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मंगलवार, 23 अक्तूबर 2018

पहाड़ गंज की नियॉन लाइट्स !


दिल्ली के पहाड़ गंज की नियॉन लाइट्स कोई तिलिस्म सा रचती हैं। लाल, पीली हरी, सफेद नियॉन लाइट्स दोनों किनारों पर अकड़ू खड़ी हुई। हज़ारों की तादात में चमकती नियॉन लाइट्स पर लिखे होटलों के नाम बार बार गुम हो जाते हैं। कभी कभी अपने ठौर को ढूंढने के लिए पूछना पड़ता है। होटल का नाम कुछ भी हो, अपनी विशेषताएं लिए वो सड़क पर घूमता है । रिक्शे वाला, ऑटो वाला या सड़क किनारे खड़ा कोई भी होटल हो सकता है। गलियों में आदमकद ऊँचाईं पर चहलकदमी के साथ फुसफुसाहट होती है। आँख में आँख डाल के आवाज़ें पूछती फिरती हैं ..... होटल, एसी नॉन एसी... मसाज...या कोई व्यवस्था ?
    पतली- पतली गलियों में खड़ी सीढियाँ एक पहाड़ पर ले जाती हैं। उन पहाड़ों के खोहों में बन्द दुनिया खुलती है। सुरक्षित और असुरक्षित दोनों बराबर बराबर।
      गली के छोटे छोटे होटलों का पता किसी बड़े होटल के लैंडमार्क से जुड़ा होता है। 'उससे बढ़िया' और 'उससे सस्ता' उलझे रहते हैं आपस में। बाहर से आए हुए यात्रियों के दिल ओ दिमाग में नियॉन लाइट रोशनी करना चाहती है। न जाने क्यों, शहर के लोगों के लिए ये होटल वर्जित फल हो जाते हैं।
        200- 500 - 800- 1200 - 1500 कुछ ऐसे ही रेट हैं बन्द दुनिया के। कुछ और खर्चने में बन्द कमरों के ए.सी रहस्यमयी तरीके से चल जाते हैं। अधिकतर एसी का टम्प्रेचर 18 रहता है। गर्मी बरसात या गुलाबी मौसम। टम्प्रेचर 18। उन कमरों में सब कुछ 24 घण्टे के लिए निजी हांथों में थमा दिया जाता है। हर सुविधा का रिमोट कंट्रोल रिसेप्शनिष्ट के पास सुरक्षित रहता है।  चेक इन करने से पहले कोई न कोई कान में फूँक ही डालता है " सर और कोई जरूरत हो तो कभी भी बताइएगा...मसाज या कुछ भी...।
      गर होटल का नाम पहले से तय नही है, तो सड़क पर टहलते होटलों की आँखें किसी अकेले को खोजती हैं। इशारों इशारों में महफूज़ जगह का इत्मिनान दिखाती हैं। अकेले की परिभाषाएं बदलती हुई महसूस होने लगती है। कोई निपट अकेला पहाड़ गंज के होटल की खिड़की खोलता है। धूल के साथ खिड़की के पीछे दो कबूतर फड़फड़ा कर उड़ते हैं।
     नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से लेकर आर के आश्रम मेट्रो स्टेशन तक, पहाड़गंज बदलता रहता है। देश और दुनिया के सैलानी अपनी पसंद का पहाड़गंज खोज लेते हैं।
      घर, होटल एक दूसरे से पीठ लगाए बैठे रहते हैं। घर और होटल की गलियां एक ही हैं। बहुत मुमकिन है, कोई जानने वाला, पहचानने वाला नज़र झुकाए करीब से निकल जाए। 10 साल के अंतराल का पहाड़गंज निकल जाता है सामने से सर झुकाए। मंदिरों वाली माता के जगराते कैसेट्स रात भर बजते  हैं।
       पहाड़गंज की 'ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर' वाली अदा निराली है। उसकी घड़ी की सुईओं ने सूरज का साथ न जाने कब से छोड़ दिया है। सिर्फ 2 घण्टे से लेकर 24 घण्टे में कभी भी दिन बदल सकता है। साफ सुथरी नई सुबह कोई नया शहर पहाड़गंज की नियॉन लाइट्स में खो जाता है। मुख्य सड़कों पर रात दिन, शीशे और स्टील का कारोबार पसरा रहता है।

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