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बुधवार, 9 नवंबर 2016

तुम्हारी नमी के सूखते ही ... !

कितने बरस से बंद दरवाज़ों के ताले तुमने अपने हांथों से आहिस्ता आहिस्ता खोले थे। उन हांथों में झिझक नहीं थी, डर भी नहीं था, तुम्हारे तमाम अनुभवों की महारत थी। तुमने बड़े ही हक़ से उन बंद दरवाज़ों को उम्मीदों की रिहाइश बनायी थी। उम्मीदें जिनमें तुम्हारा होना हो और उसका जीना। तुमने उसे बताया कि जीना सिर्फ जीना भर नहीं होता। जीना होता है, रम जाना, खो जाना और अपने होने में इतना डूब जाना फिर जीना जद्दोजहद न रहे, जीना आकाश हो जाये, जीना पंख हो जाए, जीना चाहना हो जाए। तुम उसमें जान भरने लगीं। अब वो अपने बरसों पुराने जीने के भ्रम के आवरण से निकल रहा था। तुम उसे सेय रही थीं,लाड़ से दुलार से। उस नए उगते जीवन को कितनी ऊंचाई पर जाना है,कहाँ से वापस आना है, कहाँ कितनी तपन है,कहाँ कितनी ठंढक। तुमने उसके रोम रोम को भर दिया, उसको यकीन होने लगा कि हो न हो यही जीवन है। वो दिन रात जीवन जीने की कला सीख रहा था। लेकिन तुमसे होते हुए। तुम्हारे स्पर्श, तुम्हारी साँसों की गर्मी, तुम्हारे नज़रिये, तुम्हारी निश्छल सी लगने वाली प्रेम की बेल, उसे रोज़ एक हाँथ बढ़ा रही थी। तुम उसकी नज़र बन गयी थीं, तुम उसकी रूह पर सवार थीं।
     तुम उड़ने देना चाहती थी उसे। जिससे वो उड़ना सीखे, और उड़ा के वो तुम्हें कहीं दूर ले जाए। जहां से तुम्हारे मीलों फैले अँधेरे अतीत की लताएँ सूखी बिखरी पड़ीं थीं। तुम उसे बीच बीच में छोड़ देतीं ये परखने के लिए, कि क्या वो तुम्हे उड़ा ले जाने के क़ाबिल हुआ भी है कि नहीं। गिरते उठते ही उसके कंधे मज़बूत हो रहे थे। तुम्हें डर था, ज़रा भी कंधे कमज़ोर हुए तो वो सूखी बिखरी लताएँ तुम्हारा पीछा करेंगी, और फिर से हरी होने लगेंगी। वो तुम्हारी ही नमीं और बेधड़क फैलाव की प्रवृत्ति से हरी होने लगेंगी। लताओं को बस नमी भर की ज़रूरत होती है। और नमी तुम्हारी कमज़ोरी।
   तुम डरती तो नहीं किसी से, ये तुमने जीने के अभ्यास में कई बार बताया था उस नए जीवन को। लेकिन फिर भी तुम उस अतीत के अँधेरे से डर के भाग रही थीं। और वो तुम्हारा पीछा कर रही थीं। दर असल वो अतीत हुआ तभी उसे अतीत कहा भी कई बार तुमने। क्या सच मुच वो अतीत है, या अतीत के आघात का डर, वर्तमान ?
   नया जीवन अपरिपक्व कन्धों पर तुम्हें बैठाये उड़ता जा रहा था। बेफिक्र तुम्हारे होने के एहसास के साथ। तुम्हारी देंह उड़ रही थी, उन कन्धों पर, पर तुम्हारी रूह कंपन करती हुयी कुछ आहट महसूस करती। तुम और तेज़ी से हांकती उन कन्धों को। और तेज़ और तेज़। हवा से बात करतीं तुम्हें दूर ले जाने की ख्वाहिश लिए वो कंधे। तुम्हारी तेज़ी और उन कन्धों की रफ़्तार में पल भर से अंतर शुरू होता हुआ, पल पल बढ़ने लगा। वो कंधें इस तेज़ी को समझ नहीं पाये। वो कंधे हारे नहीं थे, वो अचानक जमीन पर आकर रेंगने लगे। उनमें भरी हुयी हवा जो हलके होकर उन्हें उड़ा ले जा रही थी, वो हवा अचानक भारी हो चली थी। तुमने पलट कर देखा, बार बार देखा, तुम बहुत आगे निकल चुकीं थीं। तुम्हें वो सूखी लताएँ घेरने के लिए व्याकुल थीं। वो कंधें जिन्हें तुम पीछे छोड़ आयीं थीं वो तुम्हारे भीतर उस नमी को पाने के लिए बेकरार थे। जिनमें तुमने जीवन भरा था। 

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