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बुधवार, 26 नवंबर 2014

          रूह को कभी महसूस किया है ?


मैंने कभी नहीं सोचा था, अनजाने में हो गया .....


अनजाने में ? अन जाने में,  या जानने को ख़ारिज करते हुए अनजाने और जानने के बीच के अंतर को बनाये रखने की सोची समझी कोशिश? .

नहीं नहीं ऐसा बिलकुल नहीं है. मैं जानता हूँ की ऐसा कुछ जानबूझ कर नहीं हुआ....


अब जो जानबूझ कर हुआ हो या न हुआ हो, हुआ है तो बस हुआ है... होने और न होने के बीच जो कुछ हुआ उसे सूंघ पाना ही महत्वपूर्ण है बाकी सब कोरी बातें हैं... यह कोई कानूनी अखाड़ा नहीं है जहां सजायाफ्ता कैदी के अच्छे आचरण के बाद उसे जिंदगी में प्रवेश उसी तरह से मिल जाए जिसे उसके सजा काटने के पहले जिया हो.. यहाँ समय ही नहीं कीमत चुकानी पड़ती है कीमत की शक्ल कुछ भी हो सकती है हां कुछ भी.. तुम्हे कोई हक नहीं है किसी को बहकाने का, उकसाने का, जिंदगी के प्रति उम्मीद जगाने का..और उम्मीदों के भरे आसमान को मुट्ठी में कैद करने की इजाजत किसने दी तुम्हे...तुम मसीहा नहीं हो...तुम शायद भूल गए थे की वह कोई अप्सरा सी सुनहली काया  नहीं थी वह प्रेम से बनी, प्रेम के मरुथल में मरीचिका की तरह प्रेम में विलय हो जाना चाहती थी...जिस प्रेम को महसूस करके तुमने उसकी उम्मीदों को जगाया था उस प्रेम से डर गए तुम..सहन नहीं कर पाए तुम..तुमने उसे अपना तो बनाया लेकिन उसे तुम्हारे प्रेम में आजाद नहीं रहने दिया. तुमने उसका नहीं उसके प्रेम का गला घोंटा है.तुमने प्रेम को मारा है. तुम हत्यारे हो उम्मीदों के, तुम हत्यारे हो ख्वाहिशों के..और कहते की तुमने जानबूझ के नहीं किया है . महसूस करो उसके प्रेम को...महसूस करो उसकी तड़प को जब तुमने उससे कहा था की तुम क्या चाहती हो...
जिस्म सौ बार जले फिर वही मिटटी का धेला है
रूह एक बार जले तो कुंदन होगी
रूह देखि है कभी ? रूह को महसूस किया है ?

शुक्रवार, 21 नवंबर 2014

                  नहीं था बस मूल !


सब कुछ था वैसे ही, पहले की तरह. पहले की तरह ही चीज़े वैसे ही सजी रखी थी अपनी जगह. फूलदान, दिवार पर टंगी अजंता अलोरा की पेंटिंग, घड़ी की टिक टिक करतीं घंटे और मिनट्स की सुइयां, विंड चाइम्स की लडियां भी उलझी नहीं थी. सब नार्मल था. लगता ही नहीं अभी कुछ समय पूर्व एक भीषण चक्रवाती तूफ़ान यहाँ से गुजरा था.
         अद्रश्य धुरी पर तीव्र वेग से घुमती हवाएं, घन्न घन्न करती हुयी ऊपर की तरफ उठती गर्म हवाएं उस धुरी से तेज़ी से बिछड़ती  हैं और गर्म हवा अपने आस पास के वातावरण को हल्का कर सैकड़ों मील दूर फेंक देती हैं. फिर भी सब अपनी जगह कैसे ? क्या तूफ़ान विरोधाभासी था या सब कुछ वैसे ही रखने की शर्त थी या फिर कोई समझौता.

   इस बार तूफ़ान वैसा नहीं था जैसा होता आया है. तूफ़ान की विकरालता भयावता  वैसे ही थी लेकिन उसके ले जाने की अनवरत प्रवृत्ति में इस बार बदलाव था. तूफ़ान मूल को ले गया था अपने साथ, बाकी सब अपनी जगह यथास्थान.

बुधवार, 19 नवंबर 2014



                  आओ आओ चिर्रो आओ 


आँगन में अचानक एक परिंदा गिरता है. छटपटाता फ्द्फ्दाता .घायल परिंदा आँगन की फर्श पर असहनीय दर्द में उड़ने का प्रयास करता. लेकिन हालत ऐसी की हलक से चूं तक नहीं निकल पाती. उसके ऊँचे उड़ने वाले पंखो को ना जाने किसने आहत किया था. हवा की तेज़ धार को चीरते हुए अपनी मौज में उड़ने वाले परिंदे से रिसता खून पंखो को रंगते हुए आँगन की फर्श को लाल कर रहा था. धहकते सूरज की रौशनी सीधे उसके घायल नाज़ुक शरीर पर पड़ते हुए रंग को और गाढा कर रही थी. समय के बढ़ते कदमो के साथ परिंदे की साँसे थमती जाती हैं .
  तभी नेहिल की निगाह उस पर पड़ती है. छटपटाते परिंदे को देख कर नेहिल से रहा नहीं जाता और वह झट से उसे अपने हांथो में उठा लेता है. परिंदे की उखड़ती  साँसों को नेहिल महसूस करता है. उसके घावों से रिसते खून को साफ़ करता है, उनपर मलहम लगाता है, उसके सिर से गर्दन तक बार बार अपने हांथो से सहलाता है. परिंदा बेहोश गर्म हथेली में कुछ आराम पाता है. शाम होते ही नेहिल परिंदे को किसी ठंडी जगह पर एक कोने में रख देता है. सारी  रात बीच बीच में उठ कर उसे देखता है. रात आँखों ही आँखों में गुज़र जाती है. नेहिल के मन में अजीब सी उहापोह रहती है की वह परिंदा जीवित बचेगा भी की नहीं. रात दिन में कब तब्दील हो गयी, उसको पता ही नहीं चला. परिंदा अब भी उसी जगह म्रत्प्राय पड़ा हुआ था. नेहिल उसको सहलाता है, उसके घावों को फिर से साफ़ करता है मलहम लगाता. दिन का एक पहर और बीत जाता है. नेहिल का और कही मन नहीं लगता घूम फिर कर परिंदे के पास बैठ कर उसको देखता है और आसमान की तरफ सर उठाकर बुदबुदाने लगता है. परिंदे की साँसे धीमी और धीमी होती जाती है. बार बार उसके पास जाकर उसको अपने स्पर्श से परिंदे की साँसों को साधने की कोशिश करता है. रात एक बार फिर दिन को अपने आघोष में ले लेती है. नेहिल की थकी आँखे कब सो जाती हैं पता नहीं चलता लेकिन नेहिल अभी भी परिंदे के ख्यालों में घूम रहा होता है. रौशनी की एक किरण पड़ते ही नेहिल की आँख खुलती है वह हडबडा कर सीधे परिंदे के पास जाता है. अपनी उँगलियों से उससके शरीर को छूता है परिंदे की मांसपेशियों में कसाव सा महसूस होता है. शरीर के उस कसाव से नेहिल के शरीर में उम्मीद की लहर सी दौड़ जाती है. नेहिल फिर से अपना सर ऊपर आसमान की तरफ उठा कर कुछ बुदबुदाने लगता है. परिंदे के घावों को साफ़ करके ताजा  मलहम लगाता है. दिन बीतता है और परिंदे की गर्दन में हरकत देख नेहिल और ज्यादा सेवा करने लगता है.
  धीरे धीरे परिंदे की गर्दन पंख और फिर पंजे हिलने लगते हैं. उसमे ऊर्जा का संचार होने लगता है नेहिल उसे पानी देता है दाना देता है. कुछ हफ़्तों में वह परिंदा फर्श पर चलने लगता है. लेकिन अभी भी उसके पंख उड़ने के लिए तैयार नहीं थे और उसको अन्य जानवरों से महफूज़ रखने की जरुरत थी. हमेशा हवा से बातें करने वाले परिंदे को  जमीन के जानवरों से खतरा रहता हैं. नेहिल की निरंतर सेवा से परिंदा फुदकने लगता है परिंदे को नेहिल की और नेहिल को परिंदे की आदत हो जाती है. परिंदा छोटी छोटी उड़ाने भरने लगता है. हर वक्त नेहिल की नज़रे उसपर गडी रहती हैं. परिंदे के लिए नेहिल के छोटे से घर में आँगन के एक कोने में रखी टूटी कुर्सी के पावों के बीच उस परिंदे का छोटा सा घरोंदा बन गया था. परिंदा हवा की सैर कर वापस उस घरोंदे में आ बैठता.
समय के साथ परिंदा वापस अपनी रौ में आने लगा उसके पंखो ने लम्बी उड़ाने भरना सीख लिया था.नेहिल उकी उड़ान को देख कर खुश होता खूब जोर जोर से उसको आवाज़ देता.परिंदा भी खूब नेहिल के साथ खेलता, आता जाता नखरे दिखाता. महीनों बितते गए. नेहिल को लगने लगा था की नेहिल उस परिंदे के पंखो पर बैठ कर लम्बी सैर करेगा.वो सबसे कहेगा की यह परिंदा मेरा है. मुझे इससे और इसे मुझसे प्रेम है. वह अपने प्रेम की लम्बी डोर को महसूस करेगा, हम एक जैसे न होते हुए भी कितना एक दुसरे को समझते हैं. नेहिल उसके पंखो के सहारे दुनिया देखना चाहता था उड़ता हुआ महसूस करना चाहता था वह ऊँची उड़ान को महसूस करेगा.

परिंदे की लम्बी उड़ानों के साथ साथ नेहिल की बेचैनी बढ़ने लगी. नेहिल को उड़ना नहीं आता था और परिंदे को जमीन में रुकना. दिन में नेहिल के दिए हुए दाने जस के तस वैसे ही पड़े रहते. परिंदा मस्त ऊँचे आकाश में विचर कर वापस तो आता लेकिन खुले आकाश को देख परिंदे को उस घरौंदे में घुटन सी होने लगी थी . नेहिल के मन में  कई बार ख्याल में आया की वह उसे पिंजड़े में रखे लिकेन जिसके उड़ने की ख्वाहिशों के लिए उसने देव स्थान पर फूल चढ़ाए थे, तुलसी में पानी दिया था, रात दिन उसकी सेवा की थी उसे वो कैद कैसे कर सकता है. परिंदे की उड़ाने लम्बी होने लगी. उड़ने की चाह और बढ़ने लगी. एक सुबह परिंदे ने लम्बी उड़ान भरी सुबह से रात हुयी और रात से सुबह फिर सुबह से शाम. नेहिल पड़ोस की मुंडेर पर देखता तो कभी पेड़ों पर तो कभी नंगे तारों पर.कई दिनों से घरोंदा सूना था आँगन का कोना सूना था परिंदे के लिए कोना ही नहीं घर शहर सब छोटा हो गया था.नेहिल घरौंदे को देर तक तकता रहता. पर नेहिल परिंदे के साथ उड़ नहीं सकता था और परिंदा नेहिल के साथ जमीन पर रह नहीं सकता था.नेहिल रात बिरात सोते जागते सहसा जोर जोर से पुकारता चिर्रो चिर्रो चिर्रोआओ आओ चिर्रो....

बुधवार, 13 अगस्त 2014

भूख और प्रेम की बनती नहीं अक्सर,
प्रेम होता है तो भूख नहीं,
भूख लगती है तो प्रेम नहीं,
दोनों का एक साथ होना,
संशय पैदा करता है,
संशय प्रेम का, संशय भूख का।
पेट और दिल के बीच  स्वास नली,
दोनों के बीच झूलती रहती है,
आकार  में पेट दिल से बड़ा है,
फिर भी दिल बाते बड़ी बड़ी करता है,
पेट में मुट्ठी भर अन्न,
भूख शांत कर देता है,
दिल को  मुट्ठी भर प्रेम,
अशांत कर देता है,
भूख स्थायी सी लगती है,
प्रेम स्थायित्व को पाने की चाह में
अस्थायी होता रहता है।
भूख सत्य है और  प्रेम ख्वाबगाह
भूख के छेत्र  में
प्रेम की दखलंदाजी नहीं चलती
प्रेम अक्सर भूख की देहलीज़ पर
दम तोड़ते दीखता है
प्रेम से मौत के दो चार किस्से
सुर्खिया बन जाते हैं
भूख से मरने वालों के
दस्तावेज़ नहीं मिलते।
                                …प्रभात सिंह 

शुक्रवार, 4 जुलाई 2014




                               मुक़द्दस "माह-ए-रमज़ान" 


                                                 पंचतारा आरामगाहों से तौबा 
                                                   मस्जिदों की मीनारों से 
                                                            उठती हुयी
                                                    पांच वख्त की अज़ान
                                                             में लसा बसा 
                                                मुक़द्दस "माह-ए-रमज़ान" 
                                                       खजूर ,पकौड़े,केले,
                                                 शीरमाल, कुलचे,नहारी,
                                                      बिरयानी,कोरमा 
                                                        से होता हुआ 
                                                  पाबंदियों की सख्त पहरेदारी
                                                           के बीच 
                                                     जब पहुचता है
                                                  पाक चाँद की देहलीज़ पर 
                                             सारा जहां रोशन नज़र आता है 
                                                करोड़ों दुआओं के चरागों से
                                                     तू जहा कहीं भी है 
                                                           ऐ परवर दिगार 
                                                   इंतना सा करम करना 
                                               आज़ाद रखना पाबंदियों से
                                                       अपनी नेमतों को !                
                                                                                            .......प्रभात सिंह 

गुरुवार, 3 जुलाई 2014



ये हसरतों के पहाड़ हैं

ये हसरतों के पहाड़ हैं,
मुकाबलों के पुआल  हैं,  
भरे हैं ये गुरूर से,
तृष्णागि के सुरूर में। 
तू ज़र्रा है,
तू  आदमी,
बना रहा हवा महल,
रेत के पहाड़ पर। 
जो भरभरा के ढह गए
झरझरा के बह गए
तो सिसकियों के बीच में 
आंसुओं के ताल हैं। 
ये हसरतों के पहाड़ हैं,
मुकाबलों के पुआल  हैं..... प्रभात सिंह 

बुधवार, 19 मार्च 2014



सवाल जीवन  के मुखर होते अचानक

तेरे,मेरे, सभी के !
नस्तर से चुभते सवाल 
मेरे रोम रोम को 
दर्द कि असीमित श्रंखलाओं में  
पिरोते हैं , 

निरुत्तर कराहता मैं 
जुटाता हूँ साहस
दृढ़ता से उत्तर देने को 
सब सवालों का,
पर सवालों का पैनापन 
नहीं भेद पाता
मेरे धैर्य को 

मालूम है 
कोमल झूठ के तानों बानों का 
बुनकर 
मेरे ही अंदर 
पनपता इंसान 
घूमता है तुम सब कि 
खुशियों के  इर्द गिर्द 

सवाल सवालों का नहीं यहाँ 
सरोकारों का है
जीवन के अंतिम साँसों
के साथ 
जब सरोकार जाते रहेंगे 
जवाब रिक्त से भरे हुए 
खुद ब खुद मिल जायेंगे …… प्रभात सिंह

गुरुवार, 6 मार्च 2014

एक ग्लास चाय !

"एक कप चाय"  हमारे दैनिक जीवन  का अभिन्न हिस्सा जरुर बन गया है, लेकिन "एक ग्लास चाय" जिसने भी पी ली  उसे इस आदत पर अफ़सोस के साथ बदलने कि इक्छा भी होती होगी,यहाँ एक ग्लास चाय से मतलब कांच कि ग्लास(नमो चाय) से बिलकुल नहीं है,स्टील कि ग्लास भर चाय,चूल्हे पर पकी शुद्ध दूध से बनी सोंधी खुश्बू और स्वाद वाली चाय किसी ब्रांडेड चाय पत्ती  कि मोहताज नहीं होती,चाय पत्ती  चाहे मोहिनी हो या डंकन कि.….आज लकनऊ से करीब 10 किलोमीटर दूर एक गाँव में किसी मुद्दे पर रिपोर्टिंग के लिए जाना हुआ.…खाँटी देशी आओ भगत,जान न पहचान के बावजूद  भी  बाहर दालान से घर कि देहरी लांघने में थोडा ठिठका लेकिन  चौके के पास गर्मागरम "एक गिलास चाय" से ऐसा लगा आदमी आदमी को क्या देगा जो भी देगा …। लचीली(कुछ बनावटी सी ) आवाज में अम्मा,चाची,दादी और दाऊ के सम्बोधन से मैंने उनको अपना बनाने कि कोशिश की लेकिन यह भूल गया कि वह "एक गिलास चाय" चेहरा,कपडे,जाती पैसा देख कर नहीं आती है  ,वह चाय तो समाज के सबसे निचले तबके कि जर्जर रसोई से आती है जहाँ इंसानियत का  चूल्हा जलता रहता है विकास कि तेज़ हवाओं से बचकर।

शनिवार, 22 फ़रवरी 2014

पिछड़ते कदम दौड़ने का अभ्यास करते हैं 

झूठ और फरेब कि गठरी लिए 
चका चौंध रास्तों पर 
अंधी दौड़ में शामिल 
सैकड़ों लोग 
मुह चिढ़ाते हुए 
सर्र सर्र निकल जाते हैं 
मेरे करीब से 

हँसते मुस्कराते चेहरे 
दम्भ से भरे 
नाजायज को जायज 
में लपेटे 
इंसानियत को प्रतिस्पर्धा 
से रौंदते 
ललकारते हैं 
मेरे सामर्थ्य को 

आलिशान चहारदिवारों 
लक दक गाड़ियों
बेश कीमती आभूषणो 
से पटे 
भविष्य कि चर्चाओं के बीच 
संरक्षित जीवन 
उजाड़ते हैं 
मेरे वर्त्तमान को 

जीवन कि इस 
अंधी दौड़ में 
थके,हारे पिछड़ते 
मेरे कदम 
दौड़ने का करते हैं 
अभ्यास 
हर रात सोने से पहले 
                                                                       बिस्तर पर !…………  प्रभात सिंह 

शुक्रवार, 7 फ़रवरी 2014



जो मर गया वोह स्मैकिया था.....

कौन था वोह, कहा से आया था , यहाँ क्या कर रहा था ,उम्र कितनी थी उसकी,किस बिरादरी का था और कौन सी बोली बोलता था ? आधार कार्ड,वोटर कार्ड या  राशन कार्ड था उसके पास  क्या वोह लावारिस है या स्मैकिया ? उसके शरीर पर पड़े  फफोलों और पिछले कई दिनों से मृत पड़े शारीर  से तीछन बदबू उसके स्मैकिया होने कि तस्दीक करती है हां  वोह स्मैकिया है लेकिन ये भी पक्का हो गया  कि वह लावारिस नहीं है. लावारिस होता तो शायद किसी को रहम आ जाता और उसकी सुचना पुलिस या और जाने अनजाने में देता।स्मैकिया था इसलिए तहजीब और नफासत के शहर के बीचोबीच इंसानियत का लबादा ओढ़े हज़ारों बुत आते जाते रहे और किसी को उनमे से ही किसी एक बुत कि उस सड़ती लाश कि भनक तक नहीं लगी. शहर के व्यस्ततम माने जाने वाले निशातगंज से आई टी कि और जाने वाले फलाई ओवर के रेलिंग के किनारे वोह कई दिनों से मृत पड़ा सड़ता रहा.लोग कहते रहे हां ये वही है जो इंजेक्शन लेता था.…ये वही स्मैकिया है..... इनको जब स्मैक नहीं मिलती है तो यह ऐसे ही मर जाते हैं और फट जाते हैं.…पुलिस को भी मालुम है कि वोह स्मैकिया ही है,उन्होंने बताया भी कि ये लोग सड़क के किनारे पड़े रहते हैं.……अब कहा से लाये कपडा कैसे ले जाए उसको श्मशान घाट..... वोह तो लावारिश तक नहीं है.....उसके लिए मानवीय संवेदनाओं कि कोई जगह नहीं है.… एक सवाल तो ये भी उठता है कि क्या नशाखोरी का धंधा चलाने  वालों का भी यही हश्र होता है,उनके पास तो वोह सब होता है जो इस स्मैकिये पास नहीं था.…… क्यों नहीं दिखायी देते हमें वोह गिने चुने स्मैकिये  जो हज़ारों लोगों को ऐसे ही सड़क किनारे रोज मरने के लिए छोड़ देते हैं........ प्रभात सिंह

नोट > रेलिंग के साइड में लगी होर्डिंग पर देखिये लिखा है वेक उप लखनऊ और लाश के पड़ोस से जाती हुयी  लड़की 

बुधवार, 29 जनवरी 2014

ओ पेड़ !
तुम बोलते क्यूँ नहीं ?

क्यों नहीं बताते
कैसे खड़े हो वर्षों से
एक ही जगह पर
निस्वार्थ,निर्भीक
आंधी,तूफान,बारिश,बर्फ
कुम्हला देने वाली तेज़ धुप
को कैसे झेलते हो
अपने नंगे बदन पर
कैसे चीर देते हो सख्त चट्टानों को
अपनी अंतर्मुखी भुजाओं से

ओ पेड़ !
तुम बोलते क्यों नहीं ?

कितनी बार तुम्हे काटा गया
रत्ती रत्ती
कितनी बार जलाया गया
तुम्हारे अंश को
पीढ़ी दर पीढ़ी उपभोग करती रही
तुम्हारा
अपने फायदे के लिए
पत्ते,टहनी,फल,छाल,जड़
यहाँ तक रिसता पारदर्शी सुनहरा गोंद
सब तुम्हारा ही तो है
कैसे भरते हैं तुम्हारे घाव

ओ पेड़ !
तुम बोलते क्यों नहीं ?

तुम्हे प्रेम नहीं होता ?
अनगिनत शाखाओं पर
विचरते परजीवियों से
घोसलों  से निखर
ऊँची उड़ान भरते पंछियो से
स्तनधारी निशाचर
चमगादड़ों से
इठलाती बल-खाती लिपटीं
लताओं से
छाँव में दम लेने वाले
पथिक से

ओ पेड़ !
तुम बोलते क्यों नहीं ? …… प्रभात सिंह

शुक्रवार, 24 जनवरी 2014

मनाओ गणतंत्र दिवस 
झूमों गाओ खिलखिलाओ 
भारत पर्व मनाओ 
गुब्बारे छोड़ो,कबूतर उड़ाओ 
फूल बरसाओ
बच्चों नाचो 
लाउडस्पीकर लगाओ 
चिल्लाओ जय भारती 

संसद सजाओ,विधान सभा सजाओ 
जर्जर सरकारी तंत्र सजाओ
आसमान तिरंगा रंग दो
भाषण दो
झंडे फहराओ
विज्ञापन चलवाओ
तिरंगी टोपी पहनो
तिरंगा गाल रंगवाओ
गाल बजाओ।

झांकी दिखाओ
फांके दिखाओ
बलात्कार दिखाओ
आतंकवाद दिखाओ
नकसकली दिखाओ
भ्रस्टाचार दिखाओ

चाइना बाज़ार दिखाओ
पर कैपिटा इनकम दिखाओ
घाटा दिखाओ
घोटाला दिखाओ
गायब फाइलें दिखाओ

बाबू दिखाओ, ठेकेदार दिखाओ
जज दिखाओ, पत्रकार दिखाओ
बाबा दिखाओ, नागा दिखाओ
मस्जिद, मंदिर दिखाओ
गोधरा, मुजफ्फरनगर दिखाओ
सैफई महोत्सव दिखाओ,भगदड़ दिखाओ

सड़क दिखाओ, भोझिल रेल दिखाओ
रोडवेज़ दिखाओ

कूटनीति दिखाओ
स्ट्रिप सर्च दिखाओ

सुरक्षा दिखाओ
ऊंघती मोटी पुलिस दिखाओ
लाठी चार्ज दिखाओ

बार्डर दिखाओ
शहीद का सर दिखाओ
बोफोर्स दिखाओ, हेलीकाप्टर दिखाओ

अस्पताल दिखाओ
सड़क पर प्रसव दिखाओ
कैंसर दिखाओ
जापानी इंफलेलाइटिस दिखाओ
एन आर एच एम् दिखाओ

भाजपा लाओ, कांग्रेस लाओ
माया लाओ, मुलायम लाओ
आम आदमी पार्टी लाओ
देश बचाओ

लाओ लाओ और लाओ
मनाओ भारत पर्व मनाओ
गर्व करो ख़ुशी मनाओ

नहीं तो चुल्लू भर पानी लाओ
चैन से सो जाओ.. . ………। प्रभात सिंह

मंगलवार, 21 जनवरी 2014

तेरा न होना
अब होने जैसा लगता है
किसी किताब के पन्ने  का
कोने ऐसा लगता है।
हज़ारों अक्षरों में पिरोये हुए
किस्से, कहानियां, कविताओं
से अनिभिज्ञ कोना
अपने होने पर गुमान करता है।
ताकता   रहता है
पन्ने  के आखिरी अक्षर के पढ़े जाने तक।
बेजान अक्षरों से निकले
भिन्न भिन्न भावों से संचालित चुटकी
कभी नरम तो कभी सख्त दाब से
पलटती रहती हैं कोना पकड़ के पन्ना।
छूट जातें हैं निशान उँगलियों के पोरों के
और हर पन्ने का सारांश।
कभी सोचा नहीं
साफ़ पन्नों में कोना ही
गन्दा क्यों होता है ?
मत बंद करना पढ़ना
किताबों को
घुमते रहो अक्षरों के जंगल में
पलटते रहो पन्ने
चुटकियों से मसल मसल कर
गन्दा,और गन्दा होने दो
कोने को काला होने तक
सफ़ेद पन्नों में काला कोना
कभी तो चमकेगा
तेरा न होना
अब होने जैसा लगता है
किसी किताब के पन्नों का
कोने ऐसा लगता है। …प्रभात सिंह

सोमवार, 13 जनवरी 2014

लकीर सीधी अच्छी नहीं होती !

बिना मुड़ी तुड़ी सीधी सादी 
लकीर, किस काम की ?
न चाहत कि आकृति बनाने कि गुंजाईश
न अपेक्षाओं का अंत। 
बड़े जतन से नन्हे हांथो से 
सीखा था 
सीधी लकीर बनाना 
विशवास और अपनेपन 
कि स्याही से
और गाढ़ा करता रहता हूँ इनको
हर कोशिश करता हूँ उन्हें
मजबूत बनाने कि।
हर बार चौड़ी होती लकीरों को
कोई बड़ी लकीर कर देती है
छोटा
उसके बढ़ने से मैं और छोटा होता जाता हूँ।
फिर पीटता रह जाता हूँ दूर से
खुद से ही बनायीं हुयी लकीर को
बढ़ती लकीरों को देखता रहता है
ये लकीर का फ़कीर
लकीर से एक बिंदु होने तक
सच ही तो है
लकीर सीधी अच्छी नहीं होती .....प्रभात

गुरुवार, 2 जनवरी 2014

बंदिश न लगा तू गर्दिश में गर्दिश भी तो है बंदिश में कुछ जोर लगा मन मोड़ जरा कुछ देर सही फूटपाथ सही मनमार सही वनवास सही बंदिश न लगा तू गर्दिश में गर्दिश भी तो है बंदिश में

मैं आ रहा हूं ... #imamdasta

  जो सिनेमा हमारे नज़दीक के थिएटर या ओ टी टी प्लेटफार्म पर पहुंचता है । वह हम दर्शकों को तश्तरी में परसा हुआ मिलता है । 150 से लेकर 600 रुपए...