हम अभी बच्चे को अच्छी परवरिश देने के लिए तैयार नहीं हैं . हमारे बीच बढती दूरियों का क्या असर पड़ेगा उस पर ? किसी के पास समय है, उस बच्चे की देख रेख करने को ? माँ बाबूजी वक़्त से पहले ही रिटायर हो चुके हैं . काम से भी और शरीर से भी . तुम्हारे पास काम से ज्यादा काम का रोना है . मेरे पास घर का चुल्हा चौका , झाड़ू पोछा और तुम सब मानसिक बीमार लोगों की तीमारदारी की जिम्मेदारी . एक अच्छी भली नौकरी करती थी . बाहर निकल कर खुली हवा में सांस लेने का जरिया था वो . अपनी झूठी शान में तुम सब लोगों ने वो भी छुडवा दी .
  रिषभ के भीतर करेंट सा दौड़ गया . जस्ट स्टॉप दिस नान सेन्स . अदरवाइज़ ......
नहीं तो क्या ? रोहिणी का पारा सातवें आसमान पर था . रिषभ की  तरफ उसके तने हुए हाँथ हथियार हो चले थे .
माहौल को गर्माता देख रिषभ कुछ ठंढा होता है ... जस्ट लीव इट , आई कांट अफोर्ड दिस , राईट नाऊ .
फ्रीज़ से एक बियर निकाल के एक सांस  में आधे से ज्यादा उड़ेल लेता है . दिस टाइम विल पास औन ... डोन्ट वरी .... एक बार बच्चे के कदम घर में पड़ते ही सब कुछ ठीक हो जाएगा.
       डोर बेल बजती है . रिषभ दरवाज़ा खोलता है . उसके चार पांच दोस्त " वैरी वैरी हैप्पी एनिवर्सरी " कह कर घर पर धावा बोल देते हैं . मजाक ठहाकों से घर गूँज उठता है . मेहमानों की दूसरी खेप में रिषभ के आफिस कलीग आते हैं . जिसमें उसके ऑफिस में रिसेप्शनिस्ट के तौर पर काम करने वाली  रेखा भी शामिल है. रेखा को देखते ही रिषभ की माहौल को ख़राब होने की  चिंता कुछ कम हुयी  . रेखा आओ चलो मैं अपनी वाइफ से तुम्हे मिलवाता हूँ . अच्छा हुआ तुम आ गयीं . रोहिणी का हाँथ बंट जाएगा . रेखा को देख कर रोहिणी भी नार्मल हुयी . रिषभ ने रोहिणी से कहा जल्दी से तुम तैयार हो जाओ . नाऊ वी आर इन सेलिबेरेशन जोन .
       रोहिणी रेखा को काम समझा कर अपने रूम में तैयार होने चली गयी . साइलेंट फोन की स्क्रीन पर वही अन नोन नंबर फ्लैश हो रहा था . उसने फोन पलट कर रख दिया . शावर से निकलने वाली गुनगुनी बूंदों से रोहिणी ने अपनी सारी जहनी और जिस्मानी थकन धो डाली . मन पसंद ड्रेस पहनी . शीशे के सामने बैठ कर गहरी - लम्बी साँसे समेटती - छोडती  . उसने ड्रेसिंग टेबल पर  एक उदास मुखौटा उतार के रख दिया और दूसरा पार्टी टाइप पहन लिया .  फोन पर अभी भी वो अन नोन नंबर फ्लैश कर रहा था . फोन को अन लॉक किया . उस अन नोन नंबर की 26 मिस कॉल्स .
        रोहिणी ने नंबर डायल किया . फोन के दूसरे छोर से भारी , गहरी ठहरी हुयी आवाज़.... हेलो रोहिणी   !
 एक लम्बी चुप के बाद ..  कौन ..... राकेश ?
हाँ ! मैं राकेश बोल रहा हूँ .
ओह ! कैसे हो ?
मैं ठीक हूँ , तुम कैसी हो ?
मैं भी ठीक हूँ .
परसों से मैं तुम्हारा नंबर ट्राई कर रहा हूँ . उठ ही नहीं रहा . थोड़ी सी फिक्र हुयी . मुझे तुम्हारी एनिवर्सरी याद थी . इत्तेफाक से मैं शहर में ही हूँ . कल रात मैंने रिषभ का नंबर खोजा . याद आया तुमने एक बार दिया था . कहीं डायरी में लिख लिया था . आज सुबह सुबह मैंने उसे कॉल कर के विश किया . मैंने बोला था उसे तुमको मेरी कॉल के बारे में बताये और मेरी विशेज भी पंहुचा दे...उसने मुझे भी इनवाईट किया था आज शाम को . मैंने सोचा तुम्हारी मर्ज़ी भी तो जरुरी है .
रोहिणी के दिमाग में दिन का पूरा घटनाक्रम रिवाइंड हो गया . उसके  चेहरे पर अभी अभी खिली मुस्कान राकेश तक पहुच चुकी थी . व्यस्तता के चलते मैं कोई उपहार नहीं ले सका . पहुँचता हूँ मैं थोड़ी देर में . और उसने कॉल डिस्कनेक्ट कर दी .
 बाहर लिविंग एरिया का  माहौल मस्ती  में सराबोर था . रेखा डिनर को फिनिशिंग टच दे रही थी .
रोहिणी को देख कर रेखा ने उसके सुन्दर दिखने की तारीफ़ की . दोनों उस शोर में शामिल हो गए .
 रोहिणी पहले की तरह अब असहज नहीं थी . उसके दिमाग में राकेश की बातें चल रही थी . राकेश जो कि अब रोहिणी की  दुनिया में नहीं है .फिर भी गाहे बगाहे हाल चाल लेने भर की बातें फोन पर  हो जाती . कई सालों से वो मिले तक नहीं थे. रिषभ से विवाह होने के बाद दोनों ने ही आपसी समझ से एक दूसरे से दूरी बना ली थी . उसका इतनी बार कॉल करना , शहर में होना ... अजीब सा इत्तेफाक है . खासतौर से तब जब रोहिणी अपने आप को बेहद अकेला फील कर रही थी . वो खुद को वापस राकेश से खींच रेखा के पास ले आती है . रेखा दोनों के लिए ड्रिंक्स बनती है . रोहिणी ने नशे के नाम पर कभी कुछ नहीं चखा था . फिर भी उसने रेखा को मना नहीं किया . रेखा पहली ड्रिंक ख़त्म करके दूसरी पर आ गयी . लेकिन रोहिणी की  ग्लास वैसे ही रखी है ... वो दोनों बाकी आदमियों के बीच होते हुए भी अलग ही थे . रोहिणी चाह कर भी खुद को स्थिर नहीं रख पा रही है .   उधर रिषभ अपने सारे दोस्तों के सामने प्रेम, शादी और परिवार पर डींगे हांक रहा है . कई बार रोहिणी का मन हुआ रिषभ से राकेश की कॉल के बारे में पूछने का ....लेकिन उसने टाल दिया . रिषभ ने भी अभी तक राकेश का कोई जिक्र नहीं किया था . 
        हाई नोट्स पर बज रहे संगीत के बीच डोर बेल बजती है . इस बार वो केवल रोहिणी को सुनाई देती है .  रोहिणी यूँ ही अपने मोबाइल में अपना चेहरा देखती है . वो दरवाज़े की धीरे धीरे बढती है . दरवाज़े कि सिटकिनी खोलती है . देहरी के उस पार बाबूजी को देख कर उसके माथे पर फिर से उदासी की लहर रेंगने लगती है . वो खुद को देहरी के उस पार छोड़ बाबूजी को सहारे से  भीतर ले आती है . पूरा घर सुरूर में बहकने लगता है . इस बार रोहिणी ने भी अपनी ग्लास का ड्रिंक ख़त्म कर लिया था . पूरी महफ़िल में रिषभ और रोहिणी ही चर्चा के केंद्र थे . दोनों बगैर आपस में बात किये हुए औरों कि हाँ में हाँ मिला रहे थे . सब रोहिणी के हांथों बनाए स्नैक्स  की तारीफों के पुल बांधते रहे . 

बाबूजी हाँथ में आखरी ड्रिंक उठाये चियर्स करते हुए गर्व से कहते हैं .... रिषभ की पसंद पर मुझे नाज़ है जिसने रोहिणी जैसी बहू का चुनाव किया . डिनर ख़त्म होता है . अस्त व्यस्त घर छोड़ के सारे मेहमान एक साथ बाहर निकल जाते हैं . रिषभ और रोहिणी भी बाहर तक सबको सी औफ़ करने आते हैं . रिषभ दोस्तों के साथ कुछ दूरी तय करता है . रोहिणी पलट के घर के अन्दर प्रवेश करने को मुड़ती है . दरवाज़े के बाहर किनारे वाली बेंच पर एक किताब और कुछ फूल पाती है . किताब के कवर पर काँटों में उलझी एक काया नज़र आती है . नीचे बॉटम में किताब का नाम " रोहिणी " लिखा होता है . पहले पन्ने पर " हैप्पी एनिवर्सरी " फ्रॉम राकेश लिखा देख कर रोहिणी अवाक रह जाती है . अपने कमरे में जाकर फोन से " थैंक यू " का मेसेज उस अन नोन नंबर पर भेज देती है . और अस्त व्यस्त पड़े घर को संभालने में लग जाती है ... 

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शुक्रवार, 22 मई 2020

"पता नहीं" अब राज पथ है !


" सब कुछ तो कहा  जा चुका है हमारे बीच  . अब कहने सुनने को कुछ बचा नहीं ."  तुम्हारा यही जवाब मैं लिए लिए फिरता हूँ . पर यह जवाब मेरे लिए काफ़ी नहीं रहता  . बनिये की तरह जब मैं तुम्हारे इस जवाब को आने वाले समय के साथ तौलता हूँ . तो जीवन का हिसाब  किताब गड़बड़ाने लगता है . उम्मीद का जहाज डगमगाने लगता है . तुम्हारी ही कही हुयी कोई बात , मेरे लिए सबक का ककहरा बन जाती है . जीवन के सूक्ष्म तत्वों में फैलाव की असीम संभावना बन तुम मुझमें भर उठती हो .
         मैं खुद से बे - अदब  तौल  करने की  शिकायत करता हूँ . डांटता हूँ खुद को .. कई बार रूठ कर बैठ जाता हूँ खुद से. अंततः सोचता हूँ मेरा  रूठना तुम्हारे रूठने से कहीं कम है . यह रूठना मनाना चलता रहता है खुद से . जानता हूँ इसके अलावा कोई दूसरा रास्ता भी तो नहीं , जो मुझे तुम तक ले जा सके . सारे रास्ते तुमने बन्द कर रखे हैं .  रास्तों का बन्द होना , मुझे मेरे भीतर के रास्तों के खुलने जैसा आभास कराता है .  सब कुछ तो कहा जा चूका है . सारे रास्ते तय हो चुके हैं . बाहर के .
         तब  तुम्हारी  गूढ़ जीवन सी भरी बातें मेरी समझ से परे थीं  . मैं अक्सर तुम्हारी बातों को हवा में उछालता . दूर छिटक के खड़ा हो जाता . तुम्हारी बातों को बारिशें बनते देखता . तुम उनके माध्यम से  प्रेम में डूबी हुयीं स्त्रियों की कहानियाँ कहतीं  . मैं हसंता , मुस्कुराता आगे बढ़ जाता . तुम अचंभित मुझे उस पल से बिना किसी भार के निकलते हुए देखती .
उफ्फ्फ !!!!!!!!!
तुम्हारे टूटने में कोई आवाज़ नहीं होती . बड़ी साहिस्तगी से तुम उसे गहरे जुड़ने से जोड़ देती . पर रूठना तो दिमाग की एक रासायनिक प्रतिक्रिया  है . तुम्हारे रूठने  से मैं डर जाता . छिप के  किसी किशोर प्रेमी की तरह रोते रोते रटता रहता . एक बार बात कर लो ! एक बार कॉल उठा लो  ! एक बार मेरे मेसेज का जवाब दे दो ! एक बार मिल लो ! कुछ भी न हो सके तो कम से कम एक बार मुझे एहसास दिला दो कि तुम हो मेरे लिए, मेरे साथ . तुम कहती आभासी दुनिया कोई दुनिया है क्या !
हुंह !!!!!  साथ ..... कैसा साथ ?
सच ! हमारे बीच अब फासला ही बचा है .
जैसे हमारे बचे हुए जीवन का फासला  !
बड़प्पन - लड़कपन का फासला !
हमारी आजादी का फासला !
हमारे एकांत का फासला !
हमारे फैलाव का फासला !
मुझे मालूम है . जिस रास्ते तुम्हे जाना नहीं, उन रास्तों का पता तुम अपने पास नहीं रखती . तुम्हारे जड़  अनुभवों से उपजे निष्कर्षों  ने तुम्हे कठोर  बना दिया . नमी अब तुम्हारा स्वार्थ है  . तुम्हारे  कहे को अनसुना करना तुम्हे बर्दाश्त नहीं . सब कुछ तो कहा  जा चुका है हमारे बीच  . अब कहने सुनने को कुछ बचा नहीं.
         फिर भी ,  मैंने  सुने जाने की जिद दिल - ओ - दिमाग में पाल ली है  . जिद फितूर नहीं होता शायद . धीरे धीरे सुने जाने की अर्जियां बेचारी होने लगती हैं . बेचारगी की लम्बी तानों के बीच एक स्वर " पता नहीं " का फूट पड़ता है  . स्वर के फूटते ही मैं खाली हो जाता हूँ . "पता नहीं" राज पथ हो जाता है  .
     मन करता है "पता नहीं" को सीने से लगाये चलता रहूँ जिन्दगी भर . ठौर मिले तो सुकून से छलक जाऊं . एक ऐसा सुकून जैसे नदी एक छोर पर आकर ख़त्म हो जाए . सिर्फ मेरे लिए . उसके बाद कोई सवाल न पूछा जाए . बहस की कोई गुंजाइश न रहे . मैं चुप , उस चुप पर उठने वाले सारे सवाल चुप .

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गुरुवार, 14 मई 2020

पलायन !














एक दिन जब मैं
चैन से सो रहा होऊंगा ...
पीछे छूटी सैकड़ों मील थकन 
पैदल चलने का दर्द नहीं रहेगा 
कर्ज की कोख में उपजे साधन 
समाधान हो जायेंगे 
परिवार के बोझ से 
काँधे हलके हो चुकेंगे 
दूर देश 
मैं सपनों की गठरी बांधे 
अपने बच्चों में 
तारे बाँट रहा होऊंगा !

एक दिन जब मैं 
चैन से सो रहा होऊंगा ...
खेतों में बालियाँ ठूंठ हो चुकेंगी 
घरों के चूल्हे बुत चुकेंगे
महामारी में मडैया चल निकलेंगी  
दुध मुहें बच्चे 
सूखे  स्तनों से चिपटे 
मुझ तक आ पहुचेंगे 
मैं गहरी नींद में लोरियां गुनते 
थपकियाँ देकर उन्हें सुला दूंगा 


एक दिन जब मैं 
चैन से सो रहा होऊंगा
जंग के बाद
जीत का जश्न होगा 
मजदूरों से खाली मकान होगा  
सरकारें मेरे नाम से 
राशन बाँट चुकी होंगी

एक दिन जब मैं 
चैन से सो रहा होउंगा 
सिर्फ सो रहा होऊंगा 
सिर्फ सो रहा होउंगा. 

तस्वीर : साभार गूगल

रविवार, 10 मई 2020

उदास मौसम की चिट्ठियां
















उदास मौसम की चिट्ठियां
बन्द  हैं लिफाफों में
पतों पर लिखा  " यहाँ सब ठीक ठाक है "
नाम की जगह "अपना ख्याल रखना " .


महामारी के संक्रमण काल में
संपर्क की मनाही है
दूरियां , वक़्त की मांग है 
बन्द कमरों का उदास मन
साइक्लोजिकल डिसआर्डर से बचता
रोज चिट्ठियां लिखता है .


एक अरसे से डाकखाने बन्द हैं
डाकिये , दवाखानों में व्यस्त हैं
लिफाफों से पत्र पेटियां भर चुकी हैं
लाचारी  के दौर  में
उदास मन
और क्या लिखता भला ?


जो लिख रहा है , वो बच रहा है
जो पढ़ पा रहा है,  वो बच रहा है
जो लिखना पढना नहीं जानते
वो मर रहे हैं .


उजाड़  मन
निकल चुके हैं
लम्बी, अंतहीन यात्राओं पर
पुलिसिया पूछताछ से छिदते
कालकोठरी में समय हारते
धरती पर रेंगते 
पहुचते हैं 
एक और
उदास मौसम में .


गुरुवार, 7 मई 2020

कच्ची सड़क


उस दिन हमारी कॉफ़ी एक दूसरे का साथ निभा नहीं पायी थी . सच ! मुझे रत्ती भर भी अंदाज़ा होता कि तुम्हे डार्क कॉफ़ी पसंद है , तो मैं कुछ कुछ वैसी ही ऑर्डर करता . मुलाकातों का सलीका मुझे कभी नहीं आया . मुलाक़ात  पहली हो या आखरी . फोन पर मैंने ही तुम्हे अच्छी कॉफ़ी पिलाने का यकीन दिलाया था . मेरे लिए अच्छी कॉफ़ी वही थी जो मुझे पसंद थी . तुम्हारी पसंद और ना पसंद की  मैंने कोई जगह रख नहीं छोड़ी थी . शायद यही कारण था कि मेरा अब  तक कोई हकीकी दोस्त नहीं था . 
       तुम्हारा मेरे शहर आना बड़ी बात थी मेरे लिए  . पहले की  तरह ऐन वक़्त पर मुलाक़ात टलने का डर जरूर था .  पर उस डर पर मैंने अपनी तरह से काबू पाना सीख लिया था. हर मुलाक़ात की मुकर्रर तारीख पर मैंने अलग अलग जगह कॉफ़ी पीना शुरू कर दिया . पिछली दो बार से बिना किसी मुलाक़ात का ख्याल लिए कॉफ़ी हाउस की कॉफ़ी पर दिल आ गया था . तब से वो मेरे लिए शहर की  सबसे अच्छी कॉफ़ी हो गयी . अच्छी कॉफ़ी के पीछे एक कारण और था . उस रास्ते ढेर सारे गुलमोहर, अमलताश के पेड़ . तुम्हारी तस्वीर में तुम्हारे बालों का रंग और दहकती सड़क के दोनों और गुलमोहर  के बिखरे फूलों के रंग मुझे एक से लगते . तुम्हे तुम्हारी तारीफ़ करना एकदम पसंद नहीं . इसलिए मैंने तुमसे कभी इस बात का जिक्र नहीं किया .
        हरे लिबास में,  तुम तय समय से कुछ देर बाद ऑटो से उतरी . मुस्कुराते हुए ऑटो वाले को शुक्रिया कहा . और दाखिल हुयीं कॉफ़ी हाउस में . मैं अभी भी सड़क के उस पार था. काश मैं तुम्हे इंतज़ार करते हुए देर तक देख पाता. मुझे वक़्त से पहले पहुंचना पसंद है . वक़्त से पहले पहुँच वक़्त को निहारना सुखकर होता है. कॉफ़ी हाउस के शीशे की  आड़ से मैंने देखा, तुम बैठी हुयी थी बुद्ध की तरह  इत्मीनान से . जैसे तुम्हे किसी की  तलाश नहीं, किसी का इंतजार नहीं . मैंने खुद को असहजता से सहजता की ओर जाने के लिए तैयार किया. तुम्हारे पीछे से आकर अचानक तुम्हारे सामने प्रकट हो गया. एक औपचारिक मुस्कराहट लिए "हेलो" से बातों का सिलसिला ठहरता, चलता चल निकला.  
         तुम्हारी गहरी , भारी बातों के सामने मेरा उठ्ल्लापन कहीं टिक नहीं रहा था . हालाँकि हमारा बेवजह मुस्कुराना सम पर था. मैंने दो बार सर्विस काउंटर की तरफ देख कर सुनिए सुनिए की पुकार लगाई . तुमने इशारों में मुझे काउंटर पर लगे  सेल्फ सर्विस का बोर्ड दिखाया . ओह ! मुझे वो बोर्ड दिखाई नहीं दिया . तुमने मुस्कुराते हुए मुझसे कहा " देखने के लिए नज़र चाहिए ".  टेबल पर पड़े  लम्बे चौड़े मेन्यू कार्ड को मैंने तुम्हारी तरफ सरकाया . फिर वापस अपनी ओर खींच लिया . "इट्स माई कॉल" कह कर मैंने जाकर ऑर्डर कर दिया . दो कोल्ड कॉफ़ी, दो वेज सैंडविच . 
       मेरे  पास कुछ भी महत्वपूर्ण बताने के लिए नहीं था. सिवाय उस कोल्ड कॉफ़ी की तारीफ के . तुम बार बार शीशे के उस पार सड़क पर रेंगते शहर को देखतीं तो  कभी मेरे कॉफ़ी और सैंडविच पर टूटने को . मेरी कॉफ़ी और सैंडविच के साथ हमारी बातें जल्द ही ख़त्म हो चुकी थीं . तुमने यह कहते हुए अपने  सैंडविच का बचा बड़ा सा हिस्सा  मेरी तरफ बढ़ा दिया, कि खाने पीने के सामान को वेस्ट नहीं करना चाहिए  . मैंने उसे पहली मुलाक़ात का सबक  समझ के खा लिया . तुम्हारी छोड़ी हुयी आधे से ज्यादा कोल्ड कॉफ़ी को मैं पी लेना चाहता था . मुझे डर था कि कहीं उस कॉफ़ी को जूठा कह कर मुझे रोक न दो. मेजबान और मेहमान के नए नियम गढ़ते हुए  तुमने सारा का सारा बिल भर दिया .  हमारे उस कॉफ़ी हाउस से निकलते वक़्त मैंने उस छूटी हुयी कॉफ़ी को पलट के देखा....और तुम्हे मुस्कुराते हुए सी ऑफ किया ... तुम बिना पलटे उस सड़क से ओझल हो गयीं . 
      उस पहली मुलाक़ात में बहुत कुछ छूट चूका था. पहली मुलाक़ात का रुमान छूट चूका था , वो गुलमोहर, अमलताश वाली सड़क छूट गयी थी. नदी का किनारा छूट गया था. बहुत ठहरी हुयी मुलाक़ात छूट गयी थी . तुम बिना किसी वादे के अपने शहर लौट चुकी थीं . मैंने तुमसे खिलखिला कर फोन पर पूछा .  हाउ वाज़ अवर डेट ? तुमने कहा . मैं डेट वेट नहीं जानती कैसी होती है, और क्या होती है . मैंने फिर पूछा  हाउ वाज़ कोल्ड  कॉफ़ी ? तुमने कहा तुम्हे ज्यादा दूध वाली कॉफ़ी पसंद नहीं.
      

मंगलवार, 5 मई 2020

सहन के उस पार !



रामी ने अब ठान लिया था कि वो गुल्टू को लेकर  घर वापस  कभी नहीं आएगी .  जिग्गा ने इस घर में रहना नरक कर दिया था . शराब के नशे में जिग्गा आदमी नहीं रह जाता . वो जानवर से भी बदतर व्यवहार करता . आये दिन मार पीट, बलात्कार, गाली गलौज और  बच्चे को जान से मार कर खुद मर जाने की धमकी रामी से सहन नहीं होती .
 जिग्गा की  वहशत उसकी पहली पत्नी ने सहन नहीं की . तो वो क्यों करे भला ! उसने खुद को आग लगा ली थी . कोर्ट कचहरी के डर से घरवालों ने उसे घर में ही दफना दिया था . रामी 5  सालों  से जिग्गा और उसके परिवार को  सहन  करती आ रही थी . पर अब नहीं ... अब और नहीं ....! रात में वो किसी समय गुल्टू को लेकर कहीं दूर चली जाएगी . 
     रामी.... रामी ! कहाँ मर गयी , दरवाज़ा खोल ! जिग्गा की लहराती हुयी, ऊँची , कर्कश आवाज़ सुन रामी सिहर जाती है . झट से वो आजादी के सपनों से भरी गठरी  को तख़्त के नीचे सरका देती है . अपने चेहरे से साहस और डर पोछते हुए दरवाज़ा खोलती है . शराब के नशे में धुत्त 6 फीट का जानवर,  रामी के कन्धों पर अपना धढ़ फेंक देता है . दांतों को किटकिटाते  हुए वो पूरी तरह से उसे छाप लेता है . रामी  उसको ठेल देने की भरपूर कोशिश करती   है.  पर  जिग्गा उसकी देंह पर हावी होता रहता है ... रामी की साँसे भारी होने लगती हैं .
      दोनों के बीच बढ़ते संघर्ष की आवाजें दीवारों को हिलाने लगती हैं . दहशत  से गुल्टू की नींद खुल जाती है और वो जोर जोर से मां को पुकारने लगता है . गुल्टू के चीखने की आवाज़ ने रामी के भीतर न जाने कहाँ की ताकत भर दी . एक पलटे हुए दांव में वो जिग्गा की छाती पर चढ़ जाती है . अपनी जांघों से जिग्गा की  पसलियों को रौंदते हुए थप्पड़ों की  बारिश करने लगती है  .  छटपटाहट की एक झूंक के बाद  जिग्गा सिथिल पड़ने लगता है . कमज़ोर पड़ता देख रामी दौड़ के गुल्टू को अपने गोद में उठाती है . और तख़्त के नीचे रखी गठरी  लेकर, नंगे पैर  तेज़ी से खुले दरवाज़े की  देहरी लांघ लेने को  भागती है....और तेज़ भागती है .... भागती रहती है... खुले आसमान के नीचे .... भोर  होने तक....! 
 

शनिवार, 2 मई 2020

दूध


मां हमेशा दूध के लिए बहुत संवेदनशील रही . मसलन खुद से घंटों इंतज़ार कर के दूध लाना. उसको अपनी आँखों के सामने खौलाना . खौला कर उसको एकदम ठंढा करना. सुबह फ्रीज़ से निकले दूध की मोटी मलाई को निकाल कर एक अलग बर्तन में रख देना. फिर उस दूध को जरुरत के हिसाब से छोटे छोटे बर्तनों में बाँट के रख देना .  हर दिन फ्रीज़ में कम से कम तीन से चार छोटे बड़े बर्तनों में दूध रहता ही रहता है. इस पूरी कसरत का नतीज़ा महीने भर घी के रूप में घर भर के खाने का स्वाद बढाता रहता है. उन्होंने न जाने क्यों दही को कभी ज्यादा तरजीह नहीं दी . दही को वो अधिकतर बाईपास कर जाती . कई बार फरमाइश पर एक आध बार कभी जमा दिया तो ठीक . वरना दही का जावन बाहर से ही लाना होता.
        अपने, पापा और बच्चे का शाम का दूध , अक्सर खाने में रोटी के साथ मलाई और दाल , सब्जी रोटी के साथ घी का इंतजाम हमेशा रहता  . दूध और घी के बीच मक्खन पर भी कभी कभी हाँथ साफ़ हो ही जाता है. माँ दूध का प्रबंधन इस तरह से करती है कि मैं व्यंग के तौर पर उन्हें दूध का वैज्ञानिक कह दिया करता हूँ . और चूल्हे पर चढ़े बड़े से पतीले में धीमी आंच पर पकते दूध को भाभा एटोमिक रिसर्च सेंटर की चिमनी की संज्ञा दे देता हूँ .
         दर  असल माँ का दूध के प्रति यह पजेसिवनेस मैंने बचपने से देखा है. मुझे दूध से बने सभी उत्पाद बेहद पसंद हैं . पर दूध की प्रोसेसिंग को मैं कभी भी संभाल नहीं पाया . बचपने में कभी कभी माँ दूध चूल्हे पर रख के सोने चली जाती . सोने से पहले गर्म होते दूध की निगरानी का जिम्मा मुझे सौंप जाती . उधर खेल में मैं अटक जाता इधर दूध उबल  के बर्तन की  दहलीज़ पार कर जाता. बस उस दिन हमारी बन आती . माँ का पारा दिन भर चढ़ा रहता . वो किसी न किसी बहाने से उसकी खीज हम पर निकाल ही  देती . उसकी आँखें दिन भर बड़ी हुयी रहती . दूध की मलाई से कोई छेड़छाड़ वो झट से भांप लेती . माँ के हांथों की बनी खीर हमेशा गाढ़ी रही . उनकी खीर कभी भी अचानक नहीं बनी . और न ही बन सकती है . वो पिछले कुछ दिनों की बचत के बाद  ड्योढ़े दूध को गाढा कर के बनाती. माँ के हांथों की  खीर घंटे दो घंटे बाद थक्के ऐसी जमी होती.
        हालाँकि अब वो औसतन 10 में से 4 बार दूध को उबलने से नहीं रोक पाती है . कभी टी वी सीरियल तो कभी अन्य काम में पड़ कर भूल जाती है . लम्बे अरसे से वो डायबिटिक है . माँ ने उसको अपने बच्चों और पति के लिए बखूबी सम्भाला. घर में बहू के आने के बाद भी दूध की  चाबी उन्ही के हाँथ रहती है .
        दूध और दूध से बने उत्पाद मुझे बेहद पसंद हैं , बचपन से ही . कच्चा दूध पीने का चस्का मेरी बड़ी मां ने बचपने में लगा दिया था . गाँव में बड़ी माँ जब भी दूध लगाती . मैं दूध की धार की आवाज़ सुन अपनी ग्लास ले आता . वो ग्लास में ही दूध दूह देती . ग्लास में खूब सारा झाग वाला दूध . ग्लास से दूध पीने  के बाद लम्बी चौड़ी सफ़ेद मूंछ . अपने दुध्हड़ पने के सैकड़ों किस्से हैं . पर उनमें से सबसे यादगार ये है . 10 वीं क्लास कि बात रही होगी शायद , शहर में हमारा दूधिया " चौधरी " कई बार मुझे मजाक मजाक में दूध पीने का आमंत्रण देते रहे . मैं भी कह देता कि जिस दिन पिलाओगे , पछताओगे . एक दिन मैं खाली हाँथ पहुँच गया . चौधरी ने पूछा बर्तन ? मैंने कहा बर्तन कि जरुरत नहीं अंजुरी में पिला दो . बस वो बालटे से दूध नाते रहे और मैं अंजुरी से गट गट गट पीता रहा. उसके बाद गाहे बगाहे चौधरी का प्रेम उमड़ जाता. कभी कभी मुझे महसूस होता है कि माँ का दूध प्रेम शायद मेरी पसंदगी के कारण ही फलता फूलता रहा . उन्होंने कभी यह बात अपने मुंह से नहीं कही.
         मेरे व्यक्तिगत अनुभव से दूध को संभालना बहुत पेचीदा काम है . पढ़ाई के बाद ज्यादातर जीवन अकेले ही बीतता गया . कभी दूध का भार किसी हेल्प ने रख लिया , तो कभी चाय बाहर से पीता रहा . जब कभी दूध पीने की  शदीद इच्छा हुयी तो पैकेट वाला दूध लाकर कच्चा ही गटक लिया . एक तरह से देखा जाए तो दूध मेरे जैसे काहिल लोगों के लिए बहुत बड़ा सहारा बन सकता है. कभी दूध में रोटी , कभी दूध में ब्रेड , कभी दूध में जलेबी तो कभी दूध में चावल . लेकिन दूध के झंझावात ने खाने पीने  की  सहूलियत को हमेशा सुपरसीड किया. और मेरे अपने चूल्हे पर कम ही चढ़ा.
       अब 2020 ने अच्छे अच्छों को छठी का दूध याद दिला दिया. इस वैश्विक महामारी ने सबकी दशा और दिशा को प्रभावित किया . मैं भी इससे अछूता नहीं रहा . कोरोना वायरस की पकड़ को कमज़ोर करने को पूरे देश में लॉक डाउन का सहारा लिया गया . इस बार फिर से मैं घर से दूर . एहतिआत के तौर पर थोडा बहुत राशन, गैस , कुछ लाई चने की  पोटली का इंतजाम कर लिया था. चाय जो कि अब तक चाय पानी कि दूकान से पीता रहा . बंद हो गयी . इधर बीच एक कुत्ते से दोस्ती बढ़ गयी थी . एक पैकेट दूध का अपने लिए और एक छोटू पैकेट उसके लिए कुछ एक दिन से निरंतर ला रहा था . पुलिस के डंडों के डर से वो भी बंद हो गया . मेरे फ़ाज़िल दोस्त को मैंने दूध की बुरी लत  लगा दी थी . दो दिन जैसे तैसे कटा . फिर लगा कि दूध ही पार लगाएगा . इत्तेफाक से सामने यादव जी के मकान में दूध का इंतजाम 50 रुपये में तय हुआ. आधा किलो मेरा , आधा किलो दोस्त का . पर दूध को न संभाल पाने का डर वैसे का वैसा ही .
        शाम के 7 बजे दूध देने के वादे का इंतज़ार 6 बजे से ही होने लगा . एक किलो दूध लेने के लिए बिन ढक्कन वाला कमंडल लेकर पहली शाम माँ कि तरह तैयार होकर पंहुचा . चौधरी की तरह यादव जी का लड़का आधा लीटर का नाप लिए 1 लीटर दूध नाप दिया . कुछ फर्लांग की  दूरी तय करते वक़्त किसी प्रकार की टोकाटाकी का अंदेशा बना रहा . ग्रामीण क्षेत्रों में यह बात प्रचलित है कि दूध को खुले बर्तन में नहीं लाना चाहिए , यदि खुला हो तो कम से कम लाल मिर्च का कतरा डाल के लाना चाहिए . पर वैसा कुछ हुआ नहीं . पहले दिन बड़े हौसले से उस कमंडल को पेट्रोमैक्स वाले चूल्हे पर चढ़ा दिया . घड़ी देख कर 20 मिनट तक दूध की निगरानी . पेट्रोमैक्स की आंच का भरोसा कम ही करना चाहिए . वो लाख सुधरवाने पर भी अपने आप घटती बढ़ सकती है . माँ की  देखा देखी कभी लोहे की  गोल चलनी वाली ढकनी लाया था .
        सर्द मौसम में रात भर अच्छे से गर्म किया हुआ दूध ठंढाता रहा . सुबह जब आँख खुली तो दूध पर लगभग आधा इंच मोटी मलाई देख के मन गदगद हो गया . पूरा दिन दूध के इर्द गिर्द बीतता रहा . मैंने और मेरे दोस्त ने दूध की ऐसी मिठास और गाढ़ेपन को  शायद पहली बार चखा.  दही की वर्षों की चाह पूरी होने लगी . 10 रुपये के मोल लिए गए दही से जामन और फिर दिनों दिन दही जमाने का सिलसिला चल पड़ा . दही चावल दाल , दही चावल सब्जी , बूंदी रायता चावल , केला लस्सी . दूध दही - दही दूध .
        दिन का ज्यादातर हिस्सा, झाड़ू बुहार, खाना बनाने , खाने के बर्तन धुलने , दूध के बर्तन धुलने,  सुबह शाम की  चाय बनाने , दूध लाने , दूध का प्रबंधन करने  में गुजरने लगा . उधर दोस्त कुत्ते ने दूध दही का मज़ा चख कर कुछ और दोस्त बना लिए . चक्कर पे चक्कर में फंसते हुए एक समय लगने लगा " क्या यही लाइफ है , क्या यही प्यार है ? " मुझे माँ समेत दुनिया की हर औरत याद आने लगी जो इन कामों में फंस कर भी खुद को बचा लेती है . बच्चों को पाल लेती है , परिवार चला लेती है.
          मार्च आखीर और अप्रैल का पहला सप्ताह का ठंढा होना हमारे दूध और हमारे खाने  के लिए अच्छा रहा. अप्रैल की दूसरे  सप्ताह गर्मी के बढ़ते पहली बार दूध को संभाल नहीं पाया और वह फट गया .  दूध  के फटने ने मुझे भीतर तक झकझोर दिया . उस रोज चाय नहीं बनी , पर पनीर बना , पनीर भुजिया बनी. धुलने के लिए दो बर्तन और सूती कपडा बढ़ा  , पहली बार पता चला कुत्तों को फटे दूध का पानी, खराब दूध भी खूब पसंद है....वो मुझसे ज्यादा दूध के शौक़ीन हैं . किसी ने बताया शुद्ध दूध के खराब होने कि संभावना ज्यादा रहती है , लिहाजा 1 लीटर दूध में पाव भर पानी मिलाना जरुरी होता है. दूध तो दूध ! बढती गर्मी के साथ उसका कई बार गर्म होना अनिवार्य हो जाता है.  महीने भर के लॉक डाउन अंतराल में  जरा सी चूक पर दूध कई बार उबला , पेट्रोमैक्स पर उबले दूध की  मलाई परत दर परत जमती गयी , कुछ बार ख़राब हुआ . दही कुछ दिन अच्छा लगा ... वो और ज्यादा खट्टा होने लगा .
      लॉक डाउन  के 34  वें दिन  सारे बैरियर तोड़ते हुए अल सुबह मैं घर की ओर  भागा . उस सुबह मां चाय बना रही थी , दूध खौला रही थी , पत्नी झाड़ू लगा रही थी , पिता अखबार पढ़ रहे थे. शाम 7 बजे यादव जी की मेरे फोन पर मिस कॉल आयी .   मैं निश्चिंत था अगले दो दिनों के लिए या कहें आज़ाद था. उन दो दिनों में माँ और पत्नी को रसोईं संभालते हुए देखा, घर संभालते हुए देखा. वापसी पर दूध आधा लीटर कर लिया . अभी भी पाव भर पानी मिला लेता हूँ . अच्छी खबर यह है कि लॉक डाउन तीन हफ़्तों के लिए और बढ़ गया है.
       

वो , कि अब जाता ही नहीं


इन दिनों सब गड्ड मड्ड हो रहा है . लाक डाउन की लम्बी अवधि ने सब कुछ उघाड़ के रख दिया है . वक़्त , लोग , रिश्ते , दोस्त , सरकार सब फ़िल्टर हो कर आ रहे हैं कहीं से . पुख्ता सूचना के अभाव में जो जितना उपलब्ध हो जाए वही बहुत लगता है . दो वक़्त की रोटी हमें नसीब हो रही है , इससे बढ़कर क्या चाहिए हमें ? इस एक सवाल में हजारों उत्तर खड़े हैं हमारे  सामने . एक महामारी ने हमारे विकासशील मष्तिष्क को सबक सिखाने की  ठान ली है . हमें घुटनों पर टिका दिया है .  जिस सभ्यता को विकसित करने में सैकड़ों साल लगे . जिस जुड़ाव को विकसित करने और जरूरतों को पूरा करने के लिए हमने देश दुनिया की  सीमायें लांघी , उसी पर एकदम से ब्रेक लेने की  चुनौती चट्टान की  तरह खड़ी है .

           संक्रमण काल के तीन माह गुजर जाने के बाद भी दुनिया बचाव के प्रभावी साधन नहीं ढूंढ पायी . विकासशील और विकसित देशों के रूप में बटी दुनिया अपनी देश को सँभालने में अक्षम है तो वो दूसरों कि मदद क्यों करे और कैसे करे !
    सावधानी और पैनिक के बीच का फासला अब लगभग ख़त्म होता दिख रहा है . लाक डाउन की आड़ में हम सावधानी को आम लोगों तक पहुचाने में विफल हो रहे हैं . " जो जहाँ है वो वही रहे " योजना को हमने पहले ही ध्वस्त कर दिया  .  "वो " का डर अभी भी बरकरार है . डींगे हांकते हुए हमने "वो " की शक्ल कल्पनाशीलता और वैज्ञानिक तथ्यों  के आधार पर  ढूंढ ली. लक्षणों और काल खंड के आधार पर एक अच्छा सा नाम  भी रख ही लिया, उसके अस्तित्व में आने के ठीक बाद . इतने दिनों तक " वो " नाम सुनते सुनते कान पाक गए हैं , अब वो नाम लेने में बहुत अटपटा लगता है .
      हमारे पैर अनिश्चितताओं कि बेड़ियों में जकड़े हुए हैं . ये संकट नहीं त्रासदी है .  हमारे जीवन पर पड़ने वाले असर का आंकलन करना बहुत मुश्किल है . जो हो रहा है उसे स्वीकार करते जाने के अलावा कोई चारा नहीं सूझता .
      एक तरह से देखा जाए  इस नए अनुभव में हम सब अपनी अपनी तरह से अभ्यस्त होते जा रहे हैं. बोरियत , अवसाद , खीज , एकाकीपन ने बीमारी की शक्ल ले रही है  . शरीर की तकलीफ दिखती है दर्द होता है तो दवा भी हो ही जाती है.  दिमाग में चलने वाली गतिविधियाँ केवल महसूस की  जा सकती हैं . उनके महसूसने को कुछ देर के लिए टीवी , मोबाइल , किताब व अन्य संसाधनों से  भरमाया जा सकता है . लेकिन वो हमारे व्यवहार में परिलक्षित हो रही हैं . दूरियों को नज़दीक से ठीक करने के भ्रम , पास के झंझावातों से दूरियां बढ़ने का डर . हावी है सब पर प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से .
  

गुरुवार, 30 अप्रैल 2020

जो कविता स्मृति में नहीं वो कविता कहीं नहीं है : नरेश सक्सेना


" मेरी पसंद कि कविताएँ " कार्यक्रम  के तहत  वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना द्वारा अपने  पसंदीदा कवियों की  रचनाओं के पाठ पर एक रिपोर्ट

30 अप्रैल 2020 , दिन गुरूवार सायं 6 बजे लखनऊ से वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना ने कविता कारवां के फेसबुक पेज पर लाइव आकर अन्य कवियों की कई कविताओं के अंश पढ़े . बड़ी ही सादगी से उन्होंने कंठस्थ रचनाओं के अंश का पाठ करते समय कई बार दोहराया कि "जो कविता स्मृति में नहीं वो कविता कहीं नहीं हैं.  किताब से देखकर कविता पढने की  मेरी आदत है नहीं . जो कविताएँ मुझे अच्छी लगती हैं वो किसी न किसी तरह से मेरे दिल में उतर जाती हैं . हो सकता है मेरे द्वारा पढ़ी गयी कविता में पूरी पंक्तियाँ न हो पर उसका न्युक्लिअस या उसका मर्म मेरे भीतर उतरा है."
   जाहिर तौर पर यह बात उनके पाठ के दौरान हमेशा चरितार्थ होती रही, उनके पसदं के काव्यांश  , उनके रचनाकारों  और कविता के शिल्प पर बात करना ऑनलाइन श्रोताओं को खूब भाया. साथ ही साथ कविता के सौंदर्य को फिल्म , नाटक , संगीत , पेंटिंग और कला के साथ जोड़ना
       पहली कविता के रूप में नरेश जी ने  गीत चतुर्वेदी अनूदित  फ़ारसी के इरानी कवि  सबीर  हका  की कविता " शहतूत " सुनाई.  " क्‍या आपने कभी शहतूत देखा है / जहाँ गिरता है, उतनी ज़मीन पर/ उसके लाल रस का धब्‍बा पड़ जाता है। / गिरने से ज़्यादा पीड़ादायी कुछ नहीं। / मैंने कितने मज़दूरों को देखा है/ इमारतों से गिरते हुए, / गिरकर शहतूत बन जाते हुए। " उन्होंने शहतूत के रूपक के रूप में इस्तेमाल होने को सराहा. शहरों की  ऊँची ऊँची इमारतों में काम करते मजदूरों की पीड़ा स्मृति में बस जाती है.
    सुशील शुक्ल की  कविता "धूप"  : धूप निकलती है / धूप से आगे / धूप निकलती है / धूप को पकड़ो तो / कुछ हाथ नहीं आता / धूप में खोलो मुट्ठी / तो फिर, धूप निकलती है. इस कविता को उन्होंने आज के करोना काल से जोड़ते हुए कहा कि हमने प्रकृति को मुट्ठी में कैद करने की  कोशिश की, उसका परिणाम हमारे सामने है. प्रकृति को हमेशा आँचल पसार के लेना चाहिए.
     कविता के मर्म  के द्रष्टिकोण से उन्होंने कहा कि  कविता विवरण में नहीं होती . यह बात हम में से बहुत सारे लोगों को समझनी चाहिए. कविता में विवरण की  जरुरत अक्सर नहीं होती . उसे सूक्ष्म होना होता है. वो चार पंक्तियों में अपना काम कर देती है. कविता अपने शब्दों से ज्यादा कहती  है . अज्ञेय और  केदारनाथ सिंह के काव्यांशों के साथ उन्होंने कहा  जिसमें रूपक अच्छा होता है तो वो सहज रूप से हमारी स्मृति में चली आती हैं. सब कुछ भाषा से ही नहीं कहा जाता है. हमारे पास शब्द बाद में आते हैं अर्थ पहले आ जाते हैं. शब्दों को हम तलाश करते हैं कि कैसे कहें उस अर्थ को . भाषा शब्दों की  मोहताज नहीं होती बहुत बार वो बिम्बों से , ध्वनियों से अभिव्यक्त होती हैं. 
फिल्म मेकर आइसेस्टाईन के काम की  सराहना करते हुए उन्होंने कहा कि जब हम किसी द्रश्य को  देखते हैं सिर्फ उस बिम्ब को नहीं देखते हर द्रश्य की अपनी आवाजें होती हैं, गंध होती है . इसी क्रम में उन्होंने  ऋत्विक घटक की फिल्मों का भी जिक्र किया.
विनोद कुमार शुक्ल की  कविता "एक भारी गोल पत्थर/ एक दुसरे भारी गोल पत्थर पर इस तरह से रखा है/ कि जैसे अभी अभी गिरने को है / और जो अभी अभी गिरने को है वो कबसे नहीं गिर रहा/ जो अभी अभी गिरने को है उसके नीचे एक चरवाहा आकर के खड़ा हो गया है . इस कविता  में जो गिरा नहीं  वो प्राचीन है " कविता में जो अभी अभी गिरने को है वो नया है. कविता में वो अभी अभी गिरने को कई बार  एक संज्ञा के रूप में इस्तेमाल किया गया है .  इसी प्रकार से उन्होंने रायपुर छत्तीसगढ़ से  अलोक श्रीवास्तव की  कविता  " एक फूल खिला" की पंक्तियाँ पढ़ी . अज्ञेय की  कविता " दुःख सबको मांजता है ".. को कम शब्दों में बहुत प्रभावशाली बताया . उन्होंने कहा शब्दों का प्रयोग बहुत सावधानी से करना चाहिए . हर बड़ा कवि शब्दों को लेकर बहुत सावधान रहता है.
राजेश जोशी की  कविता बर्बर सिर्फ बर्बर थे / उनके हाँथ में धर्म की  कोई ध्वजा नहीं थी / बर्बर सिर्फ बर्बर थे /भाषा का कोई छल उनके पास नहीं था / बर्बर सिर्फ बर्बर थे /दुःख और पश्चाताप जैसे शब्द भी नहीं थे उनके पास /बर्बर सिर्फ बर्बर थे . हम उन्हें युगों पीछे छोड़ आये हैं ..... नरेश जी ने बताया कि इस कविता में आखरी वाक्य एक पूरे युग की कहानी कह देता है.

पंजाबी कवि जगदीप सिद्धू :  उसने ख़ुदकुशी के बारे में सोचा / छत से कूद के मरने के बारे में सोचा /गाड़ी  से कुचल के मरने के बारे में सोचा /फिर सोचा डूब के मरा जाए /फांसी लगा के क्या मरना.....अंत में कवि मरने के सारे उपायों में तिनका तिनका जीवन ढूढ़ लेता है और मरने का फैसला स्थगित कर देता है.  कार्ड सैंडबर्ग की  कविता "घास का मैदान"  , असद जैदी की "पुश्तैनी तोप" के कथ्य कि गहनता पर उन्होंने प्रकाश डाला . 
मंगलेश डबराल की कविता :  शहर को देख कर मैं मुस्कुराया और कहा कि यहाँ कोई कैसे रह सकता है, जब वो उस शहर को देखने जाते हैं तो वो वही के हो कर रह जाते हैं....मंगलेश डबराल की कविताओं के बारे में उन्होंने कहा कि  उनकी कविताओं में आवाजें होती हैं . मंगलेश आवाजों के बारे में संवेदनशील हैं . आवाज़ों के बारे में हमें भी संवेदनशील होना चाहिए . 
      इस बात को और पुष्ट करते हुए उन्होंने फिल्म  "मेढ़े ढाका तारा" का जिक्र किया  जहाँ चीख एक लम्बे अलाप के रूप में निकलती है. रोगग्रस्त अपनी बहन के सामने, घर की  जिम्मेदारी न उठा पाने की टीस की  अभिव्यक्ति लम्बे अलाप से . कला के माध्यम से अभिव्यक्ति का एक और चित्रण पेश करते हुए नरेश जी ने  मशहूर पेंटिंग "पिघलती  हुयी घड़ियाँ" हवाला दिया. जैसे कि वो घड़ियाँ  मोम की तरह  विरूपित हो गयी हों ,उसमें घड़ियाँ अपने समय  को विरूपित होते दिखा रही हैं  . कोई भी विधा हो, हम उसका अतिक्रमण करते हैं कविता एक बहुत बड़ी विधा है. हम उनमें बिम्बों को लाते हैं, रूपक को लाते हैं, आवाजें लाते हैं, द्रश्यों को लाते हैं विचारों को लाते हैं, यह निबंध लिखने कि विधा नहीं है. 
मुक्तिबोध की  कविताओं के बारे में वो कहते हैं कि उनकी कविताओं के पीछे विज्ञान था, उनके पास विज्ञान का दर्शन था , मुक्तिबोध क्वांटम फिजिक्स की और जाते हैं उनके तमाम पहलुओं को अपनी रचनाओं में लिखते हैं. "ऋण एक राशि का वर्ग मूल"  , "एक पाँव रखता हूँ तो सौ राहें खुलती हैं और मैं उन सब से गुजर जाना चाहता हूँ . उनकी कविताओं के पीछे एक विज्ञान का तर्क तथ्य और दर्शन दीखता है ...उनकी रचनाओं में ब्रम्ह राक्षस से लेकर खगोलीय गतिविधिया और वैज्ञानिक दृष्टिकोण महसूस होती हैं , जो केवल कल्पना नहीं हैं , उनके भीतर उनकी गहरी समझ थी.
      नरेश जी साहित्य के पाठ्यक्रमों में कला की कमी को महसूस करते हैं , वो कहते हैं हमें सिर्फ साहित्य को ही पढाया जाता है. जिसमें  न नृत्य से रिश्ता होता है, न कला से और न ही संगीत से .  संगीत के बिना कविता कैसे हो सकती है ? गद्य में कविता होती है अच्छी कविता होती हैं . लेकिन ये कहना कि हमने लय को छोड़ दिया है तो यह समझ से परे है.  लय  को गृहण  कर के छोड़ना !  छोड़ना होता है . बिना गृहण किये छोड़ना छूट जाना होता है  . हम में से बहुत से लोग तो छूटे  हुए लोग हैं .
      कविताओं में तथ्यों के आधार पर सत्य रचा जाता है. अलग अलग काल खंड में अलग अलग लोगों द्वारा. जैसे कि कविता जीवन में  उजाला लाती  है .  संस्कृत के आचार्य कुंतक , अज्ञेय , प्रसाद की रचनाओं में उजाला का चित्रण दीखता है. 
 रविन्द्र नाथ ठाकुर की  बँगला कविता "काशेर बौने शुन्य नदी तीरे, एक्ला पथे के तूमि  जाओ धीरे, आँचल आड़े  प्रोदीप खानी ढेके " अर्थात कांस  के बन में सुनसान नदी के तट पर धैर्यवान स्त्री आँचल में दीप को ढांके  तुम कहाँ  जा रही हो ? मेरे घर में अन्धकार है ये दीपक मुझे दे दो . वो कहती है मैं इसे तुम्हे नहीं दूंगी इसे तो मैं दीपकों की  पंक्ति में रख दूंगी .... नरेश जी ने कुछ और पंक्तियों के सहारे रोशन करने के संवादों को याद किया.     वो कहते हैं कि कविता की  पहली पंक्ति जता  देती है कि उसकी आधार भूमि कैसी है . फिर  उसके ऊपर इमारत खड़ी  होती है , जमीन की भार  क्षमता होती है. इसलिए बिला वजह कविता को लम्बा नहीं होना चाहिए.  कवि पहली पंक्ति का आविष्कार  करता है .  कविता भाषा की कला है .यदि सबको लगता है कि भाषा आती है तो कविता भी आती है . यह  एक  भ्रम है कि अपने विचारों को लिख दीजिये तो कविता होगी ! अगर लम्बी लम्बी लाइनों में लिख दीजिये तो वो निबंध है ! अगर छोटी पंक्तियों में लिख दिया तो कविता है . ऐसा नहीं होता . हर कला में अनुशासन  के साथ नियम होते हैं . उनसे गुजरना होता है कवि को. उसका डिजाइन होता है और वो बनते बनते बनता है. शब्द गिरते नहीं है , एक बार लिख गए तो खड़े रहते हैं कागज़ पर . जब कोई पढता है तो उसके दिमाग वो इमारत गिर पड़ती है और फिर वो उसे नहीं पढता. 
     कविता की  संरचना में एक डिजाइन होता है . पहले छंद होता थे , अब कवितायेँ मुक्त हैं . पर यह मुश्किल जमीन है . बहुत मुश्किल.  उर्दू कविता में एक शेर की एक बंदिश होती है , वज़न होता है एक बहर होती है , रजीफ़ काफ़िया होता है वही अनुशासन होता है . हिंदी में हम उससे मुक्ति पा गए . हम  जब गद्य में कविता लिख रहे होते हैं तो समझिये एक बहुत मुश्किल जमीन पर आ गए हैं. यह आसन नहीं है. 
    धूमिल' अशोक बाजपेयी, सोमदत्त , मलय , विनोद कुमार शुक्ल की कविताओं को याद करते नरेश जी बताते हैं विनोद कुमार शुक्ल  बीस साल तक लिखते रहे किसी ने नोटिस नहीं लिया उनका .  मलय की दशकों पहले लिखी गयी कविताएँ आज भी प्रासंगिक हैं : "  दौड़ती हुयी सडक नदी में गिर पड़ी तो गति ने उसे हाँथ बढ़ा पार किया " , मेरी उँगलियों कि पोरों पर शंख है चक्र हैं और हथेलियों का समुद्र गरज रहा है ", सोमदत्त की  कविता : " मेरे हांथों में में फूलों की  डाली है और तुम्हारे हांथों में चावल की  थाली, मैं फूल चुनके उदास हूँ और तुम पत्थरों को चुन के सुखी " . 
        मंच को छोड़ देना हिंदी कविता के लिए  बहुत बुरा हुआ, पर जब जब बहुत गंभीर और अच्छी कविता मंच पर जाती है तो करोड़ों  कमाने वाले  मंच के कवि फीके पद जाते हैं. तुलसी , कबीर , रैदास जैसे कवियों कि रोटी कविता से नहीं चलती थी. सब कड़ी मेहनत से रोटी का इंतजाम करते थे . कविता कि यात्रा बहुत लम्बी होती है.
     इकबाल की मशहूर " सितारों से आगे जहां और भी है अभी इश्क के इम्तिहान और भी हैं ."  इकबाल की  कल्पना में  कविता अगर इश्क है तो इस इम्तिहान में फेल होने का धीरज भी  होना चाहिए . पहुचते  हैं वो बड़े धीरकज के साथ में . अच्छी कविता जब कोई सुनाएगा तो सुनी जाएगी.

कविता वही है जो आपकी स्मृति में है और जो कविता स्मृति में नहीं है वो कविता कहीं नहीं है. कविता जो  स्मरणीय नहीं होगी तो रमणीय नहीं होगी . रमणीय होने के लिए उसे हमारे भीतर गूंजना होगा. और जितनी कविता हमारे बीच बची रह जाए वही कविता है.

कविता कारवां के आयोजन होते रहने चाहिए :
वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना जी तीसरी बार कविता कारवां की यात्रा के साक्षी बने हैं . उन्हें यह प्रारूप बेहद पसंद आया . जहाँ अपनी पसंद के कवि की  बात हो , उनकी कविताओं का पाठ हो . वो पहली मर्तबे कुछ वर्ष पहले  लखनऊ में आयोजित बैठक में शामिल हुए थे. दूसरी बार देहरादून में और 4 वर्ष पूर्ण होने पर कविता कारवां के फेसबुक पेज पर लाइव . दो बार उन्हें बहुत कम समय के अंतराल में इस कार्यक्रम की सूचना मिली . बिना किसी तैयारी के बावजूद उन्होंने सहजता से अपनी स्मृतियों में सहेजी कविताओं का पाठ किया. तथा अन्य कवियों के परिप्रेक्ष्य में अपने अनुभव साझा किये. यह सादापन इस कार्यक्रम और उनका सौंदर्य है. कविता कारवां परिवार आशा करता है कि आगे भी वह इस कार्यक्रम का हिस्सा होंगे .

बुधवार, 29 अप्रैल 2020

तुम्हारा मरना !

मैंने तुम्हे कई बार
मरते देखा है
हर बार किसी नए रूप में
मरते देख जीवन जीने की
अब आदत हो चली है

निरुत्तर पुकारें
देंह की मिट्टी और
कोई नाम लेकर
मान लेता हूं तुम्हारा मरना

जानता हूं मरना
जीवन की सतत प्रक्रिया है
उस प्रक्रिया का हिस्सा
तुम्हारा मरना है

फिर भी महसूस नहीं होता
तुम्हारा मरना
तुम्हारे पीछे गूंजती सिसकियों से
रिक्त स्थान को भरते नहीं देखा
न ही स्मृतियों को देखा
दफ़न होते

कितनी गुंजाइश रख छोड़ी है
तुमने जीने और मरने के बीच
सीने से चिपकाए
बंदरों की तरह
मैंने खुद का मरना
बचाए रखा है ।

गुरुवार, 6 फ़रवरी 2020

सखी

मेघाबास : चलें ?
दिलरुबा : कहाँ !
मेघाबास : जहाँ मैं बताऊँ !
दिलरुबा : भक्क
मेघाबास : चलें ? ( गहरी सांस लेते हुए)
दिलरुबा : अरे कहाँ बाबा, पूछा तो !
मेघाबास : नमी देखी है कहीं ?
दिलरुबा :  ऊँ हूँ ! एक अरसे से सूखा पड़ा है मन , कभी बारिशें जो आयीं उन्हें सहेजने का कारण नही मिला कोई।
मेघाबास : चल ना !
दिलरुबा : मुझे नही जाना । (झुंझलाकर)
मेघाबास : गुस्सा क्यों करती है। वैसे तो बड़ी इठलाई घूमती थी। मटक मटक के हवा पर सवार जंगल, नदियाँ पार कर गुम हो जाती थी। कोई पुकार तुम्हे रोक नही पायी । अब क्यों बुझी बैठी है उकड़ू नदी के बीच, चट्टान पर।
दिलरुबा : देखो मुझे एकांत चाहिए । इसलिए बैठी हूँ यहां । शोरशराबे से दूर ।
मेघाबास : चलो तुम बैठो सुकून से और आँख भी बन्द कर लो। कान बन्द आँख बन्द !
दिलरुबा : बेहतर है !
मेघाबास : एक बात बोलूँ ( दिलरुबा के कान के पास जाकर )
दिलरुबा : हम्म !
मेघबास : मैं तुम्हारी आँख पर पट्टी बाँध ले जाना चाहती हूँ कहीं। तुम बस महसूसना मौसम को, गन्ध को, हवा के स्पर्श को, खुद को।
दिलरुबा : ठीक है।

मेघाबास : कितना अच्छा होता हम खुद को एक दूसरे से बदल पाते। या साझा करते ।

दिलरुबा : हम जो हैं, वही हम हैं।
मेघाबास : शांत रह, बिना बोले नही रहा जाता तुझसे।

मेघाबास बादलों सरीखे मजबूत कंधों पर दिलरुबा को लिए फिरती रही। धरती की ऊष्मा को भाँपती... दिलरुबा की आँखें झर झर झरती रही ओस की बूँदों की तरह।

मंगलवार, 28 जनवरी 2020

टूटना


एक तारा
फिर टूटा आज !
टूट के तोड़ गया
सारे भरम
रात
सहसा खड़ी देखती रही
टूटना, गुम हो जाना
बीज का
अनंत आकाश में ।

मैं आ रहा हूं ... #imamdasta

  जो सिनेमा हमारे नज़दीक के थिएटर या ओ टी टी प्लेटफार्म पर पहुंचता है । वह हम दर्शकों को तश्तरी में परसा हुआ मिलता है । 150 से लेकर 600 रुपए...