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बुधवार, 28 अप्रैल 2021

मौत से दीद को !

 


इक मौत

उधार कर

जा रहा हूँ

तुम्हारी दुनिया से


बेवफाई मुझे

आई नही

न नाखून चबाए

तुम्हारे दीद को


चलने की बीमारी

रुकने नही देती

लाशों के ढेर पर

अब और नही

चला जाता


मैं जा रहा हूँ

वहां जहां से

लौटता कोई नही

स्मृतियां जाती नही

कहीं दूर कभी

मैं उन्हें ले जा रहा हूँ

अपने साथ !

रविवार, 11 अप्रैल 2021

तुम मेरे श्रोता हो !


तुमको भूखा रखने के बाद

मैंने तुम्हें खाना दिया 

तुमने तिनके की वकत समझी

तुम्हारे हाँथ से सारे पैसे

चौराहे पर रखे पत्थर पर चढ़वा दिए

तुमने पैसों की अहमियत जानी

तुम्हारी दम घुटती मृत्य से भी

शायद मैंने ही परिचय करवाया 

तुम जब जब बोलने को होते

मेरी आँख तुम्हे रोकती

बोलना ठीक नही होता

बोलने से ठीक पहले

तुम्हारे जीवन की दिशा को

मैंने बलपूर्वक बदला

याद रखो

कि मैं गर नही होता

तो तुम भी नही होते

न होती जीवन जीने की 

प्रबल इच्छा

जीवन के प्रति भय


मुझे तुम बस सुनते जाओ

सिर्फ सुनते जाओ

तुम एक आदर्श श्रोता हो 

बड़ों की बात मान के

तुम रोज़ाना पूण्य कमाते हो !

एक कारवां मोहब्बत का !


-    प्रतिभा कटियार


सोचती हूँ तो पुलक सी महसूस होती है कि पांच बरस हो गये एक ख़्वाब को हकीक़त में ढलते हुए देखते. पांच बरस हो गए उस छोटी सी शुरुआत को जिसने देहरादून में पहली बैठक के रूप में आकार लिया था और अब देश भर को अपनेपन की ख़ुशबू में समेट लिया है उस पहल ने. एक झुरझुरी सी महसूस होती है. आँखें स्नेह से पिघलने को व्याकुल हो उठती हैं. फिर दोस्त कहते हैं कि सपना नहीं है यह, सच है.

 

आँखें खुली हुई हैं और प्रेम चारों तरफ बिखरा हुआ है. कविताओं के प्रति प्रेम. पाठकीय यात्रा के रूप में शुरू हुआ यह सिलसिला असल में अपने मक़सद में कामयाब हुआ. मकसद क्या था सिवाय अपनी पसंद की कविताओं की साझेदारी के साथ एक-दूसरे की पसंद को अप्रिशियेट करने के. अपने जाने हुए को विस्तार देने के और लपक कर ढूँढने लग जाना उन कविताओं और कवियों को जिन्हें अब तक जाना नहीं था हमने. 


शुरुआत हुई तो नाम था 'क से कविता'. फिर तकनीकी कारणों से नाम हो गया 'कविता कारवां'. जब तकनीकी कारणों से नाम में बदलाव करना पड़ा तो मन में एक कचोट तो हुई कि उस नाम से भी तो मोह हो ही गया था लेकिन यहीं जीवन का एक और पाठ पढ़ना था. मोह नाम से नहीं काम से रखने का. 


अपनी नहीं अपनी पसंद की कविताओं को एक-दूसरे से साझा करने की यह कोई नयी या अनोखी पहल नहीं थी. ऐसा पहले भी लोग करते रहे हैं अपनी-अपनी तरह से, अपने-अपने शहरों में साहित्यिक समूहों में. कविता कारवां की ही एक सालाना बैठक में नरेश सक्सेना जी ने कहा था कि बीस-पचीस साल पहले ऐसा सिलसिला शुरू किया था उन्होंने भी जिसमें कवि एक अपनी कविता पढ़ते थे और एक अपनी पसंद की. तो ‘कविता कारवां’ ने नया क्या किया. नया यह किया कि इस सिलसिले को निरन्तरता दी. बिना रुके ‘कविता कारवां’ की बैठकें चलती रहीं. उत्तराखंड में ही करीब 22 जगहों पर हर महीने कविता प्रेमी एक जगह मिलते और अपनी पसंद की कविता पढ़ते रहे. कुछ बैठकें मुम्बई में हुईं, कुछ लखनऊ में और दिल्ली में निशस्त दिल्ली के नाम से यह सिलसिला लगातार चल रहा है. 


'कविता कारवां' के बारे में सोचती हूँ तो तीन बातें मुझे इसकी यूनीक लगती हैं जिसकी वजह से इसकी पहचान अलग रूप में बनी है. पहली है इसे पाठकों की साझेदारी के ठीहे के तौर पर देखना जिसमें कॉलेज के युवा छात्र, गृहिणी, स्कूल के बच्चे, डाक्टर, इंजीनियर बिजनेसमैन सब शामिल हुए कवि कथाकार पत्रकार भी शामिल हुए लेकिन पाठक के रूप में ही. कितने ही लोगों ने अपने भीतर अब तक छुपकर रह रहे कविता प्रेम को इन बैठकों में पहचाना और पहली बार यहाँ अपनी पसंद की कविता पढ़ी. दूसरी बात जो इसे विशेष बनाती है वो है बिना ताम-झाम और बिना औपचारिकता वाली बैठकों की निरन्तरता.  कोई दीप प्रज्ज्वलन नहीं, कोई मुख्य अतिथि नहीं, कोई मंच नहीं, कोई विशेष नहीं बल्कि सब मुख्य अतिथि, सब विशेष अतिथि. और तीसरी और अंतिम बात जो सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है जिसके चलते पहली दोनों बातें भी हो सकीं वो यह कि ‘कविता कारवां’ की एक भी बैठक में शामिल व्यक्ति इसके आयोजक मंडल में स्वतः शामिल हो जाता है. ज्यादातर साथी जो किसी न किसी बैठक में शामिल हुए थे अब इसकी कमान संभाले हुए हैं पूरी जिम्मेदारी से.


इस सफर का हासिल है ढेर सारे नए कवियों और कविताओं से पहचान होना और एक-दूसरे को जानना. आज पूरे उत्तराखंड और दिल्ली लखनऊ व मुम्बई में कविता कारवां की टीम काम कर रही हैं. हम सब एक सूत्र में बंधे हुए हैं. एक-दूसरे से मिले नहीं फिर भी पूरे हक से लड़ते हैं, झगड़ते हैं और मिलकर काम करते हैं. एक बड़ा सा परिवार है 'कविता कारवां' का जिसे स्नेह के सूत्र ने बाँध रखा है. वरना कौन निकालता है घर और दफ्तर के कामों, जीवन की आपाधापियों में से इतना समय. और क्यों भला जबकि अपनी पहचान और अपनी कविता को मंच मिलने का लालच तक न हो. 


अक्सर लोग पूछते हैं कविता कारवां की टीम इसे करती कैसे है? कितने लोग हैं टीम में? खर्च कैसे निकलता है? तो हमारा एक ही जवाब होता है हमारी टीम में हजारों लोग हैं वो सब जो एक भी बैठक में शामिल हुए या इस विचार से प्यार करते हैं और हम इसे करते हैं दिल से. जब किसी काम में दिल लगने लग जाए फिर वो काम कहाँ रहता है. हम इसे काम की तरह नहीं करते, प्यार की तरह जीते हैं. 


इस सफर में कई अवरोध आये, कुछ लोग नाराज भी हुए कुछ छोड़कर चले भी गए लेकिन 'कविता कारवां' उन सबसे अब भी जुड़ा है उन सबका शुक्रगुजार है कि उनसे भी हमने कितना कुछ सीखा है. हमें साथ चलना सीखना था, वही सीख रहे हैं. साथ चलने के सुख का नाम है 'कविता कारवां', कविताओं से प्रेम का नाम है 'कविता कारवां', 


अपने 'मैं' से तनिक दूर खिसककर बैठने का नाम है 'कविता कारवां.'


हम पांचवी सालगिरह से बस कुछ कदम की दूरी पर हैं. उम्मीद है यह कारवां और बढ़ेगा...चलता रहेगा...नए साथी इसकी कमान सँभालते रहेंगे और दूसरे नए साथियों को थमाते रहेंगे... यह तमाम वर्गों में बंटी, तमाम तरह की असहिष्णुता से जूझ रही दुनिया को तनिक बेहतर तनिक ज्यादा मानवीय, संवेदनशील बनाने का सफर है जिसमें कविताओं की ऊर्जा हमारा ईंधन है.

मैं आ रहा हूं ... #imamdasta

  जो सिनेमा हमारे नज़दीक के थिएटर या ओ टी टी प्लेटफार्म पर पहुंचता है । वह हम दर्शकों को तश्तरी में परसा हुआ मिलता है । 150 से लेकर 600 रुपए...