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शुक्रवार, 1 दिसंबर 2023

WOK !

 


हाय ! 

हेल्लो ! ( लड़के ने अभीवादन स्वीकारते हुए एक मुस्कान से बात खत्म करने की कोशिश की  ) 


लड़की ने सर झुका सिगरेट को कस के उंगलियों के बीच में दबाया। और कान में लगे इयर फोन्स को सुनने लगी । 

सामने के सोफे पर लड़का भी न जाने किस धुन पर पैर हिलाता रहा । 


धीरे धीरे शेयर इन कैफे में लड़कों की आमद बढ़ती रही । 

लड़की बिंदास कश पर कश लगाए उन नयन बंकुड़ो को इग्नोर करती रही । 

शेयर इन कैफे का नाम तो शेयर से ही पड़ा हो शायद । पर छोटे शहर के कैफे की क्षमता किसी लड़की को सोफे पर लड़कों की तरह सुट्टा मारते देखने की अभी नई पनपी थी । 

व्हेयर आर यू फ्रॉम ? लड़की ने सामने बैठे लड़के से पूछा । 

लड़के ने जवाब दिया । हेयर ओनली । 

दोनों एक दूसरे के सामने बैठे मूक अपने अपने आखरी कश तक चुप बैठे रहे । सिगरेट के खत्म होने के कुछ और सेकंड के बाद लड़का उठता है । और लड़की की उठती नजरों से तालमेल बिठा कर । इशारों में पूछता है !

लड़की एक उंगली उठा कर इशारा करके वन मोर की लिप्स रीडिंग करती है । 

लड़का बिना पूछे । अपने ब्रांड की सिगरेट ला कर लड़की की ओर बढ़ा देता है । और लाइटर से उसके होंठ में दब चुकी सिगरेट को जलाने झुक जाता है । उसकी जला कर । अपने सोफे में बैठ जाता है । 

कुछ एक कश के बाद दोनों के बीच बिना किसी आधार के संवाद शुरू हो जाता है।  

उस शाम की आखरी सिगरेट को खत्म होते होते । दोनों एक दूसरे का नाम , काम और कॉन्टैक्ट नंबर शेयर कर चुके थे । उन्हें याद रहा किस तरह कुछ लड़के कैसे घेर के तेज तेज बातें करने लगे थे । 


दोनों अपने अपने रास्ते घर को चल दिए थे । दूसरे दिन शाम को लगभग उतने ही समय दोनों फिर शेयर इन में होते हैं । दोनों की सिगरेटों के साथ लड़की कुछ कुछ गाली के साथ खुलती है । जैसे उसके भीतर से किसी ने तेज़ाब उड़ेल दिया हो । वो खुल के रोती रही उन दो सिगरेट के बीच । 

छोटे शहर के संस्कार उसे जीने नही दे रहे थे । और बड़े शहरों का ताप उसे बर्दास्त नही हो रहा था । 

उसे वाकई शेयर इन के लम्हे भावुक कर रहे थे । जैसे उस शहर में उसे कोई सुनने वाला ही न बचा हो पीछे। 

लड़का सतर्क रहता । वो पहले भी ऐसी कई जिंदगियों में प्रवेश कर चुका था । जहां से निकलने का रास्ता सिर्फ किसी एक के लिए होता है । दूसरा डूब ही जाता है । 

  दोनों के बीच संदेशों का आदान प्रदान चलता रहता है । लड़की मास कॉम की छात्रा है । और शहर की ऊट पतंग जिंदगी से आज़ीज़ आ कर इस तरफ रुख की थी ।और लड़का अधेड़ उम्र का शादी शुदा बच्चे वाला । इन तथ्यों को उजागर होने की गुंजाइश दोनों ने नही छोड़ी थी । दोनों के व्यक्तिगत जीवन में क्या चल रहा है । इन बातों से इतर लिखने लिखाने की बातें होती रही । 

    लड़की को लिखने की जरूरत लड़के को जरूर महसूस होती । वो बार बार लड़की से जीवन की पहेलियों को लिखने के लिए बोलता । एक दिन लड़की ने कुछ अंग्रेजी में लिख कर भेजा था । " वोक " । इस शब्द के अर्थ और उसके नीचे लिखी पंक्तियां लड़के के समझ से बाहर थी । लड़के को अंग्रेजी बहुत कम आती थी । पढ़ने की कई बार कोशिश की । पर उस लिखे का अर्क समझ आ गया था उसको । उसने कुछ आखरी पंक्तियों पर टिप्पणी कर जता दिया कि उसने पढ़ा है । 

लड़के को पढ़ना एक दम पसंद नही था । पढ़ने से चीजें गहरे उतरती हैं । और चोट करती हैं । पर लिखने से ? 


इस पढ़ने लिखने के चक्कर में दोनों बात करने के मौके तलाशते । कभी कभी सिगरेट या लड़की को भाषा में ड्रैग पर भी चर्चा होती । दोनों ने शेयर इन कैफे जाना छोड़ दिया था । 

लड़की की गाली से भरी बातें , सिगरेट का हक से सिगरेट पीना और दुनियादारी की परवाह न करना । लड़के को भाता था । लड़की को उसको उकसाने वाला चाहिए था । जो उसको उस ज़िंदगी से बाहर निकालने के लिए झकझोर दे।  


वो बताती थी । उसके घर वालों ने उसका निकलना बंद कर दिया है । और तमाम सारी बंदिशें थोप दी गई उसके ऊपर । लड़की के इर्द गिर्द पुरुषों का समाज ऐसे ही दिखता था । लड़कों के व्यवहार में लड़कियां अच्छी नहीं लगती । फिर भी वह बाहर निकलती है । जिमजाती है । और दिन प्रतिदिन प्रतिरोध जताती । 


क्रमशः ....

गुरुवार, 9 नवंबर 2023

प्रिय तुम !



जब तुमने जन्म लिया था । तो तुमको बहुत देर छूने से गुरेज़ करता रहा । बहन ने रख दिया था । तुम्हे मेरे हाथों में । अपनी पतले हाथों की हड्डियों पर मैं तुम्हे महसूस कर रहा था । मुझे डर लग रहा था । मेरे हड्डियों वाले हाथ तुम्हे कहीं तकलीफ न दे।  मैं तुम्हे टेलीफोन की उन तरंगों से बचा लेना चाहता था । जो लगातार मेरे मोबाइल में बज रहा था । मुझे याद है । तुम्हे मैने कई घंटों बाद छुआ था । 

तुम्हारी तस्वीर कहीं होगी । पर मेरे दिमाग में उस चित्र की कोमलता महसूस होती है हमेशा । 

इन दिनों तुम कई मोर्चों से लड़ रहे हो । क्रिकेट वाला मोर्चा सबसे कमज़ोर पड़ जाता है । पढ़ाई में तुम्हारा मन नहीं लगता । ये बात कुछ तकनीकी पचड़े में पड़ के नेपथ्य में जाती रही है।  

मुझे अफसोस है । कि मैं तुम्हारी डायरियां चुपके से पढ़ लेता था । फिर भी मैं तुम से सामंजस्य नहीं बैठाल पा रहा हूं। शायद यही कारण हो । तुम्हे तुम्हारी मन की बात जान कर उस पर तीखी प्रतिक्रियाएं तो दी हैं । बगैर तुम्हे जताए कि मैं तुम्हारी डायरी पढ़ता हूं ।

तुम्हारी हर झूठ के पीछे मै अपने भीतर टटोलने लगता हूं।  अपने आस पास के वातावरण को देखने लगता हूं।  तुम बहुत तेज़ी से बड़े हो रहे हो । तुम बड़े हो रहे हो । इस बात का एहसास हम हमेशा तुम्हे कराते रहते हैं।  पुरुष होने के नाते मैं तुम्हारे शरीर में हो रहे बदलावों को महसूस करता हूं।  तुम्हारी मनः स्थिति कुछ कुछ समझ आती है । समय का बीतता हर लम्हा तुम अपनी मुठ्ठी में गेंद बना कर खेलना चाहते हो । मुझे तुम खेलते हुए बहुत सुंदर लगते हो।  मेहनत करते हुए । अपने हम उम्र के साथ दौड़ते भागते हुए । कुछ बंदिशों को तो शाम का एक घंटा भी बहुत हल्का लगता है । 

तुम्हारी ट्रेन की दिवानगी देखी है मैने । महसूस की है बहुत । तभी मैं पिछले कुछ सालों से स्टेशन , ट्रेन , आती जाती आवाज़ें , रेल का एक लंबा सफर मिस करता हूं । तुमने तो बहुत किया होगा । तुम्हारे जन्म का समय हमारे सबसे खराब दिनों में पूरे परिवार को बांधे रखा है । एक बड़े से परिवार का टूटना जड़ों को हिला देता है ।  उस हिलते , डुलते हिंडोले में कोरोना । तुम बढ़ते हुए रोज कई कहानियों से गुजर रहे होते हो।  मम्मा की , पापा की , दादा दादी की । और चाचा ताऊ अंतहीन रिश्तों की कहानियां तुम्हे सुनाई देती होंगी । उन कहानियों में तुम्हारे कानों ने क्या सुना होगा । वो केवल तुम ही जानते पहचानते होगे।  

हमारे समाज में पिता के सामने बोलना , मां के सामने बोलना और बड़ों से बात करना बहुत सिखाया जाता है । चौबीस घंटे में हर बड़ा कुछ न कुछ नसीहते दे रहा होता है । डांट से , मार से , भय से बाहुबल से तुम्हे दबाने की कोशिश कर रहे होते हैं हम । प्यार की आड़ में । तुम्हारे ख्याल के सार्टिफकेट तुम्हे दिखाते । 

मैने भी कई बार आपा खोया है । तुम्हारे शरीर पर मेरे बल के निशान बहुत समय तक मेरी देह को महसूस होते हैं ।हम सब अपने अपने हारने की खीझ को कहीं न कहीं जाया कर रहे हैं । तुम्हारी ऊर्जा का जवाब हमारे किसी के पास नही है । 

तुम्हारे किशोरावस्था में प्रवेश का दिन तारीख तो नही निश्चित है । पर कहीं से तो तय करना पड़ेगा । तुम्हारे जन्मदिन के तोहफे के रूप में तुम्हे कुछ ऐसा दे पाऊं । जो मेरे तुम्हारे बीच के वात को भर पाए । 

मैं हमेशा सोच में रहता हूं । कि तुम से अपने दिल की बातें साझा करूं । पर नही हो पाता । शायद तुम भी कहीं न कहीं अपने पापा को मिस करते होगे।  मैं तुम्हारा बचपना बहुत मिस करता हूं । तुम मुझसे बच्चे बन के कई सारी बातें मनवा लेते हो । पर मैं तुम्हारा बड़ा होना महसूस कर पा रहा हूं। 

तुम्हारे बड़े होते कदमों में कदम ताल कर के हम कोशिश करें अपने स्थापित मापदंडों को पर रख कर । मुझे मालूम है अच्छे जीवन के लिए प्रेम होना जरूरी है । प्रेम से स्फुटित तमाम धाराएं संयोजित होती हैं । मैं भी अभी तुम्हे अपना दोस्त तक न बना पाया । दोस्ती हो तो प्यार हो । 

मैं खुद को अभी इतना बड़ा नही मानता । कि तुम्हे कहूं कि तुम ये बनो , वो बनो । तुम्हारी रुचियों को मैं सुनने की कोशिश करता हूं । उन्हें पुष्पित पल्लवित करने की सोचता हूं । 

बच्चे जो बड़े होने की दहलीज़ को छू रहे हों । उन्हें कंधों की जरूरत होती है।  कंधों की जगह क्रोध से भरी आंखें मिले तो वो क्यों कर महसूस करें ।

मैं तुम्हारे 12 वें जन्मदिन पर हर बार की तरह कुछ नही दे पा रहा हूं । मैं कोशिश करूंगा तुम्हे एक डायरी भेंट करूं ।  कुछ किताबें और लाकर दूं । एक ट्रिप कहीं लंबी ट्रेन वाली उड़ चलें हम साथ । जीवन के मोती चुनने । एक क्रिकेट किट तुम्हे उपहार दे सकूं । 

और सच पूछो । जो किताबें तुम्हारे पास हैं । उन्हें गुरु बनाने के मौके मत छोड़ना । 

तुम्हारे लिए खत लिखना मुझे अच्छा लग रहा है । मैं इस बहाने खुद को टटोल लेता हूं । 


रविवार, 22 अक्तूबर 2023

युद्ध के बाद बुद्ध बन आना !



एक सुबह आंख खुली तो बिग ब्रेकिंग ने दिमाग हिला दिया । फिलिस्तीन के हमास ने इजरायली महोत्सव को मातम में बदल दिया । हर जगह खबरें बिल में से निकल आईं । उस भयंकर हमले ने इजरायल को हिला के रख दिया । इजरायल ने उसी वक्त कहा । कि हम जंग में हैं । 

उस हमले का प्रहार नृशंस था । उसके जवाब में इजरायल का जवाब अंतिम और निर्णायक रहने की आशंका है । युद्ध बीच में छूट जाए । तो घाव ज्यादा तकलीफदेह होते हैं । 

इन दिनों दुनिया के किसी दूसरे हिस्से में डर , दहशत और लाशों के ढेर पर अस्त व्यस्त जिंदगी सड़कों पर है । 

बच्चे , महिलाएं और बुज़ुर्ग असहाय महसूस करते होंगे । कब कहां से मौत का फरमान आ जाए । खाने पीने के लाले । हर जगह कोहराम मचा है । 

पिछले साल एक युद्ध शुरू हुआ, अभी खत्म तक नहीं हुआ । और अब दूसरा । हजारों लोगों की जानें गईं । उन जानों के पीछे रह गए क्षत विक्षत देह शरण के लिए भटक रहे हैं । 

न जाने कितने इजरायलियों को घर द्वार खाली करने पड़ रहे हैं । जितने रॉकेट उतने सायरन । जितने सायरन उतने धमाके । कहीं जमीन पर तो कहीं आसमान में । 

दोनों देशों की तरफ से वार टैक्टिक्स इस्तेमाल की जा रही हैं । एक अत्याधुनिक और एक गुरिल्ला । युद्ध से हम सब बचते हैं । पर दोनों ओर से हथियार उठाने वालों को दिल से सोचने की ट्रेनिंग नही दी जाती।  दिल कमज़ोर होता है । कान, आंख और दिमाग बहुत बल शाली होते हैं । 

पीड़ितों के दिल दहल रहे होंगे । योद्धा आड़ में कहीं खड़ा होगा लड़ने के लिए । दुश्मनों से छिपता । या आम लोगों के बीच में अपनी जगह बना लेना ज्यादा मुश्किल तो नही । दो देश लड़ रहे हैं । एक विशाल भीड़ है । लाखों हांथ हैं । एक एलीट क्लास सेना है । जिनके पास हथियार है । 

भीड़ ने आम जन जीवन में इस्तेमाल होने वाले चीजों को हथियार बना लिया । और जख्म में घरलू नुस्खे । इजरायल का गुस्सा समझ आता है । और फिलिस्तीनियों की कैद । पर दोनों तरफ से नृशंस हमले पूरी मानव सभ्यता पर खतरा हैं । युद्ध हमेशा चलनी वाली शै नही है । दोनों (  एक देश है और एक क्षेत्र है ) युद्ध से उभरेंगे । तो त्रासदियों से भरे दिल में कहीं बुद्ध जन्म ले , कहीं गांधी जन्म ले तो कहीं नेल्सन । 

शुक्रवार, 20 अक्तूबर 2023

प्रिय नाटककार !



प्रिय नाटककार ,

बड़ी ही नज़ाकत से हम आप की परेशानी को खारिज करते हैं । ऐसी परेशानियां हम सब महसूस करते हैं । मुद्रा राक्षसी हंसी लेकर हम सब को दस्ती रहती है। हम छिपाते हैं । जो छिपाते हैं वही काल बन जाता है । नशा काम का हो तो एक बार समझा जा सकता है । मैने आप की अदाकारी देखी है परदे पर । किरदार को ओढ़ना आप को खूब आता है।  आप देखने में एक दम कभी देवा नंद बन जाते हो तो कभी राजेश खन्ना । कभी गुस्सैल, लड़खड़ाते हुए अमिताभ बच्चन वाला रोल आप के जीवन पर आधारित लगता है । 

आप की आर्थिक इंडेक्स के उतार चढ़ाव वाली कहानी रोचक लगती है । या यूं कहें उतार की चढ़ास बे तलब हो लेती है । बहुत नेक दिल हैं आप । पर आप पर आप का नशा सर चढ़ के बोलने लगता है । तब समस्या नाजायज लगने लगती है । 

आप को तो पता होगा पहले कोरोना फिर युद्ध पे युद्ध । ग्लोबलाइजेशन और डिजिटाइजेशन के इस दौर में हमारी जेबें कैसे न प्रभावित हों । पिछले कुछ महीनों से मुझसे मांगने वालों की तादात बढ़ती जा रही है । कुछ को दिया तो वापस नहीं आया । कुछ को वापस न आने समझ दे दिया। बामुश्किल दाल रोटी कमाने वाला भला कितना देगा । 

आप से असमर्थता जता देने के बाद भी आप की मांग मुझे परेशान कर रही है । और मना करना आप के सम्मान को ठेस पहुंचाना साबित होगा । इसलिए आप के बार बार कॉल करने पर भी फोन नही उठाया जा सका । आशा ही नही पूर्ण विश्वास है । कि अब आप मेरा जवाब समझ गए होंगे । पर मांगने के लिए कल कभी जाता नही कहीं । 

मुझे आश्चर्य होता है । जब कोई कलाकार किसी मॉडल शॉप से अपनी किल्लत की दुहाई दे । घर में रोटी न ले जाने का आफोस जताए । 

आप ही के जुबान से मैने आप की नाकामियों को छिपाने के लिए कई झूठ सुने हैं । उन झूठ पर हंस हंस गुलाटियां खाते देखा है । 

आप के भीतर एक अभिनेता, रोज आप की शामों में जागता होगा । सुबह सफेद करने का संकल्प लेता होगा । लेकिन शाम किसी से एडवांस ली गई रकम के धुएं में राख हो चुकी होती है । सुबह ,  शाम के अफसोस के उतार को तलाशती है । मैं बार बार ये अफसोस जाहिर करना चाहता हूं । कि आप की मदद नही कर सकता । हो सके तो मुझे माफ करिएगा । जब कभी इस पत्र से गुजरे तो । अपनी किसी शाम में मुझे शरीक कीजिएगा । 


आप का शुभचिंतक ।

मंगलवार, 17 अक्तूबर 2023

इन दिनों मैं लिए घूमता हूं भगवान !



इन दिनों मैं भगवान लाया हूं

कमरे की छोटी सी अलमारी में 

जो लेने गया था बाज़ार में 

वो तो न मिला 

पर फ्रेम वाली फोटो हनुमान की

कांच का शिवलिंग मिला कस्बे में 


अलमारी में 

किताबे भी रखी हैं नई पुरानी

छिपकलियां घूमती हैं जिसमें

दादी की सील चुकी फ्रेम तस्वीर

के पीछे छिप रहती हैं अक्सर


मैं भगवान के साथ

खूब ढेर सारी धूप , अगरबत्ती 

हवन सामग्री , लोबान , गुग्गल, कपूर 

और कुछ ज्यादा ठंडा करने वाला चंदन

टूटी आम की लकड़ियां सुलगाने 

पिछले महीने लिए खाने वाला घी

काम आया हवन में , 

स्थापना के वक्त


इन दिनों मैं रोज सुबह शाम 

धूप जलाता हूं , घी का दीपक जलाता हूं 

अगरबत्ती सुलगाता हूं 

और कुछ नई स्तुतियां गाता हूं 


मैने सीख लिया है हमारे बीच नहीं रहे

पूर्वजों के आगे धूप जलाना 

अन्य भगवानों के लिए दीप जलाना

कुछ आशीष के आकांक्षा लिए 

हांथ जुड़ते हैं , होंठ बुदबुदाते हैं 


इन दिनों जो में काम कर रहा हूं 

ये कई वर्षों से किया जाता रहा है 

मेरे करीबियों के जीवन में 

मेरे मार्गदर्शकों के घरों में 


घर के उस कोने में छिपकलियां 

अब नही आती , 

मच्छर भी धूप धुएं से 

कम हैं पहले से 


इन सारे उपायों के केंद्र बिंदु में 

मन के भीतर से जब भी कोई 

मांग करता हूं


मन भटक जाता है 

मैं , मेरा परिवार , मेरी संपत्ति 

या अमन चैन

से होता हुआ मन

यात्रा करता है 

मणिपुर , यूक्रेन , रूस , इजराइल 


कितना कुछ है मांगने को 

पर मांगना क्यों ? 

ईश्वर मुझसे कहता है 

मांगना क्यों ? 


मैं बंद कर देता हूं पूजा

कस लेता हूं जूते

निकल पड़ता हूं

लंबी यात्रा पर 

इन दिनों मैं 

भगवान लिए घूमता हूं । 


सोमवार, 25 सितंबर 2023

नासवी !

 


बधाई नासवी ( नेशनल एसोसिएशन ऑफ स्ट्रीट वेंडर्स ऑफ इंडिया ) 

अच्छा लग रहा है । इस विशालकाय संस्था को 25 वर्ष के संघर्ष और सफलता की कहानियों को सुनते हुए । संस्था से जुड़े देश भर के लाखों पटरी दुकानदारों  और संस्था के समस्त कर्मनिष्ठों को शुभकामनाएं । 

     प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से नासवी के जुड़े रहने का मौका मुझे भी कई बार मिला । दिन उगने से लेकर शाम ढलने तक रोज कोई न कोई नई चुनौतियों का सामना नासवी कैसे करती है । इसका अंदाजा संस्था के साथ काम करने के बाद ही पता चलता है । 

      कभी लखनऊ में संस्था के द्वारा आयोजित स्ट्रीट फूड फेस्टिवल के वक्त मेरा इस संस्था को जानने पहचाने का मौका मिला। उसके बाद कई महत्वपूर्ण अवसरों पर संस्था के साथ काम करने का अवसर मिला ।  । संस्था को जितना बारीकी से देखो उसकी जड़ें और गहरी महसूस होती है । मास बॉन्डिंग के लिए दिल में उतरना पड़ता है । 

       देश के पटरी दुकानदारों के लिए इतने वृहद स्तर पर काम करने वाली संस्था शायद ही कोई हो । पटरी दुकानदारों के उन्नयन और उनके अधिकारों की लड़ाई का सिलसिला पिछले 25 वर्षों से लगातार चल रहा है । इनमें अनगिनत कहानियां निहित हैं । पटरी दुकानदारों के कानून से लेकर उनके कौशल और आजीविका को मजबूती देना इस संस्था का अर्क है ।

       किसी छोटी सी नगर पालिका से लेकर महानगर कॉरपोरेट तक । सड़क किनारे बैठे , खड़े पटरी दुकानदारों की स्थिति किसी से छिपी नहीं है ।  उनको देख कर लगता ही नही कि भारत में सड़क की तरफ पक्की दुकानें बढ़ती हैं । मकान बढ़ते हैं । पटरी दुकानदारों के लिए सड़क नही बढ़ती दिखती थी पहले । संस्था ने बड़े ही रणनीतिक तौर पर पटरी दुकानदारों को एकजुट किया । उनकी समस्याओं को सुना । समाधान की संभावनाओं को तलाशा । और उनकी पैरोकारी की ।  

देश के लाखों पटरी दुकानदारों की जुबान पर नासवी एक संघर्ष की दास्तान है । यह उनकी कमाई है । 

संस्था के प्रमुख एवं मजबूत स्तंभ अरबिंद सिंह जी ,  संस्था की बुनकर संगीता जी के साथ संस्था के पदाधिकारी गण , कार्यकर्ता और देश के तमाम पटरी दुकानदारों को बधाई । भविष्य के लिए शुभकामनाएं । 


प्रभात सिंह

बुधवार, 20 सितंबर 2023

हे ईश्वर !



ज ब तुम्हे छोड़ के जाने को होता हूं 

डर लगता है 

डर लगता है उन लम्हों से

जो तुम्हारे बगैर घटने जा रहे होते हैं 

मैं चुपके से आंख बंद करता हूं 

और कुछ बुदबुदाता हूं 

बुदबुदाने को स्पष्ट बताया नही जा सकता

वो हर पल बदल जाता है 

कभी किसी पल 

अपने प्रिय जनों से 

अलविदा कहते अच्छा नही लगता

उन्हें मालूम होता है 

उनका ईश्वर कौन है 

कैसे श्रृंगार , भेष भूषा में 

एक जगह तथस्त दशकों से 

एक ही ईश और बाकी सब

द्वेष , कलेस की बांट जोहते

मेरा ईश्वर और मैं ईश्वर

की संकरी गलियों से होते हुए 

मैं तुम्हे खोज लेता हूं 

मिलते हो शायद अक्सर

रोज़ ही तुम 

फिर भी डर लगता है ! 


गुरुवार, 14 सितंबर 2023

मैं लिखता हूं उम्र !

 मैं लिखता हूं

और बच जाता हूं

उन सवालों से 

जो मुझे मेहनत करने 

को प्रेरित करते हैं । 

मैं खूब लिखता हूं 

सोचता हूं 

बदल दूंगा दुनिया या

चाहर दिवारियों के रंग

मैं लिखता हूं 

जब टूटता हूं 

समाज की जटिल रूपरेखाओं

से थक जाता हूं 

मैं लिखता हूं 

जब मैं कुछ नहीं 

करना चाहता

बैठे बिठाए 

न जाने कौन से कर्म 

या मेहनत को 

मैं लिख रहा होता हूं । 

मैं एक नंबर का 

निठल्ला और झुट्ठा

लेखक हूं 

मुझसे ज्यादा 

थाने का मुंशी

कोर्ट का पेशकार

तहसील का लेखपाल

डाक्टर का पर्चा

और एक छात्र लिखता है ।

मैं लिख कर 

चुनता हूं

सभ्यता और उसके विकास 

को अपनी नजरों में 

तोल लेना चाहता हूं 

मात्र ! 

मैं लिख लिख कर 

मुस्कुराता हूं 

थक जाता हूं 

सो जाता हूं । 

शनिवार, 2 सितंबर 2023

लिखना मेरा काम नहीं !

 


मैं जब लिखने की

कोशिश करता हूं 

पढ़ना याद आता है 

कुछ और कदम बढ़ता हूं

तो लिखना याद है 


मैं न लिख पाता हूं 

न पढ़ पाता हूं 

मैं सोचता हूं 

रोजमर्रा में घट रहे जीवन

मरण की घटनाएं 

न मैं जी पाता हूं 

न मर ही पाता हूं 


मैने देखा है 

पढ़ने लिखने वालों को 

एक क्षण में शब्दों में 

उलझते, डूबते और

डूब जाने को 


वो नही रहते , रहते हैं उनके 

शब्द ताबूत में कील ठोंकते

या उफनादी नदियों के 

वेग में उतराते बच निकलते


जो कह दिया गया

वो खारिज़ हो जाता है 

जो रहता है गहरे मन में 

रोज़ मरने को छोड़

अनकही कहानियों की

पीड़ा को सहता हूं 


मैं मरता हूं

पर आत्महत्या नही करता ।

मंगलवार, 8 अगस्त 2023

कविता इस लिए न लिखें कि !

 


लेखक एवं वरिष्ठ पत्रकार प्रिय दर्शन जी द्वारा ! 

कविता इसलिए न‌ लिखें कि

१ किसी से बदला‌ लेना या उसे नीचा दिखाना है।

२ किसी विचार के चाबुक से किसी की पिटाई करनी है।

३ अपने आग्रह को किसी सार्वभौमिक सत्य की तरह थोपना है।


क्योंकि

१ कविता सबसे पहले कवि की पोल खोलती है।

२ वह बता देती है कि कवि के सोचने का तरीक़ा क्या है।

३ कवि जो महान उक्तियां लिख रहा है उसके पीछे के टुच्चे इरादे क्या हैं।


दरअसल

१ कविता लिखना खुद को लिखना है - अपने अनुभव संसार को, अपने संवेदन को।

२ यह अनुभव भी अर्जित करना पड़ता है - वह स्मृति, संवेदना और विवेक की साझा संतान होता है।

३ स्मृति से जो मिलता है, संवेदना उसे ग्रहण करती है और विवेक उसमें से ग्राह्य-अग्राह्य चुनता-छांटता है।


इसके बाद

१ हम जो लिखते हैं वह हमारा अनुभूत सत्य होता है

२ लेकिन इस सत्य की प्रामाणिकता के लिए ज़रूरी है कि उसे बार-बार अनुभवों की कसौटी पर कसते रहा जाए। इससे वह कुछ बदल भी सकता है, लेकिन अंततः वह एक प्रामाणिक अनुभव होता है और विश्वसनीय अभिव्यक्ति में बदलता है।

३ अपने अनुभव की गरिमा इस बात में भी है कि उसे एक अर्जित मूल्य की तरह सहेजा जाए, न कि उसकी तलवार बना कर उससे दूसरों के सिर काटे जाएं।


अगर इसका ख़याल न रहे तो

१ कविता न्याय के नाम पर बहुत अत्याचारी हो जाती है।

२ वह किसी बुलडोज़र की तरह तथाकथित अवैध निर्माणों को ढहाने का काम करने लगती है।

३ बिना यह जाने या समझे कि छोटे-छोटे सपनों के घर कितनी मामूली मगर मूल्यवान सांसों का बसेरा हैं।


यह ख़याल रहे

१ कविता लिखना दूसरों के ज़ख़्मों को अपनी छाती पर महसूस करना है।

२ कविता लिखना अपने ज़ख़्मों के आईने में दुनिया को देखना है।

३ कविता लिखना नैतिक-अनैतिक की निश्चयात्मकता से आगे एक मानवीय अनिश्चय के बीच अपने-आप को टटोलना है।

बुधवार, 5 जुलाई 2023

जाते हुए देखा है ?

अदाकारा : टीना सिंह  ( सौ : स्वयं )

कभी जाती हुई लड़की को 

देखा है जाते हुए 

बुद्ध से दूर ?


बुद्ध तो रहते हैं

चित्त के गहरे कुएं में

सदैव कोपल सी 

मुस्कान लिए 


द्वंद से परे

धारण किए

श्वेतांबर


मीठी मीठी बयार

मर्म से भरी रुनझुन 

बारिशों का स्पर्श

जाता नही कहीं


जाते हुए बुद्ध

कभी वापस नहीं आते ।


गुरुवार, 9 फ़रवरी 2023

पहाड़ गंज की नेयोन लाइट्स !

तस्वीर : प्रतीकात्मक 


मानव को बड़े शहरों की चकाचौब्ध बेहद अच्छी लगती थी . इसलिए वो अक्सर किसी बड़े शहर का ख्वाब देखता. बड़े शहर की परिकल्पना उसके जेहन में तरह तरह से पैबस्त थी . बड़ी बड़ी इमारतें , खूबसूरत नज़ारे और अच्छे संपन्न लोग . सम्पन्नता देखने में किसे अच्छी नहीं लगती . 

हालांकी वो भी संपन्न दिखता था . चौड़े कंधे गोरा चिट्टा . कपडे फटे पुराने होते हुए भी सम्पन्नता की न जाने कौन सी कहानी बयान करते हुए . हाँथ एकदम लक्कड़ ऐसे सख्त पर हमेशा मुस्कुरा के जवाब देना उसकी खूबसूरती थी . पिछले 10 साल से वो मजदूरी का काम कर रहा है . कभी लकड़ी की अड्डी पर लकड़ी ढुलाई का काम तो कभी लकड़ी काटने के काम . 

जब कभी मानव को इच्छा होती कोई बड़ा शहर देखने को . मानव अपनी मजदूरी छोड़ बैटरी रिक्शा का दामन थाम लेते . कुछ दिन किसी बड़े शहर की हवा खा कर वापस अपनी मजदूरी पर . पर शायद ही वो किसी काम को न कहता हो . 

  इधर कुछ दिनों से मानव को दिल्ली की लत लगी हुयी थी . वैसे इससे पहले तक उसको बड़े शहर बम्बई या हैदराबाद जैसे ही लगते थे . दिल्ली के बारे में उसे कुछ दिनों पहले ही मालूम चला था . दिल्ली में इंडिया गेट है , दिल्ली में उसके चाचा का घर है . वो रोज़ दो गुनी मेहनत करता . पैसे जुटाता और अपनी मां के पास जमा करा देता .  दिल्ली के नाम से उसके कान आँख सब खड़े होने लगे थे . अख़बारों में दिल्ली की ख़बरें , टी वी में दिल्ली , मोबाइल में दिल्ली . दिल्ली की ठंढ  उसे नजर आती .  

उसके चाचा जब कभी गाँव आते , उसे दिल्ली की वाहवाही बताते . इस बार मानव ने अपने चाचा से दिल्ली में काम करने की इच्छा जाहिर की . और उन्ही से चालू टिकेट का रिजर्वेशन भी करवा लिया . मानव , एक शाम की पीठ पर सवार  निकल लिया दिल्ली की ओर . काली जींस , काला चश्मा ,सफ़ेद काली पट धारी वाली चुस्त टी शर्ट . लेदर पर्स , स्पोर्ट्स कैप और काले जूते . पिठू बैग में उसके नए शहर की आब ओ हवा भरने वाली थी .

 कोरोना काल के कारण एक अरसा हो गया था . ट्रेन की यात्रा किये हुए . सुबह आँख खुली तो कोहरे में ढकी दिल्ली उसके क़दमों में थी . रिक्शा ऑटो कार वालों की लाइन लग रही थी . नहीं भैया ... हम खुद यहाँ काम करने आये हैं . मानव का जवाब सीधा सपाट ठीक उसके व्यक्तित्व की तरह . थोड़ी देर एक किनारे सिगरेट शॉप पर सिगरेट सुलगाई . सार्वजानिक शौचालय से चमक कर मानव ने चाचा को फोन लगाया . पर फोन उठा नहीं . एक बार , दो बार , कई बार . यह उसके लिए कोई नयी बात नहीं थी . बड़े शहरों के बारे में कुछ कुछ तो जान ही चूका था . वो घूमता रहा . गली दर गली . सब कारोबार चल रहा था . यूँ कहें दौड़ रहा था . इन्ही संकरी गलियों में उसके कदम पहाड़गंज में पड़े . जैसे रेलवे स्टेशन के टैक्सी वालों ने स्वागत किया था . ठीक वैसा ही स्वागत उसे पहाड़गंज में मिलने लगा . शाम ढलते ढलते मानव ने मान लिया था . कि चाचा उसका फोन नहीं उठाएंगे . उसने ठहरने की सस्ती जगह खोज ली थी .

 उसकी एक नज़र दिल्ली की दुनिया पर थी और दूसरी नज़र अपनी पॉकेट पर . उसकी एक दिन की दिहाड़ी में उसको होटल रूम मिल गया . और नवाबी ठाठ अलग से . दिन भर में चार लोग सलाम ठोकने आते हैं .... सर कुछ चाहिए हो तो बताइए ....! वो जब अपने इधर लकड़े के मोटे मोटे घट्थर  अपने कंधे पर रखता है . उस समय वो किसी से कोई बात नहीं करता . पर यहाँ वो सबसे बात कर रहा है . मुस्कुरा के . उसके चाचा उससे मिलते तो शायद मुस्कुरा रहे होते . मानव ने चादर तानी और सो गया बगैर कुछ खाए पिए . 

यहाँ से मानव के पास दो विकल्प थे , या तो वापसी का टिकेट करके घर जाना या कोई काम ढूंढना . दूसरे दिन मानव वही लक्कड़ ढ़ोने वाले कपडे पहने सुबह लेबर अड्डे पर पहुँच जाता है . कुछ ना नुकूर के बाद उसे कुछ काम मिल जाता है . दिल्ली की कड़क भाषा में काम और भारी लगने लगता है .  फिर भी दो दिन में तीन जगह काम करके चार दिन की दिहाड़ी बना ली थी . लेकिन इन दो दिनों में पहाड़गंज की सड़कों के दोनों तरफ पसरे बुद्ध उसकी आँखों में चमक रहे होते .  

उसका फैसला जैसे अब पलटता जा रहा था . उसे यहाँ की भीड़ से ऊभ हो रही थी . उसने घर वापस जाने का फैसला किया . पर खुद को समय देते हुए . वो जब भी शाम को होटल रूम को आता तो एक दिन का एडवांस किराया चुका देता . उस दिन भी एक दिन का एडवांस चुका दिया . वो आखरी बार अपने कमरे की शांति और बादशाहत महसूस करना चाहता था . शाम होते ही मानव फिर से अपने पसंदीदा कपडे पहन के निकल पड़ता है पहाड़गंज की नियोन लाइट्स में . पहाड़गंज की नियोन लाइट्स दिन में तो नहीं दिखती . दिन में पहाडगंज की मार्किट चलती है . रात में सड़कों के दोनों तरफ ऊँची ऊँची अट्टालिकाओं में दुनिया बसने आती है . उन्ही अट्टालिकाओं में 24 घंटे के इर्द गिर्द दुनिया घूमती है . दुनिया में भी दो दुनिया . मेज़बान और मेहमान .ऐसी मेहमाननवाज़ी जहां आप की जेब के नीचे की दुनिया बाहर निकलने को उछाल मारे . और ऐसी मेजबानी जो आप से मोहब्बत से सारे काम करवा दे .

पहाड़गंज की  गलियों में घूमते हुए मानव को  लगता है . जैसे समय की यहाँ सबसे ज्यादा अहमियत है . दिन में स्टील को ढोते मजदूर , पल्लेदार , व्यापारी और नियोन लाइट्स की चकाचोंध को बरकरार रखते कारिंदे . छोटी छोटी गलियों की भट्ठी में पिघलते जिस्म स्वाद की बाँट जोहते . और रात में जैसे दूसरी दुनिया ने केवल रात भर के लिए जन्म लिया है . एक ऐसी दुनिया जो 24 घंटे काम करने वालों की है . दिन की मेहनत रात में रंगीन नज़रों से खुशनुमा होती है . 

उसके सपनों की दुनिया में टिम टिम करती नियोन लाइट्स और चहल पहल कुछ समय के लिए ही थी . उसके लकड़ी हो चुके कंधे और पेट को इससे ज्यादा आराम कभी नहीं मिली थी . बुद्ध को शायद ऐसा ही आराम मिला होगा कभी . 

मानव पहली बार वो सीढियां चढ़ रहा था . जहाँ उसने जाने की कभी कल्पना भी नहीं की थी . पहाड़गंज की ट्रेवल सर्विस इंडस्ट्री की एक सर्विस में उसने जब पहली बार कदम रखा . तो उसके सामने सुनहरे द्वार , हलकी नीली रौशनी में 24 घंटे नहाता संसार दिखा . 

जी सर बताइए ...

मसाज हो जाती है ... ? मानव ने पूछा .

यस सर .... केवल मसाज ही करवानी है ... या सर्विस भी ...

सर्विस .... क्या होती है ? .... आप के कहने का मतलब बॉडी की सर्विस !

यस सर ऐसा ही समझ लो ... रिसेप्शनिस्ट मुस्कुराते हुए मसाज का बिल काट देता है . 

मानव एक छोटे से कमरे में पड़े बेड पर बैठ जाता है . नीली और फ्लोरेसेंट लाइट्स में स्याह और सफ़ेद का भेद गुम हो रहा था . कुछ मिनट बाद एक युवती मानव के सामने आती है . मानव ठिठक जाता है . और झट से खड़ा हो जाता है . 

जी बताइए ! मानव मुस्कुराते हुए ..

बताऊँ क्या ... कपडे पर मसाज करूँ ... ?

मानव ने उसकी डांट को अनसुना करते हुए कपडे उतार कर पेट के बल लेट गया . युवती ने  तेल की कटोरी को मानव के सिरहाने रख मालिश शुरू कर दी . मानव को ये सब अपनी लक्कड़ वाली दुनिया से सपने वाली दुनिया में बदलते लग रहा था . मानव के दिमाग में घडी की टिक टिक चल रही थी . उसने तो कहा था 1 घंटे मसाज होगी . पर ये तो कह रही थी 45 मिनट . इस सोचने के क्रम को तोड़ते हुए मानव ने युवती से पूछा . तुम्हारा नाम क्या है ...

युवती का जवाब किसी विदेशी नाम से आया . 

तुम कब से कर रही हो मसाज ?

 4 साल हो गए . 

ओह ! इन चार सालों में क्या आप की मसाज किसी ने की है ? 

युवती की आवाज़ का मिजाज़ बदल गया .

नहीं हमारी कौन करेगा .... बचपन में शायद माँ ने की हो ...क्यों मसाज सही नहीं कर रही मैं ...?

मेरे चाचा मेरी मसाज की बहुत तारीफ करते थे . मुझे भी लगता है मैं अच्छी मसाज कर लेता हूँ .  कह कर मानव चुप हो गया .

लगभग 30 मिनट बाद युवती ने पूछा सर और .... ?

मानव ने करवट बदलते हुए कहा अरे अभी 15 मिनट हैं ...

युवती ने कुछ ही क्षण बाद कान में धीरे से कहा ... सर सर्विस नहीं लेंगे ? 

मानव ने मना करते हुए कहा नहीं केवल मसाज ही लेना है . 

मसाज का तय समय पूरा हो चुका था . मानव उठ कर संभलने लगा . 

फिर युवती ने पूछा .... सर सर्विस ....!

मानव ने पूछा सर्विस का कितना लगेगा ...

युवती ने कहा जितना मसाज का लगा ...

कुछ सोच कर मानव ने कहा  ... चलो एक काम करते हैं 

तुम अपने मालिकों से पूछ कर आओ ... कि क्या मैं तुम्हारी मसाज कर सकता हूँ !

हाँ मैं तुमसे कोई पैसा नहीं लूंगा और तुम्हारे मालिक को उतने ही पैसे दूंगा जितना मेरी मसाज के लिए ...

युवती अजीब सी स्तिथि में फंस गयी ...उसके सामने कभी ऐसी दुविधा नही थी । वो पीछे के कमरे में गयी . जहां उसके साथ काम करने वाली अन्य युवतियों सहित एक छोटी बच्ची भी थी . वो बच्ची उन्ही में से किसी की या मालिकान की हो सकती थी शायद . 

करीब 10 मिनट इस बेहद अजीब ओ गरीब ख्वाहिश पर चर्चा कर के वो युवती आई . 

उसने कहा ठीक है ... सर ... पहले पैसे जमा कर दीजिये ...

मानव ने पैसे भर के उस युवती को दुबारा आने को कहा ...

युवती ने वैसा ही किया ..

मानव ने हाँथ जोड़ उसका अभिवादन किया . और युवती को आराम से लिटा दिया . उसके लक्कड़ हंथेलियों में न जाने कहा की नरमियत आ गयी . आहिस्ता आहिस्ता युवती को मसाज करता हुआ वो अपने चाचा की मसाज को याद कर रहा था . फिर भी उसके स्पर्श से युवती असहज महसूस कर रही थी . करीबन 15 मिनट बाद युवती ने कहा आप अच्छी मसाज कर लेते हैं ... पर मुझे बड़ा अजीब लग रहा है ... मानव पैर के पंजों को भारी हांथों से रगड़ते हुए कहता है ... अरे आप के पास पुरे 45 मिनट हैं .... आप यूँ समझिये कि आप किसी बड़े होटल के स्पा में मसाज ले रही हैं .... फिर भी युवती की असहजता को महसूस करते हुए .... मानव के हाँथ थम गए ... 

युवती बाहर जाकर अपनी सहकर्मियों के बीच इस बात की चर्चा कर रही होती है . खूब ठहाके लग रहे थे . मानव कुछ मिनट उस छोटे से कमरे की सजावट देखता रहा . जब वो बाहर निकला . तो सारे लोग मानव को देख रहे थे . मुस्कुरा रहे थे . वो छोटी बच्ची हाँथ में गुलाब पकडे मानव को देती है . मानव ने उस युवती को कुछ और पैसे दिए ... छोटी बच्ची के लिए कॉपी और पेंसिल के बाबत . 

मानव का शरीर पहले से बहुत हल्का लग रहा था . उसके कंधे फिर से तैयार थे ....उसकी हंथेली की लकीरें नर्म पड़ गयी थीं . उस युवती की असहजता उसे गहरी सोच में डुबो देती है । 

 




 

बुधवार, 8 फ़रवरी 2023

इन दिनों पक्षियों का न लौटना अच्छा नही लगता !

 


इन दिनों पंछियों का न लौटना अच्छा नही लगता । कुल जमा चार पंछियों को लाया था । एक बड़ा सा पिंजड़ा ( हा हा हा ) खरीदा । तमाम इंतजाम किए । खूब चहकती थीं सुबह शाम । मैं रोज उनकी बातें करने लगा था । कहते हैं वो गाना बजाती हैं । उनकी प्रजाति में उन्हें लल मुनिया कहा जाता है । जब पास होता । तो उनके तरह तरह के इंतजाम करता । कभी हरी घास उनके लिए जमीन बनाने को । कभी गमलों में उगे पेड़ों से उस पिंजड़े को ढांक देता । कि लगे वो प्रकृति में हैं । लगातार खोज में रहता । कैसे वो नन्ही चिड़िया मेरे या हम में किसी के उसके करीब आने पर असहज न हों । सोचता कभी इन्हे बाहर की सैर कराऊंगा । पर एक लंबे अरसे बाद घर वापसी की तो । वो पिंजड़ों में नही थे । दिल चाक हो गया । जब पता चला । वे सब अब नही हैं ।

उनकी चहचहाट के शब्द मेरे पास नहीं थे । और न ही मेरे आस पास के लोगों के पास । एक ने तो तभी दम तोड़ा था । जब हम समझ रहे थे । कि शायद अंकुरण की तैयारी है । उनमें से एक चिड़या खूब तंदरुस्त हो रही थी । ज्यादा खा रही थी ।  हम सभी खुश थे । वो जो सबसे ज्यादा चहकती थी। वही नही थी बाकी तीन के बीच । उसका जाना मेरे लिए आत्म ग्लानि की पराकाष्ठा थी ।
    उनके रहते ! बार बार मन करता था । उड़ा दूं। पर किसी न किसी कहने में हामी मिलाते हुए टाल जाता । उन चार चिड़ियों के अलावा उसी प्रजाति की एक और चिड़िया आने लगी थी पिंजड़े के बाहर , पिंजड़े के भीतर झांकती । कुछ कबूतर छितरे काकुनी के दाने खाने आते । करीब 8 महीने पहले लाया था इन्हे । एक बहेलिए से । बचपन की किताबों की पढ़ाई मैने उस दिन बिसुरा दी थी । बहेलिया चिड़िया को जाल में फंसा लेता है । बचपन में बहेलिए पर गुस्सा और चिड़ियों पर तरस आता था । पर उस दिन धुन सवार थी । चिड़िया लानी हैं । मैं लाया चिड़िया । बहेलिए ने सवा घंटे की मेहनत के बाद चार चिड़ियां अपने बाड़े से पकड़ी । और एक छोटे से पिंजड़े में दे दी। मुझे उस समय लगा । कि बड़ा पिंजड़ा मैं इसके लिए लाने वाला हूं । वो इससे बड़ा होगा । तो उन्हें कुछ राहत मिलेगी । खैर अब तो वो नही रही ।
   पर उनकी याद मुझे निरंतर भटका रही है । वो जबसे जीवन में आईं थीं । तबसे चिड़ियों की आवाज़ें पहचान आने लगी थी । मेरे कान चिड़ियों की आवाज़ें खोजने लगते हैं । उस दिन सोचा कि चलो देखें । जिस देश से वो आईं थी।  नाहक सांडी पक्षी विहार की ओर राहें जाने लगीं । तराई क्षेत्र का यह रास्ता बेहद खूबसूरत है । सड़क के दोनों ओर बेतहाशा हरा । और पंछियों का कलरव । जल क्षेत्र के नज़दीक जाते जाते दुनिया बदलती महसूस होती है । आब ओ हवा में ताज़गी आने लगती है । इससे पहले बरसात में गया था । तब सैलानियों के तौर पर मैं अकेला था । पूरे पक्षी विहार में । लेकिन तालाब में अनगिनत वनस्पित्यां थीं । पर इस बार ठंड थी ।
पक्षी विहार के टिकट काउंटर पर मैं पहला व्यक्ति था । कुछ समय बाद एक नौ जवान जोड़ा आया । जो कुछ दूर चलने के बाद बैठ गया कहीं । मैं दूर तक जाना चाहता था ।  पक्षी विहार की परिधि लगभग 6 किलोमीटर की है । मुझे आशा थी कि सर्दियों वाले सैलानी पक्षियों की भरमार दिखेगी । गुफा नुमा पगडंडी पर पतझड़ और सामने बड़ा सा जलाशय । जलाशय के दूसरे छोर पर कुछ पानी का श्रोत। उनके इर्द गिर्द कुछ जाने पहचाने से पक्षी । मैने जब जब उनके करीब जाकर देखने की कोशिश की वो आधा किलोमीटर दूर जा बैठे । आखेट का इरादा एकदम नही था । पर मोबाइल के कैमरा से शूट करने का इरादा था । कुछ कोशिशों के बाद उन्हें दूर से ही तस्वीरों में कैद कर लिया । गुनगुनी धूप के कुछ घण्टे अनगिनत घोंघे और पक्षियों के बीच गुजारे । वापसी में दिमाग में ये सवाल कौंध रहा था । कि इस बार पक्षी कम क्यों आए । पक्षी विहार के गेट पर ये सवाल लिए मैं एक घण्टे खड़ा रहा । पक्षी विहार की दूरबीन वाली निघाओं ने उस जोड़े को धर लिया था । जो किसी एक की गोद में बैठा था । मामला सुलटता न होता देख । मैने सवाल कर ही दिया । टिकट बाबू का जवाब था । कि अभी कुछ दिन पहले पत्थर (ओला वृष्टि ) गिरे थे । इसलिए पक्षी चले गए । मेरा एक जवाब मुझे मिल चुका था । दूसरा उन जोड़े की माफियां सवाल खड़े कर रही थी ।
मैं वापस आया । मुझे फिर से वही खाली पिंजड़ा दिखा । उसमें किसी होने की कहानियां लिखी थीं । मुझे एक बार किसी छोटी बच्ची ने और छोटे बच्चे ने कहा था । बर्डस तो उड़ती हैं । उन्हे पिंजड़े में नही रखना चाहिए ।

रविवार, 29 जनवरी 2023

उपन्यास !

 भूमिका 

मुझे ठीक ठीक पता नहीं कि मैं ये क्यों लिखने बैठ रही हूँ . इसके बात को लिखतें समय समझ आने की गुंजाईश पर छोड़ रहा हूँ . मुझे लिखने का शौक बचपन से रहा है . जब मैं क्लास टेंथ में था . तब सबसे पहले मैंने छोटी सी कहानी "चौकीदार " लिखी थी . एक पतली सी डायरी पर . पेन्सिल से . उसके बाद उस डायरी में कुछ कवितायेँ भी लिखीं . बहुत सालों तक उस डायरी को सहेज कर रखा रहा . पर फिर वो कहीं खो गयी . राइमिंग में कुछ शब्द लिख देना कवितायेँ नहीं होती . ऐसा मुझे बड़े होकर कवितायेँ पढने के बाद पता चला . मैं इस बात से इनकार नहीं करता कि उन कविताओं में भाव नहीं थे . होंगे , मुझे ऐसा लगता था और आज भी लगता है . पर ऐसा सके साथ होता है . जो भी लिखता है . उसे लगता है . कि वो इस सदी की सबसे उम्दा कृति रच रहा है . 2011 में मैंने एक ब्लॉग बनाया " प्रभात की दुनिया " के नाम से . ब्लॉग पर पहली बार मैंने " यह शहर ए लखनऊ है " है लिखा . मेरे हमसफर लखनऊ के बारे मं कुछ लिखा गया था . बाद में गाहे बगाहे कुछ न कुछ ब्लॉग पर लिखता रहा . मैं अपने लिखे का कहीं भी छपने का दावा नहीं करता . क्यों कि ऐसा हुआ ही नहीं . जीवन में 2 या 3 बार अपना लिखा प्रकाशित करवाने की झिझकते हुए कोशिश की . पर सफलता नहीं हाँथ लगी . एक बार प्रतिष्ठित पत्रिका में एक कहानी प्रकाशित करने को ई मेल से भेजी . जवाब आया . कि कहानी बड़ी है . लघु कथा के लिए उपयुक्त नहीं है . फिर उसके बाद कभी मन नहीं हुआ . 

मुझे हमेशा ऐसा लगता था  . कि लिखना स्वयं के लिए होता है . जिन भावों को हम किसी से साझा  नहीं कर सकते . उन्हें लिखा जा सकता है . भविष्य में हम उनका उपयोग खुद को समझने या स्मृतियों में विचरण करने को कर सकते हैं . लिख कर किसी से साझा करने में तो इतनी शर्म आती है . कि कुछ पूछो न .जो लिखा गया है वो स्वयं के लिए लिखा गया है . फिर उसे दूसरों के सामने प्रदर्शित करने से क्या फायदा . सामने नहीं तो पीछे से मखौल ही बनता होगा . मेरा यह मत ज्यादा दिन टिक नहीं सका . हम सब अपने अपने सामर्थ्य के हिसाब से जीवन जी रहे हैं . जैसा भी हो . हम हर संभव बेहतर जीवन जीने की कल्पना करते हैं . और उसी कल्पना के अनुरूप प्रयास करते हैं . बाकी आस पास के लोग और घटनाएँ उन्हें अलग अलग दिशाओं में हांकते रहते हैं . फिर भी मेरा जिया हुआ , मेरा संघर्ष यदि किसी से साझा हो . तो हो सकता है उसके जीवन में कुछ काम आ सके . हा हा हा हा . इन सब सोचों के बीच न ही लिखने का अभ्यास हुआ और न ही पढने का . बस केवल ख्याल चलते थे . कभी कभी कुछ लिख लिया आवेश में आकर . 

2010 - 11 में मैंने पत्रकारिता की तरफ रुख किया . अखबार के लिए रिपोर्टिंग की , लिखने के लिए अखबार पढने शुरू किये . फिर धीरे धीरे लिखने पढने का सिलसिला शुर हो गया . मेरा लिखा हुआ छाप भी दिया जाता था . लिखे का छप जाना , न छपने की टीस पर मलहम का काम करता रहा . पत्रकारिता के अपने विचित्र अनुभव हैं . उनका विस्तार से जिक्र फिर कभी किया जायेगा . अखबार से इतर पढने की ललक ने मुझे कुछ मासिक साहित्यिक पत्रिकाओं से परिचय करवाया . उन्ही पत्रीकाओं से लेखकों के विषय में जानने का अवसर प्राप्त हुआ . कविता , कहानिया , निबंध , उपन्यास , आलोचना आदि अनादी विधाओं से परिचय हुआ . कुछ कुछ समझ आने लगा कि इतनी किताबें क्यों लिखी जा रही हैं . इन किताबों के पाठक कौन हैं . लिखना खुद को व्यक्त करने का सबसे सरल और सस्ता रास्ता है . जीवन में हो रही अनुभूतियों को संगृहीत किया जा सकता है . जिया हुआ वापस नहीं आ सकता . पर उसको संगृहीत किया जा सकता है . लिखना पढना जीवन के लिए उतना ही लाभप्रद होता है . जितना कि एक यात्रा में लोक , संस्कृति और भूगोल से संवाद से होता है . मेरे लिए लिखना , मतलब खुद से संवाद है . किन्ही कारणों से इसे न लिख पाना मेरे लिए बहुत कष्टकारी भी होता है . 

मैंने अपने जीवन में लिखने को सबसे आखरी पायदान पर रखा है . जब किसी घटना या किसी बात को लेकर मैं विचलित होता हूँ , या वह मनःस्थित मुझ पर हावी होने लगती है . मैं उसे किसी न किसी स्वरुप में लिख कर हल्का हो लेता हूँ . मेरे इस्र्द गिर्द लोग मुझसे कहते हैं . कि मेरे जीवन में स्थायित्व नहीं नहीं . इस बात का अनुभव मैं खुद करता हूँ . पर मेरे हिसाब से स्थायित्व गूढ़ होता है . हम बांध जाते हैं . बाँध लेते हैं . एक खूंटे से . कुछ गिने चुने लोगों से घिरे , कुछ गिनी चुनी जगहों में कैद हो जाते हैं . इस सोच का मेरे जीवन में मेरे काम पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा है . इसलिए आज तक किसी एक काम पर ज्यादा देर टिक नहीं पाया . हाँ दिए गए या लिए गए काम को शिद्द्त्त से करने का माद्दा जूनून और निष्ठां हमेशा रहती है . 

अपने जीवन को पलट के देखता हूँ . तो पाता हूँ घाट घाट का पानी . पढाई के दौरान ही कंप्यूटर की सेल्स एन्ड सर्विस की शॉप खोलना . 2 साल पढाई के साथ साथ उसमें प्रगति देख गौरवान्वित होता था . पर इमानदारी और दरियादिली के चलते ज्यादा उड़ान नहीं भरी जा सकी . दिल्ली में कॉर्पोरेट सेक्टर की जॉब में किस्मत आजमाई . नौकरी मिली . 6 साल अपने जीवन के स्वर्णिम समय का अनुभव किया . घरवालों की पुकार और दिल्ली की आपाधापी ने मुझे वहां से भरा पूरा संसार छोड़ने को विवश कर दिया . पिता की  घर के कारोबार में हाँथ बंटाने की पेशकश ने जीवन में एक नए आयाम को दिशा दी . कॉर्पोरेट सेक्टर के अनुभवों को ग्रामीण अंचल के व्यवसायों में आजमाने का मौका ज्यादा दिन सुलभ नहीं रहा . " जैसा है वैसा ही रहने दो " के सिधांत पर घर के कारोबार से तौबा कर ली . लेकिन घरवालों ने उसी कारोबार के आधार पर मेरे लिए कमाऊ बहू हांसिल कर दी . कुछ दिन विवाह का रोमांच बरकरार रहा . फिर खाली बैठने की टीस की भटकन ने एक दिन एक अखबार के दफ्तर पर पटक दिया . जिले के स्ट्रिंगर से लेकर राज्य स्तर मान्यता प्राप्त पत्रकार  तक का 8 साल का सफ़र बहुत ही शानदार रहा .  सत्ता , नौकरशाही , राजनीति और आम जन जीवन के खट्टे मीठे अनुभवों ने देखने का नजरिया बदल दिया . इतने वर्षों में मेरे भीतर फोटोग्राफी का शौक परवान चढ़ रहा था . जिसके चलते कुछ चुटपुट काम मिले . वो अधूरे किस्से अभी भी पुरे नहीं हुए हैं . जिनको पूरा करने की जिम्मेदारी अभी भी मेरे कन्धों पर है . 

 बचपन से लेकर इतने सालों में हमेशा घर का कारोबार सालता रहा . पिता अक्सर कहते थे . " मैंने इतना कर दिया है . कि आजीवन तुम कुछ न करो फिर भी बैठे बैठे खा सकते हो ." इस बात में मुझे तब तक बहुत दम लगती रही . और यह ठोस बात मुझे आवारगी करने की छूट हमेशा देती रही . मेरा बचपना एक बड़े से परिवार नुमा वृक्ष के नीचे पला बढ़ा . ताऊ-ताई  , बड़े ताऊ - बड़ी ताई और 14 भाई बहनों का बड़ा सा परिवार . बहुत बाद में मुझे अपने और चचेरे के बीच का अंतर समझ आया . हमारा परिवार जनपद हरदोई के छोटे से कसबे मल्लावां से ताल्लुक रखता है . संयुक्त परिवार था . हमारे बाबा अपने ज़माने में कभी प्रधान रहे थे . मैंने अपने बाबा को नहीं देखा .  उन्ही के रहते हुए  हमारे घर में व्यवसाय के तौर पर एक आंटा चक्की लगायी गयी . बाबा के ख़त्म होने के बाद वो जिम्मेदारी मेरे बड़े ताऊ ने उठायी . बाबा के नाम पर ही गाँव में एक इंटर कॉलेज भी था . संयुक्त परिवार के संयुक्त प्रयासों से इट भट्टा लगाया गया . एक से दो , दो से तीन भट्ठे .  

बीच  वाले ताऊ शिक्षक थे . मेरे पिता भारतीय वायुसेना में भर्ती हुए . 15 साल की नौकरी के बाद उन्होंने ऐक्छिक रिटायरमेंट ले लिया . वापसी के कुछ वर्षों के भीतर उन्होंने पेट्रोल पंप के लिए आवेदन किया . पिता की दौडभाग , व परिवार के अन्य सदस्यों की शुभेक्षा से आवेदन उद्यम में बदल गया . हमारे क्षेत्र का पहला पेट्रोल पम्प . परिवार के अथक प्रयासों और पूंजी से  पेट्रोल पम्प की सफल यात्रा के मध्य मल्लावां कोल्ड स्टोरेज का जन्म हुआ . फिर उसकी दूसरी इकाई दुसरे क्षेत्र में खोली गयी . इन सारे उद्यमों के उद्येश्य केवल और केवल क्षेत्र की सम्रध्ही का सपना था . जो कि हमारे परिवार के तीन मुखिया का था . इस नेकनीयती का असर हमारे व्यवसायों पर अच्छा खासा दिखता था . हमारे सभी उत्पाद पुरे क्षेत्र में जाने जाते . हमारे उत्पाद ब्रांड बन चुके थे कभी . जनपद मुख्यालय से लेकर आसप पास के क्षेत्र में हमारे परिवार का नाम था . व्यवसायों का नाम था . खासतौर से हमारे परिवार के व्यवसाय और रहन सहन में कंट्रास्ट की चर्चा खूब होती थी . ठेठ देसी , अतिसाधारण रहन सहन , मेल जोल , उठक बैठक समाज से जुड़े हुए . 2010 में कुछ ऐसी घटना घटी . कि सब तितर बितर हो गया . उन्नति थम गयी . अवनति शुरू हो गयी . परिवार में वाद विवाद . आपस में सारे ताल मेल टूटने लगे . सभी व्यवसायों की गति धीमी होने लगी . 

भट्ठे बंद हो चुके थे , कोल्ड स्टोरेज खड़े हो गए थे . बैंक की देनदारियां बढ़ने लगी थी . इस परिवार से जुड़े लगभग 50 कर्मचारियों की नौकरी पर संकट आन पड़ा था . घर भीतर युद्ध ऐसे हालात हो गए थे . एक बड़े से घर में तीन घर हो गए थे . पेट्रोल पम्प धीमी गति  से ही सही लेकिन चल रहा था . घर के अलग अलग सदस्यों ने इसका संचालन किया . जिसकी लाठी उसकी भैंस जैसे हालत हो चुके थे . मैं दूर दूर से ही स्थितियां पर नज़र बनाये हुए था . इतना समझता था कि मामला परिवार का है . और सुलत भी जायेगा . पेट्रोल पंप पिता के नाम पर था . इसके बावजूद हालातों से खिन्न पिटा जी ने वहां जाना छोड़ दिया था . वहमी बंटवारे में साड़ी संपत्ति मौखिक रूप से बाँट गयी थी . देनदारियों को किसी तरह लड़ झगड़ के निबटाया गया . पेट्रोल पम्प हमारे हिस्से आया था . जिसके एवज में हमें कुछ रकम दो अन्य पार्टियों से मिलनी थी . पर वैसा आज तक नहीं हुआ . मेरा एक भाई की नौकरी लग गयी . वो उसमें मशगूल हो गया . मेरे कदम गाँव घर में नहीं टिकते थे . इसलिए अधिकतर समय दिल्ली , लखनऊ कानपूर , अयोध्या में गुजरा . पेट्रोल पंप के प्रति पिता की अरुचि मुझे समझ आने लगी थी . कई वर्ष यह पम्प मैनेजर के भरोसे चलता रहा . पिता की पेंशन और कुछ जमा पूंजी का हिस्सा इस शिथिल होते पम्प में खपा जा रहा था . 

मेरी सफलता हमेशा क्षणिक रही . आज भी तकनीकी रूप से मुझे सफल नहीं कहा जा सकता है . कुछ साल पहले जब मैंने खुद को अपने परिवार के सदस्यों से तुलना शुरू किया . तो लगा कि मैं दुनिया में हार के आया हूँ . बाकी सब घर में हारे हुए हैं . पेट्रोल पम्प की गिरती साख और पिटा की चिंता को देखते हुए मैंने वापस आने का फैसला किया . फैसला सही था या गलत . अभी तक इसका आंकलन नहीं कर पाया हूँ . मुझे आज भी लगता है कि मेरे पांव कहीं भी टिक नहीं सकते . 

मैं लिखने में कितना सक्षम हूँ . इस बात से मैं इत्तेफाक नहीं रखता . मेरी मौलिक भाषा हिंदी है . जिसे मैं आम बोलचाल में इस्तेमाल करता हूँ . लिखने में भी इसी से काम चलता हूँ . कॉर्पोरेट दुनिया में अंग्रेजी का चलन था . जब से पत्रकारिता में कदम रखा . हिंदी सर्वोपरि हो गयी . अंग्रेजी पीछे छूट गयी कहीं . चूँकि हिंदी हिंदी लिख पढ़ सकता हूँ . आस पास दुनिया जहां में हो रही घटनाओं को समझ सकता हूँ . अपने तर्कों से सही गलत का आंकलन कर सकता हूँ . इसलिए इस बार पिछले कुछ वर्षों के अनुभवों को एक बड़े कैनवास पर उकेरने की कोशिश कर रहा हूँ , इसमें कहाँ तक सफल रहूँगा . इसकी परवाह नहीं .



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तेल और तेल की धार ....... तेल और तेल की धार ! 

अभी कुछ दिन पूर्व अपना बोरिया बिस्तरा बाँध के वापस लखनऊ आ गया था . जिसके लिए काम करता था . उनके साथ लाइन लेंथ बिगड़ रही थी . इसी लिए उसे वहीँ विराम देकर आगे बढना ही मेरे और उनके लिए श्रेष्ठकर था . लखनऊ में मेरा 6 बाई 8 का कमरा था . जिसका मोह मुझे हमेशा से रहा . वह कमरा छोटा जरुर था . लेकिन उसमें हद दर्जे का सुकून था . पिछले एक दशक से मेरा केंद्र लखनऊ ही था . सप्ताह में एक या महीने में एक बार घर परिवार के साथ बिता कर वापस लखनऊ या अपने काम वाली जगह पर स्थापित हो जाता था . एक दिन पिता का फोन आता है . और मुझे वापस आने की सलाह देते हैं . उनका कहना था कि . बहुत भटक लिए . अब आओ यहाँ . और पेट्रोल पम्प देखो सुनो . मैं भी थोडा सा आराम करना चाहता हूँ . उनकी इस बात में मुझे बहुत थकान दिखी . मैं भी कोई नया ठिकाना चाहता था . इस बार मैंने घर वापस आने का मन बना लिया था . माँ पिता , पत्नी और बच्चा हरदोई शहर में रहते हैं . पेट्रोल पम्प हरदोई शहर से लगभग 55 किलोमीटर दूर स्थित क़स्बा मल्लावां में है . मैंने कुछ दिन परिवार के साथ गुजारे . लेकिन मेरा लक्ष्य मेरा ख्याल पेट्रोल पम्प ही था . मल्लावां मेरा दुसरा घर था . गर्मियों की छुट्टियों में हम वहां  छुट्टियाँ बिताने आते थे . कारोबार होने के कारण . मेरे पिता अक्सर वही रहते थे . फिर किसी जरुरत या 10 या 15 दिन में हमारे पास आते थे .इसलिए मल्लावां से लगाव था . यहाँ के लोग मेरे जेहन में एक दम ताज़े थे . 

कुछ दिन हरदोई में बिताने के बाद . पिता से आशीर्वाद लिया और निकल पड़ा अपनी मंजिल की ओर . मेरी माँ और मेरी पत्नी मेरे इस फैसले से बहुत खुश थीं . क्यों कि अब मैं उनके और करीब रहने वाला था . अपने घर के कारोबार को संभालने वाला था . संभालना बहुत बड़ी जिम्मेदरी होती है . घरवालों की अपेक्षाओं में समभालना शब्द और जुड़ जाएगा तो पूरा घर आप के कंधोंपर पर महसूसा होने लगता है . कुछ दिन पहले जब मैं लखनऊ से निकला था . मैंने फेसबुक पर कुछ लेने लिख कर लिखा था . " नया ठिकाना , अब चल दिए तेल और तेल की धार देखने " . कुछ लोग पुराने जानने वालों ने देर आये दुरुस्त आये जैसे कमेन्ट भी पोस्ट किये . अच्छा लगा मुझे भी . जैसे मेरे फैसले में कुछ और मत शामिल हो गए . बहुत सालों बाद हरदोई मल्लावां वाले रस्ते से गुजर रहा था . तो बीता हुआ कल एक एक कर के छेड़ रहा था . मेरी नज़र रास्ते में पड़ने वाले पेट्रोल पम्पों पर भी थी . पहले और अब में कितन अन्तर आ गया है . तब कसबे में एक या दो पेट्रोल पम्प होते थे . अब तो एक एक कसबे में  4 से 5 तक पेट्रोल पम्प हैं. अच्छा है गाड़ियाँ बढ़ी हैं तो पेट्रोल पम्पों भी बढ़ने चाहिए . फिर ग्राहकों के दृष्टिकोणवाला से देखा जाये तो जितना ज्यादा कम्पटीशन उतना ज्यादा ग्राहकों के पास विकल्प और फायदा . 

यूँ तो हरदोई और मल्लावां की दूरि एक से डेढ़ घंटे की है . लेकिन मुझे वहां पहुचने में लगभग ढाई घंटे लग गए . एक दो जगह रुक के चाय पी . कुछ पेट्रोल पम्पों पर रुक कर उनकी करयाविधि देखि . मल्लावां पहुचने से कुछ दूर पहले से ही माल्लावां की खुशबू आणि शुरू होगी गयी थी . विवेक की टंकी फिर चुंगी नंबर दो की फट्टा टाकीज , कंप्यूटर वाले जावेद की दूकान . बड़े चौराहे पर जगदीश के समोसे . थोडा और आगे बढ़ने पर बीच वाले ताऊ का मकान . जहाँ हमारा बचपना गुजरता था . छोटे चौराहे पर वर्मा इलेक्ट्रोनिक्स चुंगी नंबर एक से हमारे गाँव की ओर जाती सड़क . बी एन इंटरनेशनल कॉलेज . राम अवतार की टंकी के बाद हमारी टंकी . जैसे गेंद स्विंग करते हुए स्टंप  पर जाकर लगी हो . यहीं से पैदल रास्ते पर हमारा गाँव भी है . जहां हमारे बड़े ताऊ रहते हैं . यदि पहले का समय होता . तो संभवतः मैं यहाँ आने से पहले अपने दोनों ताऊ के यहाँ जाता .

 मेरे पहुँचने पर हमारे पेट्रोल पम्प के कार्यकर्ताओं के चेहरे खिल गए . नाटे कद का गोरा चिट्टा जीतेन्द्र , गोल मुहं सांवला सा राम जी, उनके चचेरे भाई अलोक  और लम्बा अमिताभ बच्चन स्टाइल ब्रिजेश कुमार  सेल्स मैन ग्राउंड पर काम करते थे . ब्रिजेश का भाई रितेश जो कि लम्बा चौड़ी कद काठी वाला कभी कभार संकट के समय अपने भाई की मदद करने आ जाता था . इन सबके अपने अपने गुण दोष थे . जो कि सबमें होते हैं .  सेल्स ऑफिस में हमारे परिवार के सदस्य नुमा पुराने कॉमर्स ग्रेजुएट रविन्द्र कुमार बतौर अकोउन्तंत कम मेनेजर पिछले 20 साल से इस पम्प के मुलाजिम हैं . उनकी ईमानदारी की कसमें खायी जा सकती हैं आँख मूँद के . जितनी उनकी कलम मजबूत है उतने ही वो गैर सामाजिक व्यक्ति हैं . काफी सालों के बाद मेरा यहाँ पहला दिन था . इसलिए ज्यादा कोई लोड नहीं लिया . और न ही किसी कर्मचारी पर किसी प्रकार का लोड दिया . पहले दिन केवल हलकी फुलकी मुलाक़ात . 

पेट्रोल पम्प के सेल्स ऑफिस के ठीक विपरीत दिशा में एक किनारे सड़क की ओर  तीन  मंजिला घर बना है . मैं उसे हमेशा से वाच टावर कहता हूँ . घर की एक खिड़की पेट्रोल पंप की तरफ खुलती है . बरामदे के झरोखे मुख्य सड़क की तरफ मुखातिब हैं . घर के पीछे नज़र रखने को कुछ रोशनदान बने हैं . ऐसे वाच टावर लगभग हमारी हर संपत्ति पर बनाये गए थे . जहाँ रहा जा सके और नज़रें रखी जा सके . इस घर में नीचे दो बड़े बड़े हॉल , ऊपर दो हॉल , संकरी गली में टॉयलेट , बाथरूम . उससे सटा हुआ पतला सा रसोईं घर . तीसरी मंजिल पर भी एक कमरा बना हुआ है . घर की दायीं तरफ एक लकड़ी की टाल है . इस पूरे घर में केवल एक कमरा रिहाइश के लिए इस्तेमाल होता था . उसी में पिता ने सालों साल गर्मी जाड़े बरसात काट डाले . अब मुझे इसमें अपना बसेरा बनाना था . इस घर की एक खासियत है . घर में सैकड़ों छिपकलियाँ हैं , चूहे हैं , मकड़ी हैं , चींटी कीड़े मकौड़े भरपूर हैं . पानी की सप्लाई ऊपर तक नहीं है . इसलिए किसी न किसी सेल्समैन या खुद ही नीचे से पानी लाना पड़ता . पिता की दो बाल्टी सुबह शाम भर कर ऊपर आ जाती थी . एक कंटेनर पीने वाला पानी . 

दरअसल पानी की व्यवस्था पेट्रोल पंप की खुद की नहीं थी . पेट्रोल पंप की अप्रोच रोड पर एक हैण्ड पाइप है . उसमें मौसम के अनुकूल पानी निकलता है . इसलिए गर्मी सर्दी में पिता उसी का पानी ऊपर चढ़वाया करते थे.  

बहुत साल पहले मैं एक बार पेट्रोल पंप संभालने आया था . कुछ दिन यहाँ रहा . पर यहाँ रहना कभी सरल नहीं रहा . बुनियादी सुविधाओं का समझो  अकाल सा पडा रहता था यहाँ . कुछ दिन यहाँ रुक के काम किया . काम को समझा . उसी दौरान पेट्रोल पंप के पीछे करीब 100 मीटर दूर से कोल्ड स्टोरेज के बर्फ खाने के टैंक से पानी की पाइप लाइन बिछवाई थी . ऑफिस में मुनीम की कुर्सी के अलावा एक और कुर्सी मेज दलवाई . इसी के साथ कुछ और फेरबदल करवाए थे . फिर भी हमेशा कमी सी लगी रहती थी . न खाने का ठिकाना . न रहने की मुफीद जगह . लगभग 3 महीने मैंने हरदोई से मल्लावां रोडवेज से उप डाउन किया . लेकिन संयुक्त परिवार की टेढ़ी नज़रों को मेरा काम भाया नहीं . और मुझे यहाँ से जाना पडा . अब जब मैं फिर से यहाँ आया हूँ . तो मुझे मेरे द्वारा किये गए बदलाव महसूस होते हैं . मेरे द्वारा किये गए बदलावों के बाद जड़ता के निशाँ भी मिलते हैं . 

 मल्लावां कसबे में ठीक ठाक साफ़ सुथरे खाने की जगहें न के बराबर थीं. पेट्रोल पम्प के ठीक सामने झिंगुरी का छोटा मोटा ढाबा था . जिसकी शामें दारू पार्टी से सजी रहती थी . ऊपर से तंदूरी रोटी के आलावा कोई विकल्प नहीं था . थोड़ी ही दूर कसबे की ओर शिवराम ढाबा है . शिवराम का ढाबा नाले के पास बना था . भीड़ तो खूब रहती थी . लेकिन मुझे खाने से पहले वहां का नाला दिख जाता था . मल्लावां चौराहे पर विनोद का ढाबा था . उसके यहाँ तवा रोटी जरुर मिलती थी . लेकिन पुलिस वालों भीड़ हमेशा लगी रहती थी . क्योकि वो ठाणे के नज़दीक था . मुझे खाना बनाने और खाने का शौक हमेशा से रहा . लेकिन उसके लिए हमारी रसोईं एक दम ठीक नहीं थी .

 मैंने मन ही मन सोचा , कि इन बेकार के सवालों में क्यों उलझना . मेरा मकसद है इस पम्प की सूरत बदलना . लिहाजा मुझे उसी पर काम करना चाहिए . बाकी सब छोटी मोटी समस्याओं को सुलझाया जा सकता है . लेकिन मेरे भीतर घबराहट घर कर रही थी . कि  यह सब कैसे होगा . पंप की सूरत बदलने को पैसा चाहिए . जो कि नहीं है . घर में रहने के लिए उसमें आमूल चूल परिवर्तन चाहिए . उसके लिए भी पैसा चाहिए . जो कि नहीं है . मेरी सबसे बड़ी चुनौती यही थी . 

 किसी तरह एक हफ्ते यहाँ समय गुजारने के बाद मैं वापस हरदोई चला गया . मुझे लगा कि सबसे पहले क्या है और क्या होना चाहिए के अंतर को ठीक ठीक समझना चाहिए . फिर उन्हें कागज़ पर उतारना चाहिए . फिर उस पर काम करना उचित रहेगा .खेत खलिहान और सेल्समेन !



किसी और शहर में मैं जब कभी अपनी बाइक में तेल  डलवाता .  तो उस पम्प के सेल्समेन को गौर से देखता . शहर के पेट्रोल पम्पों के सेल्समेन के चेहरे और ग्रामीण अंचल के पम्पों के सेल्समेन के चेहरे पर जमीन आसमान का अंतर दीखता है . शहरी पेट्रोल पम्प का सेल्समेन चमकता चेहरा लिए ग्राहकों के प्रति कृतज्ञ रहता है . तेल डालने से पहले डिस्प्ले में ज़ीरो दिखाता है , पम्प पर मौजूद तमाम पेमेंट गेटवे को संचालित करना जानता है . किसी कार में बैठे कस्टमर को इज्ज़त की निगाह से देखता है और सेवा भाव में तत्पर रहता है . एक आध अपवाद के तौर कुछ शहरी सेल्समेन ऐसा नहीं भी करते होंगे . 
इसके ठीक उलट ग्रामीण अंचल  के सेल्समेन का बॉडी लैंग्वेज अलग ही रहती है . गुटका , खैनी , पान और शाम की पाली में ठर्रे की आदत तो आम बात है . ड्रेस के चाहे जितने सेट उन्हें दे दिए जाएँ . लेकिन लम्बे अरसे तक केवल शर्ट ही उनके तन पर दिखती है .  पैंट घर या बाहर सितेमाल होने लगती है . कैप और बूट में गर्मी सर्दी का बहाना चलता रहता है . आई कार्ड तो बड़ी चीज़ है . तेल डालते समय शायद उनके भीतर यह भाव रहता हो कि वो इस दुनिया का सबसे बड़ा एहसान कर रहे हों . डीलर पर , ग्राहक पर और तेल कंपनी पर . ग्राहकों के संग गाली गलौज , मार पीट कोई बड़ी बात नहीं उनके लिए . कोई ग्राहक उनकी काबिलियत पर सवाल उठाये तो शायद उसे तेल देने से इनकार भी कर दें . डीज़ल गाडी में पेट्रोल और पेट्रोल गाडी में डीज़ल डाल के सारा दोष ग्राहक पर ही मढ़ सकते हैं . पेट्रोल पम्प की गिरती बढती सेल से उनका कोई प्रत्यक्ष सरोकार नहीं दीखता . 
यही कारण है . सेल्समेन के प्रति ग्राहकों का अविश्वास हमेशा ताज़ा रहता है . उनकी मुख्य शिकायत ग्राहकों के प्रति व्यवहार और तेल डालते समय नोज़ल में छेडछाड रहती है . 

मैं कोई दावा तो नहीं करता .   लेकिन मुझे इनके पीछे कुछ महत्वपूर्ण कारण समझ में आते हैं . जिनमें प्रमुख है . ग्रामीण परिवेश , काम करने के घन्टे , कम तनख्वा और न के बराबर ट्रेनिंग . ग्रामीण अंचल में परिवार का भरण पोषण खेत खलियान से ही होता है . इसलिए दिनचर्या का कुछ समय उन्हें ऐसे कामों के लिए सुरक्षित करना पड़ता है . 

मैंने अपने पम्प पर कार्य कर रहे सेल्समेन का साक्षात्कार किया . तो बहुत चौकाने वाले तथ्य सामने आये . पहला कि पेट्रोल पंप पर काम करना उनका शौक है . वो यहाँ शौकिया काम करते हैं . पेट्रोल पम्प का सेल्समेन  एक इज्ज़तदार काम है . दुसरा उन्हें काम करने के लिए घर से दूर नहीं जाना पड़ता . तीसरा इस काम से समाज में उनकी जान पहचान बढ़ जाती है . एक जगह का काम है इसलिए उन्हें कहीं भटकना नहीं पड़ता . तनख्वा के नाम पर उन्हें मात्र 3,500 प्रति माह मिलते थे . मैंने पूछा कि इतने कम पैसों में आप लोगों का घर का खर्च कैसे चलता है ? उनका जवाब था , कि चल जाता है क्यों की उनके अपने खर्चे यहाँ से निकलते रहते हैं . और घर के खर्चे खेती बाड़ी के कामों से निकलते हैं . 

मैंने पिता से सेल्समेन की कम तनख्वा का कारन पूछा . तो उन्होंने के कहा कि सेल्समेन बहुत पैसा परोक्ष रूप  से बना लेते हैं . जैसे फुटकर पैसे न होने का बहाना बना के दिन भर में 100 से 200 रुपये तक बना लेते हैं . इसके अलावा ये ग्राहकों से खेलते हैं . कभी कभी 100 का तेल मांगने पर 1. 00 लीटर को 100 दिखा के कुछ रुपये बचा लेते हैं . और एक बात जब सेल कम होगी तो कहाँ से कर्मचारी को मोटी तनख्वा डी जा सकती है . सेल बढे तो इनकी तनख्वा भी बढाई जाए . यह बात कुछ कुछ पहले मुर्गी आई की पहले अंडा आया जैसे उलझे सवाल जैसी ही थी .  इस अविश्वास की दो धारी तलवार पर नुक्सान ग्राहकों का होता था . और ग्राहकों का नुक्सान मतलब घटते ग्राहकों की संख्या से पम्प का नुक्सान . 
 
पेट्रोल पंप पर इतनी कम तनख्वा में काम करने के पीछे सेल्समेन के हाँथ कैश रहना है . जिसे वो वक़्त जरुरत किसी जुगाड़ से या किसी न किसी बहाने से  इस्तेमाल कर सकते थे . 
हरदोई जनपद के कुछ एक पम्प छोड़ कर कमोवेश सभी पम्पों के सेल्समेन की दशा यही थी . जहां लेबर लॉ और  मानव संसाधन की धज्जियाँ उडती हुयी प्रतीत होती थी . 

इस समस्या से निपटने के लिए एक दिन मैंने सभी सेल्समेन की मीटिंग बुलाई . मैंने उन्हें बताया कि वो देश की एक महारत्न कम्पनी के लिए काम करते हैं . जिसका नाम है भारत पेट्रोलियम . उन्हें बताया की यदि वो ग्राहकों के प्रति संवेदना रखते हैं और उनका विशवास जीतते हैं . तो सेल बढ़ेगी . सेल बढ़ेगी तो आमदनी बढ़ेगी . उन्हें रोजाना हुयी डीज़ल पेट्रोल की सेल को ध्यान में रखने की नसीहत दी . जिससे उन्हें ज्ञात रहे कि पिछले दिन उन्होंने कितना तेल बेचा . और अगले दिन कितनी बढ़त हांसिल कर सकते हैं . यही बढ़त सप्ताह और माह के अंत में भी महसूस करने को आदत में डालने को कहा . महीने के अंत में सेल के हिसाब से सबसे ज्यादा बिक्री करने वाले सेल्समेन को इनाम दिया जाएगा . इसके साथ ही साथ  एक एनी  महत्वपूर्ण घोषणाएं भी की गयीं . एक कि अगले माह से सभी सेल्स में की तनख्वा में हर माह 500 रुपये की बढ़ोत्तरी की जाएगी . और गर्मी में पंप की तरफ से ग्लूकोस की व्यवस्था की जाएगी . जिससे की सूरज की तपिश से उनके भीतर पानी की कमी न हो पाए . 

 मुझे यकीन था इस मीटिंग के बाद से सेल्समेन के भीतर पंप के प्रति लगाव बढेगा . और प्रतिस्पर्धा के चलते उनमें अच्छी सेल करने का हौसला मिलेगा . 
कुछ ही समय बाद . मैं चाहे पम्प पर होऊं या न होऊं . सेल्समेन का मेरे पास फोन आता . भाई जी इस सप्ताह मैंने इतना डीज़ल बेचा इतना पेट्रोल बेचा . यह सुन के मुझे बहुत अच्छा लगता था . कुछ सकारात्मक माहौल बनता दिखाई दे रहा था . 
मैं चाहता तो एकदम सख्ती करके ड्रेस और बाकी सभी चीज़ों को भी जबरदस्ती उन पर थोप सकता था . लेकिन मुझे उनके भीतर एक बेहतर सेल्समेन होने का भाव बोना था . जो की धीरे धीरे वक़्त के साथ ही संभव होना था .

  

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जय किसान !


हमारा यह पम्प भारत पेट्रोलियम का है . जो कि 19 92 में  कमीशंड ( शुरू हुआ )  हुआ था . कुछ ही वर्ष में यह पम्प 30 का होने वाला था . 26 वर्ष होने के बाद भी पेट्रोल पम्प पर बुनियादी सुविधाएँ नहीं थी . जो कि आयल मार्केटिंग स्टैण्डर्ड के हिसाब से होनी थी . फ्रीजर का ठंढा पानी , मुफ्त हवा , टेलीफोन , साइलेंट डी जी ( डीज़ल जेनसेट )

सेल्समेन की ड्रेस , स्वक्ष टॉयलेट ( महिला पुरुष ), स्वक्ष बाथरूम कुछ भी नहीं . मुफ्त हवा के नाम पर पुराना हवा वाला टैंक , ठंढे पानी के नाम पर पुराना बेकार पडा फ्रीज़र था . साइलेंट डी जी की जगह पुराना फट फट करता 5 किलो वाट का अल्टीनेटर जनरेटर था . हालाँकि मुनीम जी ( रविद्र कुमार ) की कृपा से  सेल्स ऑफिस में फर्स्ट ऐड बॉक्स था . जिसमें दवाएं भी थी . 

 यह डीलर साईट थी . जिसे कंपनी वाले डी सी साईट कहते थे . जो डी सी साईट नहीं होती है वो सी सी साईट होती है . यानी कंपनी साईट . देश के सभी पेट्रोल पम्प तीन केटेगरी के होते हैं . कंपनी ओन्ड डीलर ओपेरेटेड ( codo ) , डीलर ओन्ड डीलर ओपेरेटेड ( dodo ) और कंपनी ओन्ड कंपनी ओपेरेटेड ( coco ) . हम दूसरी केटेगरी में आते थे . इसलिए कंपनी वालों का ध्यान कम था इधर . इस पम्प की कमाई बड़ी बड़ी इमारतें खड़ी की गयी थी . धंधे चलाये गए थे . लेकिन इस पम्प के भाग हमेशा अभागे रहे . न छत , न फर्श , न पर्याप्त लाइट्स . चार नोज़ल वाली  एक एम पी डी (  Multiple Product Dispenser ) यानी फ्यूल डिस्पेंसर . जिसमें से दो नोज़ल पेट्रोल के और दो डीज़ल के . कभी इस पम्प पर 4 मशीने हुआ करती थीं . इस पम्प ने वो दौर भी देखा है जब यहाँ की सेल 12 के एल प्रति दिन तक पहुँच जाती थी . यानी की एक टैंकर रोज .इतनी भीड़ लगी रहती थी . कि तेल आपूर्ति के लिए पुलिस बल का साहारा लेना पड़ता था . सेल्स काउंटर से पर्ची कटती थी . उस पर्ची को मशीन पर दिखा के तेल लिया जाता था . इस पम्प का इसकी शुद्धता और पूर्णता के चलते क्षेत्र में नाम था . फिलहाल इसकी सेल घट कर औसतन डेढ़ से दो के एल रह गयी थी . धीरे धीरे पम्प की शाख जाती रही . उस दौर में जब सेल अच्छी खासी थी .

 तब कंपनी ने कई ऑफ़र दिए . पंप में इन्वेस्ट करने को . लेकिन डीलर ( हमारे पिता ) ने उन सभी को ठुकरा दिया . यह कहते हुए . कि कंपनी के अंडरटेकिंग में डीलर कंपनी का गुलाम हो जाता है . कंपनी सेल्स का दबाव डालती है . मन मर्जियां  करती है . जब चाहती है जबरदस्ती तेल भेज देती है . मोबिल भेज देती है . और बेवजह डांट धौंस सुनने पड़ती है . यही वजह थी इस पम्प के साथ कमीशंड हुए बाकी पम्प समय के साथ बदलते रहे . आधुनिकता की ओर अग्रसित रहे . डीलर साईट होने की वजह से ज्यादा दबाव नहीं डाला जाता था . मुनीम जी बताते हैं . कि इस पम्प पर कई बार जांच हुयी . यहाँ तक दिल्ली से विजिलेंस टीम ने भी आकर जांच की . लेकिन आज तक कोई ऊँगली नहीं उठा पाया है . 

 हमारे पम्प का एरिया आम पेट्रोल पम्प की अपेक्षा बड़ा है  . पम्प के परिसर में 6 से 8 ट्रक खड़े होने की जगह रहती है . मल्लावां कस्बे से बांगर मोऊ रोड पर 2 किलोमीटर दूर . एकांत में . पम्प के पीछे मल्लावां कोल्ड स्टोरेज है . जिसकी दिवार पम्प की दीवार से सटी हुयी है . दायें तरफ एक बड़ा सा बाग़ है . और ठीक सामने कुछ आवासी मकान और खेत पात . सुरक्षा की दृष्टिकोण से यह पम्प हमेशा असुरक्षित रहा .  

15 के एल ( किलो लीटर ) पेट्रोल टैंक और 20 के एल ( डीज़ल टैंक ) . पहले हाई स्पीड डीज़ल का तेन भी था . जिसे बाद में हटवा दिया गया था . पम्प के दोनों छोर पर बड़े से पाकड़ के पेड़ थे . सेल्स ऑफिस के पास वाले पेड़ के नीचे एक तख़्त पडा रहता था . उसी पर सेल्समेन खली समय में विश्राम किया करते थे . उसी के ठीक पीछे हवा वाली पुरानी लोहालाट मशीन एक पिंजड़े में कैद थी . 

प्रिय तुम ....

 प्रिय तुम ....

तुम्हारी बात पर मुझे यकीन नहीं होता . कितना यकीन करूँ ? यकीन के तो पहाड़ लांग लिए हैं मैंने . यकीन मेरे भीतर असीम प्रेम लिए जड़ हो गया है . तुम्हारी अकड़ ताड़ के पेड़ जैसी है . मेरे घर के पीछे दो ताड़ हैं . दोनों दस फीट की दूरी पर . उन ताड़ों की उम्र और कद इतनी हो गयी है . कि उनपर कोई चढ़ नहीं पाता . मदिया के हत्थे अभी भी रस से छलछला उठते हैं . बताते है नर ताड़ की ताड़ी खट्टी होती है . और मदिया की मीठी . हमारे ग्रामीण अंचल में ताड़ का व्यवसाय खूब होता है . पर इस तरह प्रेम में डूबे हुए ताड़ इतने करीब नहीं देखे . वो मात्र 10 फीट की दूरी पर हैं . उनकी उंचाई 100 फीट से ऊपर है . पर मज़ाल क्या है एक दूसरे के हाँथ छू जाएँ . 

तुम्हारी पसंद और नापसंद की क़द्र है मुझे . तुम्हे भी है . मैं जानता हूँ . तुम्हे बात करना एक दम पसंद नहीं . आज अचानक अपने ही कमरे में बगैर बत्ती जलाए जाने का मन हुआ मुझे , खिडकियों से बाहर की स्ट्रीट लाईट, डिम  स्पॉट लाईट की तरह दीवारों पर पद रही थी . बाहर की चकाचौन्द से आया मैं , जैसे ही अन्दर घुसा सामने खाली कुर्सी पर जैसे किसी ने मुझे खींच लिया . इतना सुकून मिला . इतना सुकून मिला ... मेरे हाँथ में मोबाइल नहीं था . कितने ही दिनों के बाद आज कमरे में टी वि नहीं चला . 


मैं आ रहा हूं ... #imamdasta

  जो सिनेमा हमारे नज़दीक के थिएटर या ओ टी टी प्लेटफार्म पर पहुंचता है । वह हम दर्शकों को तश्तरी में परसा हुआ मिलता है । 150 से लेकर 600 रुपए...