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बुधवार, 9 अगस्त 2017


                                "मियां जान"

पिछली बकरीद "सबा करीम" का जिक्र हुआ था। इस बकरीद "मियां जान" की बारी है। मियां जान बेहद रौबीले हैं। कद काठी लंबी गठीला है। इन्हें मालूम है इस बकरीद अल्लाह की नज़र में ज़िबह होना है। पर तुर्रे में कोई कमी नही है। इनका हुनर और बेलौसपन इन्हें अन्य से अलग पहचान देता है। दो पैरों पर चलने के शौकीन हैं ये शौक को इन्होंने आदत में शुमार कर लिया है, दीवार पर चढ़ने की कोशिशें हमेशा नाकाम रहती हैं हालांकि मुसलसल कोशिशें जारी रहती हैं।
      इनके रहबर दो खसी ख़रीद के लाये थे। इनके नयन नक्श, अदाएं और फुर्ती अल्लाह को बेहद पसंद आएगी। लिहाज़ा ज़िबह की कतार में अव्वल का मुक़ाम मियां जान को हांसिल होगा। मियां जान को क़त्ल की तारीख मालूम है, इसलिए वो ज़िहादी हो गए हैं। जिहाद के मायने होंगे किताबों में, ज़हनों में अलग अलग। क़त्ल की तारीख मुकर्रर हो पर जीने की छटपटाहट, जियाला पन कई लोगों की ज़ुबान की लज़्ज़त बढ़ा दे। इससे बड़ा ज़िहाद और क्या होगा भला। मियां जान अपनी खूबसूरती के चलते रहबर की चौखट पार कर मोहल्ले की आंखों का सुरमा हो गए
हैं। अल्लाह को भी खूबसूरती पसंद आती है। मियां जान की आंखों में खौफ नही है, जी भर जी न पाने का मलाल नही है। ज़िन्दगी छोटी ही सही जीने के सलीके से बनती बिगड़ती है। मियां जान को दोबारा देख पाना आंखों में खारा समंदर भर लेना है। दुआ है मियां जान ज़ुबान की लज़्ज़त भर ही न रह जाएं ज़िन्दगी के सबक बन जाएं।

तस्वीर : इठलाती मियां जान की एक सेल्फी

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