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मंगलवार, 23 अक्तूबर 2018

आंधियों के डर से !

घर का अंधेरा बर्दाश्त है
खिड़कियों से झाँकती इच्छाएं
दुबक कर बैठीं हैं
आंधियों के डर से अंधेरे में !

उन अंधेरों में छिप कर
क्या पाया होगा उन्होंने,
डर के सिवा ?

बहुत लोग हाँफ के मर गए
जीना जैसा जीकर
सड़क दुर्घटनाओं से ज्यादा
आत्महत्याएं हैं घर के भीतर

वो इतना डरें हुए हैं
पुरवाई उन्हें आँधी लगती है !



छोड़ने से पहले !

छोड़ने से पहले कुछ आवाज़े
आकाश से आती हैं
कान में उम्मीद की कुहू करके
आवाज़े वापस चली जाती हैं

बहुत से तार संवाद के
कम्पन महसूस करते हैं
कसके पकड़ते हैं
छूटने को

क्यों न सुना गया होगा
उस आह को
जो एकदम करीब से चीखी गयी होगी
सुनने वाला बहरा हो गया
या कहने वाला थक रहा होगा

वो सम जहाँ वो सबसे करीब थे
क्यों नही सुन पाए, एक दूसरे को

या ये तय होता है
मिलने के बाद खोना
खोने के बाद पाना
कुछ नया !

कुछ नया भी
भीतर या बाहर ?



हम्म !

जब से तुम
मर गयी हो,
तबसे
मैं तुम्हें जीने लगा हूँ

तुम वाकई
मर गई हो न ?
फिर, मैं ज़िन्दा कैसे !

बच्चा बड़ा हो गया है !

घर की मजबूत दीवारों में
बच्चे की ऊर्जा ने
थका दिया, छका दिया
कई बड़े बड़े लोगों को

वो दिन भर सुनता है
चीखती हुई आवाज़ें
किसी भी दिशा से, किसी भी समय
डराने वाली, धमकाने वाली,
 शिकायत करने वाली

हाँ, डराने वाली आवाज़ें
"बाबा आ जाएगा"
गन्दी बातें सीखते हो
शान्त बैठो
गब्बर हो रहे हो
सुनते नही हो

उनके कान कोमल हैं
कहानी सुनने
संगीत सुनने
को होते हैं उनके कान

दिन भर मासूम बच्चे के साथ
साजिशें होती हैं
उसे पुलिस तक का डर दिखाया जाता है
घर में बच्चा अकेला रहता है
कुछ बड़े मोबाइल हैं, दो बड़ी टी वी हैं
एक अख़बार
सिर्फ  एक आराम दायक कुर्सी

बड़े डरते हैं छिपकली से
बच्चा कॉकरोच से डरता है।




ट्रेसपासिंग !

पुलिस बहुत मारती है
दीवारें फाँद
कूदते चोरों को देख

चुराते हुए देखा गया उन्हें आज
छिपती,समय से तेज़
भूत भविष्य का आधा आधा हिस्सा
देखती नजरों को
पकड़ लिया गया
रंगे हाँथ

पुलिस भावनाओं में
इतना रूखापन क्यों होता है ?
वो उस चोरी पर
हाहाकार
मचा देती है
रौंदना चाहती हैं
अपने बूटों से

एक चोर को !

रोटी चोर,
चिल्लर चोर
छोटे छोटे सुख बटोरने वाले
बेहद अभाव में पले बढ़े बच्चे !

बहुत मारते हैं वो
थाने की ओट में
लोहे के इंजन वाले मोटे पटे से
दोनों की चमड़ी
मोटी होती जाती

रोज सुबह चाय की दुकान के पास
पुलिस, ट्रकों के ड्राइवर केबिन को
जोर से हिलाती है
उनसे कुछ चिल्लर झरते हैं
राह चलते लोग देखते हैं
मुस्कुरा के आगे बढ़ जाते हैं

पुलिस से मुस्कुराया नही जाता
उनके व्यस्ततम जीवन में
प्रेम का समय नही
एक छूटे हुए जीवन की याद में
एक काम में गुजारते
ठूँठ हो जाते हैं

नमी
खत्म हो जाती है
दो तरह की आवाज़ों में
मौन, हिंसक होता जाता है

थाने में पुलिस की मार
से उपजी टीस
हदों की दीवारें फाँदते
बड़ी होती हैं

आज फिर
कोरे कागज़ पर
सफेद झूठ से माफी लिखवाई गयी
लॉक अप में एक साथ
सच झूठ बन्द किए गए

थानों की दीवारें बहुत मोटी
और सख्त होती हैं
आवाज़ें दीवारें फाँद जाती हैं।



आठ बजे !

भीतर के बच्चे ने
शाम होते ही कुलाँचे भरना
शुरू कर दिया

शाम के साथ साथ
उसकी आँखों का डर जाता रहा
 खेल खेल में
अपने भीतर की आग को
दबाता है
आग कई बार दावानल
होने से रह जाती  है

शाम और गाढ़ी और गाढ़ी
शाम की शराब के शीशे से
ट्यूबलाइट की रोशनी
बादामी हो जाती है

रोज़ शाम को
बच्चा बाल्यावस्था से
युवा तो कभी प्रौढ़
तो महिला होता है

भीतर
काली स्क्रीन पर रंगारंग कार्यक्रम
सच बोलूँ तो
18 घण्टे
चलता है ।




स्टूडियो !

स्टूडियो में प्रोपर्टी नई नही हैं
बहुत कुछ तीन पाँवों या एक वाला
लुढ़कता रहता है इधर से उधर
ईंधन की राख की पुती दीवारों
के बीच सफ़ेद बल्ब
टेबल के बेहद करीब लटका हुआ है

ऑडिशन में आए किरदार
घर से उस किरदार में आएं हैं
रास्ते भर उनके सामने
हज़ारों लोगों के बीच
किरदार लांघते चले आते हैं

पिछली शूट की लोकेशन
दीवार से उतरी नही है
हर नई कहानी के
निशान दीवारों पर मिलते हैं

किसी और किरदार
की याद को देखते देखते कलाकार
गपशप में सीरियल/ऐडवर्टीज़मेंट/फ़िल्म
में झगड़ता है



कहानी

कहानियाँ खत्म न हों
किरदार खत्म कर दो

ये सीख नही
कोई अनुभव भी नही
बीच का
कोई करार होगा शायद

भूल गलतियों के
न जाने कितने टेक चलते रहे
कहानी किरदार
आमने सामने
गुथते रहते

भीड़ के सामने दोनों
ऐसे खत्म होना चाहते हैं
याद किए जाएं वो
एक कहानी एक किरदार की तरह
अपनी आस पास की
कहानियों में !

पहाड़ गंज की नियॉन लाइट्स !


दिल्ली के पहाड़ गंज की नियॉन लाइट्स कोई तिलिस्म सा रचती हैं। लाल, पीली हरी, सफेद नियॉन लाइट्स दोनों किनारों पर अकड़ू खड़ी हुई। हज़ारों की तादात में चमकती नियॉन लाइट्स पर लिखे होटलों के नाम बार बार गुम हो जाते हैं। कभी कभी अपने ठौर को ढूंढने के लिए पूछना पड़ता है। होटल का नाम कुछ भी हो, अपनी विशेषताएं लिए वो सड़क पर घूमता है । रिक्शे वाला, ऑटो वाला या सड़क किनारे खड़ा कोई भी होटल हो सकता है। गलियों में आदमकद ऊँचाईं पर चहलकदमी के साथ फुसफुसाहट होती है। आँख में आँख डाल के आवाज़ें पूछती फिरती हैं ..... होटल, एसी नॉन एसी... मसाज...या कोई व्यवस्था ?
    पतली- पतली गलियों में खड़ी सीढियाँ एक पहाड़ पर ले जाती हैं। उन पहाड़ों के खोहों में बन्द दुनिया खुलती है। सुरक्षित और असुरक्षित दोनों बराबर बराबर।
      गली के छोटे छोटे होटलों का पता किसी बड़े होटल के लैंडमार्क से जुड़ा होता है। 'उससे बढ़िया' और 'उससे सस्ता' उलझे रहते हैं आपस में। बाहर से आए हुए यात्रियों के दिल ओ दिमाग में नियॉन लाइट रोशनी करना चाहती है। न जाने क्यों, शहर के लोगों के लिए ये होटल वर्जित फल हो जाते हैं।
        200- 500 - 800- 1200 - 1500 कुछ ऐसे ही रेट हैं बन्द दुनिया के। कुछ और खर्चने में बन्द कमरों के ए.सी रहस्यमयी तरीके से चल जाते हैं। अधिकतर एसी का टम्प्रेचर 18 रहता है। गर्मी बरसात या गुलाबी मौसम। टम्प्रेचर 18। उन कमरों में सब कुछ 24 घण्टे के लिए निजी हांथों में थमा दिया जाता है। हर सुविधा का रिमोट कंट्रोल रिसेप्शनिष्ट के पास सुरक्षित रहता है।  चेक इन करने से पहले कोई न कोई कान में फूँक ही डालता है " सर और कोई जरूरत हो तो कभी भी बताइएगा...मसाज या कुछ भी...।
      गर होटल का नाम पहले से तय नही है, तो सड़क पर टहलते होटलों की आँखें किसी अकेले को खोजती हैं। इशारों इशारों में महफूज़ जगह का इत्मिनान दिखाती हैं। अकेले की परिभाषाएं बदलती हुई महसूस होने लगती है। कोई निपट अकेला पहाड़ गंज के होटल की खिड़की खोलता है। धूल के साथ खिड़की के पीछे दो कबूतर फड़फड़ा कर उड़ते हैं।
     नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से लेकर आर के आश्रम मेट्रो स्टेशन तक, पहाड़गंज बदलता रहता है। देश और दुनिया के सैलानी अपनी पसंद का पहाड़गंज खोज लेते हैं।
      घर, होटल एक दूसरे से पीठ लगाए बैठे रहते हैं। घर और होटल की गलियां एक ही हैं। बहुत मुमकिन है, कोई जानने वाला, पहचानने वाला नज़र झुकाए करीब से निकल जाए। 10 साल के अंतराल का पहाड़गंज निकल जाता है सामने से सर झुकाए। मंदिरों वाली माता के जगराते कैसेट्स रात भर बजते  हैं।
       पहाड़गंज की 'ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर' वाली अदा निराली है। उसकी घड़ी की सुईओं ने सूरज का साथ न जाने कब से छोड़ दिया है। सिर्फ 2 घण्टे से लेकर 24 घण्टे में कभी भी दिन बदल सकता है। साफ सुथरी नई सुबह कोई नया शहर पहाड़गंज की नियॉन लाइट्स में खो जाता है। मुख्य सड़कों पर रात दिन, शीशे और स्टील का कारोबार पसरा रहता है।

मैं आ रहा हूं ... #imamdasta

  जो सिनेमा हमारे नज़दीक के थिएटर या ओ टी टी प्लेटफार्म पर पहुंचता है । वह हम दर्शकों को तश्तरी में परसा हुआ मिलता है । 150 से लेकर 600 रुपए...