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शनिवार, 29 जुलाई 2017


चाह कर भी ....!

चाह कर भी
न की गईं अनगिनत कॉलें
दर्ज़ होती हैं कहीं ?

नही न !

होती
तो वो वापस आतीं
बेवक़्त बेसाख्ता

आती हैं कुछ एक
सुबह, दोपहर, शाम
मियादी वक़्त पर
दवा की तरह ।।

एक बैग पैक की दस्तक
पहुंचती है तुम्हारे शहर
हर महीने मिलने
दर्ज़ होती हैं कहीं ?

नहीं न !

होती
तो न लौटती
बिना मिले, बे मन

लौटता है बैग पैक
अनखुले कपड़े, अनारक्षित टिकेट
शहर की खुशबू लिए
नई उम्मीद की तरह ।।

महीनों के दरम्यान
हाँ और न का
मूक संवाद
दर्ज़ होता है कहीं ?

हाँ न !

न होता
तो हम, हम न होते
दो किनारों पर तठस्थ

होते हैं हम,बे हम
जलते बुझते
उगते डूबते
दिन और रात की तरह ।।

गुरुवार, 27 जुलाई 2017


भीगने की ज़िद पर हम बड़े छाता लगा देते हैं, न खुद भीगने का साहस जुटा पाते हैं, न बच्चों की भीगने की चाह को एक बार भी पूरा होने देते हैं।कपड़े गीले हो जाएंगे, ज़ुकाम हो जाएगा, बुखार आ जायेगा, अभी नही भीगना, शाम को मत भीगना, दिन में होगी तब भीगना, अगले साल भीगना इस साल इम्तिहान हैं । भीगना उत्सव नही होता हम रूखे सूखे लोगों के लिए। सुरक्षा के लिए हमेशा असुरक्षित रहना हमारा शगल बन गया है।
     भीगने का डर इतना घर कर गया है, कि शदीद इच्छा के बावजूद भी पूरी बारिश निकल जाती हैं एक बार भी भीगने का साहस नही जुटा पाते, मजबूरन फंस जाने पर भीगना अभिशाप सा लगता है। शहर के लोग नाज़ुक हो जाते हैं पर शहर की बारिशें वैसी ही होती हैं । जैसे गावों के गलियारों में, विद्यालय की टूटी छतों पर, हाट बाज़ारों में, खेतों में।
      मैंने इस बारिश एक प्रयोग किया शहर में ही। वो भीगने का डर निकाल दिया, बचने की कोशिशों को किनारे रख दिया। खूब भीगा, सूखा फिर भीगा, भीगा फिर सूखा, यहाँ तक पूरी तरह भीग कर एकदम चिल्ड सिनेमा हॉल में 2 घंटे मूवी देखी, उसके बाद फिर भीगा। इस बार कि बारिश ने मुझे कहीं निकलने से नही रोका, न छाता न रेन कोट। इससे पहले के सालों में बचता रहा, एक हल्की बारिश भी बीमार सी कर देती थी। पर इस बार बारिश खिला देती है। हालांकि न हो तो उदास भी करती है। पर भीगना जरूरी है बेहद, अक्ल के छाते हटा के, भीगना जरूरी है बारिश को समझने के लिए, भीगना जरूरी है प्रकृति को महसूस करने के लिए। बच्चे को भी भीगने दिया पर एतिहाद के साथ।

तस्वीर - मेरे बेटे की

#monsoondiary
असामी मानुष

चाय और टाइगर ग्लूकोस बिस्किट का नाश्ता अभी अभी खत्म हुआ। नीले बार्डर की गुलाबी सूती धोती वाली औरत खिड़की की तरफ घूम के झोले से सफेद पन्नी निकालती है, पन्नी की गांठ हल्की थी, बार बार खुलनी थी लंबे सफर में। औरत पन्नी से दो हरे पत्ते निकालती है, एक सूखा और एक हरा। सूखे पत्ते पर चूने का टीका लगा कर बर्थ के दूसरे छोर पर बैठे उम्रदराज़ शौहर को पकड़ा देती है। झक्क सफेद बनियान, पाजामा और दाढ़ी वाला शौहर अंगूठे से हथेली पर सूखे पत्ते को खूब रगड़ता है, होंठ में दबा कर बैठे बैठे आंखे बंद कर लेता है।
   वो हरे वाले पत्ते में भीगी डली लपेटती है, सूखे हरे पत्ते के टुकड़े के साथ मुंह में धर लेती है। तर्जनी वाली उंगली के पहले पोर से चूना लपेटती है। हरे को चबाते हुए जब जब पोर पे लगे चुने को नीचे वाले दांतों से समेटती है। तब हरा और लाल होता जाता है। वो बारिश के मौसम में ट्रेन की खिड़की से अपने हरे वक़्त को तेज़ी से निकलते हुए देखती रहती है। खिड़की से आती तेज़ हवा उसके सर पर पड़ी ओढ़नी को टिकने नही देती है। वो अड़ी रहती है खिड़की पर ओढ़नी संभालते हुए। ये सफर उसके बाहर देखने का है। उसकी बड़ी होती आंखें ट्रेन की खिड़की से हर वो दृश्य पहचान जाती हैं, जिसे उन्होंने कभी नही देखा।

#monsoondiary
#traindiary

मंगलवार, 25 जुलाई 2017


तू चाहे चंचलता कह ले,
तू चाहे दुर्बलता कह ले,
दिल ने ज्यों ही मजबूर किया, मैं तुझसे प्रीत लगा बैठा।

यह प्यार दिए का तेल नहीं,
दो चार घड़ी का खेल नहीं,
यह तो कृपाण की धारा है,
कोई गुड़ियों का खेल नहीं।
तू चाहे नादानी कह ले,
तू चाहे मनमानी कह ले,
मैंने जो भी रेखा खींची, तेरी तस्वीर बना बैठा।

मैं चातक हूँ तू बादल है,
मैं लोचन हूँ तू काजल है,
मैं आँसू हूँ तू आँचल है,
मैं प्यासा तू गंगाजल है।
तू चाहे दीवाना कह ले,
या अल्हड़ मस्ताना कह ले,
जिसने मेरा परिचय पूछा, मैं तेरा नाम बता बैठा।

सारा मदिरालय घूम गया,
प्याले प्याले को चूम गया,
पर जब तूने घूँघट खोला,
मैं बिना पिए ही झूम गया।
तू चाहे पागलपन कह ले,
तू चाहे तो पूजन कह ले,
मंदिर के जब भी द्वार खुले, मैं तेरी अलख जगा बैठा।

मैं प्यासा घट पनघट का हूँ,
जीवन भर दर दर भटका हूँ,
कुछ की बाहों में अटका हूँ,
कुछ की आँखों में खटका हूँ।
तू चाहे पछतावा कह ले,
या मन का बहलावा कह ले,
दुनिया ने जो भी दर्द दिया, मैं तेरा गीत बना बैठा।

मैं अब तक जान न पाया हूँ,
क्यों तुझसे मिलने आया हूँ,
तू मेरे दिल की धड़कन में,
मैं तेरे दर्पण की छाया हूँ।
तू चाहे तो सपना कह ले,
या अनहोनी घटना कह ले,
मैं जिस पथ पर भी चल निकला, तेरे ही दर पर जा बैठा।

मैं उर की पीड़ा सह न सकूँ,
कुछ कहना चाहूँ, कह न सकूँ,
ज्वाला बनकर भी रह न सकूँ,
आँसू बनकर भी बह न सकूँ।
तू चाहे तो रोगी कह ले,
या मतवाला जोगी कह ले,
मैं तुझे याद करते-करते अपना भी होश भुला बैठा।

उदय भानु

सोमवार, 24 जुलाई 2017


मई 11 
............................
प्रिय जस्टिन,
तुम आये और चले गए, मुझे नही मालूम था कि तुम इतने दिलों की धड़कनों पर राज करते हो। सच पूछो तो मुझे बहुत शर्म आयी कि मैं तुम्हारे बारे में नही जानता। तुम्हारे लाइव कंसर्ट से लगभग एक हफ्ते पहले से यहां की मीडिया ने तुम्हारे बारे में राग "खबरिया" गाना शुरू कर दिया था। मैं तुम्हे डेढ़ अरब जनसंख्या वाले देश के सबसे रंगीले शहर मुम्बई में तुम्हे सुनने नही जा सका। मुझे अफसोस भी नही। क्यों कि मुझे नही पता तुम क्या गाते हो, क्यो गाते हो, किसके लिए गाते हो ? यहां तुम्हारे बारे में खूब खबरें चलीं, तुम्हारी मांग की लंबी फेहरिस्त और आयोजकों द्वारा उन मांगों को पूरा करने के लिए खर्च किये गए 100 करोड़ रुपये। मुझे पता चला कि तुम भारतीय खाने के बहुत शौकीन हो, इसलिए तुम्हारे खाने की थाली में यहां के 20 राज्यों के व्यंजन परोसे जाने के लिए तैयार थे। एक बारगी लगा कि शायद तुम अपने खाने के शौक को पूरा करने आये होंगे !
तुम दुनिया भर के सर्वश्रेष्ठ गायकों में से एक हो। ये देश भी सर्वश्रेष्ठ है, सर्वश्रेष्ठ होने में। दुनिया भर के सर्वश्रेष्ठों ने यहां आकर सर्वश्रेष्ठ होने का सुख लिया है। तुमने भी कहा कि यहां के लोग कूलेस्ट हैं। इतनी गर्मी में कूलेस्ट तो पश्चिम में भी शायद संभव न हो। यहां संगीत का बहुत महत्व है, पैदा होने से लेकर उठावनी तक यहां तरह तरह के गीत संगीत प्रचलित हैं। भारत देश विश्व गुरु होने की कगार पर है, फ्यूज़न यहां की भीड़ को खूब भाता है। तुम बेहद कम उम्र के हो, नौजवान देश को तुम्हारे तरह के लोगों की सख्त जरूरत है। तुम बार बार आते रहना यहां कभी उत्तर प्रदेश में, कभी बिहार में, कभी कश्मीर में, कभी नार्थ ईस्ट में। योग, अध्यात्म, संस्कृति, कला, भाषा, खाना, पहनावा, भूगोल इस देश को एकजुट रखने में फेल हो रहे हैं। तुम्हारे तड़कते भड़कते संगीत से यहां कि युवा धड़कनों को शायद कोई बिना भटकाव की दिशा मिले। ये देश दुनिया के लिए गरीब है पर हमारा दिल बहुत अमीर है। हम हर तकलीफ को नई तकलीफ से कम कर लेते हैं। हम तकलीफ से निकल कर किसी नए तरह के सर्वश्रेष्ठ संगीत में खो जाना चाहते हैं। तुम्हारे लिए तेज़ी से बढ़ती क्रेज़ी युवाओं की धड़कनों से मुझे यकीन हो चला है, कि तुम ही इस युवा देश की जरूरत हो। तुम्हे हम सर्वश्रेष्ठ बनाये रखेंगे ये हमारा दावा है। फिर आना जस्टिन !
तुम्हारी क्रेज़ी फैन फॉलोविंग का फैन
प्रभात सिंह
मुंबई में जस्टिन के शो के एक दिन पहले 

मई 23 
..................
उगना
हरा होना
गिर कर सूख जाना
पत्थर हो जाना
मिट्टी हो जाना
जीना हर शै को
जिंदगी की
मरने से ज्यादा !
........................
दो कदम हमसफर
ऐ शहर ये तुमको हुआ क्या है ?
५ जून २०१७ 

एक और रात नींद को सिरे से ख़ारिज़ करने के लिए आमादा थी। भीषण गर्मी से भट्ठी हुए कमरे में तंदूरी नाइट का खौफ सर पर आग के शोलों की तरह धधक रहा था। खुद से लंबे झगड़े के बाद खाली शाम हाँथ आयी चिल और मस्त रहने की सलाह ने बियर शॉप की राह दिखा दी। दो अदत चिल्ड बियर शरीर और रूम टेम्परेचर को दो घंटे ट्यून करती रही। घूंट घूंट रात बामुश्किल आधा सफर ही तय कर पाई। ख़्वामखां जौं के पानी से उम्मीद लगाई...आधी रात न नींद थी, न बेवक़्त किसी पुकार कि गुंजाइश और न ही नशा। अचानक जेहन में रमज़ान के वक़्त पुराने शहर के रौशन चौक चौराहे याद आये। पुराने शहर ने कई बार पहले भी नींद से छूटे अकेलेपन को भरा है। सोसाइटी के गार्ड की नींद तोड़ने का गिल्ट लिये निकल भागा अपने शहर में दूसरे शहर की ओर। रास्ते भर सड़कें खाली, जाने और आने वाली सड़कों के बीच डिवाइडर पर कतार में सोती सैकड़ों बेधड़क नींद। पुराने लखनऊ की गलियां सोई पड़ी थी। चौराहे पर इक्का दुक्का चाय की दुकान।
राम जाने रमज़ान के वक़्त कभी जश्न में डूबे शहर को अब हुआ क्या है ? अमीनाबाद, चौक, ठाकुरगंज दुकानों के ग्लो साइन बोर्ड चमक रहे थे। सहरी के वक़्त की तैयारियों में बाज़ार गुलज़ार नही था। अवैध बूचड़खाने, कुछ एक किस्म के गोश्त पर पाबंदी के सरकारी फरमान के पर्चे सड़कों, गलियों और चौराहों की हवाओं में चिपके हुए थे। शायद इससे ज्यादा कोई पाबंदी नही लगाई गई। फिर भी एक अजीब सा खौफ है। चौराहों पर पुलिस की जीप के मत्थे पर कई तरह की रंगीन रोशनी आंख टिकने नही दे रही थी।
खामोश पुराने लखनऊ में रूमी दरवाज़ा बुलंद खड़ा किसी याद में डूबा हुआ था। रूमी, इक्के वाले कि शक्ल में सोए हुए थे अपने इक्के (तांगा) पर दरवाज़े के ही पास। सहरी के वक़्त की अज़ान के ऐलान के बाद पुराना शहर निकल पड़ा इबादतगाह की ओर। चिड़ियों की चहचहाट भोर की अगुवानी में पेड़ों को झींके दे रही थी। गाड़ी के दो पहियों में रात लिपटती हुई जा पहुंची नए शहर के लोहिया पार्क में। जहां जॉगिंग ट्रैक पर बेखौफ कदम ताल स्वस्थ हवा को महसूस कर रहे थे। बिना सोकर जागे ही आदतन मोबाइल खोल लिया, दूर कहीं दूसरे देश के शहर लंदन में आतंकी हमले की खबर ने स्तब्ध कर दिया। मोबाइल बंद कर, पार्क में एक झूले की झींक और ठंढी हवा के झोंके ने कुछ देर बहलाये रखा। दो किशोर कूद के झूलते हुए झूले पर सवार हो गए मेरे दाएं बाएं। मोबाइल गेम में खो गए वो दोनों। मेरे पैर जमीन से टिके झूले को झूंक देते रहे।
लवर्स ऑफ फ्लेवर
14 जून २०१७ 
(एक बेहतरीन रोमांटिक ऐड शॉर्ट फ़िल्म )
हरे भरे खेतों से बेहतरीन अनाज की परख, माँ के हाँथ की रेसिपी का अनुभव और लज़ीज़ खाने से दिल में उतरने का हुनर टीआरएस (देव) बखूबी जानता है । लंदन में बीते आठ सालों में जमा खर्च लम्हों के साथ खट्टे हो चुके प्रेम की टीस ढो रही अनुषा से देव कुछ ही मुलाकातों में फिर से प्रेम का फ्लेवर बो देता है। 
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पार्ट -1
अनुषा की माँ के घर में बची खुची तूर दाल का जल जाना, देव का अचानक मसूर दाल के साथ घर में दस्तक देना.... देव का अनुषा को काम वाली समझना , और अनुषा का देव को नमक वाला पानी पिलाना...इस प्यारी दोनों को नजदीक लाती चुहल के साथ देव का बेझिझक बेधड़क रसोईं पर कब्जा कर लेना, अनजान लोगों की पहली मुलाकात, तड़के वाली मसूर दाल से दो प्याज़ा हो चली।
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पार्ट -2
अनुषा से अनु होने तक की कई मुलाकातों का सफर, माँ के न रहने से और तेज़ होना चाहता है। एक रोज़ गरजते बादलों के साथ खुली खिड़की पर अनु की आंखों से माँ की याद बरसने लगती है। इस बार वो रसोई के लिए रवा लाता है। देव और अनुषा की हथेलियां मुट्ठी भर भुने गर्म रवे को लड्डू का आकार देने लगती हैं। दोनों की लिपटती हथेलियां उन्हें दूर किसी दूसरे संसार में ले जाएं उससे पहले देव लड्डू पर किशमिश रख कर उस यात्रा को तोड़ता है, उसे हरे भरे खेत में सीने से लगा अपने होने का भरोसा दिलाता है।
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पार्ट -3
देव दो सरप्राइज़ के साथ याद में खोई अनुषा की खामोशी को तोड़ता है। पहला अनुषा के बालों को उसके मनपसंद फूल जैस्मीन के गजरे से सजा देता है। दूसरा रसोईं के लिए इस बार उसके पास बढ़िया छोले होते हैं। अनुषा की चना मसाला की ख्वाहिश पर दोनों जैसे ही रसोईं की तरफ बढ़ते हैं, गरम मसाले का खाली डिब्बा दोनों की मुलाकातों और अनकही जज़्बातों के सिलसिले को तोड़ने वाला था। देव झट से गरम मसाला लेने बाज़ार की ओर जाता है, जब वापस लौटता है तो अपने ही समकक्ष किसी अन्य आदमी को अनुषा के इंतज़ार में खड़ा पाता है। देव मसाले को उस आदमी के हाँथ में पकड़ा कर दूर खड़ा आड़ से देखता रहता है। अनुषा सजी संवरी देव के लिए उस अजनबी आदमी से लिपट जाती है। अनुषा के हाँथ से बना चना मसाला खुशबू देव की ही दे रहा था। वो भागती है देव के पीछे पर देव निकल जाता है किसी अनाज की तलाश में। अनुषा और उसके हाँथ टिफिन में चना मसाले की खुशबू कैद किये इंतज़ार में जड़ हो जाते हैं ।
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टी आर एस(देव) की भूमिका में Manav Kaul
अनुषा की भूमिका में Anupriya Goenka
जून 17 

जब शहर के शहर पहाड़ों की ओर दौड़े चले जा रहे हों, तो क्यों न शहर में ही मिट्टी के टीले को पहाड़, घने शहर के बीच ठहरी नदी के किनारे को किसी घाटी के बीच कल कल बहती नदी, घिरती घटाओं को भरे बादल, कुछ जंगली पेड़ों को चीड़ देवदार, घुमावदार पगडंडियों को घूमते पहाड़ी रास्ते और तेज़ धूल भरी आंधी को बर्फीली हवाएं मान लिया जाए। मान लिया जाए कि ये सब वहीं से आ रहा है, जहां हम जाना चाहते हैं। हां वहां मैं तब जाना चाहूंगा जब वहां कोई नही जाएगा। जैसे अभी यहां कोई नही है।
गुड़िया
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धक धक करती
खेली जा चुकी "गुड़िया"
सड़क पर
राहगीरों से पूछती
तुमने मुझे
दफनाया क्यों नहीं ?

तस्वीर - रमज़ान की मस्ज़िद के पास बुद्ध बाज़ार की व्यस्त सड़क पर सुन्न कर देने वाले सवाल की।
29 jun २०१७ 

सुनो भीड़,
तुम वही हो न, जो एक गोली, एक चाकू, एक लाठी, एक नोटिस, एक थानेदार, एक नेता, एक सरकारी बाबू, एक धर्म रक्षक से डरते हो और उनके इशारों पर नाचते हो। तुम वही हो न, जो घरों में महीनों गंदे पानी की सप्लाई पर कुछ नही बोलती। तुम वही हो न जो दिन दहाड़े सड़क पर तमंचा लहराते हुए बदमाश को देख कर खिसक लेती है। तुम वही हो न जो किसी गर्ल्स कॉलेज के सामने लड़कियों को स्कैन करती आंखों पर चुटकियां लिया करती हो। तुम वही हो जो घंटों लंबी कतार में इंतज़ार करती देखती है किसी रसूख वाले को कतार के नियम तोड़ते। तुम वही हो न जो सड़क पर मर रहे इंसान, जानवर को देखती हो दया और करुणा के भाव से और च च च...बेचारा कहकर किस्से बना देती हो। तुम वही हो न जो घंटों हज़ारों लाखों की संख्या में हाँथ जोड़े, आंख बंद किये मंद मंद झूमती हो आध्यात्मिक पांडालों में। तुम वही हो न , जो अपना सम्पूर्ण जीवन परिवार के कुछ लोगों की देख रेख, उनकी परवरिश, उनकी आर्थिक सामाजिक सुरक्षा, उनकी ऐशो आराम में झोंक देती हो। तुम वही हो न, जो किसी अपने के अंतिम संस्कार में अधिक से अधिक संख्या में पहुंचती हो और उनके परिवार को ढांढस बंधाती हो। तुम वही हो जो सपनों की खेती देखने जाती हो रैलियों में, तुम वही हो जो धार्मिक स्थलों पर जाती हो अपने बिगड़े को सुधारने के लिए।
ओ भीड़ जब तुम इतना भयभीत रहती हो हर समय, तो तुम्हारे भीतर किसी व्यक्ति को पीट पीट कर मार डालने की हिम्मत कहां से आती है ? कैसे तुम्हारा गुस्सा बेकाबू हो जाता है किसी व्यक्ति विशेष से, किसी घटना से कि उग्र जानलेवा जानवर की तरह टूट पड़ती हो उस पर। कैसे निकाल पाती हो समय अपने व्यस्ततम समय से, सड़क पर न्याय देने का। तुम्हारी खीज तुमको वहशी बना देती है। तुम लाखों करोड़ों की तादात में होते हुए भी डरती हो असुरक्षित महसूस करती हो, तुम्हारे इस डर और असुरक्षा की भावना को भुनाया जाता है।
ओ भीड़ तुम्हे सिर्फ घर और काम करने वाली जगह तक सीमित रहना चाहिए आंख कान नाक बंद करके, तुम्हारा परिवार तुम्हारी ताकत है और वही कमज़ोरी, उतनी ही तुम्हारी जरूरत। तुम कम से कम में जीते आये हो, और उतने में जीने की आदत है। ज्यादा की चाह, उसे हांसिल करने और उसे भोगने की तुम्हे हांकने वालों की है। कोई एक ही क्षेत्र में ताकतवर है भीड़ से ज्यादा। वो एक एक मिलकर तुम्हारा इस्तेमाल करते हैं, तुमको डर के साये में रखने के लिए। तुम डरे रहते हो सरकार से , समाज से, अपने ईश्वर से, खुद अपने ही परिवार से। दीर्घकालिक डर...डर और डर की कुंठा से तुम बेकाबू हो जाते हो, और बनते हो हथियार उन्ही का जो तुम्हे डराना चाहते हैं। तुम्हारे डर से वो भी डर जाते हैं जो इनसे आज़ाद होना चाहते हैं।
भीड़ से छिटका हुआ शुभचिंतक
प्रभात
1 july २०१७ 

अभी सुना कि लखनऊ में पिछले दो घंटे से झमाझम बारिश हो रही है, मेरे 4 बाई 8 के कमरे को बामुश्किल 1 घंटे बारिश झेलने की आदत है। कमरे के भीतर तीन तरफ से मूसलाधार बारिश प्रवेश करती है। 1 घंटे से ऊपर की बारिश कमरे में टपकने लगती है, ठहरने लगती है। यूँ तो कमरे में छत है, एक लंबा सा खिड़की कम रोशनदान, लोहे की सरियों से बना जालीदार दरवाज़ा है, और एक अलमारी है जिसमें कोई अबूझ पतली सी आधा इंची सुरंग है। कमरे की दीवारें तख्त के दो किनारों से सटी हुई हैं। उनपर हाल ही में मकानमालिक द्वारा दिये गए क्वायर और फोम के गद्दे हैं । अलमारी में ढेरों किताबें हैं, अखबार हैं, तैयार कपड़े हैं। जमीन पर फूल झाड़ू है, छोटी टेबल के टॉप से अक्सर ज्यादा वाला सामान नीचे गिर जाता है, जो कि जगह की कमी के चलते उठाया नही जाता।
मैं हरदोई से लखनऊ के बीच की यात्रा में हूँ। हरदोई स्टेशन पर ही पता चला था कि पिछले 2 घंटे से बारिश हो रही है, और लगता है कि अगले कुछ घंटे होगी। फिलहाल 100 किलोमीटर की दूरी के सफर में दोनों तरफ हरे भरे खेत खलियान, पेड़ पौधे ट्रेन के साथ दौड़ रहे हैं। मेरी दिमाग में कमरे के भीतर तैरती भीगती वस्तुएं घूम रही हैं। लखनऊ पहुंचते ही ऑफिस जाऊंगा फिर रात में कमरा मिलेगा। रात में शायद ही कमरे में कोई जगह सूखी मिले। निचोड़ने सुखाने का भी समय नही होगा।
मैं रोमांचित हूँ। रात का बेसब्र इंतज़ार है। हर बारिश ऐसा ही कुछ होता है। दीवालें साल भर सीली रहती हैं। सारे मौसम कमरे में आते हैं। 4 बाई 8 कमरा सुकून का मचान है। मैं उन लेखकों, साहित्यकारों, संपादकों, प्रकाशकों,धर्म उपदेशकों, मित्रो को यकीन दिलाना चाहता हूं कि उनकी रचनाये, पुस्तकें , पत्र और उपहार सारे मौसम देखते हैं 4 बाई 8 के कमरे में सुरक्षित। हालांकि मैने उस कमरे में मैं अपनी सुरक्षा की गारंटी नही ले पाया। पुर सुकून, अपनापन, एकांत और मौसम की गारंटी हमेशा रहती है।
भीगना जरूरी है !
2 July 2017
अलमारी के बीच के खण्ड में पता नही कितनी ही कहानियां जिनमे बारिश, नदी, पहाड़, प्रेम, जीवन, संघर्ष, सहन, याद, स्त्री, पुरुष अलमारी में सूख रही थी। अलमारी के सबसे नीचे खण्ड में रखे अखबारों में पिछले सूखे से जूझते किसान और उनकी आत्महत्याओं से हिली सरकारों की खबरें अक्षरशाही से दबा दी गयी थीं। अलमारी के सबसे ऊपर खण्ड में रखी खुली साबुन, अगरबत्ती, मार्टीन क्वायल, माचिस , नमक, डेली डायरी, टेबल कैलेंडर, कॉर्ड लेस कीबोर्ड माउस, धूल खा रहे थे।
लंबे अरसे से एक 6 फिट का आदमी 4 बाई 8 के कमरे में आता ठहरता तो था, पर उसे अपने ही कमरे की चीज़ें इस्तेमाल करने छूने से डर लगता था। उसे लगता था वो कुछ छुएगा तो वो उसे संभाल नही पायेगा। कहानियां उसे उसके खिलाफ खड़ा कर देंगी। अखबार की खबरें उससे सवाल करेंगी कि फॉलोअप में तुमने क्या किया ? साबुन हाँथ से फिसल जाएगा, अगरबत्ती की खुशबू दम घोंटेगी, माचिस जला सकती है।
कमरे की एक दीवाल के टूटे हुए जोड़ से टिप टिप तेज़ धीमी बारिश की धार अलमारी को भिगो रही है। बाकी रोशनदान से और दरवाज़े की तरफ से आती बारिश की बूंदे मन के भीतर ढेर सारी ऊर्जा बो रही है। भीगना भीगने देना इतना राहत भरा हो सकता है कभी महसूस नही हुआ। भीगने के बाद सवालों ने जवाब ढूंढ लिए हों जैसे। कमरे के भीतर रखी हर निर्जीव वस्तु जीवित हो चली है। सब संवाद में हैं, सूखे और भीगने के बाद के अंतर को साझा कर रही हैं। सब अपनी अपनी भाषा में अपनी जरूरत अपनी अहमियत को चिल्ला चिल्ला के शोर करते थे। अब कमरे के भीतर बाहर बारिश के स्वर हैं, भीगना स्थायी राग है ठीक वैसे ही मन के भीतर बाहर भी।
"सीट"
4July 2017
ट्रेन की साइड बर्थ पर माँ लेटी थी। लड़की माँ के पैरों की तरफ बैठी खिड़की के बाहर हाँथ निकाले बारिश की बौछारों से खेल रही थी। पूरे कंपार्टमेंट में केवल उसी सीट के पास बामुश्किल खड़े होने की जगह थी। पिछले स्टेशन पर कंपार्टमेंट में दूसरे छोर के दरवाज़े से भीगता हुआ एक लड़का घुसा। कम्पार्टमेंट में वैसे भी खड़े होने तक कि जगह नही थी। ऊपर से लड़का भीगा। गैलरी में पड़े आड़े तिरछे लोगों को फांदते लड़का उस सीट के पास खड़ा हो जाता है। लड़की अभी भी बाहर हथेली में बूंदों को ठहरने देती और छोड़ देती। लड़का काफी देर पीठ पर टंगे भारी बैग और खड़े होने की कम जगह से असहज होता रहा। लड़की के बूंदों वाले खेल में अब लड़का भी शरीक हो गया था अपनी जगह पर खड़े खड़े। लड़की का ध्यान रह रह कर बूंदों के खेल से लड़के की असहजता पर जाता आता रहा।
कुछ घंटे बीतने के बाद लड़की खिड़की से एकदम सट कर कोने भर की जगह बनाती है। लड़का उस छूटी जगह को निहारता रहता है। लड़की खिड़की की तरफ ठिठकी बैठी रहती है। बूंदों का खेल कबका खत्म हो चुका है। अगले स्टेशन पर उतरने वालों की हलचल शुरू हो जाती है। लड़का लड़की की आंख से आंख मिला कर पलक झुकाते हुए दरवाज़े की ओर बढ़ जाता है। लड़की शुकराना में झुकी पलक का जवाब मुस्कुरा कर देती है और सहजता से बैठ जाती है।
9 July 2017

उत्तर प्रदेश के नवाबों के शहर "लखनऊ" और मध्य प्रदेश के जंगल वाले "सागर" के बीच का रोचक संवाद पढ़िए, उजड़ते जंगल की चिंता देखिये।
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लखनऊ - सागर में जंगल हैं ?
सागर - अब कहाँ ! मध्य प्रदेश का बड़ा हिस्सा जंगल ही था कभी !
लखनऊ - आंशिक भी नही ?
सागर - अब तो जंगली बचे हैं , इन्ही की वजह से जंगल न बचे
हर तरफ घर, मकान, रोड , बाज़ार !
लखनऊ - क्या इतने भी नही रहे कि कहा जा सके " सागर में जंगल हैं " ?
सागर - नही सच्ची !
लखनऊ - कब तक थे ?
सागर - कोई एक साल तो नही बता सकते, ये सब धीरे धीरे खत्म हुआ !
लखनऊ - जैसे लखनऊ में नवाब थे वैसे ही सागर में जंगल थे कभी, क्या इतना समय हो गया होगा ?
सागर - जंगलों के अस्तित्व अभी भी है, नवाब अब कहाँ बचे !
लखनऊ - जंगल और जंगल का अस्तित्व अलग अलग है ?
सागर - अरे जैसे हम लोग बचपन में किताबों में पढ़े होते है, अफ्रीका के देखे होते है बढ़िया जंगल, उनमे जंगली जानवर भी, जंगली क्षेत्र भी वैसे नही हैं अब, सागौन के जंगल थे यहाँ । जंगलों के अस्तित्व तब तक बचा रहा जब तक छत्तीसगढ़ जुड़ा था !
लखनऊ - अच्छा फिर अब बचा क्या है... कीकर ?
सागर - साल, कीकर, तेंदू ही हैं और अब सरकार बबूल लगवा रही है !
लखनऊ - अच्छा आखरी सवाल, कौतूहल वश पूछना है
सागर - पूछिये
लखनऊ - सागर में जंगल हैं ?
सागर - जी, आईयेगा यहां कभी, तब मेरी बात समझ में आएगी !


तस्वीरों से भागा हुआ आदमी !
16 July 2017

फोटोग्राफी का ख्याल करीब 20 साल पुराना है। और शौक 7 साल पहले का, जब पहली बार एक डिजिटल कॉम्पैक कैमरा लिया था। 20 साल पहले याशिका का रोल वाला कैमरा लिया था। रोल हमेशा पॉकेट खर्च पर महंगे पड़ते रहे। लेकिन इधर उधर आते जाते उसका इस्तेमाल हो जाता था। एक दिन एक कबाड़ी के ठेले पर जर्जर हालत में ऐग्फ़ा का ओपन शटर वाला कैमरा दिखा। अजीब सी सिहरन दौड़ गयी पूरे शरीर में। ले लिया उसे, लखनऊ दिल्ली में बड़े से बड़े कैमरा साज़ों को दिखाया पर बनने की कोई गुंजाइश नही थी। अब तक घर वालों के द्वारा कई बार उसे कबाड़ में बेचे जाने से बचा कर रखा है। 2008 के लमसम दिल्ली में साथ काम करने वालेRohitash Jaiswal जी के एस एल आर के दांव देख कर कैमरे की दबी हुई चाहत अखरने लगी। लगा कि लिया जाएगा कभी। 2010 में डिजिटल कैमरे से कुछ बेहतर समझने करने की शुरुआत की। तस्वीर खींचने की लत और भुलक्कड़ी के चलते 4 कैमरे खो दिए एक के बाद एक। पर उन कैमरों की तस्वीरों में हमेशा एक अधूरा पन रहा। दृश्य और तस्वीर के रंगों में बहुत अंतर रहा हमेशा। हरा कभी वैसा हरा नही दिखा, नीला कभी नीला नही जैसा दृश्य में होता।
उन कॉम्पैक कैमरों से खेलने के दौरान DSLR लेने की ख्वाहिश हमेशा रही। लिहाज़ा कई साल गुल्लक में 100 - 50 रुपये जुटाता रहा। 2012 में घर में हुई चोरों की नज़र-ए-इनायत से गुल्लक के कैमरा होने का होते होते ख्वाब बिखर गया। 2014 में हमारे अखबार में काम करने वाले फोटो जर्नलिस्ट का dsrl कैमरा मांग कर निकल गया पहाड़ों की सैर करने। कैमरे की खामियों को पहले से ही बता दिया गया था। तकनीकी खराबी के बावजूद कुछ फ्रेम अच्छे निकले। पिछले कुछ सालों से मोबाइल से तस्वीरें खींचता हूँ। मन बहलाने के लिहाज से ये ठीक ही लगता है। फिर भी हर तस्वीर में परफेक्ट नेस की कमी लगती है। मैं हर वक़्त उस कैमरे को मिस करता हूँ जो अभी तक मेरे हाँथ लगा ही नही। कैमरों और लेंस की रेंज के बारे में सुनता देखता हूँ तो बहुत घबराहट होती है। इतने महंगे कैमरे और उनके लेंस। पर भागने से क्या होता है, डरने से क्या होता है।
मुझे अपनी तस्वीर खींचना और खिंचवाना बिल्कुल अच्छा नही लगता। पर फेसबुक ने कुछ साल पहले की तस्वीर पटक दी सामने। मुझे मालूम है जिस दिन कैमरे को मिस करने की हूक पहाड़ हो जाएगी, उस दिन डर घबराहट पीछे छूटेंगे। बस ये मिस करने वाला एलिमेंट, अच्छी तस्वीरें खींचने की भूख और प्रेम जीवित रहे।

मैं आ रहा हूं ... #imamdasta

  जो सिनेमा हमारे नज़दीक के थिएटर या ओ टी टी प्लेटफार्म पर पहुंचता है । वह हम दर्शकों को तश्तरी में परसा हुआ मिलता है । 150 से लेकर 600 रुपए...