कुल पेज दृश्य

रविवार, 27 नवंबर 2016

मुझे मेरे हिस्से की ...!

रखो
तुम अपने हिस्से के
सुख चैन, सहानुभूति

रखो
तुम अपने हिस्से की
दुनियादारी, दिखावट के सामान

रखो
तुम अपने हिस्से के
प्रेम साहित्य

रखो
तुम अपने हिस्से के
भविष्य सहेज कर

रखो
तुम अपने हिस्से की
नसीहतें, चिंताएं

रखो
तुम अपने हिस्से की
सहन की गाथाएं

मुझे
मेरे हिस्से की
आखरी सांस दे दो



गुरुवार, 24 नवंबर 2016


                       चाय चिपकी रहती है होंठ पर देर तक

तुम्हारे साथ चाय पीने के बाद पता चला, कि चाय आदत भर नहीं है। तुमको एक तरफ़ा याद करते करते रोज़ की जेहनी और जिस्मानी थकन को मिटाने का माध्यम भी नहीं है चाय। चाय मीठी सी कसक है, जिसे मैं ज़िंदा रखना चाहता हूँ तुम्हारे मर जाने के एक अरसे बाद भी। चाय जितनी मीठी होती है उतनी ही देर तुम्हारी कसक होंठों से चिपकी रहती है। चाय के तुरंत बाद उखड़ी सिगरेट की तलब की वर्षों पुरानी आदत को बुझा देता हूँ बिना जलाये। तुम किसी महारानी की तरह अक्सर चाय के दो घूँट छोड़ दिया करती थीं प्याले में। मैं अब चाय की दो बूँद भी ज़ाया नहीं करना चाहता। यकीन नहीं होगा, मैं चाय अकेले नहीं पीता, एक चाय तुम्हारे नज़र पुराने जर्जर आले में रख देता हूँ, अपनी खौलती हुयी गर्म चाय गटक कर तुम्हारे हिस्से की ठंढी चाय एक सांस में पी जाता हूँ। चाय तुम्हारी ही तरह ख्यालों में रहती है, लेकिन उसकी मिठास चिपकी रहती है होंठों पर देर तक।


बुधवार, 23 नवंबर 2016




पहाड़ से पहाड़ी लड़की की ऊभ

कच्ची पक्की पहाड़ियों पर अक्सर हवा से बातें करती एक पहाड़ी लड़की कि ज़ुबान पर घुमाओ दार रास्तों से ऊभ की बात ने पूरे पहाड़ पर मायूसी बो दी है । झरने, नदी के किनारे पहुँच के उसका एकदम खिलना औरे देर तक मुरझाये बैठे रहना, धूप से बचती उसकी लाल रंग छोड़ती कुम्हलाई त्वचा कुछ अस्वाभाविक सी लगती है। चलते चलते उस लड़की की उँगलियाँ अब रास्तों में पड़ने वाले हरे,लाल,गुलाबी जैसे तमाम रंगों में रंगी खिलते मुरझाते वनस्पतियों का हाल चाल नहीं लेती, वो दबे पाँवों सिकुड़ कर निकल जाती है, वो इतनी मौन तो नहीं थी कभी, कि उसे अब मौसम की चुहुलबाजियां पसंद नहीं। हलकी हलकी ठंढी हवाएँ अब उसके होंठों को नहीं सुखाती हैं। वो अब किसी तीव्र मोड़ पर अपने सुर्ख ख़िजाबि बालों को हवा में आज़ाद उड़ने नहीं देना चाहती। उसे अपने ही खुले बालों से तक़लीफ़ होने लगती है। उसकी ख्वाहिशों में अब पहाड़ी जंगलों के बीच पतली पतली उबड़ खाबड़ पगडंडियों में खो जाना नहीं है, उसके जेहन में खारे, लेकिन गहरे ठहरे समुद्र के किसी एकांत में बस जाने की चाह है। वो शांत है, और उसकी इस शांति की चाहत में किसी की दखलंदाज़ी पसंद नहीं। उसे किसी भी तरह की आवाज़ अच्छी नहीं लगती। एक अरसा हुआ उसके चेहरे पर हज़ारों ख्वाहिशों भरी मुस्कान देखे हुए। हंसी के बादल उसके चेहरे पर घुमड़ते हैं जैसे कभी कभी काले घने बादल उदासी के। दोनों ही सूरतों में वो बरसना भूल सी गयी है। हुआ क्या है उसे, वो ऐसी वैसी जैसी भी हुयी है क्यों हुयी है ? पूछते हैं उसकी सोहबत में उठने बैठने वाले पेड़,पौधे,पत्ते,फूल,आबोहवा। वो जानते हैं, उसका होना उनके लिए कितना ज़रूरी है। उसके एक एक हर्फ़ पर उन सबकी कहानी दर्ज़ है। सब सहमे हुए हैं उसकी ऊभ से। पूरे पहाड़ पर बेचैन कर देने वाली शांति है। सब जानते हैं वो लड़की जन्म से पहाड़ी नही है, लेकिन जिस अंदाज़ में उसने पहाड़ को, और पहाड़ ने उसको जाना जिया, वो उनके बीच सदियों का रिश्ता सा जान पड़ता है। पर ऐसा क्या हुआ, कि सब बिथरा बिथरा सा लगता है, अचानक दिल दहला देने वाली आवाज़ उस उबाऊ ख़ामोशी की खुमारी को तोड़ती हुयी बादलों की शक्ल में फट पड़ती है। चारों ओर सैलाब से उफनती नदियां उस लड़की को घेर लेती हैं। वो उफनाती उग्र नदियां लड़की को भयभीत करके उसके मन की थाह लेना चाहती थीं। वो लड़की अब भी खामोश एक टक सब बदलता हुआ देखती रहती है, उसकी आँखों में डर नहीं, उसकी देंह में कम्पन नहीं, उसके पास खोने के लिए कुछ नहीं बचा था, सब अपने बेहद अज़ीज़ के खोने से डरते हैं, जैसे पहाड़ को अपने अज़ीज़ को खोने का है। पर उस पहाड़ी लड़की ने अपने को उस समय खो दिया था जब पहाड़ अपने सबसे खूबसूरत अंदाज़ में था। उसने दफ़्न कर दिया था अपने अल्हड़पन, अपनी खूबसूरती और रही बची टूटती उम्मीदों को प्रेम की अंतिम यात्रा में।

गुरुवार, 17 नवंबर 2016


अजनबी सा सब कुछ

बगीचे के सभी फूल खिले हुए हैं. रोज की तरह आज भी सर्दी की सुबह ओस से नहाई हुयी है. आसमान साफ़ है. धरती इतनी नम है कि सूरज की बढती तपिश के साथ उसकी नमी सोंधा पन लिए हवा में तैर रही है.बगीचे की हर प्राकृतिक अप्राकृतिक चीज़ चमक रही है. जैसे सब को खूब रगड़ रगड़ के धोया गया हो चमकाया गया हो.बगीचे में हर रोज आते जाते अपने ही क़दमों से बनी लीक पर जैसे ही आज सुबह पहला कदम पड़ता है.चिपचिपी मिट्टी तलुओं में चिपक जाती है और गीली मिट्टी की परत दर परत पैर को भारी करती चली जाती हैं.पैर पहली बार इस बगीचे में ओस की चादर में लिपटी हरी घास का पथ नहीं ढून्ढ पा रहे हैं .और जहां थोड़ी बहुत घास की कतरने दिखती भी, वहाँ दिल दिमाग घास के मैला हो जाने के डर से मिटटी से सने पैरों को रोक देता.बगीचे में खिले सबसे सुन्दर  फूल को जैसे ही महसूसने के लिए हाँथ बढाता कांटे झट से आगे आ जाते. कांटे की चुभन एहसास दिलाती है कि यह वही फूल है जिसकी पौध कुछ सालों पहले लगायी गयी थी.उस घने पेड़ के नीचे पड़ी बेंच गीली है.झूलों के पटले भी गीले हैं उनकी जंजीरें जंग से लाल हो रही हैं.  बगीचे के माली काका की घूरती आँखें विचलित कर रही हैं .
हर लम्हा हर कदम हर द्रश्य अजनबी सा लग रहा था .कहीं कुछ अप्रिय घटित होने के संकेत भी नहीं मिल रहे हैं. . 

रविवार, 13 नवंबर 2016

इत्ती सी ख़ुशी, इत्ती सी हंसी, इत्ता सा टुकड़ा चाँद का...


जो बात, जो चीज़ हम बड़ों के लिए "इत्ती सी" इत्ता सा..सा.. हो जाता है, वही "इत्ती सी" बच्चों के लिए बहुत सुकून देता है। ओमी के स्कूल बचपन प्ले स्कूल में जब "इत्ती सी ख़ुशी, इत्ती सी हंसी, इत्ता सा टुकड़ा चाँद का" गाने पर ओमी सहित बच्चों ने थिरकना चालू किया, तो आँख भर आई। आँख इस लिए नहीं भर आयी कि अपना बच्चा अब स्कूल फंक्शन में डांस करने लायक हो गया है। आँख इस लिए भर आई, कि हम बड़े ज्यादा की चाह में "इत्ती सी" के मायने भूल जाते हैं। बच्चे बर्फी मूवी के इस गाने के मायने ज़रूर नहीं जानते हैं, लेकिन इत्ती सी को इत्ता सा समझने के लिए परिपक्व हैं। शायद बच्चे इत्ते से को भरपूर जीते हैं, और इत्ते से के टुकड़े को भरपूर जी कर ही इत्ता सा... सा की चाह को ज़ाहिर करते हैं। बच्चे निश्छल इसलिए ही होते हैं क्यों कि उनके अंदर वर्तमान भरपूर जीने की लालसा होती है। हम कितने ही अवसर इत्ता सा..सा की चाह में इत्ते से की रूमानियत को जाने देते हैं। बच्चों को हम उतना ही सिखा पाते हैं जितना हम जानते हैं, लेकिन बच्चे हमें हमारे जानने और न जानने से परे का सीखा जाते हैं। बस हमें उनसे सीखना आना चाहिए, और हमें उनसे सीखने के लिए तैयार रहना चाहिए। बच्चों ने उतना ही किया जितना उनको रटाया गया था, लेकिन इस छोटी सी उम्र (2 से 4 साल) में उन्होंने जितना जिया, उतना भरपूर जिया। हां भरपूर, भरपूर हमारी समझ की मोहताज़ नहीं होती। भरपूर होने और न होने के नुक्सान फ़ायदे के पीछे के नाटकीय व्यवहार के कारण भरपूर पूर नहीं हो पाता। बच्चे भरपूर जीने के हकदार हैं उनको हमें इस जीने में रोकने का कोई अधिकार नहीं।

गुरुवार, 10 नवंबर 2016

कुछ दिन रहिये न बिना लक्ज़री के !

क्या हुआ, हज़ार पांच सौ के नोट ही तो बंद हुए हैं। ज़िन्दगी थम गयी ? साँसे भी क्या ? पैसों की गर्माहट नहीं महसूस हो रही अब ? उन नोटों का हम क्या करते थे। रखे ही तो रहते थे। ठहरने देते थे उन्हें अपने जेब में, संदूक में, घर की अलमारी के किसी कोने में, कपड़ों के बीच, किताबों के बीच। छुपा देते थे कुछ बड़े नोट। ये बड़ा होना ही जिंदगी को सुरक्षित रखने के लिए काफी है क्या ? यदि ऐसा होता तो वो सब सुरक्षित होते जिनके पास बड़े बड़े नोट थे या हैं। लक्ज़री और जीवन यापन में बहुत बड़ा अंतर है। वो बड़े नोट टूट के क्या हो जाते थे, 100 के , 50 के, 20 के नोट और सिक्के। जब लक्ज़री का काकस टूटता है तब कम से कम दिखाई देने लगता है। कम से कम समय में ज्यादा से ज्यादा लूट भगदड़ पैदा कर देती है। ऐसा लगता है जैसे सब बराबरी पर आ गए। वो जो छुपे हुए कुछ की हेकड़ी अब बेबसी बन गयी। जो जितना ज़्यादा लक्ज़री में था उसे उतना ही कष्ट हुआ। ऐसा लगा जैसे पूरा देश इन 500 और 1000 में अटका हुआ था। अर्थशास्त्रियों की नज़रों में ये गुणा गणित का विषय है। पर ये सही हुआ शायद। फ़िल्मी सितारों से लेकर जमीन पर अपने फायदे के लिए जिबह कर देने वाले  सेठों के जेब में बड़े बड़े नोट रद्दी हो गए। नहीं फर्क पड़ा ज़्यादा जो शायद कभी महीने में देख पाते हों बड़े बड़े नोट, बड़े बड़े सपने। नहीं फर्क पड़ा उन्हें जो आज भी गेहूं के बदले राशन लाते हैं। नहीं फर्क पड़ा उन्हें जिन्हें उतने पैसों के लिए कुछ न कुछ गिरवी रखना पड़ता था ऐन वक़्त पर।
    लक्ज़री के दो प्रमुख सुख होते हैं, पहला खुद की आराम और दूसरा दूसरे से अपने को बेहतर स्थिति में महसूस करने का सुख। दोनों ही धड़ाम हो गए। बेचैनी हुयी तो निकले सड़क पर, बैंकों में एटीएम पर,अपने से छोटे ओहदे वाले से भी अब पैसे मांगने में कोई झिझक नहीं। वक़्त है ये। गुल्लकों के मायने ही बदल गए। गुल्लकों में भी रखे 500 और 1000 के नोटों ने परेशान कर दिया, है न ? जो इसे आर्थिक तंगी कहते हैं उनके लिए यह तंगी हो सकती है। लेकिन आर्थिक गुलाम होने का ये तंगी एहसास जरूर दिला गया। तक़लीफ़ तो होगी ही। तक़लीफ़ सहने के आदि हैं हम लेकिन तक़लीफ़ भी दर्ज़ की होनी चाहिए। न सुनने की आदत भी नहीं है हममें। फिर वह न हमसे किसी छोटे से आये फिर तो बिलकुल भी बर्दाश्त नहीं। अब सिर्फ न की गूँज है। बेबसी ऐसी कि एक कमज़ोर की न भी बहुत भारी लगने लगी। क्या करियेगा न है तो है। आप जबरदस्ती उस न को हां में बदलने की लक्ज़री खो चुके हैं। समुद्र में पेयजल की कमी खले तो सहज उपलब्ध पानी की वक़त जान मिले। रोक के देखिये इस तक़लीफ़ में कुछ दिन अपने आपको, फिर देखिये ये तंगी तंगी नहीं दिखेगी। रोज़ा है ये अर्थ का। महसूस करिये इसे। सब बंद होना चाहिए किसी एक दिन। पानी,खाना,बिजली,बिस्तर,घर,बाज़ार, व्यापार,आँख,कान,मुंह,दिन,रात,सुबह,शाम। ब्रेक थ्रू साबित होगा।कुछ दिन रहिये न बिना लक्ज़री के।

बुधवार, 9 नवंबर 2016

फ़िर वही मौसम, पर हरारत नयी

गुलाबी मौसम का खिलना ख़ुशनुमा ही हो, ऐसा ज़रूरी तो नहीं। मौसम भीतर का बाहर से मेल खाना ही ज़रूरी है। बाहर के मौसम में सर्द और ताज़ी हवाएँ हैं। भीतर कुछ पुराना सड़ रहा है। ये मौसम का गुलाबी पन हरारत की तरह आया है। भीतर और बाहर की असमानताएं क्या ही खुशनुमा होंगी। धुंध बढ़ी है, धुएं के गुबार हैं जो जम गए हैं, तुम्हारी बेरुखी की शक्ल में। बहुत सख्त सा सफ़ेद घना दम घोंटने वाला कुछ साँसों को रोक रहा है। देंह का ताप लगातार बढ़ रहा है। मौसम वैसा ही है जैसा इससे पहले आया था झूम के तुम्हारे साथ। इस बार तुम्हारे बगैर मौसम तुम्हारे लिए मौसम वैसा ही होगा कुछ कुछ मेरे लिए हरारत नयी है। वो धुंध अनिश्चितता की है जिसे ख़त्म होते मैं नहीं देखता। तुम्हारे लिए ये हरारत अब बेइमानी है। मेरी हरारत तुम्हारी दी हुयी सौगात है। 
तुम्हारी नमी के सूखते ही ... !

कितने बरस से बंद दरवाज़ों के ताले तुमने अपने हांथों से आहिस्ता आहिस्ता खोले थे। उन हांथों में झिझक नहीं थी, डर भी नहीं था, तुम्हारे तमाम अनुभवों की महारत थी। तुमने बड़े ही हक़ से उन बंद दरवाज़ों को उम्मीदों की रिहाइश बनायी थी। उम्मीदें जिनमें तुम्हारा होना हो और उसका जीना। तुमने उसे बताया कि जीना सिर्फ जीना भर नहीं होता। जीना होता है, रम जाना, खो जाना और अपने होने में इतना डूब जाना फिर जीना जद्दोजहद न रहे, जीना आकाश हो जाये, जीना पंख हो जाए, जीना चाहना हो जाए। तुम उसमें जान भरने लगीं। अब वो अपने बरसों पुराने जीने के भ्रम के आवरण से निकल रहा था। तुम उसे सेय रही थीं,लाड़ से दुलार से। उस नए उगते जीवन को कितनी ऊंचाई पर जाना है,कहाँ से वापस आना है, कहाँ कितनी तपन है,कहाँ कितनी ठंढक। तुमने उसके रोम रोम को भर दिया, उसको यकीन होने लगा कि हो न हो यही जीवन है। वो दिन रात जीवन जीने की कला सीख रहा था। लेकिन तुमसे होते हुए। तुम्हारे स्पर्श, तुम्हारी साँसों की गर्मी, तुम्हारे नज़रिये, तुम्हारी निश्छल सी लगने वाली प्रेम की बेल, उसे रोज़ एक हाँथ बढ़ा रही थी। तुम उसकी नज़र बन गयी थीं, तुम उसकी रूह पर सवार थीं।
     तुम उड़ने देना चाहती थी उसे। जिससे वो उड़ना सीखे, और उड़ा के वो तुम्हें कहीं दूर ले जाए। जहां से तुम्हारे मीलों फैले अँधेरे अतीत की लताएँ सूखी बिखरी पड़ीं थीं। तुम उसे बीच बीच में छोड़ देतीं ये परखने के लिए, कि क्या वो तुम्हे उड़ा ले जाने के क़ाबिल हुआ भी है कि नहीं। गिरते उठते ही उसके कंधे मज़बूत हो रहे थे। तुम्हें डर था, ज़रा भी कंधे कमज़ोर हुए तो वो सूखी बिखरी लताएँ तुम्हारा पीछा करेंगी, और फिर से हरी होने लगेंगी। वो तुम्हारी ही नमीं और बेधड़क फैलाव की प्रवृत्ति से हरी होने लगेंगी। लताओं को बस नमी भर की ज़रूरत होती है। और नमी तुम्हारी कमज़ोरी।
   तुम डरती तो नहीं किसी से, ये तुमने जीने के अभ्यास में कई बार बताया था उस नए जीवन को। लेकिन फिर भी तुम उस अतीत के अँधेरे से डर के भाग रही थीं। और वो तुम्हारा पीछा कर रही थीं। दर असल वो अतीत हुआ तभी उसे अतीत कहा भी कई बार तुमने। क्या सच मुच वो अतीत है, या अतीत के आघात का डर, वर्तमान ?
   नया जीवन अपरिपक्व कन्धों पर तुम्हें बैठाये उड़ता जा रहा था। बेफिक्र तुम्हारे होने के एहसास के साथ। तुम्हारी देंह उड़ रही थी, उन कन्धों पर, पर तुम्हारी रूह कंपन करती हुयी कुछ आहट महसूस करती। तुम और तेज़ी से हांकती उन कन्धों को। और तेज़ और तेज़। हवा से बात करतीं तुम्हें दूर ले जाने की ख्वाहिश लिए वो कंधे। तुम्हारी तेज़ी और उन कन्धों की रफ़्तार में पल भर से अंतर शुरू होता हुआ, पल पल बढ़ने लगा। वो कंधें इस तेज़ी को समझ नहीं पाये। वो कंधे हारे नहीं थे, वो अचानक जमीन पर आकर रेंगने लगे। उनमें भरी हुयी हवा जो हलके होकर उन्हें उड़ा ले जा रही थी, वो हवा अचानक भारी हो चली थी। तुमने पलट कर देखा, बार बार देखा, तुम बहुत आगे निकल चुकीं थीं। तुम्हें वो सूखी लताएँ घेरने के लिए व्याकुल थीं। वो कंधें जिन्हें तुम पीछे छोड़ आयीं थीं वो तुम्हारे भीतर उस नमी को पाने के लिए बेकरार थे। जिनमें तुमने जीवन भरा था। 

मंगलवार, 8 नवंबर 2016

एक चाय तुम्हारे साथ, एक तुम्हारे बगैर


चाय पियोगी ? कितने दिन हो गए झगड़ा करते हुए, मैं तुम और तुम मैं करते हुए। न न यहां मत बैठो, वहाँ बैठो मेरे ठीक सामने। हाँ शायद चाय बहाना हो तुमसे ठहर के बात कर लेने का।
 .... भैया दो चाय बनाना। कड़क पत्ति, दूध कम खूब खौला लीजियेगा। अदरक डाल दीजियेगा थोड़ी सी ज्यादा, मैडम के गले में ख़राश रहती है। समय ले लीजियेगा खूब चाय अच्छी बनने तक। दूध की सफेदी मर जाये तब तक खौलाईयेगा। और हाँ चाय कप में नहीं चलेगी। सफ़ाई का तकाज़ा है, हालाँकि बातों की सफाई देते देते थक गएँ हैं हम दोनों ही।
..... वाह रंगत तो चाय की वैसी ही है जैसे तुम्हे पसंद है। है न ? अरे अरे चाय इतनी जल्दी ख़त्म ? चाय इतनी अच्छी लगी कि ख़त्म ! हां याद आया तुम्ही तो कहा करती थीं जो तुम्हें अच्छा लगता है तुम उसे जल्दी ख़त्म कर देती हो। जो तुम्हे अच्छा नहीं लगता उसे तुम हाँथ भी नहीं लगाती।
.....  भैया चाय एक ही दी आपने ?
"हां मैंने सोचा आप दोनों चाय एक साथ थोड़ी न पी लेंगे। एक और लेंगे चाय ? "

.... हाँ, भैया बना दो, वो तो ठण्डी हो गयी, लेकिन चाय वैसी ही बनी थी।
..... इस बार चाय में अदरक ज़्यादा, दूध डाल दीजियेगा ज्यादा, पत्ति रखियेगा। लेकिन चाय थोड़ी सी सफ़ेद रखना।
.....  दो स्वाद जी रहा हूँ मैं आज कल, एक ख्वाब का एक हक़ीक़त का। 

सोमवार, 7 नवंबर 2016

कि ज़िन्दगी थमी सी है


छोड़ देता हूँ मैं वो सब
जिसका मैं इंतज़ार करता हूँ

स्टेशन पर गाड़ियों का इंतज़ार करके
जाने देता हूँ उन्हें आँखों के सामने से

बेसाख़्ता भागते भागते दिन भर
मैं रात का साथ छोड़ देता हूँ

रात बेसब्र सीले बिस्तर से गुजर
मैं सुबह का साथ छोड़ देता हूँ

छोड़ता, छोड़ता आती आती ज़िन्दगी
मैं ज़िन्दगी से उम्मीद छोड़ देता हूँ

बड़ा लंबा है और गाढ़ा भी तेरा इंतज़ार
कि अब ज़िन्दगी थमी सी है





मैं आ रहा हूं ... #imamdasta

  जो सिनेमा हमारे नज़दीक के थिएटर या ओ टी टी प्लेटफार्म पर पहुंचता है । वह हम दर्शकों को तश्तरी में परसा हुआ मिलता है । 150 से लेकर 600 रुपए...