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गुरुवार, 10 नवंबर 2016

कुछ दिन रहिये न बिना लक्ज़री के !

क्या हुआ, हज़ार पांच सौ के नोट ही तो बंद हुए हैं। ज़िन्दगी थम गयी ? साँसे भी क्या ? पैसों की गर्माहट नहीं महसूस हो रही अब ? उन नोटों का हम क्या करते थे। रखे ही तो रहते थे। ठहरने देते थे उन्हें अपने जेब में, संदूक में, घर की अलमारी के किसी कोने में, कपड़ों के बीच, किताबों के बीच। छुपा देते थे कुछ बड़े नोट। ये बड़ा होना ही जिंदगी को सुरक्षित रखने के लिए काफी है क्या ? यदि ऐसा होता तो वो सब सुरक्षित होते जिनके पास बड़े बड़े नोट थे या हैं। लक्ज़री और जीवन यापन में बहुत बड़ा अंतर है। वो बड़े नोट टूट के क्या हो जाते थे, 100 के , 50 के, 20 के नोट और सिक्के। जब लक्ज़री का काकस टूटता है तब कम से कम दिखाई देने लगता है। कम से कम समय में ज्यादा से ज्यादा लूट भगदड़ पैदा कर देती है। ऐसा लगता है जैसे सब बराबरी पर आ गए। वो जो छुपे हुए कुछ की हेकड़ी अब बेबसी बन गयी। जो जितना ज़्यादा लक्ज़री में था उसे उतना ही कष्ट हुआ। ऐसा लगा जैसे पूरा देश इन 500 और 1000 में अटका हुआ था। अर्थशास्त्रियों की नज़रों में ये गुणा गणित का विषय है। पर ये सही हुआ शायद। फ़िल्मी सितारों से लेकर जमीन पर अपने फायदे के लिए जिबह कर देने वाले  सेठों के जेब में बड़े बड़े नोट रद्दी हो गए। नहीं फर्क पड़ा ज़्यादा जो शायद कभी महीने में देख पाते हों बड़े बड़े नोट, बड़े बड़े सपने। नहीं फर्क पड़ा उन्हें जो आज भी गेहूं के बदले राशन लाते हैं। नहीं फर्क पड़ा उन्हें जिन्हें उतने पैसों के लिए कुछ न कुछ गिरवी रखना पड़ता था ऐन वक़्त पर।
    लक्ज़री के दो प्रमुख सुख होते हैं, पहला खुद की आराम और दूसरा दूसरे से अपने को बेहतर स्थिति में महसूस करने का सुख। दोनों ही धड़ाम हो गए। बेचैनी हुयी तो निकले सड़क पर, बैंकों में एटीएम पर,अपने से छोटे ओहदे वाले से भी अब पैसे मांगने में कोई झिझक नहीं। वक़्त है ये। गुल्लकों के मायने ही बदल गए। गुल्लकों में भी रखे 500 और 1000 के नोटों ने परेशान कर दिया, है न ? जो इसे आर्थिक तंगी कहते हैं उनके लिए यह तंगी हो सकती है। लेकिन आर्थिक गुलाम होने का ये तंगी एहसास जरूर दिला गया। तक़लीफ़ तो होगी ही। तक़लीफ़ सहने के आदि हैं हम लेकिन तक़लीफ़ भी दर्ज़ की होनी चाहिए। न सुनने की आदत भी नहीं है हममें। फिर वह न हमसे किसी छोटे से आये फिर तो बिलकुल भी बर्दाश्त नहीं। अब सिर्फ न की गूँज है। बेबसी ऐसी कि एक कमज़ोर की न भी बहुत भारी लगने लगी। क्या करियेगा न है तो है। आप जबरदस्ती उस न को हां में बदलने की लक्ज़री खो चुके हैं। समुद्र में पेयजल की कमी खले तो सहज उपलब्ध पानी की वक़त जान मिले। रोक के देखिये इस तक़लीफ़ में कुछ दिन अपने आपको, फिर देखिये ये तंगी तंगी नहीं दिखेगी। रोज़ा है ये अर्थ का। महसूस करिये इसे। सब बंद होना चाहिए किसी एक दिन। पानी,खाना,बिजली,बिस्तर,घर,बाज़ार, व्यापार,आँख,कान,मुंह,दिन,रात,सुबह,शाम। ब्रेक थ्रू साबित होगा।कुछ दिन रहिये न बिना लक्ज़री के।

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