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गुरुवार, 17 नवंबर 2016


अजनबी सा सब कुछ

बगीचे के सभी फूल खिले हुए हैं. रोज की तरह आज भी सर्दी की सुबह ओस से नहाई हुयी है. आसमान साफ़ है. धरती इतनी नम है कि सूरज की बढती तपिश के साथ उसकी नमी सोंधा पन लिए हवा में तैर रही है.बगीचे की हर प्राकृतिक अप्राकृतिक चीज़ चमक रही है. जैसे सब को खूब रगड़ रगड़ के धोया गया हो चमकाया गया हो.बगीचे में हर रोज आते जाते अपने ही क़दमों से बनी लीक पर जैसे ही आज सुबह पहला कदम पड़ता है.चिपचिपी मिट्टी तलुओं में चिपक जाती है और गीली मिट्टी की परत दर परत पैर को भारी करती चली जाती हैं.पैर पहली बार इस बगीचे में ओस की चादर में लिपटी हरी घास का पथ नहीं ढून्ढ पा रहे हैं .और जहां थोड़ी बहुत घास की कतरने दिखती भी, वहाँ दिल दिमाग घास के मैला हो जाने के डर से मिटटी से सने पैरों को रोक देता.बगीचे में खिले सबसे सुन्दर  फूल को जैसे ही महसूसने के लिए हाँथ बढाता कांटे झट से आगे आ जाते. कांटे की चुभन एहसास दिलाती है कि यह वही फूल है जिसकी पौध कुछ सालों पहले लगायी गयी थी.उस घने पेड़ के नीचे पड़ी बेंच गीली है.झूलों के पटले भी गीले हैं उनकी जंजीरें जंग से लाल हो रही हैं.  बगीचे के माली काका की घूरती आँखें विचलित कर रही हैं .
हर लम्हा हर कदम हर द्रश्य अजनबी सा लग रहा था .कहीं कुछ अप्रिय घटित होने के संकेत भी नहीं मिल रहे हैं. . 

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