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गुरुवार, 7 सितंबर 2017

प्रिय हरदोई,

तुम शहर हो न वर्षों से। तुम्हारे पास वो सब है जो एक शहर के पास होता है। पक्की सड़कें, पक्के घर, बिजली पानी, स्टेडियम, स्टेशन, अस्पताल, कोर्ट कचहरी, प्रधान डाकघर, जेल, राजकीय विद्यालय और वो तमाम सुविधाएं जो किसी शहर को शहर होने के लिये जरूरी होती हैं, हैं तुम्हारे पास। फिर भी एक शहर की स्वायत्तता का अभाव तुम्हारे पास हमेशा से रहा। तुम शहर की तरह नही बल्कि व्यक्तित्व बन कर विचरते रहे प्रदेश के अन्य शहरों के बीच। व्यक्तित्व के आभामंडल ने हमेशा से तुम्हारी स्वायत्तता का हनन किया । तुमने जो मांगा, वो तुम्हारी झोली में डाला जाता रहा । तुमको मांग और आपूर्ति के बीच संघर्ष की कमी कभी खली ही नही। तुम्हारे इतिहास के संघर्ष दर्ज हैं सरकारी अभिलेखों में और स्वन्त्रता संग्राम सेनानियों के दिल में। फिर भी तुम आजादी के बाद से गुलाम होते गए। गुलामी की जड़ें इतनी गहरी उतरती गयीं तुम्हारे भीतर, कि तुम्हे वो नियति लगने लगी।
             तुम्हे आज़ाद भारत का गुलाम शहर कहना बिल्कुल भी नही भायेगा। तुम धधकते हो अंदर ही अंदर, सिसकते हो भीतर बाहर। तुम्हारी सारी बेचैनी भाप होकर एक डिब्बी में कैद हो जाती है। वो जिन्ह बनकर लहराती, उड़ती हुई पूछती है "बोलो क्या चाहिए" तुम बोल बैठते हो हुज़ूर जो भी मांगा आपने दिया। तुम्हे कभी महसूस नही हुआ कि जो दिया गया वही तुमने लिया। तुम्हारी हद बंदी है, आज भी। तुम्हारे भीतर खौफ रहता है, एक ऐसी ताकत का, जिसका कोई नाम नही, स्वरूप नही , अस्तित्व नही। वो ताकत तुम्हारे भीतर का डर है। तुम्हे फुसफुसाहट की आदत हो गयी है। तुम्हारी दर्द भरी धीमी आवाज़ को एम्पलीफायर में डाल कर उत्सव की आवाज़ बना दिया जाता है। दूर से वापस आती उसकी प्रतिध्वनि में तुम अपने खौफ को भुलाने की कोशिश करते हो। तुम एक शांति प्रिय आदर्श हँसते खेलते शहर हो जाते हो।
               तुम्हारी सहन शक्ति को सलाम करने का मन करता है। तुम्हारी हरियाली को बाँझ कर दिया गया, तुम्हारे तालाब पाट दिए गए, तुम्हारी जमीने हड़प ली गईं, तुम्हारी नदियों, नहरों को सुखा दिया गया। तुम्हारी शिक्षा व्यवस्था को नंगा कर दिया गया, तुम्हारी दशकों की मेहनत से बने स्वायत्त, स्वतंत्र, आर्थिक समृद्ध होने के संसाधनों को खत्म कर दिया गया। तुम सब सहन करते रहे सिसक सिसक कर।
               तुम्हारा एक गुण इन सब दुखों पर भारी पड़ता है। वो है तुम्हारी राजनीति में रुचि। तुम्हारी राजनैतिक महत्वाकांक्षा का कोई सानी नही है। तुमने कई कीर्तिमान स्थापित किये हैं, कई तोड़े हैं। तुम्हे सरकारों के पक्ष विपक्ष के केंद्र में रहने का हुनर मालूम है। उस केंद्र के घूमते चक्कों की गरारियों से सटी तुम्हारी क्षेत्रीय सरकार, सरकारी तंत्र , मीडिया रेशम के कच्चे धागे काता करती है। तुम और तुमहारे आम लोग टूटते जुड़ते रहते हैं इन धागों की तरह। तुम इस तिलिस्म को तोड़ पाओगी कि नही ? तुम्हारे आस पास के शहरों में, जनपदों में ऐसे ही कुछ मिलते झूलते गुण दोष होंगे। पर भीतर की ऊब, छटपटाहट, बेचैनी को तुमसे बेहतर कौन जानता होगा मेरी हरदोई ?

तुम्हारा शुभचिंतक
प्रभात

अपने शहर के नाम एक ख़त, जो कभी अपना नही लगा  !

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