कुल पेज दृश्य

बुधवार, 20 सितंबर 2017


चारबाग की शाम में पंछियों का राग "जुटान"

कभी शहर लखनऊ के शोर शराबे, जाम से परेशान हों, और सुकून के कुछ पल तालशने हों तो चले जाइयेगा चारबाग रेलवे स्टेशन पर। बड़े मोटर साइकिल स्टैंड के सामने मंदिर के पास सुस्ता रहे रिक्शों पर बैठिएगा। शाम ढलते ही आसमान में हजारों की संख्या में चीं चीं करते पक्षियों का झुंड कुछ पेड़ों पर शाम बिताने आता है। वो उन पेड़ों पर बसेरा लेने से पहले आसमान में चक्कर लगाते हैं, सब एक साथ झुंड में, न आगे न पीछे, न छोटा न बड़ा, न रौंद के आगे निकलने की होड़ । वो रोशनी रहने तक चारबाग के आसमान के कई चक्कर लगाते हैं। और रोशनी खत्म होते ही सभी दो पेड़ों पर आकर ठहर जाते हैं। वो शोर करते हैं, उनकी एक साथ चीं चीं की आवाज़ को सुनकर लग सकता है कि वो लड़ रहे होंगे।  पेड़ों के करीब जाकर देखेंगे तो पाएंगे वो साथ की यात्रा को, साथ के बसेरे को उत्साह से उत्सव में बदल देते हैं। लखनऊ शहर के भीतर शायद ही किसी पेड़ के इर्द गिर्द मंडराते, पेड़ों पर बसेरा लेते इतने पक्षियों की आवाज़ें सुनाई दें। एक स्वर में पंछियों का कलरव शाम का कोई नया राग बन जाता है। राग "जुटान" । उस राग में भीतर के शोर, मंदिर के लाउड स्पीकर से उठती सीता राम की रट, जाम में फंसी गाड़ियों की पों पों, रेलवे स्टेशन की अनाउंसमेंट सब दब जाती हैं। यह राग रोज शाम को हज़ारों पंछियों द्वारा गाया जाता है।  इस मनोरम दृश्य को देख कर सुन कर ये सवाल भी उठ सकता है कि कौन सिखाता होगा उन्हें एक साथ रहना ? एक स्वर में अपने मन के भावों को पिरोना, ऊपर से उन्हें भी क्या आदमियों के झुंड एक साथ नज़र आते होंगे ?

मंगलवार, 19 सितंबर 2017


अजोध्या की सरजू

न न...राम की अजोध्या कहने में आपको कोर्ट के फैसले का इंतज़ार करना पड़ेगा। राम अपने ही जन्म स्थल पर अभी न्यायिक हिरासत में हैं। वो कैद हैं, 14 टुकड़ी पी ए सी, 2 टुकड़ी सी आर पी एफ (सेंट्रल रिजर्व पुलिस फोर्स) और सैकड़ों पुलिस कर्मियों की देख रेख में एक तिरपाल के नीचे। अजोध्या तो फिलहाल सरजू की ही है। उसको किसी के फैसले का इंतज़ार नही है। वो बह रही है निर्बाध। उसके किसी भी स्पर्श, भाव, विचार पर कोई पाबंदी नही है। कैसे लगाओगे पाबंदी ? वो तुम्हारी हद में नही है।  तुमने राम को जना, तो वो भौतिक संसार की भौतिकी से कैसे बच पाएंगे ? खुद फंसे हो और राम को उनके ही घर में कैद करके रखा हुआ है।
      अमानती सामान की जमानत, 5 जगह सघन सुरक्षा जांच, घंटे भर संकरे जाली नुमा पिंजड़े में जलेबी की तरह घूमते घूमते एक जगह किसी पंडे ने राम नामी प्रसाद पकड़ा दिया। सोचा आगे कहीं चढ़ाना होगा। जाली के ऊपर से आततायी बंदरों के पेशाब व लार गिरने का डर और कतार में बेकल श्रद्धालुओं की आपाधापी में वो जगह दिखी ही नही। जाली वाले पिंजड़े से जैसे ही बाहर निकला तो एक बोर्ड पर लिखा था "बाहर जाने का रास्ता"। मैं ठगा सा रह गया। ठीक उसी वक़्त दिमाग में अमानती लॉकर से लेकर बाहर जाने के रास्ते वाले बोर्ड तक वो यात्रा तड़क गयी। वो जगह कहाँ कब निकली , पूछने पर किसी ने कहा कि भगवान राम नाराज़ होंगे इसलिए नही दिखे। हा हा हा...जोरदार हंसी फुट पड़ी। जैसे सबने दर्शन किये हों राम के।
     उधर सूरज सरजू (सरयु नदी) के आलिंगन की तैयारी में था। प्रेम में डूबने को लालायित , वो अलौकिक प्राकृतिक छटा की लालिमा ने घसीट लिया वहाँ से विक्षत मन को, थके तन को । सूरज आहिस्ता आहिस्ता वृहद रूप ले रहा था। सरजू की लहरें कभी लाल तो कभी स्याह हो रही थीं। सूरज जैसे ही सरजू में विलीन हुआ। आसमान में तारे चमक उठे। अजोध्या सरजू किनारे आजादी की सांस लेती है। राम इंतज़ार में बैठे हैं।

............

चौरासी गुणा = महा गरीब/गरीब/राजा/महाराजा

चौरासी कोसी, चौरासी लाख देवी देवता, चौरासी गुणा...चौरासी चौरासी । चौरासी का महत्व तब समझ में आता है जब अजोध्या में पंडा पिंड दान करते वक़्त दक्षिणा को 84 से गुणा कर देता है। यजमान की दक्षिणा के आधार पर पुण्य और पाप दोनों ही 84 गुना होने की संभावना रहती है। पितरों के पिंड दान के समय पढ़े जाने वाले श्लोकों के बीच में ही दक्षिणा का संकल्प पंडा बड़ी चतुराई से करवा लेता है। संकल्प के दौरान पिंड दान करते हुए यजमान को महाराजा की तरह पिंड दान करने का संकल्प करवाया जाता है। पिंड दान की आखरी कड़ी में पंडा दक्षिणा रखने की बात करता है। फिर यजमान की स्वीकृति अस्वीकृति के बाद उसे महाराजा/राजा/गरीब/महागरीब घोषित करके पुण्य और पाप के 84 गुने हो जाने की हिदायत देता है। इस क्रिया क्रम में अंत खटास से ही होता है। या तो पंडा नाराज़ होगा, या यजमान का नाराज़ होना तय है। पितरे तो दोनों को ही देख के तर जाते होंगे कि अच्छा हुआ वो यहां से निकल गए। अब चौरासी का खेल देखिये, दक्षिणा 51 रुपये गुणे 84 = 4284 रुपये = महाराजा, दक्षिणा 21 रुपये गुणे 84 = 1764 रुपये=राजा, दक्षिणा 11 रुपये गुणा 84 =924 रुपये= गरीब, दक्षिणा 5 रुपये गुणा 84 = 420 रुपये = महागरीब। ये भी हो सकता है कि दक्षिणा को पितरों की संख्या के साथ गुणा कर दिया जाए। घर के जितने लोगों का पिंड दान उतने गुने दक्षिणा। और गो दान की दक्षिणा अलग से। जो कि इस पैकेज में शामिल नही होता।

तस्वीर - एक पंडा जजमान को 84 का गुणांक समझाता हुआ, मामला महागरीब से भी नीचे चला गया। जजमान 151 ही दे पाया।

राम के अयोध्या से पहली मुलाकात

सोमवार, 11 सितंबर 2017

मैं तुम्हे सम्मानित करता हूँ ...!

मुझे मालूम था , तुम्हे सम्मान पाना अच्छा लगता है। तुम खुश होगे जब मैं तुम्हे सम्मानित कर रहा होऊंगा। पर सम्मानित होने के बाद कभी भी शिकायत भरी नजरों से मत देखना, जब मैं किसी और को सम्मानित कर रहा होऊंगा। मैं औसतन हर दूसरे दिन किसी का सम्मान करता हूँ। मैं सम्मानित करने से सम्मानित महसूस करता हूँ। और सम्मानित होता हुआ दूसरे के गालों पर सम्मान की गुलाबी मुस्कान देखता हूँ। मेरे हर सम्मान समारोह में मंच पर बैठे सम्मान के चश्मदीद, मुझपर यकीन रखते हैं कि मैं एक दिन उन्हें भी सम्मानित करूँगा। सम्मान खालिस लेन देन का विषय है। ये मूक सहमति होती है सम्मान देने और पाने वाले के बीच।
       मुझे याद आ रहा है एक मंच सम्मान समारोह का। जहाँ एक व्यक्ति ने सम्मानित होने के क्रम को खंडित करते हुए पूछा था, ये सम्मान समारोह किस लिए, किसके लिए ? सबने खीझते हुए एक स्वर में पूछा क्या इस लिए तुम्हे इस समारोह में आमंत्रित किया गया था ? ये सम्मान का कार्यक्रम है, उसपर सवाल उठाने वालों का नही। विशिष्टिता, बौद्धिकता, सृजनात्मकता, रचनाधर्मिता सब आधुनिक काल के सम्मान शास्त्र पर आधारित हैं। तुम्हें नही मालूम ? सब सम्मान से ही चलता है, घर, व्यवहार, यहाँ तक सरकारें भी। प्रश्न उठाने वाले के चेहरे पर प्रतिरोध की सबल मुस्कुराहट देख कार्यक्रम में गहरी खामोशी पसर गयी । वो चल पड़ा दरवाजे की ओर, सम्मानित मंच और ऊंघते दर्शकों की खुली आँखों में झांकते हुए। मेरी नज़रे उसको सम्मान पूर्वक दरवाज़े तक छोड़ कर आयीं। उसके बाद वो हममे से किसी को नही दिखा। मेरी नज़रें तुम्हे खोजती है, मैं तुम्हे सम्मानित करना चाहता हूँ।

एक काव्य संग्रह के लोकार्पण कार्यक्रम में जैसा महसूस हुआ

गुरुवार, 7 सितंबर 2017

प्रिय हरदोई,

तुम शहर हो न वर्षों से। तुम्हारे पास वो सब है जो एक शहर के पास होता है। पक्की सड़कें, पक्के घर, बिजली पानी, स्टेडियम, स्टेशन, अस्पताल, कोर्ट कचहरी, प्रधान डाकघर, जेल, राजकीय विद्यालय और वो तमाम सुविधाएं जो किसी शहर को शहर होने के लिये जरूरी होती हैं, हैं तुम्हारे पास। फिर भी एक शहर की स्वायत्तता का अभाव तुम्हारे पास हमेशा से रहा। तुम शहर की तरह नही बल्कि व्यक्तित्व बन कर विचरते रहे प्रदेश के अन्य शहरों के बीच। व्यक्तित्व के आभामंडल ने हमेशा से तुम्हारी स्वायत्तता का हनन किया । तुमने जो मांगा, वो तुम्हारी झोली में डाला जाता रहा । तुमको मांग और आपूर्ति के बीच संघर्ष की कमी कभी खली ही नही। तुम्हारे इतिहास के संघर्ष दर्ज हैं सरकारी अभिलेखों में और स्वन्त्रता संग्राम सेनानियों के दिल में। फिर भी तुम आजादी के बाद से गुलाम होते गए। गुलामी की जड़ें इतनी गहरी उतरती गयीं तुम्हारे भीतर, कि तुम्हे वो नियति लगने लगी।
             तुम्हे आज़ाद भारत का गुलाम शहर कहना बिल्कुल भी नही भायेगा। तुम धधकते हो अंदर ही अंदर, सिसकते हो भीतर बाहर। तुम्हारी सारी बेचैनी भाप होकर एक डिब्बी में कैद हो जाती है। वो जिन्ह बनकर लहराती, उड़ती हुई पूछती है "बोलो क्या चाहिए" तुम बोल बैठते हो हुज़ूर जो भी मांगा आपने दिया। तुम्हे कभी महसूस नही हुआ कि जो दिया गया वही तुमने लिया। तुम्हारी हद बंदी है, आज भी। तुम्हारे भीतर खौफ रहता है, एक ऐसी ताकत का, जिसका कोई नाम नही, स्वरूप नही , अस्तित्व नही। वो ताकत तुम्हारे भीतर का डर है। तुम्हे फुसफुसाहट की आदत हो गयी है। तुम्हारी दर्द भरी धीमी आवाज़ को एम्पलीफायर में डाल कर उत्सव की आवाज़ बना दिया जाता है। दूर से वापस आती उसकी प्रतिध्वनि में तुम अपने खौफ को भुलाने की कोशिश करते हो। तुम एक शांति प्रिय आदर्श हँसते खेलते शहर हो जाते हो।
               तुम्हारी सहन शक्ति को सलाम करने का मन करता है। तुम्हारी हरियाली को बाँझ कर दिया गया, तुम्हारे तालाब पाट दिए गए, तुम्हारी जमीने हड़प ली गईं, तुम्हारी नदियों, नहरों को सुखा दिया गया। तुम्हारी शिक्षा व्यवस्था को नंगा कर दिया गया, तुम्हारी दशकों की मेहनत से बने स्वायत्त, स्वतंत्र, आर्थिक समृद्ध होने के संसाधनों को खत्म कर दिया गया। तुम सब सहन करते रहे सिसक सिसक कर।
               तुम्हारा एक गुण इन सब दुखों पर भारी पड़ता है। वो है तुम्हारी राजनीति में रुचि। तुम्हारी राजनैतिक महत्वाकांक्षा का कोई सानी नही है। तुमने कई कीर्तिमान स्थापित किये हैं, कई तोड़े हैं। तुम्हे सरकारों के पक्ष विपक्ष के केंद्र में रहने का हुनर मालूम है। उस केंद्र के घूमते चक्कों की गरारियों से सटी तुम्हारी क्षेत्रीय सरकार, सरकारी तंत्र , मीडिया रेशम के कच्चे धागे काता करती है। तुम और तुमहारे आम लोग टूटते जुड़ते रहते हैं इन धागों की तरह। तुम इस तिलिस्म को तोड़ पाओगी कि नही ? तुम्हारे आस पास के शहरों में, जनपदों में ऐसे ही कुछ मिलते झूलते गुण दोष होंगे। पर भीतर की ऊब, छटपटाहट, बेचैनी को तुमसे बेहतर कौन जानता होगा मेरी हरदोई ?

तुम्हारा शुभचिंतक
प्रभात

अपने शहर के नाम एक ख़त, जो कभी अपना नही लगा  !

मैं आ रहा हूं ... #imamdasta

  जो सिनेमा हमारे नज़दीक के थिएटर या ओ टी टी प्लेटफार्म पर पहुंचता है । वह हम दर्शकों को तश्तरी में परसा हुआ मिलता है । 150 से लेकर 600 रुपए...