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शनिवार, 26 अगस्त 2017

एक स्कूल से पहाड़ की खिड़की खुली

एक स्कूल से पहाड़ की खिड़की खुली

शहर के बीचो बीच नगर पालिका की कुछ एक दुकानों में चलते स्कूल को जब शहर से 4 किलोमीटर दूर ही सही बड़ी सी इमारत मिली, तो बच्चों के भीतर स्कूल और माँ बाप के लिए फक्र के बांध टूट गए। बड़ी सी इमारत, बड़े से दो ग्राउंड आगे पीछे, ट्वायलेट, प्रिंसिपल ऑफिस, स्टोर रूम, असेम्बली एरिया और न जाने क्या क्या। पर इमारत की भव्यता, बस से बच्चों और टीचरों के साथ लंबी दूरी तय करने का सुख कुछ ही दिन का रहा। फिर वही, एक के बाद एक क्लास, हिंदी, इंग्लिश, संस्कृत,मैथ्स, साइंस, जियोग्राफी, सोशियल साइंस...बीच में इंटरवल।
       टीचरों में डबराल, थपलियाल, भट्ट, जोज़फ़, जोसलिन, जोजो, यादव, पांडेय,त्रिपाठी...आदि आदि। पहाड़ी, दक्षिण भारतीय नाम और उनके तेवर हम बच्चों के लिए किसी दूसरे ग्रह के लगते थे। दक्षिण भारतीय नाम के हम बच्चे आदी थे। पर डबराल, थपलियाल उपनाम बच्चों में हमेशा चर्चा में रहते। देहरादून की संस्था श्री गुरु राम राय पब्लिक स्कूल और जनपद हरदोई के लोकल मैनेजमेंट के बीच की राजनीति टॉप मैनेजमेंट से होते हुए टीचरों से छन के बच्चों तक आ ही जाती। संस्था की कोशिश रहती पहाड़ से आये हुए टीचर ज्यादा रहें, और लोकल मैनेजमेंट की कोशिश कि वो कम से कम रहें। खेमे बाजी का सिलसिला हाईस्कूल इंटर तक रहता। संस्था द्वारा समय समय पर ग्राउंड रिपोर्ट जानने के लिए एक टीम देहरादून से आती, जिसे लोकल मैनेजमेंट कुछ कुछ वैसे ही सजा के दिखा देता जैसे कार बाजार में थर्ड हैंड कार।
    पर इन सब के बीच कुछ कुछ जबरदस्ती सी पढ़ाई लिखाई के इतर एक सपना हर बच्चे के अंदर पलता था। वो था पहाड़ों की गोद में बसे देहरादून में आयोजित होने वाले बोर्ड के इम्तिहान। चूंकि मैंने अपने जीवन में कभी पहाड़ नही देखे थे, उन पहाड़ी टीचरों के नाम, गुनगुनायी गयी पहाड़ी धुनें, पहनावे उड़ावे, रहन सहन देख के पहाड़ के प्रति हमेशा कौतूहल रहा। आठवें तक ये लगता था, कि इतने महंगे स्कूल में हम इतने सालों तक टिक भी पाएंगे या नही। पर आठवां, नवाँ पार होते रहे। पढ़ाई से हमेशा छत्तीस का आंकड़ा रहा। फिर भी हर महीने दी जाने वाली फीस धक्का देती रहती थी पीछे से। बोर्ड का हौवा हम सब के ऊपर था। पर उस हौवे को हल्का करने वाला पहाड़ की गोद में एक महीने का प्रवास ज्यादा बलिष्ठ था। शायद ही देश के किसी भी अन्य स्कूल के बोर्ड इम्तिहान बच्चों के लिए इतने रूमानी तरीके से आते हों। सीनियर्स की फेयरवेल पार्टी में उस एक महीने के प्रवास के सैकड़ों किस्से होते । बोर्ड की धुकधुकी के बीच वो समय आ ही गया एक दिन।
      वैसे जनता और दून एक्सप्रेस अनाउंसमेंट और उसकी धड़धड़ाहट कानों में गूंजने लगी थी बहुत दिनों से। बेड होल्डाल, सूट केस में अलग अलग विषयों की प्रतिनिधि किताबें,माँ के हांथों बनाया हुआ नाश्ता, और ठंड के कहकहों से बचने के लिए गर्म कपड़े। स्टेशन पर हर बच्चा छोड़ने वाले अभिभावकों के हाँथ से छूट कर ट्रेन में चढ़ते ही बड़ा हो जाने वाला था। मेरे लिए पहाड़ जैसे रास्ता देख रहा हो, मैं उससे मिलकर बड़ा होना चाहता था। ट्रेन छूट चुकी थी, ट्रेन के भीतर बर्थ के साथ साथ साथियों की शैतानियां, अल्हड़पन खुलने लगा था। टीम को लीड कर रहे दो अदद टीचरों के भीतर भी कुछ खुला था। वो उतने सहज कभी नही महसूस हुए। तयशुदा रतजगे के बाद हरिद्वार, रायवाला, डोईवाला...गुजरते गए...एक के बाद एक। पीछे पहाड़ का बैकग्राउंड अभी भी फोटो स्टूडियो के पर्दे की तरह लग रहा था। देहरादून स्टेशन पर खिली हुई धूप ठंढ का हल्का दुशाला ओढ़े स्वागत करती है। किसी एक टीचर ने लाद दिया था हम कुछ चुनिंदा लड़कों के कंधों पर लड़कियों का जरूरत से ज्यादा भारी सामान। सामान के साथ टीचर की कुटिल मुस्कान और लड़कियों का खिलखिलाकर खाली हाँथ चलना उस दिन रेसिस्ट नही लगा। हम उस हॉस्टल पहुंच चुके थे। जहाँ हमारे भविष्य का मील का एक पत्थर आकार लेने वाला था। कई कमरों के बीचो बीच आंगन में रखी टेबलों पर मेरठ, हरदोई व अन्य शहरों के बोर्ड लगे थे। अपने शहर की टेबल पर सुबह का नाश्ता, दिन का लंच और रात का डिनर समयानुसार। दिन भी बिना सोये ही गुजरा वहाँ की आबो हवा से परिचय के साथ। रात में कमरे की बत्ती जैसे ही बंद हुई, तो खिड़की से दूसरी दुनिया की बत्तियां जगमगाने लगीं। सामने टिमटिमाता मसूरी सजा था, खिड़की की आयताकार प्लेट में। कमरे के भीतर लाइन से लगे सफेद बिस्तर की कतार में मेरा तेरा, यहां वहाँ से सरहदें खींची जा रही थी। मैं अपना बिस्तर खो चुका था। किताबें खो चुकी थीं। लगभग महीने भर के पहाड़ प्रेम ने बोर्ड एक्ज़ाम की सफलता में असफलता का एक दाग तो दे दिया था, पर कम्पार्टमेंट की शक्ल में पहाड़ से मिलने का दूसरा मौका भी दिया।
       आज लगभग 20 सालों बाद शाम के वक़्त स्कूल बंद था, पर असेम्बली ग्राउंड में पुराने बच्चों का शोर था, उन टीचरों की डांट थी, ..प्रिंसिपल ऑफिस में नाक पर चश्मा, हाँथ में पुलिस वाला रूल लिए प्रिंसिपल पी ए जोज़फ़ से गुलज़ार था। मैं स्कूल से पहाड़ की पहली मुलाकात के सफर में था।

बुधवार, 23 अगस्त 2017

मम्मा.....पापा की रेल टूट जाएगी क्या ?

4 साल का बच्चा बीती शाम से ही विचलित था, मैं अक्सर ट्रेन से लखनऊ और हरदोई के बीच यात्रा करता हूँ। लिहाज़ा  वह मां से बार बार सवाल करता "पापा की रेल टूट जाएगी", माँ कहती नही टूटेगी, इस सवाल का पीछा करता दूसरा सवाल , क्या पापा की ट्रेन प्लास्टिक की है ? बच्चे के लिए इस दुनिया में प्लास्टिक सबसे मजबूत द्रव्य है। माँ उत्तर देती है नही रेल लोहे की होती है, इसलिए नही टूटेगी। बच्चा फिर सवाल करता है लोहे की है फिर कैसे टूट गयी रेल....मम्मा....? बच्चे के दिमाग में टीवी, अखबार में रेल के आड़े तिरछे डिब्बों की तस्वीर नाच रही है, और उन तस्वीरों में उसका पापा दबा कहीं फंसा पड़ा है, यह दृश्य उसके गले में फंसा उसका गला बैठाए दे रहा है। देर रात जब घर पहुंचा तो पता चला उसकी बेचैनी...बताया गया कितनी मुश्किल से वो सो पाया। ऐसे ही न जाने कितने बच्चों की नींदें उड़ी होंगी, कितनी माओं को झूठ का सहारा लेना पड़ा होगा। पर हादसों का क्या...आंखें भी खोलते हैं, और कमियों पर पर्दा डालने की हिम्मत भी दे देते हैं।
     मानस रेल के लिए बचपन से ही दीवाना है, मुझे डर है कि हादसों की तस्वीरें उसके दिमाग में रेल के लिए नफरत न पैदा कर दें। एक जहाज लिया था परसों...अपनी ऑफिस टेबल पर रखने को,सोचा बच्चे को दूंगा। रेल की टूटी तस्वीर से दिमाग हटेगा। जब उसको जहाज दिया...उसका पहला सवाल था, पापा ये जहाज प्लास्टिक का है ? मैंने कहा लोहे का।

एक माह में दो रेल हादसों के बाद।

मंगलवार, 22 अगस्त 2017

The wheels of "KHELA" / द व्हील्स ऑफ "खेला**




पात्र परिचय.......!
दो हम उम्र बच्चियां, एक जमीन पर माइक साधे, दूसरी चार बांसों के सहारे 10 फुट की ऊंचाई पर हवा में 30 मीटर रस्सी पर करतब दिखाती। एक सी भेषबुषा, दो चोटी...माथे पर छोटी सी बिंदी, पतले से होंठों पर लिपस्टिक, हांथों में प्लास्टिक की रंग बिरंगी चूड़ियां, लाल रंग का कुर्ता और गज भर की मुस्कान लिए गजब की चुस्ती फुर्ती। उनके साथ एक युवा महिला जो खेला के सुरक्षित होने पर अपनी पारखी नज़र रखती है।

आकर्षण
(अलग अलग खेला के लिए अलग अलग फिल्मी गाने भोम्पू से बजते हैं, दोनों बच्चियों के बीच लोक भाषा में संवाद भी लय बद्ध कोई संगीत सा बजता है। बच्चियों के करतब हैरान करने वाले होते हैं, जो बिना संगीत के नही हो सकते, पूरा खेला आंखों, कानों, दिल को बांधे रखता है)



******* खेला शुरू *******

संवाद...
* नीचे माइक पकड़े लड़की : खेला दिखाएगी किया ?
- ऊपर रस्सी पर चलती लड़की : हाँ  दिखायेगीया...रस्सी पर चलकर दिखायेगीया...खड़े होकर झूल के दिखायेगीया...!

खेला - 1
(दोनों हांथों में बांस से संतुलन बनाते हुए, हवा में रस्सी पर इधर से उधर चलती,  कभी दाएं बाएं, कभी ऊपर नीचे...पैरों के अंगूठे और उंगली की पकड़ से रस्सी पर झूलती है)
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संवाद....
* अब कौन सा खेला दिखाएगी ?
- कलश वाला दिखायेगीया...!
* खेला में पास हो जायेगीया, कलश तो नही गिरायेगीया ?
- नही गिरायेगीया, पास हो जायेगीया...!

खेला - 2
(सर पर पांच कलश रखे हुए, लड़की दोनों हांथों बॉस से संतुलन बनाते हुए रस्सी पर चल के खेला पूरा करती है)
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संवाद....
नीचे माइक वाली लड़की : पास हो गईया...! अब कौन सा खेला दिखायेगीया...?
ऊपर रस्सी पर चलती लड़की : चप्पल वाला दिखायेगीया !

*खेला में पास हो जायेगीया ? खुद तो नही गिरेगिया..?
- पास होकर दिखायेगीया..नही गिरेगिया...!

खेला - 3
(सर पर पांच कलश रखे लड़की चप्पल पहने रस्सी पर संतुलन बनाते एक छोर से दूसरे छोर पर पहुंच कर वापस आती है, इस बार चप्पल होने के कारण पैर के अंगूठे की पकड़ रस्सी पर नही है, जो और कठिन है)
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संवाद....
* अब कौन सा खेल दिखायेगीया ?
- थाली वाला दिखायेगीया..!
* पास होकर दिखायेगीया, थाली तो नही गिरायेगीया ?
- पास होकर दिखायेगीया...!

खेला - 4
(सर पर पांच कलश, ऊपर हवा में लटकती रस्सी के ऊपर थाली, थाली में दोनों घुटनों के बल लड़की बांस पकड़े संतुलन बनाती है, दोनों पैरों को रस्सी से सटाये, पैरों के अंगूठे और उंगली से रस्सी को फंसाये आगे की ओर सरकती है। 40 मिनट में 30 मीटर लंबी रस्सी के एक छोर से दूसरे छोर पर थाली से सरकती है )

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संवाद...

* पास हो गईया...अब कौन सा खेला दिखायेगीया...?
- साइकिल के पहिये वाला खेला दिखायेगीया...!
* पास होके दिखायेगीया, पहिया तो नही गिरायेगीया ?
- पास होके दिखायेगीया...!

खेला - 5
(सर पर पांच कलश, ऊपर रस्सी पर बांस से संतुलन बनाते हुए दोनों पैरों में साइकिल के पहिये की रिम फंसाये, पैर के अंगूठे और उंगलियों के सहारे पहिये को रस्सी पर आगे ढुंगाती है, 20 मिनट में रस्सी के एक छोर से दूसरे छोर पर)
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संवाद...

* पास हो गईया...बहादुर लड़की हइया....सर्कस खूब दिखाईया...! आंटी, अंकल, भैया, बाबा का खूब पसंद हइया...!
सब ने 10 - 20 रुपइया दिया...सबका लाखों रुपइया का फाईदा हो, हम गरीबन की यही दुआ...!



(खेला खत्म होता है, सिमट कर साइकिल पर सवार दूसरी जगह के लिए निकल जाता है)

शुक्रवार, 18 अगस्त 2017


आओ कोई तस्वीर निकालें

थोड़ा पास आओ
मुस्कुराओ
थोड़ा और...
थोड़ा सा और
बस बस इतना ही
क्लिक...!

बाबा यहां बैठो
खेत सूखा है यहां
ऊपर देखो दहकता सूरज
दायां हाँथ माथे पर
बस बस ऐसे ही
क्लिक...!

लड़की की माँ कहाँ है ?
पास बैठालो बेचारी के
बलात्कार है न ये
बाकी सब थोड़ा किनारे
बस बस ठीक है
क्लिक...!

उम्म...सड़क जाम !
न न इस बार
बस फूंक दो
वरना फ्रंट पेज तय नही
छिछ...छिछ शुरू हो जाओ (इशारों में)
बस बस तैयार हैं हम
क्लिक...!

नेता जी
सीढ़ियों पर ही रहें
समर्थक जिंदाबाद
नेता जी, विक्ट्री साइन...वी...वी
बस बस परफेक्ट
क्लिक...!

#विश्व फोटोग्राफी डे पर, फोटो जर्नलिस्ट की डायरी ।
तस्वीर : प्रभात सिंह
 कलाकार 

वो चित्रकार है
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उसकी पेंटिंग के फ्रेम में हर रंग, हर छोटी बड़ी आकृति कुछ न कुछ कहती है, वो जब अपने हाँथ में पेंट ब्रश लेता है तो सब अपने आप ही बनता चला जाता है, वो अपने अंदाज़ से कैनवास पर एक बिंदी भी रख दे तो कहानी हो जाती है। वो अपने फन में इतना माहिर हो गया है कि अपनी उँगलियों की पोरों की बारीख रेखाओं को ब्रश बना लेता है। पेंटिंग एग्जीबिशन में उसकी पेंटिंग को लोग बिना छुए, बिना मोल तोल किये मेहेंगे दामों में हांथों हाँथ खरीद लेते हैं। वो उतनी ही पेंटिंग बनाता है जितनी बिक जाएँ। उसकी पेंटिंग में प्रेम का उन्माद होता है, विरह की पीड़ा होती है, गरीब का सहन होता है, मजदूर की मेहनतकश मांशपेशियां होती हैं, भूखे की अंतड़ियां होती हैं, तितलियाँ होती हैं, बादल होते हैं मौसम होते हैं। वो अपने आस पास रहने वाले किसी भी व्यक्ति से सीधे संवाद में नही है वर्षों से। उसकी जुबान उसके पेंट ब्रश में है, उसकी आंखें इंच बाई इंच का फ्रेम देखती हैं। उसके करीबी उसे मृत घोषित कर चुके हैं। पारखी नज़रें उसे जिंदा कहती हैं। वो खुद को तभी जिंदा महसूस कर पाता है जब उसके हाँथ में पेंट ब्रश हो !

वो शिल्पकार है
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उसके शिल्प में अजीब सा आकर्षण है, उसकी बनायीं हुयी कलाकृतियों में जान होती है, लगता है कि वो कलाकृतियां दुःख, सुख, क्रोध, शान्ति को समेटे हुए हंस पड़ेंगी, रो पड़ेंगी, चीख उठेंगी, गहरे मौन में चली जाएँगी। दरअसल वो शिल्पकार नहीं है जादूगर है जो मिट्टी में, पत्थरों में, लकड़ियों में धातुओं में किसी एक तरह के भाव डाल कर जड़ कर देता है, जब हम उस भाव में होंगे तो हमें उस भाव की कलाकृति में अपनापन महसूस होगा। हम उनसे बात करेंगे अकेले में। उसकी कलाकृतियों में देंह के उभार होंगे, तीखे चीख चीख के दिखाने वाले नयन नक्श होंगे, मुद्राएं होंगी, दो शरीर के सम्बन्ध होंगे, कोई अदृश्य शक्तियां आकृति में ढली होंगी। वो शौकीनों की दुनियां में सज जाएँगी, कुछ कुछ वैसी ही आकृतियों के बीच। उन्हें स्पर्श किया जायेगा, महसूस किया जायेगा। उस कोने तक जो भी पहुंचेगा वो उनकी चर्चा करेगा, शायद विमर्श भी करेगा, जहाँ वो रखी होंगी। वो दुनिया की हर चीज़ को आकार दे सकता है। केवल अपनी परछाइयों के अलावा। उसके हाँथ औजार हो गए हैं। वो अंदर से बेहद कठोर है अपने प्रति। 

वो कवि है
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उसे भावों को शब्दों में पिरोना बखूबी आता है। वो जो देखता है, सुनता है उसे अपने पूर्वानुभव से तर करता है, महसूसने के अव्यक्त बीज से व्यक्त शब्दों की फसल खड़ी कर देता है। दुनिया में घट रहे सीन उसकी शब्दरचना में दिख रहे होते हैं। उसकी शब्द रचना में वो ताकत है कि जैसा वो दिखाना चाहे दिखा सकता है। कभी प्रेम को मखमली ख्वाब बना दे तो कभी काँटों का श्रृंगार । कभी क्रान्ति को महज़ घटना तो कभी घटना को ऐतिहासिक कृत्य। उसके शब्दों से आंसुओं की धार नदी भर देती है तो उन्हीं आँखों में रेगिस्तान खर खराने लगता है, वो शब्दों से खेलता है और कहता है कि शब्दों पर मत जाओ, उसके पीछे के अनकहे को समझो, मर्म को महसूस करो। उसके लिखे को समझने के लिए उतनी ही ऊष्मा, नमी चाहिए जितना उन रचनाओं को अंतिम रूप देते समय भरी गयी होगी।
शब्दों की उस जादू नगरी को कोई उसी दर्जे या उन्नीस बीस जादूगर समझ सकता है। उसके शब्द शब्द संसार में विचरते हैं,पढ़े जाते हैं, सुने जाते है। शब्दों के व्यूह में उसे समझ लिया जाना चाहिए। जो शब्द नही पढ़ पाता वो उसके लिए मृत है।

वो गायक है
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उसकी धुन, उसके संगीत में नशा है, वो जैसे ही कोई धुन छेड़ता है। मन में तरंगें उठने लगती हैं, उसकी धुन और साज़ों की महफ़िल समां बाँध देती हैं। भावों के रथ पर बैठा कर किसी हसीन, तो कभी उदास दुनिया का एहसास कराकर वापस फेंक देती हैं, जहाँ से सुनने वाला आया हो। वो धुनें कानों में बजती रहती हैं। उनमें कहा गया लहराता हुआ सुनने वालों के नर्म गर्म एहसासों को सहलाता रहता है। उनमें दर्द भरे जाते हैं, 



लौट आये खुदा खुदा करके !


कलाकार पानी की तरह घुलनशील न हो, अपनी कला को शिद्दत से दिखाने का ताब न हो उसमें,जो उसने जना है एक लंबे अरसे तक जूझने के बाद उसको व्यक्त कर पाने में अक्षमता हो, कलाकार की उस कला के कद्र दानों से आंख मिलाने की हिम्मत न हो... ऐसे कलाकार किसी रटी रटाई स्क्रिप्ट को बिना संवेदनाओं के साथ मात्र बांचते हुए से नज़र आते हैं। और चाहते हैं कि महफ़िल उनके निशाँ को सदियों तक ढूंढे।
        ये गुस्सा है एक कला प्रेमी का...उन तमाम कलाकृतियों के पीछे की यात्रा को समझने की चाह रखने वाले का..उस कलाकार को कुछ देर हम राह बनाने की इच्छा रखने वाले का...उस कलाकार के प्रति...जिसे अपने ही सृजन पर यकीन नही है। ललित कला अकादमी लखनऊ में लगी एक चित्रकार की सोलो पेंटिंग प्रदर्शनी के दूसरे दिन की शाम का वाक़या है। हॉल पूरी तरह से खाली। दर्शकों के नाम पर केवल दो लोग। प्रदर्शनी में 50 से ज्यादा आर्ट पीस थे। मॉडर्न आर्ट की तर्ज़ पर चटख रंगों से पुती अधिकतर पेंटिंग्स, कुछ फोटोग्राफ्स और कुछ स्केचेज़। उन अधिकतर पेंटिंग्स के बारे में पूछने पर जवाब में केवल दो शब्द "कंटेम्प्रेरी" और "जीवन के रंग" ने कला प्रेमी और कलाकार के पेंटिंग्स से बने गैप को और बढ़ा दिया। परस्पर संवाद में न ही पेंटिंग्स थी और न ही कलाकार। ऊपर से न जाने कहाँ की झुंझलाहट। कलाकार की घुलनशीलता गायब थी।
        कला, आत्म अनुभूतियों को व्यक्त करने की अनूठी शैली है, जिसका प्रभाव आंख और दिमाग तक ही सीमित नही रहता। वो असर छोड़ती है गहरा और दर्शकों/कला प्रेमियों के भीतर धस जाती है, कलाकृतियों के कथ्य को संजोए रखती है। उनकी आंखों की चमक और चेहरे पर तृप्ति का भाव कलाकार को प्रोत्साहित करता है। वरना खाली कैनवास पर रंग भरना कोई चुनौती नही।

हिंदी दैनिक राष्ट्रीय प्रस्तावना के 18 अगस्त 2017 के अंक में प्रकाशित 

सोमवार, 14 अगस्त 2017


हिंदी दैनिक राष्ट्रीय प्रस्तावना के 15 अगस्त 2017 के अंक में प्रकाशित

रविवार, 13 अगस्त 2017


अहसासों के खारे समंदर में इंसानियत
यह बच्चा 6 दिन का है मात्र, जन्म देते वक्त माँ चल बसी। ये बच्चा यूँ पान की दुकान पर फटी आंखों से किसी कमी को न खोज रहा होता। आज इसकी माँ होती तो अपने सीने से चिपकाए घूमती, लाड़ करती दूध पिलाती। माँ के सामने बच्चा चला जाता तो भी चिपकाए घूमती कई दिनों तक। बच्चे को पान वाले ने रख लिया है। कहता है कि ज़ू में भेजते तो बड़े बंदर इसे परेशान करते। इसलिए उसने रख लिया, यहां बच्चे को बांधने की जरूरत नही पड़ी। वो शांत है बहुत। माओं वाले बच्चों जैसा उद्दंड, चुलबुला नही है। वो मान लेगा उस पान वाले को अपनी माँ। पान वाला दुकान के पास किसी को सिगरेट सुलगाने नही देता, इस नन्हे बच्चे की वजह से। ये इंसानियत के अहसासात इंसानियत से भरोसा उठने नही देते। दूध मुहे बच्चे के सामने माँ का चला जाना...धीरे धीरे घाव भर जाते होंगे बढ़ते वक़्त। पर माँ के सामने बच्चे का चला जाना...?

शनिवार, 12 अगस्त 2017

गोरखपुर के अस्पताल में आक्सीजन की कमी के चलते 60 बच्चों की मौत पर खुद और अपनी बिरादरी से सवाल

पत्रकार क्यों बचे जवाबदेही से ?

गोरखपुर की घटना के बाद सरकार कटघरे में है, प्रशासनिक व्यवस्था कटघरे में है, व्यवसायी कटघरे में है और पत्रकार ? चौथा खंभा...? दैनिक अखबार, इलेक्ट्रॉनिक चैनेल, न्यूज़ पोर्टल, सैकड़ों की संख्या में पत्रकार को इस काण्ड में अपनी विफलता दिखती है कहीं ? सी एच सी, पी एच सी से लेकर जिला अस्पताल  - मेडिकल कालेज के गेट, कैंटीन या दफ्तरों पर यह भीड़ झुंड में रहती है। क्राइम के बाद अस्पताल सबसे महत्वपूर्ण बीट मानी जाती है। फिर इतनी पारखी नज़रों से ये चूक कैसे ?...क्यों नही घटना से पहले खामियों की खबरों से हाहाकार मच गया, क्यों इतनी बड़ी खबर स्थानीय संस्करणों के पहले पन्ने पर बैनर की तरह घटना से पहले नही चमकी ? क्यों नही किसी खबर की कॉपी में इतनी धार थी कि शासन प्रशासन मजबूर हो जाता उस खामी को दूर करने पर।
       प्रदेश के मुख्यमंत्री का गोरखपुर अस्पताल दौरा केवल सरकार और जिला व अस्पताल प्रशासन के लिए महत्वपूर्ण नही था, पत्रकारों के लिए भी उतना ही था। उतनी ही जिम्मेदारी, उतनी ही लापरवाही, उतनी ही फिरी आंखें पत्रकारों की भी है, जो दिन के कम से कम 4 घंटे अस्पताल में बिताता है। सरकार, अधिकारी, कर्मचारियों, ठेकेदारों की बदली होती है, पर बीट का रिपोर्टर सालों साल वहीं रहता है, बढ़ता भी है तो उसकी नज़र और पैनी होती है। पर पत्रकार कहीं न कहीं समझौता करता है, कुंद हो जाता है।
        अस्पताल की हर सुविधा पर उसका हक़ आम जनता से पहले बन जाता है। अस्पताल की ठेकेदारी में उसका हिस्सा किसी न किसी रूप में मिल ही जाता है। बीट का रिपोर्टर अस्पताल की रग रग से वाकिफ होता है। क्यों नही वरिष्ठ/तेज़ तर्रार/तोपची/कलम उखाड़ पत्रकारों में से किसी एक कि आँखों में यह कमी किरकिरी नही बनी ?...हम बतौर पत्रकार इस जिम्मेदारी से बच नही सकते। हम हर घटना के बाद सरकार, प्रशासन, जनता को आइना दिखाते हैं और उस आईने के पीछे रह कर बाइज़्ज़त बरी हो जाते हैं। हमें ऐसी घटनाओं के बाद कुछ महत्वपूर्ण छूट जाने की ग्लानि तक नही होती। क्यों नही ऐसा महसूस होता कि हाँ उस जगह पर था पर ये खामी नही सूंघ पाया, ऐसा कुछ लिख नही पाया।
           क्यों कि हम उसी सिस्टम के पहिये हो जाते हैं, सिस्टम की खामियों से उपजे संकट के बाद उसी सिस्टम के प्यादों को फांसी पर चढ़ा देने की बात करते हैं। "खबर का असर" का असर दूसरे दिन के प्रकाशन में दिखता है, बेअसर खबर का कोई जिक्र नही होता। हमारी खबरें सिस्टम की तरह बासी हो चुकी हैं, अपनी धार खो चुकी हैं। हम उतने ही लापरवाह हैं, गैर जिम्मेदार हैं जितना सरकार और प्रशासन।

तस्वीर: सांकेतिक (साभार गूगल से)

बुधवार, 9 अगस्त 2017


                                "मियां जान"

पिछली बकरीद "सबा करीम" का जिक्र हुआ था। इस बकरीद "मियां जान" की बारी है। मियां जान बेहद रौबीले हैं। कद काठी लंबी गठीला है। इन्हें मालूम है इस बकरीद अल्लाह की नज़र में ज़िबह होना है। पर तुर्रे में कोई कमी नही है। इनका हुनर और बेलौसपन इन्हें अन्य से अलग पहचान देता है। दो पैरों पर चलने के शौकीन हैं ये शौक को इन्होंने आदत में शुमार कर लिया है, दीवार पर चढ़ने की कोशिशें हमेशा नाकाम रहती हैं हालांकि मुसलसल कोशिशें जारी रहती हैं।
      इनके रहबर दो खसी ख़रीद के लाये थे। इनके नयन नक्श, अदाएं और फुर्ती अल्लाह को बेहद पसंद आएगी। लिहाज़ा ज़िबह की कतार में अव्वल का मुक़ाम मियां जान को हांसिल होगा। मियां जान को क़त्ल की तारीख मालूम है, इसलिए वो ज़िहादी हो गए हैं। जिहाद के मायने होंगे किताबों में, ज़हनों में अलग अलग। क़त्ल की तारीख मुकर्रर हो पर जीने की छटपटाहट, जियाला पन कई लोगों की ज़ुबान की लज़्ज़त बढ़ा दे। इससे बड़ा ज़िहाद और क्या होगा भला। मियां जान अपनी खूबसूरती के चलते रहबर की चौखट पार कर मोहल्ले की आंखों का सुरमा हो गए
हैं। अल्लाह को भी खूबसूरती पसंद आती है। मियां जान की आंखों में खौफ नही है, जी भर जी न पाने का मलाल नही है। ज़िन्दगी छोटी ही सही जीने के सलीके से बनती बिगड़ती है। मियां जान को दोबारा देख पाना आंखों में खारा समंदर भर लेना है। दुआ है मियां जान ज़ुबान की लज़्ज़त भर ही न रह जाएं ज़िन्दगी के सबक बन जाएं।

तस्वीर : इठलाती मियां जान की एक सेल्फी

सोमवार, 7 अगस्त 2017


खलीफाओं का बिरहा

पन्ना लाल ख़लीफ़ा एक हाँथ में गमछा और दूसरे हाँथ में माइक पकड़े पहले लंबी तान लगाते हैं। फिर मंच के नीचे बैठे रमेश ख़लीफ़ा, मुन्नी लाल ख़लीफ़ा से बिरहा गाने की इज़ाज़त लेते हैं। अपने सहयोगी नगाड़े पर तैयार बाबा की सहमति से शुरू हो जाते हैं बिरहा गाने। पन्ना लाल ख़लीफ़ा दिन में चाट बताशे का खोमचा लगाते हैं और अक्सर शाम को बिरहा के मंच के बेताज बादशाह हो जाते हैं। वो बिरहा की विशेष धुन में गांधी- गोडसे, नेहरू-इंदिरा, शंकर पार्वती, पाकिस्तान - चाइना की चालाकियां, युद्ध के दृश्य, कुरान, गीता, बाइबल, समेत तमाम किस्सों को सुनाते हैं। कुछ तथ्यों के आधार पर कुछ अपनी गढ़ी हुई कहानियों पर। बीच बीच में गमछे को झटकते हुए, सामने कुर्सियों पर बैठे दर्शकों की आंख में आंख डाल के बैठते हैं और खड़े होते हैं जिससे कहानी का रोमांच बना रहे, और वो अपनी इसी अदा के लिए पहचाने जाते हैं । बिरहा गाते वक़्त आनंदित दर्शकों के इनाम का सिलसिला जारी रहता है।


    ....और नक्कारा बजता है
इस मंच पर सबसे महत्वपूर्ण होता है नगाड़ा वादक। जिसे नक्कारा भी कहते हैं। नक्कारे पर बाबा का जोश दर्शकों और ख़लीफ़ा की आंखों में ,थिरकन में साफ दिखता है। बगैर नक्कारा इस परंपरागत बिरहा का गायन संभव नही। बाबा बिरहा के तोड़ के बीच में सिगरेट जला लेते हैं, कभी एक घूंट में ठंढी चाय पी डालते हैं, तो कभी हीटर की आंच में सूखते नगाड़े को बदल लेते हैं, पर गायन की लय टूटने नही देते। बाबा के मुंह में भांग चढ़ी पान की गिलौरी उनके जोश को ठंढा नही होने देती। कड़..कड़..कड़..कड़म..कड़म..कड़..कड़..कड़ की झन्नाटेदार ताल और गायक की त्योरियों का तालमेल इतना जबरदस्त होता है, कि आये हुए इनाम का हक बिना मांगे दूसरे के पास चला जाता है। नक्कारे वाले कि सेवा सत्कार में एक दो लोग स्वेक्षा से लगे रहते हैं।

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लोक संगीत की तमाम विधाओं में बिरहा अपनी खास पहचान रखता है। पर इस दम तोड़ती बेहद पुरानी लोक कला को ज़िंदा रखने के लिए पुराने कलाकार अपनी दम पर इन्हें जिंदा रखे हुए हैं। ताज़्ज़ुब की बात है कि शहर लखनऊ में यह कला इन कलाकारों की वजह से सांस ले रही है। शहर के बीचो बीच निशातगंज में अक्सर बिरहा की महफिलें सजती हैं। लोगों में अभी भी इस लुप्त होती लोक कला के लिए प्यार है, उत्साह है और चाह है। खस्ताहाल जिंदगी की थकावट भरी शामों में बिरहा की शामें उनको तरो ताज़ा कर देती हैं।

      ....महफ़िल जो ख़त्म होने पर हिसाब न मांगे
बिरहा की महफ़िल सजने से पहले बाकायदा हाँथ से लिखे हुए पर्चे जगह जगह चाय, पान की दुकानों पर लगाये जाते हैं। नगाड़ा, दो या तीन तख्त, माइक/साउंड सिस्टम, एक हीटर (नगाड़े को गर्म करने के लिए) हैलोजन, रात की चाय का इंतज़ाम...बस....शाम की महफ़िल बिरहा के खलीफाओं के लिए तैयार। पुराने सुप्रसिद्ध बिरहा गायकों को ख़लीफ़ा कहा जाता है। ख़लीफ़ा मंच से एक दूसरे को मुंह तोड़ जवाब देते हैं, यहाँ तक गालियां भी गा सकते हैं। पर मंच के नीचे महफ़िल के बाद बेहिसाब इज़्ज़त देते हैं। खलीफाओं के अलग अलग घराने होते हैं, ये घराने अन्य जनपदों के भी हो सकते हैं और मोहल्लों के भी। ख़लीफ़ा की जीत और उसका रुतबा उसके दूसरे खलीफाओं को दिए गए करारे जवाब और देर तक मंच पर डटे रहने पर होता है। जिसका जितना करारा जवाब वो उतना बड़ा ख़लीफ़ा। जुगलबंदी में एक ख़लीफ़ा को जवाब देने में 2 घंटे तक लग सकते हैं। जो ज्यादा बेहतर तरीके से मंच लूट ले वो खलीफाओं का ख़लीफ़ा होता है। उनके अपने नियम हैं, कायदे हैं। न हिन्दू न मुसलमान। ख़लीफ़ा सिर्फ ख़लीफ़ा होता है बिरहा का। न चाट वाला, न मजदूर, न रिक्शा वाला, न मिस्त्री, न मिट्टी के बर्तन बनाने वाला।


गुरुवार, 3 अगस्त 2017


मैं मिट्टी हूँ

मैं मिट्टी हूँ
ताकती आसमान
तुम ऊंची इमारत हो डर के, असुरक्षित से

मिलने आओगे एक रोज़
पहले की तरह बेफिक्र
पर कुछ अलग रंग में, कठोर, टूटे से

मुझसे लिपट जाओगे
बारिश धुल देगी
मेरे गुमान, तुम्हारे डर

हम बह जाएंगे
रिक्त को भरने।

तस्वीर : गोमती किनारे

मैं आ रहा हूं ... #imamdasta

  जो सिनेमा हमारे नज़दीक के थिएटर या ओ टी टी प्लेटफार्म पर पहुंचता है । वह हम दर्शकों को तश्तरी में परसा हुआ मिलता है । 150 से लेकर 600 रुपए...