लेखक एवं वरिष्ठ पत्रकार प्रिय दर्शन जी द्वारा !
कविता इसलिए न लिखें कि
१ किसी से बदला लेना या उसे नीचा दिखाना है।
२ किसी विचार के चाबुक से किसी की पिटाई करनी है।
३ अपने आग्रह को किसी सार्वभौमिक सत्य की तरह थोपना है।
क्योंकि
१ कविता सबसे पहले कवि की पोल खोलती है।
२ वह बता देती है कि कवि के सोचने का तरीक़ा क्या है।
३ कवि जो महान उक्तियां लिख रहा है उसके पीछे के टुच्चे इरादे क्या हैं।
दरअसल
१ कविता लिखना खुद को लिखना है - अपने अनुभव संसार को, अपने संवेदन को।
२ यह अनुभव भी अर्जित करना पड़ता है - वह स्मृति, संवेदना और विवेक की साझा संतान होता है।
३ स्मृति से जो मिलता है, संवेदना उसे ग्रहण करती है और विवेक उसमें से ग्राह्य-अग्राह्य चुनता-छांटता है।
इसके बाद
१ हम जो लिखते हैं वह हमारा अनुभूत सत्य होता है
२ लेकिन इस सत्य की प्रामाणिकता के लिए ज़रूरी है कि उसे बार-बार अनुभवों की कसौटी पर कसते रहा जाए। इससे वह कुछ बदल भी सकता है, लेकिन अंततः वह एक प्रामाणिक अनुभव होता है और विश्वसनीय अभिव्यक्ति में बदलता है।
३ अपने अनुभव की गरिमा इस बात में भी है कि उसे एक अर्जित मूल्य की तरह सहेजा जाए, न कि उसकी तलवार बना कर उससे दूसरों के सिर काटे जाएं।
अगर इसका ख़याल न रहे तो
१ कविता न्याय के नाम पर बहुत अत्याचारी हो जाती है।
२ वह किसी बुलडोज़र की तरह तथाकथित अवैध निर्माणों को ढहाने का काम करने लगती है।
३ बिना यह जाने या समझे कि छोटे-छोटे सपनों के घर कितनी मामूली मगर मूल्यवान सांसों का बसेरा हैं।
यह ख़याल रहे
१ कविता लिखना दूसरों के ज़ख़्मों को अपनी छाती पर महसूस करना है।
२ कविता लिखना अपने ज़ख़्मों के आईने में दुनिया को देखना है।
३ कविता लिखना नैतिक-अनैतिक की निश्चयात्मकता से आगे एक मानवीय अनिश्चय के बीच अपने-आप को टटोलना है।