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शनिवार, 26 अगस्त 2017

एक स्कूल से पहाड़ की खिड़की खुली

एक स्कूल से पहाड़ की खिड़की खुली

शहर के बीचो बीच नगर पालिका की कुछ एक दुकानों में चलते स्कूल को जब शहर से 4 किलोमीटर दूर ही सही बड़ी सी इमारत मिली, तो बच्चों के भीतर स्कूल और माँ बाप के लिए फक्र के बांध टूट गए। बड़ी सी इमारत, बड़े से दो ग्राउंड आगे पीछे, ट्वायलेट, प्रिंसिपल ऑफिस, स्टोर रूम, असेम्बली एरिया और न जाने क्या क्या। पर इमारत की भव्यता, बस से बच्चों और टीचरों के साथ लंबी दूरी तय करने का सुख कुछ ही दिन का रहा। फिर वही, एक के बाद एक क्लास, हिंदी, इंग्लिश, संस्कृत,मैथ्स, साइंस, जियोग्राफी, सोशियल साइंस...बीच में इंटरवल।
       टीचरों में डबराल, थपलियाल, भट्ट, जोज़फ़, जोसलिन, जोजो, यादव, पांडेय,त्रिपाठी...आदि आदि। पहाड़ी, दक्षिण भारतीय नाम और उनके तेवर हम बच्चों के लिए किसी दूसरे ग्रह के लगते थे। दक्षिण भारतीय नाम के हम बच्चे आदी थे। पर डबराल, थपलियाल उपनाम बच्चों में हमेशा चर्चा में रहते। देहरादून की संस्था श्री गुरु राम राय पब्लिक स्कूल और जनपद हरदोई के लोकल मैनेजमेंट के बीच की राजनीति टॉप मैनेजमेंट से होते हुए टीचरों से छन के बच्चों तक आ ही जाती। संस्था की कोशिश रहती पहाड़ से आये हुए टीचर ज्यादा रहें, और लोकल मैनेजमेंट की कोशिश कि वो कम से कम रहें। खेमे बाजी का सिलसिला हाईस्कूल इंटर तक रहता। संस्था द्वारा समय समय पर ग्राउंड रिपोर्ट जानने के लिए एक टीम देहरादून से आती, जिसे लोकल मैनेजमेंट कुछ कुछ वैसे ही सजा के दिखा देता जैसे कार बाजार में थर्ड हैंड कार।
    पर इन सब के बीच कुछ कुछ जबरदस्ती सी पढ़ाई लिखाई के इतर एक सपना हर बच्चे के अंदर पलता था। वो था पहाड़ों की गोद में बसे देहरादून में आयोजित होने वाले बोर्ड के इम्तिहान। चूंकि मैंने अपने जीवन में कभी पहाड़ नही देखे थे, उन पहाड़ी टीचरों के नाम, गुनगुनायी गयी पहाड़ी धुनें, पहनावे उड़ावे, रहन सहन देख के पहाड़ के प्रति हमेशा कौतूहल रहा। आठवें तक ये लगता था, कि इतने महंगे स्कूल में हम इतने सालों तक टिक भी पाएंगे या नही। पर आठवां, नवाँ पार होते रहे। पढ़ाई से हमेशा छत्तीस का आंकड़ा रहा। फिर भी हर महीने दी जाने वाली फीस धक्का देती रहती थी पीछे से। बोर्ड का हौवा हम सब के ऊपर था। पर उस हौवे को हल्का करने वाला पहाड़ की गोद में एक महीने का प्रवास ज्यादा बलिष्ठ था। शायद ही देश के किसी भी अन्य स्कूल के बोर्ड इम्तिहान बच्चों के लिए इतने रूमानी तरीके से आते हों। सीनियर्स की फेयरवेल पार्टी में उस एक महीने के प्रवास के सैकड़ों किस्से होते । बोर्ड की धुकधुकी के बीच वो समय आ ही गया एक दिन।
      वैसे जनता और दून एक्सप्रेस अनाउंसमेंट और उसकी धड़धड़ाहट कानों में गूंजने लगी थी बहुत दिनों से। बेड होल्डाल, सूट केस में अलग अलग विषयों की प्रतिनिधि किताबें,माँ के हांथों बनाया हुआ नाश्ता, और ठंड के कहकहों से बचने के लिए गर्म कपड़े। स्टेशन पर हर बच्चा छोड़ने वाले अभिभावकों के हाँथ से छूट कर ट्रेन में चढ़ते ही बड़ा हो जाने वाला था। मेरे लिए पहाड़ जैसे रास्ता देख रहा हो, मैं उससे मिलकर बड़ा होना चाहता था। ट्रेन छूट चुकी थी, ट्रेन के भीतर बर्थ के साथ साथ साथियों की शैतानियां, अल्हड़पन खुलने लगा था। टीम को लीड कर रहे दो अदद टीचरों के भीतर भी कुछ खुला था। वो उतने सहज कभी नही महसूस हुए। तयशुदा रतजगे के बाद हरिद्वार, रायवाला, डोईवाला...गुजरते गए...एक के बाद एक। पीछे पहाड़ का बैकग्राउंड अभी भी फोटो स्टूडियो के पर्दे की तरह लग रहा था। देहरादून स्टेशन पर खिली हुई धूप ठंढ का हल्का दुशाला ओढ़े स्वागत करती है। किसी एक टीचर ने लाद दिया था हम कुछ चुनिंदा लड़कों के कंधों पर लड़कियों का जरूरत से ज्यादा भारी सामान। सामान के साथ टीचर की कुटिल मुस्कान और लड़कियों का खिलखिलाकर खाली हाँथ चलना उस दिन रेसिस्ट नही लगा। हम उस हॉस्टल पहुंच चुके थे। जहाँ हमारे भविष्य का मील का एक पत्थर आकार लेने वाला था। कई कमरों के बीचो बीच आंगन में रखी टेबलों पर मेरठ, हरदोई व अन्य शहरों के बोर्ड लगे थे। अपने शहर की टेबल पर सुबह का नाश्ता, दिन का लंच और रात का डिनर समयानुसार। दिन भी बिना सोये ही गुजरा वहाँ की आबो हवा से परिचय के साथ। रात में कमरे की बत्ती जैसे ही बंद हुई, तो खिड़की से दूसरी दुनिया की बत्तियां जगमगाने लगीं। सामने टिमटिमाता मसूरी सजा था, खिड़की की आयताकार प्लेट में। कमरे के भीतर लाइन से लगे सफेद बिस्तर की कतार में मेरा तेरा, यहां वहाँ से सरहदें खींची जा रही थी। मैं अपना बिस्तर खो चुका था। किताबें खो चुकी थीं। लगभग महीने भर के पहाड़ प्रेम ने बोर्ड एक्ज़ाम की सफलता में असफलता का एक दाग तो दे दिया था, पर कम्पार्टमेंट की शक्ल में पहाड़ से मिलने का दूसरा मौका भी दिया।
       आज लगभग 20 सालों बाद शाम के वक़्त स्कूल बंद था, पर असेम्बली ग्राउंड में पुराने बच्चों का शोर था, उन टीचरों की डांट थी, ..प्रिंसिपल ऑफिस में नाक पर चश्मा, हाँथ में पुलिस वाला रूल लिए प्रिंसिपल पी ए जोज़फ़ से गुलज़ार था। मैं स्कूल से पहाड़ की पहली मुलाकात के सफर में था।

कलम चोर !

एक बड़ी संस्था के  ऑफिस टेबल के नीचे ठीक बीचों बीच  एक पेन तीन दिन पड़ा रहा  ऑफिस में आने वाले अधिकारी , कर्मचारियों की रीढ़ की हड्डी की लोच...