कलाकार
वो चित्रकार है
-----------------
उसकी पेंटिंग के फ्रेम में हर रंग, हर छोटी बड़ी आकृति कुछ न कुछ कहती है, वो जब अपने हाँथ में पेंट ब्रश लेता है तो सब अपने आप ही बनता चला जाता है, वो अपने अंदाज़ से कैनवास पर एक बिंदी भी रख दे तो कहानी हो जाती है। वो अपने फन में इतना माहिर हो गया है कि अपनी उँगलियों की पोरों की बारीख रेखाओं को ब्रश बना लेता है। पेंटिंग एग्जीबिशन में उसकी पेंटिंग को लोग बिना छुए, बिना मोल तोल किये मेहेंगे दामों में हांथों हाँथ खरीद लेते हैं। वो उतनी ही पेंटिंग बनाता है जितनी बिक जाएँ। उसकी पेंटिंग में प्रेम का उन्माद होता है, विरह की पीड़ा होती है, गरीब का सहन होता है, मजदूर की मेहनतकश मांशपेशियां होती हैं, भूखे की अंतड़ियां होती हैं, तितलियाँ होती हैं, बादल होते हैं मौसम होते हैं। वो अपने आस पास रहने वाले किसी भी व्यक्ति से सीधे संवाद में नही है वर्षों से। उसकी जुबान उसके पेंट ब्रश में है, उसकी आंखें इंच बाई इंच का फ्रेम देखती हैं। उसके करीबी उसे मृत घोषित कर चुके हैं। पारखी नज़रें उसे जिंदा कहती हैं। वो खुद को तभी जिंदा महसूस कर पाता है जब उसके हाँथ में पेंट ब्रश हो !
वो शिल्पकार है
-------------------
उसके शिल्प में अजीब सा आकर्षण है, उसकी बनायीं हुयी कलाकृतियों में जान होती है, लगता है कि वो कलाकृतियां दुःख, सुख, क्रोध, शान्ति को समेटे हुए हंस पड़ेंगी, रो पड़ेंगी, चीख उठेंगी, गहरे मौन में चली जाएँगी। दरअसल वो शिल्पकार नहीं है जादूगर है जो मिट्टी में, पत्थरों में, लकड़ियों में धातुओं में किसी एक तरह के भाव डाल कर जड़ कर देता है, जब हम उस भाव में होंगे तो हमें उस भाव की कलाकृति में अपनापन महसूस होगा। हम उनसे बात करेंगे अकेले में। उसकी कलाकृतियों में देंह के उभार होंगे, तीखे चीख चीख के दिखाने वाले नयन नक्श होंगे, मुद्राएं होंगी, दो शरीर के सम्बन्ध होंगे, कोई अदृश्य शक्तियां आकृति में ढली होंगी। वो शौकीनों की दुनियां में सज जाएँगी, कुछ कुछ वैसी ही आकृतियों के बीच। उन्हें स्पर्श किया जायेगा, महसूस किया जायेगा। उस कोने तक जो भी पहुंचेगा वो उनकी चर्चा करेगा, शायद विमर्श भी करेगा, जहाँ वो रखी होंगी। वो दुनिया की हर चीज़ को आकार दे सकता है। केवल अपनी परछाइयों के अलावा। उसके हाँथ औजार हो गए हैं। वो अंदर से बेहद कठोर है अपने प्रति।
वो कवि है
-------------
उसे भावों को शब्दों में पिरोना बखूबी आता है। वो जो देखता है, सुनता है उसे अपने पूर्वानुभव से तर करता है, महसूसने के अव्यक्त बीज से व्यक्त शब्दों की फसल खड़ी कर देता है। दुनिया में घट रहे सीन उसकी शब्दरचना में दिख रहे होते हैं। उसकी शब्द रचना में वो ताकत है कि जैसा वो दिखाना चाहे दिखा सकता है। कभी प्रेम को मखमली ख्वाब बना दे तो कभी काँटों का श्रृंगार । कभी क्रान्ति को महज़ घटना तो कभी घटना को ऐतिहासिक कृत्य। उसके शब्दों से आंसुओं की धार नदी भर देती है तो उन्हीं आँखों में रेगिस्तान खर खराने लगता है, वो शब्दों से खेलता है और कहता है कि शब्दों पर मत जाओ, उसके पीछे के अनकहे को समझो, मर्म को महसूस करो। उसके लिखे को समझने के लिए उतनी ही ऊष्मा, नमी चाहिए जितना उन रचनाओं को अंतिम रूप देते समय भरी गयी होगी।
शब्दों की उस जादू नगरी को कोई उसी दर्जे या उन्नीस बीस जादूगर समझ सकता है। उसके शब्द शब्द संसार में विचरते हैं,पढ़े जाते हैं, सुने जाते है। शब्दों के व्यूह में उसे समझ लिया जाना चाहिए। जो शब्द नही पढ़ पाता वो उसके लिए मृत है।
शब्दों की उस जादू नगरी को कोई उसी दर्जे या उन्नीस बीस जादूगर समझ सकता है। उसके शब्द शब्द संसार में विचरते हैं,पढ़े जाते हैं, सुने जाते है। शब्दों के व्यूह में उसे समझ लिया जाना चाहिए। जो शब्द नही पढ़ पाता वो उसके लिए मृत है।
वो गायक है
----------------
उसकी धुन, उसके संगीत में नशा है, वो जैसे ही कोई धुन छेड़ता है। मन में तरंगें उठने लगती हैं, उसकी धुन और साज़ों की महफ़िल समां बाँध देती हैं। भावों के रथ पर बैठा कर किसी हसीन, तो कभी उदास दुनिया का एहसास कराकर वापस फेंक देती हैं, जहाँ से सुनने वाला आया हो। वो धुनें कानों में बजती रहती हैं। उनमें कहा गया लहराता हुआ सुनने वालों के नर्म गर्म एहसासों को सहलाता रहता है। उनमें दर्द भरे जाते हैं,
लौट आये खुदा खुदा करके !
कलाकार पानी की तरह घुलनशील न हो, अपनी कला को शिद्दत से दिखाने का ताब न हो उसमें,जो उसने जना है एक लंबे अरसे तक जूझने के बाद उसको व्यक्त कर पाने में अक्षमता हो, कलाकार की उस कला के कद्र दानों से आंख मिलाने की हिम्मत न हो... ऐसे कलाकार किसी रटी रटाई स्क्रिप्ट को बिना संवेदनाओं के साथ मात्र बांचते हुए से नज़र आते हैं। और चाहते हैं कि महफ़िल उनके निशाँ को सदियों तक ढूंढे।
ये गुस्सा है एक कला प्रेमी का...उन तमाम कलाकृतियों के पीछे की यात्रा को समझने की चाह रखने वाले का..उस कलाकार को कुछ देर हम राह बनाने की इच्छा रखने वाले का...उस कलाकार के प्रति...जिसे अपने ही सृजन पर यकीन नही है। ललित कला अकादमी लखनऊ में लगी एक चित्रकार की सोलो पेंटिंग प्रदर्शनी के दूसरे दिन की शाम का वाक़या है। हॉल पूरी तरह से खाली। दर्शकों के नाम पर केवल दो लोग। प्रदर्शनी में 50 से ज्यादा आर्ट पीस थे। मॉडर्न आर्ट की तर्ज़ पर चटख रंगों से पुती अधिकतर पेंटिंग्स, कुछ फोटोग्राफ्स और कुछ स्केचेज़। उन अधिकतर पेंटिंग्स के बारे में पूछने पर जवाब में केवल दो शब्द "कंटेम्प्रेरी" और "जीवन के रंग" ने कला प्रेमी और कलाकार के पेंटिंग्स से बने गैप को और बढ़ा दिया। परस्पर संवाद में न ही पेंटिंग्स थी और न ही कलाकार। ऊपर से न जाने कहाँ की झुंझलाहट। कलाकार की घुलनशीलता गायब थी।
कला, आत्म अनुभूतियों को व्यक्त करने की अनूठी शैली है, जिसका प्रभाव आंख और दिमाग तक ही सीमित नही रहता। वो असर छोड़ती है गहरा और दर्शकों/कला प्रेमियों के भीतर धस जाती है, कलाकृतियों के कथ्य को संजोए रखती है। उनकी आंखों की चमक और चेहरे पर तृप्ति का भाव कलाकार को प्रोत्साहित करता है। वरना खाली कैनवास पर रंग भरना कोई चुनौती नही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें