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बुधवार, 9 नवंबर 2016

फ़िर वही मौसम, पर हरारत नयी

गुलाबी मौसम का खिलना ख़ुशनुमा ही हो, ऐसा ज़रूरी तो नहीं। मौसम भीतर का बाहर से मेल खाना ही ज़रूरी है। बाहर के मौसम में सर्द और ताज़ी हवाएँ हैं। भीतर कुछ पुराना सड़ रहा है। ये मौसम का गुलाबी पन हरारत की तरह आया है। भीतर और बाहर की असमानताएं क्या ही खुशनुमा होंगी। धुंध बढ़ी है, धुएं के गुबार हैं जो जम गए हैं, तुम्हारी बेरुखी की शक्ल में। बहुत सख्त सा सफ़ेद घना दम घोंटने वाला कुछ साँसों को रोक रहा है। देंह का ताप लगातार बढ़ रहा है। मौसम वैसा ही है जैसा इससे पहले आया था झूम के तुम्हारे साथ। इस बार तुम्हारे बगैर मौसम तुम्हारे लिए मौसम वैसा ही होगा कुछ कुछ मेरे लिए हरारत नयी है। वो धुंध अनिश्चितता की है जिसे ख़त्म होते मैं नहीं देखता। तुम्हारे लिए ये हरारत अब बेइमानी है। मेरी हरारत तुम्हारी दी हुयी सौगात है। 

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