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सोमवार, 27 सितंबर 2021

गूगल !

 मैं तेईस वर्ष

आंखों के बंटे में

गोल देखता इतना
लगता दिल के करीब ..

फरेब न समझ
असल समझ

इतनी कम उम्र में
दुनिया समेटना
मूर्ख आकाश में
समझ से हल्का
दिल माँगता कुछ न
देने को बैठा समय
और समय । 

शनिवार, 25 सितंबर 2021

माँ के नाम एक ख़त


प्यारी माँ ,

 माँ ! तुम्हे याद है ? हमारे पुराने वाले मकान में एक कमरा हुआ करता था। छोटा सा कमरा । एक डबल बेड । एक स्टोर। एक टाँड़। हमारे उस घर के एक कमरे को , मैंने अपना कमरा बना लिया था। तुम्हे याद है वो कमरा ? तुम्हे जरूर याद होगा।

 उसकी एक दीवाल पर एक पोस्टर लगा था । खूँटियों पर हमारे कपड़े टंगे होते। टाँड़ पर बस्ता किताबें। मुझे तब यकीन होता था कि मैं पढ़ने में औसत हूँ। 

तुम कहती " मूंगफली का ठेला लगाना बड़े होकर " । तुम कहती "बोलो तुम्हारे मन से क्या है "। तुम्हारे प्रश्न बहुत कड़वे होते थे। कड़वा उनका स्वाद नही था। हमारे उन प्रश्नों को समझने का माद्दा नही था। 

मुझे आज तक नही मालूम चला । कि तुम्हारी वो गुस्सा हमें किस राह पर ले जाना चाहती । और हम कहाँ भटक जाते। छोटा भाई जब तुमसे मार खाता था। तब मुझे उसके बचपने वाली तस्वीर याद आ जाती। गोल मटोल 2 काले टीके लगे। उस तस्वीर को देख कर आज भी लगता है कि उसे खिला लूँ। 

वो खूब चिल्लाता तुम्हारी मार से। मुझे लगता था। कि वो चीखने को अपना हथियार बना लेता था। तेज़ तेज़ रोएगा तो तुम्हे मामता लगेगी। तुम रुक जाओगी। उसके रोने से अडोस पड़ोस के लोग टोक देते थे तुम्हे। तुम उन्हें डराती कि वो हट जाएँ। पर उनका मान रख लेती। 

वो शैतान था। जिद्दी था। माँ मैं तुम्हे आज बता रहा हूँ। कि मैं बहुत गब्बर था। उसको छेड़ता। जब वो चिढ़ता तो मुझे उसे चिढ़ाने में ज्यादा मज़ा आती। तुम उसी की गलतियाँ सुन कर मुझे माफ़ कर देती। उसकी मार के बाद मेरी मार के चांसेस बढ़ जाते थे। 

   तुम्हे याद है ? तुम्हारी मार खाने को मैं तैयार रहता था। मैं अपने कमरे में दुबक के बैठा सुनता था तुम्हारा हल्ला। मुझे लगता अब मेरी बारी....अब मेरी बारी। तुमने जब जब मुझे मारा। मैं पीठ कर के खड़ा हो जाता । आँखें भींच के पीठ को सख्त कर लेता। मैं पहले से गिनती बढ़ा के बैठ जाता। तुम हमेशा उस गिनती से पीछे रहती। 

  तुमसे कम मार खाने या बचने के लिए मेरे पास चुप से बड़ा कोई हथियार नही था। तुम्हारे सामने बोलना तुम्हे पसंद नही था। 

 कई घण्टों बाद जब मैं अपने कमरे में होता। उस दीवाल पर लगे पोस्टर को देखता । खूब हरे पेड़ की टहनी पर घोसले को पालती चिड़िया। दाना लाती। मछली की तरह मुँह फैलाए बच्चों के मुँह में दाने डालती। पोस्टर के सबसे ऊपर के दाहिने कोने पर सफेद अक्षरों में लिखा होता।" नेचर इज़ द बेस्ट मदर " । मैं उस कमरे में ओढ़नी के भीतर सुबकता। 

 माँ तुमने वो पोस्टर कभी नही देखे ? मेरे कमरे में झाड़ू लगाते वक़्त । मेरे लिए सुबह की चाय लाते वक़्त। या दिवाली , होली की सफाई करते वक़्त। 

तुम बहुत रोत्तड़ हो। मैंने तुम्हारे आँसू बहुत जल्दी छलकते देखे हैं।

तुम अक्सर पापा से लड़ते वक़्त रोती थीं। कभी कभी मैं स्कूल से आता। रसोईं में तुम्हारे आंखों में आँसू देखता। तुम आँटा गूंथते हुए रोती दिखती। शाम को सीरियल के वक़्त तो तुम्हारी आंखें किसी छण डबडबा आती। फिल्मों को देखते वक़्त। नॉवेल पढ़ते वक्त तुम रोती दिखती। 

तुम्हे बच्चे बहुत पसन्द हैं ना ? पर शैतानी करने वाले बच्चे पसंद नही हैं तुम्हे। या तुम पापा का गुस्सा उतारती हैं हम पर। उनके तुमसे किये गए सारे सवाल आज भी वैसे ही हैं। तुम अभी भी जवाब देकर रोने लगती हो। 

पर अब तुम किसी को मारती नही। शायद हम में से किसी ने कभी तुम्हारा हाँथ पकड़ लिया होगा। तुम्हें आँख दिखाई होगी। या तुम्हे लगा होगा कि बच्चे बड़े हो गए हैं। पर तुम अपना गुस्सा कैसे उतारती हो ? कभी मेरी तुम्हारी बात हो तो बताना।  

                                             तुम्हारा प्यारा !


शुक्रवार, 24 सितंबर 2021

रेत घड़ी !

 


कोहरा ढक आया था। एक ट्रेन उस कोहरे को चीरती रुकती है प्लेटफॉर्म नंबर दो पर । राघव अपने पिट्ठू बैग को एक हाँथ से पकड़ , दूसरा हाँथ बैक पॉकेट पर रखता है। अलसाए बँगाली कोच की सीट को छोड़ नीचे उतरता है। प्लेटफॉर्म के शेड से झाँकते आसमान की ओर देख के अंगड़ाई लेता है। और जा बैठता है थोड़ी देर बेंच पर। यहाँ बैठता , वहाँ बैठता दो घण्टे काटने की बेचैनी को वह संभाल नही पाता।

वह रोज़ किसी न किसी राहगीर का हमसफ़र बनता।
कभी बँगाली, कभी पंजाबी तो कभी पहाड़ी यात्रियों से एक अदद सीट के लिए जद्दोजहद। आम बात थी। कभी ट्रेन की लेटलतीफी तो कभी कॉलेज की आकस्मिक बंदी । इन सब वाकयों का होना उसके अप डाउन का हिस्सा था। लोगों का मिलना बिछड़ना रोज की बात रहती उसके लिए।
रोज़ की तरह आज भी वो टिपटॉप लोगों में अपना कल खोजता प्लेटफॉर्म के चक्कर लगा रहा था। लंबे सफर की गाड़ियों के ए सी कोच गजब के उत्साह वर्धक होते हैं। ट्रेन से उतरने चढ़ने वाले लोग अपनी कहानी अपनी पोथी में लेकर घूमते हैं।
ठीक सामने प्लेटफॉर्म नम्बर एक पर एक आदमी ने उसे आवाज़ लगायी। अंग्रेज़ी में कुछ यूँ कहते। हेय यू ! (भारी आवाज़ ) । सफ़ेद शर्ट , सफेद पतली पट्टियों वाली काली पैंट। रौबीला चेहरा। हाँथ में छड़ी।
पहली बार राघव ने इग्नोर किया। फिर वही आवाज़ । हेय मिस्टर ! यू कम हेअर । उस आवाज़ में अजीब सा हक़ और रौब भारी था। राघव सीढ़ियों से उस प्लेटफॉर्म पर पहुँचता है। उस शक्श के ठीक सामने दो फर्लांग फासले पर खड़ा हो जाता है। "जी सर" ! आप ने मुझे बुलाया ?
हाँ हाँ !
मैंने तुम्हे देखा दूर से । तुम्हारे ललाट पर एक युवा तेज़ चमक रहा था। मैं देख के हैरान हुआ।
शुक्रिया अंकल !
क्या करते हो ?
सर बस पढ़ाई कर रहा हूँ। कॉलेज 10 : 45 से है । यहीं स्टेशन पर कुछ देर रहता हूँ।
अच्छा अच्छा । तो रोज़ अप डाउन करते हो ?
जी अंकल !
पिता जी क्या करते हैं ?
पिताजी नौकरी करते हैं। (हिचकते हुए ) । अच्छा अंकल मैं चलता हूँ। कुछ किताबें देखनी है। नाइस टू मीट यू !

हा हा हा हा ! कहाँ की हड़बड़ी है बेटा ? अभी तो तुम्हारे पास समय है। मेरी ट्रेन कुछ देर में आने वाली है । बस फिर तुम अपने रास्ते हम अपने रास्ते । आओ आओ यहाँ बैठो। ( काला चमकीला लेदर का बैग बेंच से नीचे रखते हुए)
राघव बैठ जाता है । ट्रेन और यात्रियों के कोलाहल के बीच राघव बुत बना बैठा रहा। शिष्टाचार , सलीका ,बात करने के ढंग से तो वो बहुत ही अच्छे खानदान से लगते हैं। फिर भी अजीब सा पशोपेश। बार बार " युवा तेज वाली बात आए जा रही थी। राघव ने भी अब झटके से सोचना छोड़ दिया। मन ही मन " बुड्ढे से पिंड छूटे " । वह पूछता है ।
अंकल आप क्या करते हैं ?
मैं लोगों की पैरवी करता हूँ । पैरवी मतलब वकालत( मुस्कुराते हुए ) ।
कहीं घूमने जा रहे हैं ?
नही ! मैं भी तुम्हारी ही तरह मुसाफिर हूँ। सुबह से शुरू हुआ सफर रात को ही घर करता है । राघव के पीठ पर हाँथ फेरते हुए । " डेली पैसेंजर " .
अच्छा ! फिर तो आप भी जानते होंगे कितना कठिन होता है । रोज़ रोज़ धड़क धड़क। पढ़ाई कम दौड़ ज्यादा।
अभी युवा हो ! इतना तो चलता है । हम ने भी अपने जमाने में ऐसे ही पढ़ाई की। तब तो इतनी ट्रेन भी नही थी। पर हाँ ट्रेन वक्त की पाबंद थीं। बहुत मेहनत करनी पड़ती थी।
तुम भी मेहनती दिखते हो। एक दिन देखना तुम बहुत नाम करोगे। तुम्हारी आँखों में सपने दिखते हैं।
तुम कहाँ कहाँ घूमे हो ? या केवल दो शहरों के बीच की दूरी तय करते रहे।
नहीं अंकल घूमूँगा जब पढ़ाई पूरी हो जाएगी। बचपन पापा की नौकरी के साथ घूमा । अब आगे जब अपने पैरों पर खड़ा हो जाऊँगा।
आप कहाँ के रहने वाले हैं ?
मैं सुल्तानपुर का ! उसके पास ही एक गाँव है बसोरा । बस तीन से चार घण्टे का रास्ता है यहाँ से।
आप यहाँ क्यों नही रहते फिर। बड़ा शहर। आप का काम और आप की उम्र। दोनों में आराम रहे।
गाँव में सुकून है । गॉंव के लोग सरल होते हैं। चूल्हे की रोटी । पका हुआ दूध । खुला आसमान । शुद्ध वायु , वातावरण । और यात्रा करना बहुत जरूरी होता है। सेहत के लिए भी और समाज के लिए भी।
राघव मुस्कुरा के उठ खड़ा होता है। अच्छा अंकल मैं चलता हूँ। आधा घण्टा रह गया है क्लास शुरू होने में। पैदल जाना रहता है। नमस्ते !
उन्होंने लपक कर हाँथ पकड़ कर बैठा लिया एक बार फिर ।
छोड़ो यार ! आज बंक करो कॉलेज । चलो तुम को अपने गाँव की सैर कराते हैं। तुम अपनी ट्रेन के समय तक वापस आ जाओगे। बता देना घर में कि एक अंकल मिले थे। और मुझसे तो कोई टिकट भी नहीं पड़ता। सरकारी वकील हूँ। जब कोई टिकट माँगने पर अड़ जाता है । तो उसे झाड़ देता हूँ।
इस बात पर हँसता हुआ राघव कहता है। नही अंकल ! आप समझ नही रहे हैं। स्कूल छूटेगा , घर नही पहुँचा तो डाँट पड़ेगी । और मैं झूठ नही बोल पाता।
हा हा हा हा ! कोई लड़की हो क्या ? जो तुम्हे कोई भगा ले जाएगा। कम ऑन बी ए मैन । और वहाँ चल के तुम्हे अच्छा लगेगा।
राघव का शरीर एक दम से विश्राम स्थिति में आ जाता है। जैसे एक झटके में उसने नई जगह की यात्रा को स्वीकार किया। आप की ट्रेन कितने बजे की है ?
बस आती ही होगी। 15 - 20 मिनट में।
ठीक है अंकल । चलता हूँ आप के साथ। अंकल क्या मैं आप का नाम जान सकता हूँ।
ये हुई न बात।
अंकल ! क्या मैं आप का नाम जान सकता हूँ।
लो भाई बातों बातों में हम अपना नाम ही बताना भूल गए। मेरा नाम प्रेम प्रकाश पाण्डेय है। और तुम्हारा ?
मेरा नाम राघव है। घर में सब रघु बुलाते हैं।
चलो अच्छा है । अब मैं तुम्हे रघु ही बुलाऊँगा। ट्रेन के सफर में अपने जीवन के रोचक किस्से सुनाऊंगा तुम्हे। तुम हंसते हंसते पागल हो जाओगे ।
ट्रेन अपने समय से 10 मिनट विलंभ से आयी। राघव ने अंकल का बैग बिना कुछ कहे पकड़ लिए। दोनों आमने सामने की खिड़की वाली सीट पर बैठ गए।
20 मिनट बाद ट्रेन खुलने के साथ ही राघव के जीवन में एक अनिश्चित यात्रा का अध्याय जुड़ने वाला है। राघव ने घर फोन कर के अपने सुल्तानपुर जाने की खबर कर दी। अब उसके लिए यह सफर हल्का महसूस होने लगा। वो अपने आप पर और इस फैसले पर आश्चर्य कर रहा था।
कि कैसे उसने एक अजनबी पर भरोसा कर लिया। लेकिन उसके पास लूटने के लिए कुछ नही था। बटुए में 100 - 150 रुपये , बैग में किताबे। बस !

अंकल ने अपने बैग से एक किताब निकाली । चश्मा चढ़ाया और पढ़ने लगे । सामने वाली सीट पर राघव अंकल के व्यवहार पर पैनी नज़र रखे था ।
अंकल आप तो कह रहे थे। अपने जीवन के किस्से सुनाएंगे। आप किताब पढ़ने बैठ गए।
ओह ! मैंने सोचा तुम्हे जानने में रुचि होगी तो तुम खुद कह दोगे। बस दस मिनट में किताब की कहानी का अंत कर दूं। फिर बात करते हैं हम ।
जी अंकल !
अंकल की बातें काफी प्रभावशाली हैं। कितने हसमुख , मिलनसार हैं अंकल। वरना हम लोगों के घर के बुजुर्ग एक दम खडूस।
अंकल की बातों का सिलसिला जब शुरू हुआ तो। रास्ते का पता ही नही चला। राघव पहले से ज्यादा कंफर्टेबल महसूस कर रहा था। अंकल के कहने पर दोनों ने सुल्तानपुर स्टेशन पर ही राघव का टिफिन खाया।
अंकल यहाँ से कितनी दूर है आप का गॉंव।
यहाँ से हम लोग पहले ऑटो पकड़ेंगे। फिर ताँगा । उसके बाद थोड़ा सा पैदल चलना पड़ेगा। नहर है।
वाह ! फिर तो बहुत रोमांच रहेगा रास्ते भर। बचपने में नानी के यहाँ जाता था तांगे से। राघव मन ही मन सोच रहा था।
धीरे धीरे वो गाँव भी आ गया । जिसकी अंकल ने बड़ी बड़ाई की थी।
गॉंव के बीचों बीच एक टीले पर पुरानी बनावट का बड़ा सा मकान । बड़ा सा लकड़ी का दरवाजा। बड़ी बड़ी साँकल को अंकल खड़खड़ाते हैं। राघव की आंखें उस हवेलीनुमा घर की बनावट देख कर हैरान हो रही थी।
अंदर से एक महिला सर पर घूँघट डाले निकलती है। और अंकल को चाचा जी कह कर पेअर छूती है।
अंकल आशीर्वचन देकर राघव का परिचय करवाते हैं। बहू ये आज के हमारे मेहमान हैं। राघव ! स्टेशन पर इनसे दोस्ती हो गयी। तो हमने सोचा अपना गाँव दिखा लाते हैं। वो वहाँ , बाथरूम है । जाओ जाकर फ्रेश हो लो। तब तक मैं थोड़ा सा पेअर सीधे कर लेता हूँ।
राघव ने इससे पहले इतना बड़ा घर अंदर से नही देखा था। हाँथ मुँह धूल के राघव आँगन में पड़ी चारपाई पर बैठ जाता है। उसके लिए एक बड़े से ग्लास मलाई वाली लस्सी आती है।
कुछ देर बाद अंकल भी लस्सी पर टूट पड़ते हैं। मुँह पर हाँथ फेरते हैं। और बहू से कहते हैं। हमारा आज शाम का खाना यहीं होगा। जो सबसे अच्छा बन पड़े। बना लेना। मैं गॉंव घूम कर आता हूँ।
राघव के मन में फिर भूचाल उठने लगा। अंकल तो कह रहे थे उनका घर। उनका घर यानी उनकी पत्नी , उनके बच्चे उनके नाती पोते होते। पर वो महिला अंकल को चाचा कह रही थी। और इस घर में उनके प्रति व्यवहार काफी औपचारिक लग रहा था।
अंकल राघव को लेकर गाँव में जाने अनजाने लोगों से बातचीत करते रहे। राघव का उन बातचीत में एक दम रस नही आ रहा था। अंकल केवल अपने किस्से ही सुनाते रहे। वापसी में राघव ने पूछ ही लिया।
अंकल आप तो कह रहे थे आप का घर। आप की पत्नी बच्चे नही दिखे।
रघु जी वो अपना ही घर है। बड़ा घर है। घर के बंटवारे के बाद मेरा परिवार दिल्ली में सेटल हो गया। मैं महीने में एक दो बार जाता हूँ। उनसे मिलने। यहाँ उन्हें अच्छा नही लगता । इसलिए वो इधर कम ही आते हैं। घर के आधे हिस्से में , जहाँ तुम बैठे थे। वो मेरे भाइयों का है। बाकी का आधा हिस्सा अक्सर बन्द रहता है। एक बड़ा सा कमरा है। वहाँ मैं रह जाता हूँ। खाना पीना सब भाइयों के यहाँ से हो जाता है।
शाम होने को थी। राघव का दिमाग अपने घर को जाने वाले रास्ते पर अटक गया था। उसने अंकल से ट्रेन या बस के बारे में पूछा।
अंकल ने मज़ाक करते हुए कहा। अभी तो दिन शुरू हुआ है। गॉंव घूमने में ही बहुत समय निकल गया। तुम्हे पसंद नही आया मेरा गॉंव ?
अंकल अच्छा है आप का गॉंव। खासतौर से आप का बड़ा सा घर।
राघव के कुछ समझ नही आ रहा था। उसने हिम्मत के साथ अपने घर फोन करके कह दिया। कि आज वो नही आ पाएगा। कल की क्लास करके आएगा। उसे मालूम था घर की नाराजगी का सामना आज नही तो कल करना ही पड़ेगा।
गाँव के लोग घर वापस आने लगे थे। सर्दी बढ़ने लगी थी। जगह जगह अलाव जलने लगे। ढिबरी वाला दीया, लालटेन आदि तैयार होने लगी थी।
रात के खाने पर सभी इकट्ठा हुए। अंकल के दो भतीजे , उनकी पत्नियाँ , 3 बच्चे और हम दोनों से वो आँगन चहचहाने लगा। खाने में चूल्हे की रोटी। सिल बट्टे पर पिसी धनिया टमाटर की चटनी। बैंगन का भरता , दाल और रायता। राघव को बहुत आनंद आने लगा। खाने के बाद बड़ी सी ग्लास में गर्म दूध और घर के बने पेड़े ने स्वाद में चार चांद लगा दिए।
महफ़िल खत्म हो गयी । अंकल और राघव सामने वाले घर में चले गए।
अंकल ने लालटेन जलाई। राघव का उस जगह से परिचय करवाया। अधिकतर कमरों में ताले लटक रहे थे। एक बड़ा सा कमरा थोड़ा साफ सुथरा लग रहा था। कमरे में दो बिस्तर लगे थे। पुरानी मसहरी के पावे बैठने लेटने और करवट लेने में हिलते और चुर्र चुर्र बोलते। पुरानी रुई की रजाई। बिस्तर पर कंबल बिछा हुआ। छत पर खेती किसानी के पुराने साधन टंगे हुए थे। राघव को ऐसा लगता जैसे वो अभी उस पर गिर पड़ेंगे। यहाँ शहर के घरों की इतनी आराम नही है। लेकिन शांति है। उस कमरे के भीतर ठंढ निस्तेज हो जाती होगी। राघव बिस्तर पर लेटा लेता सोच रहा था।
रघु कैसा रहा आज का दिन ?
अंकल मज़ा आ गया। कभी सोचा ही नही था। कि अचानक से ऐसी यात्रा का प्लान बन जायेगा। बहुत अच्छे लोग हैं यहाँ के। आवभगत में माहिर। आत्मीयता से मिलते हैं।
हाँ ! सही कहा।
चल भई अब मुझे तो नींद आने लगी है। लालटेन बुझा दूँ ?
ठीक है अंकल।
लालटेन बुझते ही आंखों को दिखना बन्द हो गया। आज सुबह से अभी तक की यात्रा आंखों में साफ साफ तैरने लगी।
राघव थका था सो सोने लगा। कुछ देर बाद उसे कुछ आभास हुआ। जैसे कोई उसे छूने का प्रयास कर रहा है। उसने रजाई अच्छे से दबा ली। अंकल उसके कांधे को धीरे से हिलाते हैं। उसके कान में फुसफुसाते हैं। " मेरे पैरों में बहुत तेज़ दर्द है। दर्द के मारे नींद नही आ रही " । अंकल की आवाज़ में असहाय होने का पुट था।
राघव उठा। और टटोल टटोल के अंकल के बिस्तर पर पैताने बैठ गया। और पंजे दबाने लगा।
बेटा थोड़ा ऊपर । थोड़ा और ऊपर । कहते हुए अंकल भर भर दुआएं राघव को देते रहे।
बस अंकल ? राघव ने कुछ छण बाद कहा।
ठीक है। जैसा तुम उचित समझो।
अंकल के नंगे पाँव को दबाते हुए राघव को अजीब सा लग रहा था।
राघव अपने बिस्तर पर जाने को हुआ। तो अंकल ने उसका हाँथ पकड़ झट से अपनी जाँघों के बीच में दबा लिया।
अंकल की इस हरकत से राघव के भीतर सिहरन दौड़ गयी।
अंकल ! ( बहुत ज्यादा गुस्से में राघव चिल्लाता है ) शर्म नही आती आप को।
बेटा मैं तो मज़ाक कर रहा था।
अंकल राघव से माफी मांगने लगे । इज्जत उछलने की दुहाई देते देते वो राघव को बच्चों की तरह पुचकारने लगे। वो कभी अपना हाँथ राघव के सर पर फिराते , कभी गाल पर तो कभी पीठ पर । कभी वही हाँथ राघव की छाती से हो कर नाभि के नीचे जाने की कोशिश करते । कुछ जद्दोजहद के बाद पैंट के हुक टूट गए । वो सर्प नुमा हाँथ जांघिए के अंदर कुछ सहलाने लगे ।
राघव को नीम बेहोशी सी छाने लगी। उसके तन का सारा ढका उतर गया था। सहलाने वाली जगह के तनाव के ठीक विपरीत उसकी देह ढीली पड़ने लगी थी। अंकल अपने थुल थुल नितम्ब के अलाइनमेंट में लगे हुए थे। मसहरी के पावे आक्रांत हो रहे थे।
राघव ने अपनी मनः स्थिति को संभालते हुए । अपनी ऊर्जा को कमर में केंद्रित कर अंकल को उछाल दिया। अंकल लड़खड़ा के बिस्तर के नीचे लुढ़क गए।
मेरी कमर ...मेरी कमर कह के अंकल मसहरी के नीचे कराहते रहे।
राघव ने उस गुप्प अंधेरे में अपने कपड़े जुटाए और कमरे के बाहर आकर ठंढी साँस ली। वो बेसाख्ता भागता रहा। अपनी यात्रा के उस छोर तक जहाँ से उसने यात्रा शुरू की थी।











मैं आ रहा हूं ... #imamdasta

  जो सिनेमा हमारे नज़दीक के थिएटर या ओ टी टी प्लेटफार्म पर पहुंचता है । वह हम दर्शकों को तश्तरी में परसा हुआ मिलता है । 150 से लेकर 600 रुपए...