मैं गया था और
लौट आया सकुशल
बगैर किसी
शारीरिक क्षति
और धार्मिक ठेस के
घनी बस्ती की संकरी
गलियों की नालियों में
कहीं खून का एक कतरा
न दिखा मुझे
छतों पर पत्थर
कमरों में तलवारें
चापड़, बंदूकें
छुरी और
बम - तोप का
नाम ओ निशाँ न मिला
सफेद जो गंदा होता है
जल्द , आसानी से
पहने हुए लोग
गले मिलते दिखाई दिए
किसी की छाती पर
गंदगी नहीं दिखी
असलम , हामिद , रेहान
कुछ नहीं लेते आए हैं
दशकों मुझसे
मैं ही जाता हूं
साल दर साल
उनके घर ईद पर
जुबां पर
मां - बहनों के हाथों बनाई
किमामी सेंवई , दही फुल्की
छोले , ज़र्दा
खीर का स्वाद
और मुस्कुराहट के साथ
" फिर आना " की ताक़ीद
ने कभी ठगा नहीं मुझे
बचपन से देखता
आया हूं उन्हें
क्लास में , बस में
खेल के मैदान में
टेलर की दुकान में
जूते के कुटीर उद्योग में
केमेस्ट्री के प्रोफेसर के घर में
कौन हैं वो
कहां से आएं हैं
और क्यों हैं वो यहां
कभी सवाल नहीं उपजा
दिल और दिमाग में
सवाल अजनबियों से होते हैं
या दुश्मनों की आहट से
दूरियां नजदीकियां
शिकवे शिकायतें
कहां नहीं होते
मिलते रहने से
मिटते हैं सारे भ्रम
मिलने से खिलती हैं
आपसदारियां
पनपती है
विभिन्न रंगों से सजी
दुनिया की समझदारियां ।
2 टिप्पणियां:
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" रविवार 06 अप्रैल 2025 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !
बहुत सुंदर
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