जो सिनेमा हमारे नज़दीक के थिएटर या ओ टी टी प्लेटफार्म पर पहुंचता है । वह हम दर्शकों को तश्तरी में परसा हुआ मिलता है । 150 से लेकर 600 रुपए के टिकट के साथ एक फिल्म हमारे सामने बड़े - छोटे परदे पर सजी होती है । पॉपकॉर्न के साथ फिल्म हमारे मानस पटल पर कुछ देर रहती है । और फिल्म के उतरते ही खत्म !
फिल्म कैसे लिखी गई , कैसे शूट हुई , कैसे पोस्ट प्रोडक्शन हुआ , कैसे डिस्ट्रीब्यूट हुई । इन सब का ब्योरा चल चित्र पर दे पाना संभव नहीं होता । फिल्म के शुरुआत और आखीर में जो नाम स्क्रीन के ऊपर की ओर स्क्रॉल होते नज़र आते हैं । वो आधे भर होते हैं ।
पूरी फिल्म को मूर्त रूप देने में कई गुमनाम लोग भी होते हैं । उनमें से आधे से ज्यादा लोग शायद फिल्म को देख भी न पाते हों ।
तश्तरी का पहला निवाला ऐसे लोगों के लिए होना चाहिए । पर अर्थ तंत्र पर घूमता सिनेमा स्याह सुफैद परदे पर ही दिखाता है । परदा जो टिकट से खुलता है ।
एक फीचर फिल्म आने को है । नाम है #imamdasta । 2 घण्टे 20 मिनट की फिल्म लखनऊ और देश के कई सिनेमा घरों में गरज के साथ छींटे की तरह आने को तैयार है ।
फिल्म के राइटर , डायरेक्टर , प्रोड्यूसर Rizwan Siddiqui कई रातों से सोए नही है । उनकी पहली डेब्यू फिल्म जो ठहरी ।
फिल्म के कास्ट Saharsh Kumar Shukla Jay Amice Raju Pandey Rakesh Sharma Lal Mani Ambrish Bobby आदि इत्यादि टकटकी लगाए फिल्म के आने की खुनकी महसूस कर रहे होंगे ।
बहुत सारे नाम हैं जो ऐसे समय पर याद नहीं आते । वो कहीं न कहीं कोई न कोई फिल्म बुन रहे होंगे ।
मैं एक फिल्म देखना चाहता था करीब से । मैं शूटिंग के शुरू होने के पहले दिन से ही इस फिल्म के साथ जुड़ा हूं ।
मैं मुंबई से उस लखनऊ में आया हूं । जो मुंबई हो जाना चाहता है । मैं उत्तराखंड से मुंबई होते हुए लखनऊ आया हूं । मैं बिहार से मुंबई होते हुए लखनऊ आया हूं ।
मेरा नाम पिंटू हो सकता है । मेरा नाम रज्जन हो सकता है ।
मैंने देखा है इस फिल्म को बनते हुए । मैने सही है । लखनऊ के बीहड़ में 47 डिग्री तपिश । और झड़ी लगी बरसात से सुबकती पुरानी हवेली की चिपचिपाहट को मैने महसूस किया है । मैने देखा है तंगहाली में बिरयानी से कद्दू पूड़ी का सफर । मैने जिया है एक सख्त दौर चन्द दिनों में । जो कहीं नहीं दिखेगा सुनहरे परदे पर ।
मेरे लिए सिनेमा एक काम है । जरिया है रोजी रोटी का । दिन और रात , गोरी मेम , माचो सर का तिलिस्म पहले पहल सुनहला लगा था । स्त्री पुरुष की नजदीकियां मुझे अब हैरान नही करती ।
पर मैं देखना चाहता हूं । बगैर स्क्रिप्ट पढ़े , मैं महसूस करना चाहता हूं अपनी मेहनत को । महसूस करना चाहता हूं । जब सीन बन रहे थे । तो पीछे खड़ा था कुछ न कुछ काम कर रहा था । पानी ला रहा था । खाना दे रहा था । कुछ न कुछ सिल रहा था । बड़े बड़े भारी उपकरणों को दिन में कई बार इधर से उधर रख रहा था । प्रोड्यूसर , डायरेक्टर , डिस्ट्रीब्यूटर , प्रोडक्शन , सिनेमा हॉल के पहली तीन पंक्ति को छोड़ सारी पंक्तियों में में हूं । मुझे मालूम है ये फिल्मी दुनिया की हर चीज़ बहुत कीमती होती है ।
मैं आ रहा हूं । अपनी फिल्म देखने । जिसमें मेरा नाम नही होगा । नाम नही होने से एक दर्शक का दर्जा पाक साफ रहता है । एक दिन की दिहाड़ी का हरजा मुझे अखर नही रहा है । मैं सिनेमा घर की सबसे आगे या सबसे पीछे वाली पंक्ति पर बैठा मिलूंगा । आप आ रहे हैं न ? मुझसे मिलने ?