भारत का नागरिक होने के नाते
मैं और मेरी नागरिकता
मुझसे सवाल नहीं करती
मैं हिन्द देश का नागरिक
हिंदू परिवार का हिंदुस्तान
यूं ही नहीं बना
मेरे बाप दादाओं ने
घोर तप , यज्ञ और मानताओं
के बाद मुझे हांसिल किया
खुशी का ठिकाना नहीं रहा
हिंदू कुल का वंश बढ़ाने
मैं , मां भारती में जन्मा
पला बढ़ा संयुक्त परिवार
के मुक्त आंगन में
और सयाना बना
वीर सैनिकों के बीच
एक युवा नागरिक
ऊर्जा से भरपूर
लौटता है एक वरिष्ठ
नागरिक के वी. आर. एस.
के साथ
अपनी जड़ों की ओर
एक खिड़की
एक दरवाज़े वाले
दो कमरों का घर
घर में आजाद खयालों
के बंद दरवाजे
मुझसे सवाल करने लगे
एक नागरिक को पता चलती है
उसकी नागरिकता
जाति, धर्म ,
इतिहास और भूगोल
की सीमाएं
स्वजाति , स्वधर्म , स्वनागरिक
और स्व स्वभुगोल
के दायरे में नागरिक
डूबता जाता है
घर के मुक्त आंगन
से देश के मुक्तांगन
की उड़ी उड़ान
यादों में जड़ होने
लगती हैं
स्व
और स्वयं
के घेरे में रचने बसने
की नसीहतें कभी कभी
हिंसक होने लगती हैं
भाषा की मर्यादाएं
टूटने लगती हैं
खाली बर्तन
टकराने लगते हैं
सवालों के जवाब
न दिए जाने में ही
समझी जाती है
घर की भलाई
नागरिक बदहवास
छोड़ जाना चाहता है
अपनी नागरिकता
और उतार फेंकना चाहता है
अपनों का ढोंग
तमाम भावनात्मक
बेड़ियों में उलझ
आख़िर में वो
स्वीकारता है
नागरिकता
कुनबे की
वंशावली की
और समाज की !
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