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बुधवार, 29 जनवरी 2014

ओ पेड़ !
तुम बोलते क्यूँ नहीं ?

क्यों नहीं बताते
कैसे खड़े हो वर्षों से
एक ही जगह पर
निस्वार्थ,निर्भीक
आंधी,तूफान,बारिश,बर्फ
कुम्हला देने वाली तेज़ धुप
को कैसे झेलते हो
अपने नंगे बदन पर
कैसे चीर देते हो सख्त चट्टानों को
अपनी अंतर्मुखी भुजाओं से

ओ पेड़ !
तुम बोलते क्यों नहीं ?

कितनी बार तुम्हे काटा गया
रत्ती रत्ती
कितनी बार जलाया गया
तुम्हारे अंश को
पीढ़ी दर पीढ़ी उपभोग करती रही
तुम्हारा
अपने फायदे के लिए
पत्ते,टहनी,फल,छाल,जड़
यहाँ तक रिसता पारदर्शी सुनहरा गोंद
सब तुम्हारा ही तो है
कैसे भरते हैं तुम्हारे घाव

ओ पेड़ !
तुम बोलते क्यों नहीं ?

तुम्हे प्रेम नहीं होता ?
अनगिनत शाखाओं पर
विचरते परजीवियों से
घोसलों  से निखर
ऊँची उड़ान भरते पंछियो से
स्तनधारी निशाचर
चमगादड़ों से
इठलाती बल-खाती लिपटीं
लताओं से
छाँव में दम लेने वाले
पथिक से

ओ पेड़ !
तुम बोलते क्यों नहीं ? …… प्रभात सिंह

शुक्रवार, 24 जनवरी 2014

मनाओ गणतंत्र दिवस 
झूमों गाओ खिलखिलाओ 
भारत पर्व मनाओ 
गुब्बारे छोड़ो,कबूतर उड़ाओ 
फूल बरसाओ
बच्चों नाचो 
लाउडस्पीकर लगाओ 
चिल्लाओ जय भारती 

संसद सजाओ,विधान सभा सजाओ 
जर्जर सरकारी तंत्र सजाओ
आसमान तिरंगा रंग दो
भाषण दो
झंडे फहराओ
विज्ञापन चलवाओ
तिरंगी टोपी पहनो
तिरंगा गाल रंगवाओ
गाल बजाओ।

झांकी दिखाओ
फांके दिखाओ
बलात्कार दिखाओ
आतंकवाद दिखाओ
नकसकली दिखाओ
भ्रस्टाचार दिखाओ

चाइना बाज़ार दिखाओ
पर कैपिटा इनकम दिखाओ
घाटा दिखाओ
घोटाला दिखाओ
गायब फाइलें दिखाओ

बाबू दिखाओ, ठेकेदार दिखाओ
जज दिखाओ, पत्रकार दिखाओ
बाबा दिखाओ, नागा दिखाओ
मस्जिद, मंदिर दिखाओ
गोधरा, मुजफ्फरनगर दिखाओ
सैफई महोत्सव दिखाओ,भगदड़ दिखाओ

सड़क दिखाओ, भोझिल रेल दिखाओ
रोडवेज़ दिखाओ

कूटनीति दिखाओ
स्ट्रिप सर्च दिखाओ

सुरक्षा दिखाओ
ऊंघती मोटी पुलिस दिखाओ
लाठी चार्ज दिखाओ

बार्डर दिखाओ
शहीद का सर दिखाओ
बोफोर्स दिखाओ, हेलीकाप्टर दिखाओ

अस्पताल दिखाओ
सड़क पर प्रसव दिखाओ
कैंसर दिखाओ
जापानी इंफलेलाइटिस दिखाओ
एन आर एच एम् दिखाओ

भाजपा लाओ, कांग्रेस लाओ
माया लाओ, मुलायम लाओ
आम आदमी पार्टी लाओ
देश बचाओ

लाओ लाओ और लाओ
मनाओ भारत पर्व मनाओ
गर्व करो ख़ुशी मनाओ

नहीं तो चुल्लू भर पानी लाओ
चैन से सो जाओ.. . ………। प्रभात सिंह

मंगलवार, 21 जनवरी 2014

तेरा न होना
अब होने जैसा लगता है
किसी किताब के पन्ने  का
कोने ऐसा लगता है।
हज़ारों अक्षरों में पिरोये हुए
किस्से, कहानियां, कविताओं
से अनिभिज्ञ कोना
अपने होने पर गुमान करता है।
ताकता   रहता है
पन्ने  के आखिरी अक्षर के पढ़े जाने तक।
बेजान अक्षरों से निकले
भिन्न भिन्न भावों से संचालित चुटकी
कभी नरम तो कभी सख्त दाब से
पलटती रहती हैं कोना पकड़ के पन्ना।
छूट जातें हैं निशान उँगलियों के पोरों के
और हर पन्ने का सारांश।
कभी सोचा नहीं
साफ़ पन्नों में कोना ही
गन्दा क्यों होता है ?
मत बंद करना पढ़ना
किताबों को
घुमते रहो अक्षरों के जंगल में
पलटते रहो पन्ने
चुटकियों से मसल मसल कर
गन्दा,और गन्दा होने दो
कोने को काला होने तक
सफ़ेद पन्नों में काला कोना
कभी तो चमकेगा
तेरा न होना
अब होने जैसा लगता है
किसी किताब के पन्नों का
कोने ऐसा लगता है। …प्रभात सिंह

सोमवार, 13 जनवरी 2014

लकीर सीधी अच्छी नहीं होती !

बिना मुड़ी तुड़ी सीधी सादी 
लकीर, किस काम की ?
न चाहत कि आकृति बनाने कि गुंजाईश
न अपेक्षाओं का अंत। 
बड़े जतन से नन्हे हांथो से 
सीखा था 
सीधी लकीर बनाना 
विशवास और अपनेपन 
कि स्याही से
और गाढ़ा करता रहता हूँ इनको
हर कोशिश करता हूँ उन्हें
मजबूत बनाने कि।
हर बार चौड़ी होती लकीरों को
कोई बड़ी लकीर कर देती है
छोटा
उसके बढ़ने से मैं और छोटा होता जाता हूँ।
फिर पीटता रह जाता हूँ दूर से
खुद से ही बनायीं हुयी लकीर को
बढ़ती लकीरों को देखता रहता है
ये लकीर का फ़कीर
लकीर से एक बिंदु होने तक
सच ही तो है
लकीर सीधी अच्छी नहीं होती .....प्रभात

गुरुवार, 2 जनवरी 2014

बंदिश न लगा तू गर्दिश में गर्दिश भी तो है बंदिश में कुछ जोर लगा मन मोड़ जरा कुछ देर सही फूटपाथ सही मनमार सही वनवास सही बंदिश न लगा तू गर्दिश में गर्दिश भी तो है बंदिश में

मैं आ रहा हूं ... #imamdasta

  जो सिनेमा हमारे नज़दीक के थिएटर या ओ टी टी प्लेटफार्म पर पहुंचता है । वह हम दर्शकों को तश्तरी में परसा हुआ मिलता है । 150 से लेकर 600 रुपए...