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रविवार, 12 दिसंबर 2021

"कुम्हलाए बच्चे"


 बच्चों की दुनिया बड़ी अजीब होती है। बड़ों से एकदम उलट दिखने वाली दुनिया में तमाम यातनाएं होती हैं। बच्चों और बड़ों की दुनिया में अघोषित शीत युद्ध चला करता है । अक्सर बड़े, बच्चों से भागते हैं और बच्चे बड़ों की संगत से डरते हैं। हमने अपने इर्द गिर्द ऐसा ही समाज बना रखा है । जहाँ हम बच्चों की भावनाओं से जाने अनजाने खिलवाड़ करते हैं ।

बच्चे की चाहत लिए एक परिवार कितने गर्व से बच्चों को इस धरती पर लाता है। फिर खेल खिलौनों की उम्र तक बच्चे प्यारे लगते हैं। धीरे धीरे बच्चों की दुनिया में हम बड़े अपनी धाक जमाने लगते हैं। और मासूम सा बचपन कुम्हलाने लगता है ।
कुछ दिनों पहले मैंने फैसला किया था। कि चलो कुछ दिन बड़ों की संगत छोड़ बच्चों की संगत देखी जाए। एक शाम मोहल्ले के बच्चों को घर पर शॉर्ट फिल्म दिखाने बुलाया। मोहल्ले के बच्चों के साथ ऐसा पहली बार होने वाला था। उन्हें बर्थडे पार्टी के निमंत्रण आते थे। पर शार्ट फ़िल्म देखने को पहली बार उन्हें बुलावा आया था। मैंने भी तुरत फुरत उनके अभिभावकों से शार्ट फ़िल्म दिखाने की इजाजत ले ली थी। जिससे बच्चों के भीतर कम से कम उस समय अपने माँ बाप का डर न सताता।
6 - 7 बच्चे आए। उनके लिए सत्यजीत रे की शार्ट फ़िल्म "टू" का प्रसारण घर की बड़ी टीवी पर किया गया। कमरे की लाइट्स ऑफ। पहले कुछ मिनट बच्चों को इस नए माहौल में एडजस्ट होने में लगा। फिर बच्चे फ़िल्म वाले दो बच्चों के संग हो लिए । यह फ़िल्म दो विपरीत परिस्थिति के बच्चों के गहरे संवाद पर आधारित है। फ़िल्म खत्म हुई । लाइट्स वापस जला दी गयी। बच्चों की प्रतिक्रिया प्रश्नवाचक थी। मुझे भी उन्हें सवालों के साथ छोड़ना था। सो छोड़ दिया।
बाद में मुझे उनके अभिभावकों से पता चला कि बच्चे उस फिल्म के दौरान बोर हो गए। लेकिन मेरे लिए वो बोरियत भी काफी लाभदायक लगी। कम से कम बच्चों ने पहली बार एक साथ मिल के कोई ढंग की फ़िल्म देखने का अनुभव किया। अगली बार उन्हें कोई फ़िल्म अच्छी भी लग सकती है । मेरे लिए बच्चों की संगत नया अनुभव था। मुझे बेहद पसंद आया।
दो दिन पहले एक विवाह समारोह में जाना हुआ। वर और वधु पक्ष अपने अपने पाले में तैयारियों में जुटे थे। सजी धजी पोशाकें । गले , उंगलियों और पैरों में सोने चाँदी के भारी भारी जेवरातों के साथ लोग उत्सव में तल्लीन थे। मैं फिर से बड़ों की दुनिया से निकल बच्चों की दुनिया में पहुच गया। वर एवं वधु पक्ष के बच्चे पाले की सीमाएं लाँघ कर साथ खेल रहे थे। उत्सव लॉन की मखमली घास पर बच्चे दौड़ लगाएं। खूब गुत्थिम गुत्था होता रहा। वो सभी बड़ों से दूर थे। इसलिए बेरोकटोक खूब खेले। मैं उन के खेल देखता रहा। वो कई बार गिरे , कपड़े झाड़े और फिर खेलने लगे। बीच बीच खाने पीने के स्टालों पर कुछ खा पी आते। खेलते खेलते बच्चों के चेहरे लाल पड़ चुके थे।
बड़े जहाँ भी खेलते बच्चों को देखते । आँख दिखाते। ऊंची आवाज में उन्हें अनहोनी का डर दिखाते। कई बार बच्चों ने बड़ों की चपत भी खायी। 
कुछ देर बाद फिर से सब सामान्य। उन सभी बच्चों में तीन बच्चों में जबरदस्त ऊर्जा थी। तीनों लगभग एक ही कद काठी के । वो शायद पहली बार मिल रहे थे। लेकिन उनके खेल के संयोजन और सामंजस्य को देख लग रहा था। जैसे वो साथ ही रहते हों। कुछ ही घंटों में वो तीनों बच्चे बड़ों की दुनिया में शैतानियों के लिए मशहूर हो गए । उनकी चर्चा होने लगी। मैं उनमें से एक बच्चे की माँ से मिला। उन्होंने मुझसे तड़ाक से सवाल किया। " मिले मेरे खूंखार बच्चे से" । मैंने भी मुस्कुरा के उनका खूंखार होना स्वीकार किया।
उन तीन बच्चों के खेल से सबसे ज्यादा बुजुर्ग आतंकित थे। वो दूर से बैठे बैठे इन बच्चों की गालियों से बलैयां ले रहे थे। बच्चे उन बुजुर्गों के पास गए तक नही। फिर भी उनकी त्योरियां इन बच्चों पर चढ़ी रही। वो उनकी चुगलियां बच्चों के माँ बाप से करते। माँ बाप बीच बीच तैश में आकर बच्चों को हाँक लगाते। यह देख कर बुजुर्गों को कुछ तसल्ली मिलती। मैं उन बुजुर्गों के पास थोड़ी देर बैठा। वे सभी अच्छे अच्छे सरकारी नौकरियों से रिटायर्ड सभ्य समाज के झंडाबरदार थे। उनमें से किसी एक ने कहा " ये तीनों बच्चे बड़े हरामी हैं " । दूसरे ने सुर मिलाते कहा " आज कल के बच्चे बर्बाद हो गए हैं" । तीसरे ने अभिभावकों पर लानत फेंकते हुए कहा " माँ बाप ने ही बच्चों को बिगाड़ रखा है" । हमारे जमाने में मजाल है बच्चे बड़ों की बात न मानते। मुझ से वहाँ ज्यादा देर बैठा न गया। उनकी बातों में हिन्सा थी , क्रोध था और बच्चों को मसल देने की घुड़की थी। मैं फिर बच्चों के बीच आ गया। उनके पास आकर काफी हल्का लग रहा था। एक छोटी सी बच्ची मेरे पास आती है। मुझसे हाँथ मिलाती है। मैं उसके साथ खेलने लगता हूँ।
कार्यक्रम खत्म हो चुका था। मुझे वो सारे बच्चे और उन बुजुर्गों की बातें रह रह कर याद आ रही थीं। आधे रास्ते मैंने अपनी गाड़ी एक ढ़ाबे पर रोक दी। दो तीन सिगरेट लगातार पीने की तलब लगी। मैं ढाबे के पास वाली पान की दुकान पर गया। लगभग उन्ही तीन बच्चों के हमउम्र दो बच्चे पान की दुकान पर मोबाइल में कुछ देख रहे थे। एक आदमी दुकान में सो रहा था। मैंने सिगरेट माँगी। बच्चों ने मोबाइल किनारे करते हुए पूछा कौन सी सिगरेट ! उनके कपड़े ग्रीस और मोबिल से सने थे। वे बहुत दुबले पतले मगर फुर्तीले दीख रहे थे। दोनों किसी ट्रक मेकैनिक के यहाँ सहायक का काम करते हैं। अभी पानवाले को राहत देने के लिए कुछ देर यहाँ बैठे हैं। मुझे बच्चों से सिगरेट लेने में अजीब सी हिचकिचाहट हो रही थी। एक बच्चे ने सिगरेट मेरी तरफ बढ़ाई। उसके नन्हे नन्हे काले हाँथ । हंथेली में पाना रिंच से धट्ठे पड़े हुए। हंथेली के ऊपर ताज़े जले के निशान थी। मैंने बच्चे से पूछा कैसे जल गए ?
उसने ट्रक के इंजन की तरफ हाँथ उठा के इशारा किया । वो मुस्कुरा दिए। फिर से मोबाइल में गुम हो गए । मेरा हृदय भर आया। मुझसे और वहाँ न रुका गया।
घर आते ही मेरे बच्चे ने दरवाज़े पर ही खबर दी। कि मम्मा बहुत गुस्से में है। वो तीन दिन से मुझे पढ़ा रही है। मैं लर्न करता हूँ और भूल जाता हूँ। मम्मा भूलने पर बहुत मारती है।
मैं हताश हो गया था। बच्चों की दुनिया में और रहने व उनकी संगत का फैसला तुरंत रद्द कर दिया। मेरे भीतर उनकी दुनिया के तनाव लेने का ताब नही बचा था। मैं हार चुका था। मगर बच्चे उस दुनिया से मुस्कुराते हुए निकल आते हैं। 

सोमवार, 29 नवंबर 2021

ढाँक लिया तुमने अपने सफेद आँचल से !

 


ना उम्मीदी के सूखे पन से धरती की नमी सूखने लगी थी। ये सूखना दर असल सूखना नहीं था, ये ख़त्म होना था। ख़त्म होना उसे महसूस हो रहा था लंबे समय से। लगातार ख़त्म होने के एहसास के साथ साथ एक बिंदु पर उम्मीद ने भी साथ छोड़ दिया। पिछली बार  प्रेम की पैदाइश के बाद धरती की कोख को आग के हवाले कर दिया गया था। वो अंदर ही अंदर सुलग रही थी। भीतर की आग और सूरज की बे रोक टोक तपिश सब कुछ भस्म कर देने को तड़प रही थी। गर्म सूखी हवा से परत दर परत मिट्टी उखड़ते हुए धूल बनकर आसमान को छू लेना चाहती थी। 

फेफड़ों में धूल और धुएं की परतें जैसे ही सांस के बीच आने लगी, हर तरफ अफरा तफरी मच गयी। लोगों का दम घुटने लगा। धरती के उस रौद्र रूप के काल से बचने के सारे प्रयास विफल होने लगे। जो कभी जीवन देती थी, उसने जीवन ले लेने का थोड़ा सा आभास कराया तो सारी समझ धरी की धरी रह गयी। ना समझी जब समझ का ताज़ पेहेन ले तब ना समझी से उपजी आपदा की आहट तक महसूस नहीं होती। 

      पर धरती तो धरती ही है। उसका निश्छल और अथाह प्रेम ही उसकी असीमित ताकत है। प्रेम में गहरे से गहरे घाव जज़्ब कर लेने की ताकत है। हर आघात उसकी ऊर्जा बन जाती है। इस सुबह जब कुछ नमी लिए कोहरे की सफ़ेद चादर छायी दिखी, तो लगा किसी प्रेम के आँचल ने फिर से ढाँक लिया हो। जीवन फिर से कौंधने लगा है। पर उस आँचल में संघर्ष की थकावट है। उस आँचल को प्रेम के बदले प्रेम की सख्त ज़रूरत है। जो उसकी पनपने की ऊर्जा भी है और सब कुछ तहस नहस कर देने की ताकत भी। उसके इस आँचल को सहेज लो, उसके प्रेम को सीने से लगा लो, उसे महसूस करो। वो धरा है, और प्रेम की धारा भी।

शुक्रवार, 22 अक्तूबर 2021

झिल्ला !

 


तुम्हारे पास कित्ते झिल्ला हैं ? चार ! दुई हमरे तीर । दुई छुटकी तीर हैं। जोड़ो जोड़ो कित्ते झिल्ला ? उंगलियों के पोरों पर राबिया ने गिनती गिनना शुरू किया। एक ...दुई...तीन ....। तीन के बाद राबिया आंखें मटकाने लगी । सुब्बू बोला ! ए राबिया ...आंखें काहे मटकाए रही । दीदी जब पढ़ावत हैं तब्बो आंखें मत्कावट है। और अब्बो मटकाए रही । 8 झिल्ला भए । चार धन दो धन दो । भए 8 । 

विद्यालय के दरवाज़े अभी भी बन्द हैं । दीदी जी , गुरु जी , रसैयां अभी तक आधा घंटे विलंभ से हैं। ख़लीहर बच्चे आंखों में मोटा काजल लगाए विद्यालय पहुँचना शुरू कर दिए हैं। गाँव के किनारे प्राथमिक विद्यालय जसपुर का यह हाल रोज का है। जब तक विद्यालय नही खुलता है । बच्चे यूँ ही कुछ खेल कूद के टाइम पास करते हैं । 

बच्चों ने सबके जेब से कंचे झाड़े। आज उनकी सहेलियां भी कंचे (झिल्ला) खेलना चाहती हैं। हंथेली से उतनी जमीन की सफाई की । जितने में खेल खेला जाना था। उंगलियों से कुरेद कुरेद के चटनी वाली कटोरी के बराबर गड्ढा बनाया।  चार कदम दूर एक सीधी लाइन खींची । अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो .... सबकी अपनी अपनी बारी तय कर ली गयी । 

विद्यालय के पास एक बड़ा सा इमली का पेड़ है । पेड़ के नीचे रहवासियों की बकरियाँ बँधी रहती हैं। कुछ एक गाय भैंस बाँध दी जाती हैं।  विद्यालय के आस पास के घरों का घूरा भी यहीं है। ऊपर से पानी कीचड़ । इसलिए बच्चों को खेलने की छांव वाली जगह कम ही बच पाती है। वो अपना किसी तरह से काम चलाते हैं। रोज़ सुबह उनका काफी समय खेल तय करने में , या खेल की तैयारी करने में व्यतीत हो जाता । 

खेल शुरू हो गया था। अपनी बारी में एक बच्चा सारे झिल्लों को गुपिया (गड्ढा ) के आस पास फेंकता । जो गुपिया में पिल गया वो झिल्ला उसका। जो नही पिले। उनमें से किसी एक पर निशाना साध के ट इं यां ( बड़ा कंचा या बंटा ) से झिल्ला चटकाना होता है । सो , बारी बारी से सारे बच्चे इस खेल को दोहरा रहे थे। 

उन बच्चों में राबिया सबसे मिर्री थी । आँखें बड़ी बड़ी । ऐसा लगता था । माँ की उंगलियों ने उनमें काजल भर भर के बड़ा कर दिया हो । वो बस्ता लादे लादे थक जाती थी। आज उसने नया खेल सीखने को बस्ता घूरे पर रख दिया। और झिल्ला का खेल सीखने में लग गयी। गुपिया , ट इं या , पिलना आदि शब्द खेल देख देख सीख लिए थे। लाइन के उस पार वो पहली बार खिलाड़ी के तौर पर आयी थी। झिल्ला फेंकने में दो झिल्ला गुपिया में पिल चुके थे। अब बंटे से जैसे ही उसने झिल्ला चटकाने को निशाना साधा । रेनू चिल्लाई .(जैसे कोई सैलाब उन बच्चों की ओर बढ़ता आ रहा हो ) .दीदी जी आय रही हैं...दीदी जी....

अचानक से खेल में अफरा तफरी मच गई। दीदी जी की कार उनसे पहले विद्यालय के गेट के सामने लग गयी। पड़ोस वाली सीट से गुरू जी तैश में उतरे । नालायक .... बत्तमीज़...अनपढ़...कहीं के । जरा सा इंतज़ार नही हो रहा था । तुम लोगों से । घूरे पर झिल्ला खेल रहे हो ।...गुरु जी का गुस्सा सातवें आसमान पर था।  सभी बच्चे बुत बन गए । जैसे किसी ने उनको स्टापू वाला खेल खिला दिया हो । अब खड़े क्या देख रहे हो ? चलो दरवाज़ा खोलो .! गुरू जी ने बच्चों को आंखें दिखाते कहा। 

बच्चों ने गुरु जी से चाबी लेकर दरवाज़ा खोला। दीदी जी ने विद्यालय प्रांगड़ में गाड़ी पार्क कर दी। बच्चों को पढ़ने की नसीहतें बड़बड़ाती हुई अपनी कुर्सी पर बैठ गयी। सभी बच्चे सहमे से अपनी जगह लेते हैं। गुरु जी ने कक्षा में हाजरी लगाई। पढ़ाना शुरू कर दिया। उन सारे बच्चों में राबिया बहुत असहज हो रही थी। गुरु जी ने उसकी बेचैनी को भाँप लिया था। क्या हुआ राबिया ? क्यों परेशान हो ! राबिया खड़ी हो कहती है । गुरु जी बस्ता हमारो घूरे पर रही गौ । 

गुरु जी का गुस्सा फिर से सातवें आसमान पर पहुँच गया। " बस्ते का होश नही है। वो घूरे पर छोड़ आए । वाह ! जाओ ...लेकर आओ । और बाहर खड़ी रहना मेरी कक्षा में । गुरुजी के लिए ये भूल एकदम क्षम्य नही थी । रह रह कर उन्हें ताव आ रहा था। उन्हें उनके बचपने में दादी की झिड़की याद आ गयी। वो गुस्से में कहा करती थी। "जाओ बस्ता घूरे पर चलाए आओ" ।

राबिया बस्ता लाकर कक्षा के बाहर खड़ी हो जाती है। गुरु जी ने झिल्ला खेलने वाले सभी बच्चों को बाहर खड़े रहने का फरमान सुना दिया। झिल्ला वाले सभी बच्चे कक्षा के बाहर लाइन से खड़े हो गए। 

सुब्बू ने राबिया की आंखें देख फिर कहा " अब काहे आंखें मटकाए रही हो ? और खेलो झिल्ला...जब खेलै नही आवत तब्बो खेल रही। भूल गयी बस्ता। हम सबका खड़ा करवा देहो ।

राबिया ने अपनी दोनों मुट्ठियाँ बन्द कर सुब्बू के सामने तान दी। बतावो कौन मुट्ठी माँ झिल्ला हैं ?

नोट : तस्वीर में मौजूद बच्चों का कहानी के किरदारों से कोई वास्ता नही है ।

सोमवार, 27 सितंबर 2021

गूगल !

 मैं तेईस वर्ष

आंखों के बंटे में

गोल देखता इतना
लगता दिल के करीब ..

फरेब न समझ
असल समझ

इतनी कम उम्र में
दुनिया समेटना
मूर्ख आकाश में
समझ से हल्का
दिल माँगता कुछ न
देने को बैठा समय
और समय । 

शनिवार, 25 सितंबर 2021

माँ के नाम एक ख़त


प्यारी माँ ,

 माँ ! तुम्हे याद है ? हमारे पुराने वाले मकान में एक कमरा हुआ करता था। छोटा सा कमरा । एक डबल बेड । एक स्टोर। एक टाँड़। हमारे उस घर के एक कमरे को , मैंने अपना कमरा बना लिया था। तुम्हे याद है वो कमरा ? तुम्हे जरूर याद होगा।

 उसकी एक दीवाल पर एक पोस्टर लगा था । खूँटियों पर हमारे कपड़े टंगे होते। टाँड़ पर बस्ता किताबें। मुझे तब यकीन होता था कि मैं पढ़ने में औसत हूँ। 

तुम कहती " मूंगफली का ठेला लगाना बड़े होकर " । तुम कहती "बोलो तुम्हारे मन से क्या है "। तुम्हारे प्रश्न बहुत कड़वे होते थे। कड़वा उनका स्वाद नही था। हमारे उन प्रश्नों को समझने का माद्दा नही था। 

मुझे आज तक नही मालूम चला । कि तुम्हारी वो गुस्सा हमें किस राह पर ले जाना चाहती । और हम कहाँ भटक जाते। छोटा भाई जब तुमसे मार खाता था। तब मुझे उसके बचपने वाली तस्वीर याद आ जाती। गोल मटोल 2 काले टीके लगे। उस तस्वीर को देख कर आज भी लगता है कि उसे खिला लूँ। 

वो खूब चिल्लाता तुम्हारी मार से। मुझे लगता था। कि वो चीखने को अपना हथियार बना लेता था। तेज़ तेज़ रोएगा तो तुम्हे मामता लगेगी। तुम रुक जाओगी। उसके रोने से अडोस पड़ोस के लोग टोक देते थे तुम्हे। तुम उन्हें डराती कि वो हट जाएँ। पर उनका मान रख लेती। 

वो शैतान था। जिद्दी था। माँ मैं तुम्हे आज बता रहा हूँ। कि मैं बहुत गब्बर था। उसको छेड़ता। जब वो चिढ़ता तो मुझे उसे चिढ़ाने में ज्यादा मज़ा आती। तुम उसी की गलतियाँ सुन कर मुझे माफ़ कर देती। उसकी मार के बाद मेरी मार के चांसेस बढ़ जाते थे। 

   तुम्हे याद है ? तुम्हारी मार खाने को मैं तैयार रहता था। मैं अपने कमरे में दुबक के बैठा सुनता था तुम्हारा हल्ला। मुझे लगता अब मेरी बारी....अब मेरी बारी। तुमने जब जब मुझे मारा। मैं पीठ कर के खड़ा हो जाता । आँखें भींच के पीठ को सख्त कर लेता। मैं पहले से गिनती बढ़ा के बैठ जाता। तुम हमेशा उस गिनती से पीछे रहती। 

  तुमसे कम मार खाने या बचने के लिए मेरे पास चुप से बड़ा कोई हथियार नही था। तुम्हारे सामने बोलना तुम्हे पसंद नही था। 

 कई घण्टों बाद जब मैं अपने कमरे में होता। उस दीवाल पर लगे पोस्टर को देखता । खूब हरे पेड़ की टहनी पर घोसले को पालती चिड़िया। दाना लाती। मछली की तरह मुँह फैलाए बच्चों के मुँह में दाने डालती। पोस्टर के सबसे ऊपर के दाहिने कोने पर सफेद अक्षरों में लिखा होता।" नेचर इज़ द बेस्ट मदर " । मैं उस कमरे में ओढ़नी के भीतर सुबकता। 

 माँ तुमने वो पोस्टर कभी नही देखे ? मेरे कमरे में झाड़ू लगाते वक़्त । मेरे लिए सुबह की चाय लाते वक़्त। या दिवाली , होली की सफाई करते वक़्त। 

तुम बहुत रोत्तड़ हो। मैंने तुम्हारे आँसू बहुत जल्दी छलकते देखे हैं।

तुम अक्सर पापा से लड़ते वक़्त रोती थीं। कभी कभी मैं स्कूल से आता। रसोईं में तुम्हारे आंखों में आँसू देखता। तुम आँटा गूंथते हुए रोती दिखती। शाम को सीरियल के वक़्त तो तुम्हारी आंखें किसी छण डबडबा आती। फिल्मों को देखते वक़्त। नॉवेल पढ़ते वक्त तुम रोती दिखती। 

तुम्हे बच्चे बहुत पसन्द हैं ना ? पर शैतानी करने वाले बच्चे पसंद नही हैं तुम्हे। या तुम पापा का गुस्सा उतारती हैं हम पर। उनके तुमसे किये गए सारे सवाल आज भी वैसे ही हैं। तुम अभी भी जवाब देकर रोने लगती हो। 

पर अब तुम किसी को मारती नही। शायद हम में से किसी ने कभी तुम्हारा हाँथ पकड़ लिया होगा। तुम्हें आँख दिखाई होगी। या तुम्हे लगा होगा कि बच्चे बड़े हो गए हैं। पर तुम अपना गुस्सा कैसे उतारती हो ? कभी मेरी तुम्हारी बात हो तो बताना।  

                                             तुम्हारा प्यारा !


शुक्रवार, 24 सितंबर 2021

रेत घड़ी !

 


कोहरा ढक आया था। एक ट्रेन उस कोहरे को चीरती रुकती है प्लेटफॉर्म नंबर दो पर । राघव अपने पिट्ठू बैग को एक हाँथ से पकड़ , दूसरा हाँथ बैक पॉकेट पर रखता है। अलसाए बँगाली कोच की सीट को छोड़ नीचे उतरता है। प्लेटफॉर्म के शेड से झाँकते आसमान की ओर देख के अंगड़ाई लेता है। और जा बैठता है थोड़ी देर बेंच पर। यहाँ बैठता , वहाँ बैठता दो घण्टे काटने की बेचैनी को वह संभाल नही पाता।

वह रोज़ किसी न किसी राहगीर का हमसफ़र बनता।
कभी बँगाली, कभी पंजाबी तो कभी पहाड़ी यात्रियों से एक अदद सीट के लिए जद्दोजहद। आम बात थी। कभी ट्रेन की लेटलतीफी तो कभी कॉलेज की आकस्मिक बंदी । इन सब वाकयों का होना उसके अप डाउन का हिस्सा था। लोगों का मिलना बिछड़ना रोज की बात रहती उसके लिए।
रोज़ की तरह आज भी वो टिपटॉप लोगों में अपना कल खोजता प्लेटफॉर्म के चक्कर लगा रहा था। लंबे सफर की गाड़ियों के ए सी कोच गजब के उत्साह वर्धक होते हैं। ट्रेन से उतरने चढ़ने वाले लोग अपनी कहानी अपनी पोथी में लेकर घूमते हैं।
ठीक सामने प्लेटफॉर्म नम्बर एक पर एक आदमी ने उसे आवाज़ लगायी। अंग्रेज़ी में कुछ यूँ कहते। हेय यू ! (भारी आवाज़ ) । सफ़ेद शर्ट , सफेद पतली पट्टियों वाली काली पैंट। रौबीला चेहरा। हाँथ में छड़ी।
पहली बार राघव ने इग्नोर किया। फिर वही आवाज़ । हेय मिस्टर ! यू कम हेअर । उस आवाज़ में अजीब सा हक़ और रौब भारी था। राघव सीढ़ियों से उस प्लेटफॉर्म पर पहुँचता है। उस शक्श के ठीक सामने दो फर्लांग फासले पर खड़ा हो जाता है। "जी सर" ! आप ने मुझे बुलाया ?
हाँ हाँ !
मैंने तुम्हे देखा दूर से । तुम्हारे ललाट पर एक युवा तेज़ चमक रहा था। मैं देख के हैरान हुआ।
शुक्रिया अंकल !
क्या करते हो ?
सर बस पढ़ाई कर रहा हूँ। कॉलेज 10 : 45 से है । यहीं स्टेशन पर कुछ देर रहता हूँ।
अच्छा अच्छा । तो रोज़ अप डाउन करते हो ?
जी अंकल !
पिता जी क्या करते हैं ?
पिताजी नौकरी करते हैं। (हिचकते हुए ) । अच्छा अंकल मैं चलता हूँ। कुछ किताबें देखनी है। नाइस टू मीट यू !

हा हा हा हा ! कहाँ की हड़बड़ी है बेटा ? अभी तो तुम्हारे पास समय है। मेरी ट्रेन कुछ देर में आने वाली है । बस फिर तुम अपने रास्ते हम अपने रास्ते । आओ आओ यहाँ बैठो। ( काला चमकीला लेदर का बैग बेंच से नीचे रखते हुए)
राघव बैठ जाता है । ट्रेन और यात्रियों के कोलाहल के बीच राघव बुत बना बैठा रहा। शिष्टाचार , सलीका ,बात करने के ढंग से तो वो बहुत ही अच्छे खानदान से लगते हैं। फिर भी अजीब सा पशोपेश। बार बार " युवा तेज वाली बात आए जा रही थी। राघव ने भी अब झटके से सोचना छोड़ दिया। मन ही मन " बुड्ढे से पिंड छूटे " । वह पूछता है ।
अंकल आप क्या करते हैं ?
मैं लोगों की पैरवी करता हूँ । पैरवी मतलब वकालत( मुस्कुराते हुए ) ।
कहीं घूमने जा रहे हैं ?
नही ! मैं भी तुम्हारी ही तरह मुसाफिर हूँ। सुबह से शुरू हुआ सफर रात को ही घर करता है । राघव के पीठ पर हाँथ फेरते हुए । " डेली पैसेंजर " .
अच्छा ! फिर तो आप भी जानते होंगे कितना कठिन होता है । रोज़ रोज़ धड़क धड़क। पढ़ाई कम दौड़ ज्यादा।
अभी युवा हो ! इतना तो चलता है । हम ने भी अपने जमाने में ऐसे ही पढ़ाई की। तब तो इतनी ट्रेन भी नही थी। पर हाँ ट्रेन वक्त की पाबंद थीं। बहुत मेहनत करनी पड़ती थी।
तुम भी मेहनती दिखते हो। एक दिन देखना तुम बहुत नाम करोगे। तुम्हारी आँखों में सपने दिखते हैं।
तुम कहाँ कहाँ घूमे हो ? या केवल दो शहरों के बीच की दूरी तय करते रहे।
नहीं अंकल घूमूँगा जब पढ़ाई पूरी हो जाएगी। बचपन पापा की नौकरी के साथ घूमा । अब आगे जब अपने पैरों पर खड़ा हो जाऊँगा।
आप कहाँ के रहने वाले हैं ?
मैं सुल्तानपुर का ! उसके पास ही एक गाँव है बसोरा । बस तीन से चार घण्टे का रास्ता है यहाँ से।
आप यहाँ क्यों नही रहते फिर। बड़ा शहर। आप का काम और आप की उम्र। दोनों में आराम रहे।
गाँव में सुकून है । गॉंव के लोग सरल होते हैं। चूल्हे की रोटी । पका हुआ दूध । खुला आसमान । शुद्ध वायु , वातावरण । और यात्रा करना बहुत जरूरी होता है। सेहत के लिए भी और समाज के लिए भी।
राघव मुस्कुरा के उठ खड़ा होता है। अच्छा अंकल मैं चलता हूँ। आधा घण्टा रह गया है क्लास शुरू होने में। पैदल जाना रहता है। नमस्ते !
उन्होंने लपक कर हाँथ पकड़ कर बैठा लिया एक बार फिर ।
छोड़ो यार ! आज बंक करो कॉलेज । चलो तुम को अपने गाँव की सैर कराते हैं। तुम अपनी ट्रेन के समय तक वापस आ जाओगे। बता देना घर में कि एक अंकल मिले थे। और मुझसे तो कोई टिकट भी नहीं पड़ता। सरकारी वकील हूँ। जब कोई टिकट माँगने पर अड़ जाता है । तो उसे झाड़ देता हूँ।
इस बात पर हँसता हुआ राघव कहता है। नही अंकल ! आप समझ नही रहे हैं। स्कूल छूटेगा , घर नही पहुँचा तो डाँट पड़ेगी । और मैं झूठ नही बोल पाता।
हा हा हा हा ! कोई लड़की हो क्या ? जो तुम्हे कोई भगा ले जाएगा। कम ऑन बी ए मैन । और वहाँ चल के तुम्हे अच्छा लगेगा।
राघव का शरीर एक दम से विश्राम स्थिति में आ जाता है। जैसे एक झटके में उसने नई जगह की यात्रा को स्वीकार किया। आप की ट्रेन कितने बजे की है ?
बस आती ही होगी। 15 - 20 मिनट में।
ठीक है अंकल । चलता हूँ आप के साथ। अंकल क्या मैं आप का नाम जान सकता हूँ।
ये हुई न बात।
अंकल ! क्या मैं आप का नाम जान सकता हूँ।
लो भाई बातों बातों में हम अपना नाम ही बताना भूल गए। मेरा नाम प्रेम प्रकाश पाण्डेय है। और तुम्हारा ?
मेरा नाम राघव है। घर में सब रघु बुलाते हैं।
चलो अच्छा है । अब मैं तुम्हे रघु ही बुलाऊँगा। ट्रेन के सफर में अपने जीवन के रोचक किस्से सुनाऊंगा तुम्हे। तुम हंसते हंसते पागल हो जाओगे ।
ट्रेन अपने समय से 10 मिनट विलंभ से आयी। राघव ने अंकल का बैग बिना कुछ कहे पकड़ लिए। दोनों आमने सामने की खिड़की वाली सीट पर बैठ गए।
20 मिनट बाद ट्रेन खुलने के साथ ही राघव के जीवन में एक अनिश्चित यात्रा का अध्याय जुड़ने वाला है। राघव ने घर फोन कर के अपने सुल्तानपुर जाने की खबर कर दी। अब उसके लिए यह सफर हल्का महसूस होने लगा। वो अपने आप पर और इस फैसले पर आश्चर्य कर रहा था।
कि कैसे उसने एक अजनबी पर भरोसा कर लिया। लेकिन उसके पास लूटने के लिए कुछ नही था। बटुए में 100 - 150 रुपये , बैग में किताबे। बस !

अंकल ने अपने बैग से एक किताब निकाली । चश्मा चढ़ाया और पढ़ने लगे । सामने वाली सीट पर राघव अंकल के व्यवहार पर पैनी नज़र रखे था ।
अंकल आप तो कह रहे थे। अपने जीवन के किस्से सुनाएंगे। आप किताब पढ़ने बैठ गए।
ओह ! मैंने सोचा तुम्हे जानने में रुचि होगी तो तुम खुद कह दोगे। बस दस मिनट में किताब की कहानी का अंत कर दूं। फिर बात करते हैं हम ।
जी अंकल !
अंकल की बातें काफी प्रभावशाली हैं। कितने हसमुख , मिलनसार हैं अंकल। वरना हम लोगों के घर के बुजुर्ग एक दम खडूस।
अंकल की बातों का सिलसिला जब शुरू हुआ तो। रास्ते का पता ही नही चला। राघव पहले से ज्यादा कंफर्टेबल महसूस कर रहा था। अंकल के कहने पर दोनों ने सुल्तानपुर स्टेशन पर ही राघव का टिफिन खाया।
अंकल यहाँ से कितनी दूर है आप का गॉंव।
यहाँ से हम लोग पहले ऑटो पकड़ेंगे। फिर ताँगा । उसके बाद थोड़ा सा पैदल चलना पड़ेगा। नहर है।
वाह ! फिर तो बहुत रोमांच रहेगा रास्ते भर। बचपने में नानी के यहाँ जाता था तांगे से। राघव मन ही मन सोच रहा था।
धीरे धीरे वो गाँव भी आ गया । जिसकी अंकल ने बड़ी बड़ाई की थी।
गॉंव के बीचों बीच एक टीले पर पुरानी बनावट का बड़ा सा मकान । बड़ा सा लकड़ी का दरवाजा। बड़ी बड़ी साँकल को अंकल खड़खड़ाते हैं। राघव की आंखें उस हवेलीनुमा घर की बनावट देख कर हैरान हो रही थी।
अंदर से एक महिला सर पर घूँघट डाले निकलती है। और अंकल को चाचा जी कह कर पेअर छूती है।
अंकल आशीर्वचन देकर राघव का परिचय करवाते हैं। बहू ये आज के हमारे मेहमान हैं। राघव ! स्टेशन पर इनसे दोस्ती हो गयी। तो हमने सोचा अपना गाँव दिखा लाते हैं। वो वहाँ , बाथरूम है । जाओ जाकर फ्रेश हो लो। तब तक मैं थोड़ा सा पेअर सीधे कर लेता हूँ।
राघव ने इससे पहले इतना बड़ा घर अंदर से नही देखा था। हाँथ मुँह धूल के राघव आँगन में पड़ी चारपाई पर बैठ जाता है। उसके लिए एक बड़े से ग्लास मलाई वाली लस्सी आती है।
कुछ देर बाद अंकल भी लस्सी पर टूट पड़ते हैं। मुँह पर हाँथ फेरते हैं। और बहू से कहते हैं। हमारा आज शाम का खाना यहीं होगा। जो सबसे अच्छा बन पड़े। बना लेना। मैं गॉंव घूम कर आता हूँ।
राघव के मन में फिर भूचाल उठने लगा। अंकल तो कह रहे थे उनका घर। उनका घर यानी उनकी पत्नी , उनके बच्चे उनके नाती पोते होते। पर वो महिला अंकल को चाचा कह रही थी। और इस घर में उनके प्रति व्यवहार काफी औपचारिक लग रहा था।
अंकल राघव को लेकर गाँव में जाने अनजाने लोगों से बातचीत करते रहे। राघव का उन बातचीत में एक दम रस नही आ रहा था। अंकल केवल अपने किस्से ही सुनाते रहे। वापसी में राघव ने पूछ ही लिया।
अंकल आप तो कह रहे थे आप का घर। आप की पत्नी बच्चे नही दिखे।
रघु जी वो अपना ही घर है। बड़ा घर है। घर के बंटवारे के बाद मेरा परिवार दिल्ली में सेटल हो गया। मैं महीने में एक दो बार जाता हूँ। उनसे मिलने। यहाँ उन्हें अच्छा नही लगता । इसलिए वो इधर कम ही आते हैं। घर के आधे हिस्से में , जहाँ तुम बैठे थे। वो मेरे भाइयों का है। बाकी का आधा हिस्सा अक्सर बन्द रहता है। एक बड़ा सा कमरा है। वहाँ मैं रह जाता हूँ। खाना पीना सब भाइयों के यहाँ से हो जाता है।
शाम होने को थी। राघव का दिमाग अपने घर को जाने वाले रास्ते पर अटक गया था। उसने अंकल से ट्रेन या बस के बारे में पूछा।
अंकल ने मज़ाक करते हुए कहा। अभी तो दिन शुरू हुआ है। गॉंव घूमने में ही बहुत समय निकल गया। तुम्हे पसंद नही आया मेरा गॉंव ?
अंकल अच्छा है आप का गॉंव। खासतौर से आप का बड़ा सा घर।
राघव के कुछ समझ नही आ रहा था। उसने हिम्मत के साथ अपने घर फोन करके कह दिया। कि आज वो नही आ पाएगा। कल की क्लास करके आएगा। उसे मालूम था घर की नाराजगी का सामना आज नही तो कल करना ही पड़ेगा।
गाँव के लोग घर वापस आने लगे थे। सर्दी बढ़ने लगी थी। जगह जगह अलाव जलने लगे। ढिबरी वाला दीया, लालटेन आदि तैयार होने लगी थी।
रात के खाने पर सभी इकट्ठा हुए। अंकल के दो भतीजे , उनकी पत्नियाँ , 3 बच्चे और हम दोनों से वो आँगन चहचहाने लगा। खाने में चूल्हे की रोटी। सिल बट्टे पर पिसी धनिया टमाटर की चटनी। बैंगन का भरता , दाल और रायता। राघव को बहुत आनंद आने लगा। खाने के बाद बड़ी सी ग्लास में गर्म दूध और घर के बने पेड़े ने स्वाद में चार चांद लगा दिए।
महफ़िल खत्म हो गयी । अंकल और राघव सामने वाले घर में चले गए।
अंकल ने लालटेन जलाई। राघव का उस जगह से परिचय करवाया। अधिकतर कमरों में ताले लटक रहे थे। एक बड़ा सा कमरा थोड़ा साफ सुथरा लग रहा था। कमरे में दो बिस्तर लगे थे। पुरानी मसहरी के पावे बैठने लेटने और करवट लेने में हिलते और चुर्र चुर्र बोलते। पुरानी रुई की रजाई। बिस्तर पर कंबल बिछा हुआ। छत पर खेती किसानी के पुराने साधन टंगे हुए थे। राघव को ऐसा लगता जैसे वो अभी उस पर गिर पड़ेंगे। यहाँ शहर के घरों की इतनी आराम नही है। लेकिन शांति है। उस कमरे के भीतर ठंढ निस्तेज हो जाती होगी। राघव बिस्तर पर लेटा लेता सोच रहा था।
रघु कैसा रहा आज का दिन ?
अंकल मज़ा आ गया। कभी सोचा ही नही था। कि अचानक से ऐसी यात्रा का प्लान बन जायेगा। बहुत अच्छे लोग हैं यहाँ के। आवभगत में माहिर। आत्मीयता से मिलते हैं।
हाँ ! सही कहा।
चल भई अब मुझे तो नींद आने लगी है। लालटेन बुझा दूँ ?
ठीक है अंकल।
लालटेन बुझते ही आंखों को दिखना बन्द हो गया। आज सुबह से अभी तक की यात्रा आंखों में साफ साफ तैरने लगी।
राघव थका था सो सोने लगा। कुछ देर बाद उसे कुछ आभास हुआ। जैसे कोई उसे छूने का प्रयास कर रहा है। उसने रजाई अच्छे से दबा ली। अंकल उसके कांधे को धीरे से हिलाते हैं। उसके कान में फुसफुसाते हैं। " मेरे पैरों में बहुत तेज़ दर्द है। दर्द के मारे नींद नही आ रही " । अंकल की आवाज़ में असहाय होने का पुट था।
राघव उठा। और टटोल टटोल के अंकल के बिस्तर पर पैताने बैठ गया। और पंजे दबाने लगा।
बेटा थोड़ा ऊपर । थोड़ा और ऊपर । कहते हुए अंकल भर भर दुआएं राघव को देते रहे।
बस अंकल ? राघव ने कुछ छण बाद कहा।
ठीक है। जैसा तुम उचित समझो।
अंकल के नंगे पाँव को दबाते हुए राघव को अजीब सा लग रहा था।
राघव अपने बिस्तर पर जाने को हुआ। तो अंकल ने उसका हाँथ पकड़ झट से अपनी जाँघों के बीच में दबा लिया।
अंकल की इस हरकत से राघव के भीतर सिहरन दौड़ गयी।
अंकल ! ( बहुत ज्यादा गुस्से में राघव चिल्लाता है ) शर्म नही आती आप को।
बेटा मैं तो मज़ाक कर रहा था।
अंकल राघव से माफी मांगने लगे । इज्जत उछलने की दुहाई देते देते वो राघव को बच्चों की तरह पुचकारने लगे। वो कभी अपना हाँथ राघव के सर पर फिराते , कभी गाल पर तो कभी पीठ पर । कभी वही हाँथ राघव की छाती से हो कर नाभि के नीचे जाने की कोशिश करते । कुछ जद्दोजहद के बाद पैंट के हुक टूट गए । वो सर्प नुमा हाँथ जांघिए के अंदर कुछ सहलाने लगे ।
राघव को नीम बेहोशी सी छाने लगी। उसके तन का सारा ढका उतर गया था। सहलाने वाली जगह के तनाव के ठीक विपरीत उसकी देह ढीली पड़ने लगी थी। अंकल अपने थुल थुल नितम्ब के अलाइनमेंट में लगे हुए थे। मसहरी के पावे आक्रांत हो रहे थे।
राघव ने अपनी मनः स्थिति को संभालते हुए । अपनी ऊर्जा को कमर में केंद्रित कर अंकल को उछाल दिया। अंकल लड़खड़ा के बिस्तर के नीचे लुढ़क गए।
मेरी कमर ...मेरी कमर कह के अंकल मसहरी के नीचे कराहते रहे।
राघव ने उस गुप्प अंधेरे में अपने कपड़े जुटाए और कमरे के बाहर आकर ठंढी साँस ली। वो बेसाख्ता भागता रहा। अपनी यात्रा के उस छोर तक जहाँ से उसने यात्रा शुरू की थी।











बुधवार, 4 अगस्त 2021

समय बदल चुका है !

 


समय बदल चुका है

या बदलने वाला है
दोनों ही समय
पथराई आंखों में
धूल झोंकने जैसा है
समय बदलता रहता है
सेकंड या कहें नैनों सेकंड पर सवार
हम वैसे नहीं रहते अगले क्षण
जितना बीतता है बदलता है
जैसे मौसम
हमारे आस पास की आब ओ हवा
मन के ताने बाने
आते जाते लोग
नए समय से दो चार होते
हम पहुँच रहे होते हैं
बदले हुए समय
बीते समय को छोड़
जो सच मुच बदल चुका है । 

मंगलवार, 18 मई 2021

विपश्यना !

कब तक अतीत से भागे मन

मन भीतर करता क्रंदन 

सांझ कंटीली, प्रीत चुटीली

रिसता आंगन, नीर , गगन 

धैर्य बुलावे पास ना जावै

उग्र बुढापा चिर यौवन

मरता करता क्या ना करता

देख डरें जो चोर नयन !

गुड की ढेली , नीम हथेली

                                     इक खाट बिछे सब जन धन ।

 

शनिवार, 15 मई 2021

और मैं सो गया !

 


मैं सो गया

नितांत एकांत में

जहां मैं था

तुम थे 

और अवसान !

भरी दुनिया से थका

हारा ढूँढता 

शीत का प्याला


टिमटिमाती रौशन

लड़ी में पिरोये पहाड़

टूटे नहीं उस दिन

जब मैं सो गया !

माफ़ करना ! मैंने कहा प्रेम



 प्रेम कहना

और उड़ लेना

ततैये के पंख पर

हो लेना 

हवा के साथ


समय से दूर

उस व्यक्ति से भी

जिससे आप प्रेम करते हैं।


बचा के रखना होता है

प्रेम को

उन पलों के लिए

जिनकी साख पर

क्रूर हांथों वाली

जानलेवा महामारी 

तांडव करती है ।

बुधवार, 28 अप्रैल 2021

मौत से दीद को !

 


इक मौत

उधार कर

जा रहा हूँ

तुम्हारी दुनिया से


बेवफाई मुझे

आई नही

न नाखून चबाए

तुम्हारे दीद को


चलने की बीमारी

रुकने नही देती

लाशों के ढेर पर

अब और नही

चला जाता


मैं जा रहा हूँ

वहां जहां से

लौटता कोई नही

स्मृतियां जाती नही

कहीं दूर कभी

मैं उन्हें ले जा रहा हूँ

अपने साथ !

रविवार, 11 अप्रैल 2021

तुम मेरे श्रोता हो !


तुमको भूखा रखने के बाद

मैंने तुम्हें खाना दिया 

तुमने तिनके की वकत समझी

तुम्हारे हाँथ से सारे पैसे

चौराहे पर रखे पत्थर पर चढ़वा दिए

तुमने पैसों की अहमियत जानी

तुम्हारी दम घुटती मृत्य से भी

शायद मैंने ही परिचय करवाया 

तुम जब जब बोलने को होते

मेरी आँख तुम्हे रोकती

बोलना ठीक नही होता

बोलने से ठीक पहले

तुम्हारे जीवन की दिशा को

मैंने बलपूर्वक बदला

याद रखो

कि मैं गर नही होता

तो तुम भी नही होते

न होती जीवन जीने की 

प्रबल इच्छा

जीवन के प्रति भय


मुझे तुम बस सुनते जाओ

सिर्फ सुनते जाओ

तुम एक आदर्श श्रोता हो 

बड़ों की बात मान के

तुम रोज़ाना पूण्य कमाते हो !

एक कारवां मोहब्बत का !


-    प्रतिभा कटियार


सोचती हूँ तो पुलक सी महसूस होती है कि पांच बरस हो गये एक ख़्वाब को हकीक़त में ढलते हुए देखते. पांच बरस हो गए उस छोटी सी शुरुआत को जिसने देहरादून में पहली बैठक के रूप में आकार लिया था और अब देश भर को अपनेपन की ख़ुशबू में समेट लिया है उस पहल ने. एक झुरझुरी सी महसूस होती है. आँखें स्नेह से पिघलने को व्याकुल हो उठती हैं. फिर दोस्त कहते हैं कि सपना नहीं है यह, सच है.

 

आँखें खुली हुई हैं और प्रेम चारों तरफ बिखरा हुआ है. कविताओं के प्रति प्रेम. पाठकीय यात्रा के रूप में शुरू हुआ यह सिलसिला असल में अपने मक़सद में कामयाब हुआ. मकसद क्या था सिवाय अपनी पसंद की कविताओं की साझेदारी के साथ एक-दूसरे की पसंद को अप्रिशियेट करने के. अपने जाने हुए को विस्तार देने के और लपक कर ढूँढने लग जाना उन कविताओं और कवियों को जिन्हें अब तक जाना नहीं था हमने. 


शुरुआत हुई तो नाम था 'क से कविता'. फिर तकनीकी कारणों से नाम हो गया 'कविता कारवां'. जब तकनीकी कारणों से नाम में बदलाव करना पड़ा तो मन में एक कचोट तो हुई कि उस नाम से भी तो मोह हो ही गया था लेकिन यहीं जीवन का एक और पाठ पढ़ना था. मोह नाम से नहीं काम से रखने का. 


अपनी नहीं अपनी पसंद की कविताओं को एक-दूसरे से साझा करने की यह कोई नयी या अनोखी पहल नहीं थी. ऐसा पहले भी लोग करते रहे हैं अपनी-अपनी तरह से, अपने-अपने शहरों में साहित्यिक समूहों में. कविता कारवां की ही एक सालाना बैठक में नरेश सक्सेना जी ने कहा था कि बीस-पचीस साल पहले ऐसा सिलसिला शुरू किया था उन्होंने भी जिसमें कवि एक अपनी कविता पढ़ते थे और एक अपनी पसंद की. तो ‘कविता कारवां’ ने नया क्या किया. नया यह किया कि इस सिलसिले को निरन्तरता दी. बिना रुके ‘कविता कारवां’ की बैठकें चलती रहीं. उत्तराखंड में ही करीब 22 जगहों पर हर महीने कविता प्रेमी एक जगह मिलते और अपनी पसंद की कविता पढ़ते रहे. कुछ बैठकें मुम्बई में हुईं, कुछ लखनऊ में और दिल्ली में निशस्त दिल्ली के नाम से यह सिलसिला लगातार चल रहा है. 


'कविता कारवां' के बारे में सोचती हूँ तो तीन बातें मुझे इसकी यूनीक लगती हैं जिसकी वजह से इसकी पहचान अलग रूप में बनी है. पहली है इसे पाठकों की साझेदारी के ठीहे के तौर पर देखना जिसमें कॉलेज के युवा छात्र, गृहिणी, स्कूल के बच्चे, डाक्टर, इंजीनियर बिजनेसमैन सब शामिल हुए कवि कथाकार पत्रकार भी शामिल हुए लेकिन पाठक के रूप में ही. कितने ही लोगों ने अपने भीतर अब तक छुपकर रह रहे कविता प्रेम को इन बैठकों में पहचाना और पहली बार यहाँ अपनी पसंद की कविता पढ़ी. दूसरी बात जो इसे विशेष बनाती है वो है बिना ताम-झाम और बिना औपचारिकता वाली बैठकों की निरन्तरता.  कोई दीप प्रज्ज्वलन नहीं, कोई मुख्य अतिथि नहीं, कोई मंच नहीं, कोई विशेष नहीं बल्कि सब मुख्य अतिथि, सब विशेष अतिथि. और तीसरी और अंतिम बात जो सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है जिसके चलते पहली दोनों बातें भी हो सकीं वो यह कि ‘कविता कारवां’ की एक भी बैठक में शामिल व्यक्ति इसके आयोजक मंडल में स्वतः शामिल हो जाता है. ज्यादातर साथी जो किसी न किसी बैठक में शामिल हुए थे अब इसकी कमान संभाले हुए हैं पूरी जिम्मेदारी से.


इस सफर का हासिल है ढेर सारे नए कवियों और कविताओं से पहचान होना और एक-दूसरे को जानना. आज पूरे उत्तराखंड और दिल्ली लखनऊ व मुम्बई में कविता कारवां की टीम काम कर रही हैं. हम सब एक सूत्र में बंधे हुए हैं. एक-दूसरे से मिले नहीं फिर भी पूरे हक से लड़ते हैं, झगड़ते हैं और मिलकर काम करते हैं. एक बड़ा सा परिवार है 'कविता कारवां' का जिसे स्नेह के सूत्र ने बाँध रखा है. वरना कौन निकालता है घर और दफ्तर के कामों, जीवन की आपाधापियों में से इतना समय. और क्यों भला जबकि अपनी पहचान और अपनी कविता को मंच मिलने का लालच तक न हो. 


अक्सर लोग पूछते हैं कविता कारवां की टीम इसे करती कैसे है? कितने लोग हैं टीम में? खर्च कैसे निकलता है? तो हमारा एक ही जवाब होता है हमारी टीम में हजारों लोग हैं वो सब जो एक भी बैठक में शामिल हुए या इस विचार से प्यार करते हैं और हम इसे करते हैं दिल से. जब किसी काम में दिल लगने लग जाए फिर वो काम कहाँ रहता है. हम इसे काम की तरह नहीं करते, प्यार की तरह जीते हैं. 


इस सफर में कई अवरोध आये, कुछ लोग नाराज भी हुए कुछ छोड़कर चले भी गए लेकिन 'कविता कारवां' उन सबसे अब भी जुड़ा है उन सबका शुक्रगुजार है कि उनसे भी हमने कितना कुछ सीखा है. हमें साथ चलना सीखना था, वही सीख रहे हैं. साथ चलने के सुख का नाम है 'कविता कारवां', कविताओं से प्रेम का नाम है 'कविता कारवां', 


अपने 'मैं' से तनिक दूर खिसककर बैठने का नाम है 'कविता कारवां.'


हम पांचवी सालगिरह से बस कुछ कदम की दूरी पर हैं. उम्मीद है यह कारवां और बढ़ेगा...चलता रहेगा...नए साथी इसकी कमान सँभालते रहेंगे और दूसरे नए साथियों को थमाते रहेंगे... यह तमाम वर्गों में बंटी, तमाम तरह की असहिष्णुता से जूझ रही दुनिया को तनिक बेहतर तनिक ज्यादा मानवीय, संवेदनशील बनाने का सफर है जिसमें कविताओं की ऊर्जा हमारा ईंधन है.

मंगलवार, 2 मार्च 2021

इश्क में बच्चा होना !



मेरे हाँथ से बचपन 

दुखते दुखते बचता है। 

मातृत्व का ककहरा सिखाती

तुम मेरे भीतर बैठ जाती हो।

यकीनन तुम मेरे बच्चे की मां

नहीं हो

न ही मैं तुम्हारे बच्चे का पिता ।


कोई जिद्दी मांग

नन्ही कलम की डायरी

बड़ी सी ड्रवाइंग बुक

हांथी की सूंड़ वाला बस्ता

छोटी मोटी डांट

कविता , कहानियों वाली शाम

और ढेर सारी

शरारत से लेकर

दांतों के कीड़े का ध्यान

तुम्ही ने सिखाया

बच्चों में बच्चा होना !


धूप के साये की तासीर

कितना खरा करती है जीवन

संवेदनाओं का ज्वार

न होने का दुख जाने देता है

कोमल त्वचा का स्पर्श

हर लेता है देंह का दर्द


मेरा खोया हुआ बचपन

मेरे साथ हो लेता है

तुम कहीं दूर

बच्चों की दुनिया में

नए रंग भर रही होती हो ।


शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2021

शिवालय !

 


मैं मेरी होती 

तो सीकर में न बहती

खिलखिलाती अपनों के बीच

आँगन में

खलिहान होती 


सर छिपाने को

विधर्मी से ब्याह न करती

धूनी की राख

न खरकती मेरी माँग में


चिलम में फूंकता

मूंछों के ताव

कुछ नया जमाना चाहता

आदमी

मेरा मुंसिफ नही

शिव होना चाहता है


दरकती शिवालय की थाती

शिवलिंग से लिपटे सर्प

मेरी छाती पर लौटते

सोमवार का व्रत लेकर

मैं उन्हें दूध पिलाती


बड़े से वृक्ष के नीचे

अनगिनत खंडित मूर्तियां

ढूँढती तालाब

मैं अपना अस्तित्व छिपा देती

तालाब में सूखे पत्तों के नीचे


मेरी आँखों में 

अब मेरे बच्चे नही आते

मेरी तकलीफ़ में

मैं नही होती।

बुधवार, 17 फ़रवरी 2021

घर वापसी !

 मैं जब भी 

अपने घर में घुसता हूं

चीजें जगह 

छोड़ चुकी होती है


बड़ा सा आंगन 

उनमें तरह तरह के लोग 

फूल पौधे 

वातानुकूलित कमरे 

स्वस्थ खाना 

और प्यारे बच्चे 


न जाने कौन सा बैर

अपने माथे लिए फिरता हूं

देखने सुनने की गुंजाइश

मेरी फिक्र में नहीं रहती

मैं सुनाता हूं अनमने कानों को

अपना दुख

कि मुझे यहां कोई नहीं जानता


रोशनदान वही है

दराजें वही है

हर जगह मोहरें

वही लगी हैं


टेबल पर परसी थाली छोड़

वक़्त की गहरी खाइं 

या किसी ख्वाब में

मैं डूब जाता हूं 


शोर से आहत कुछ कांधे

क्षत विक्षत पड़े रहते हैं

अपने उदास कमरों में

मैं आंगन में झांकता

चांद हो जाता हूं ।




खरा होना !


लोहे की चमड़ी

भावुक मन

खुर हो चुके पैर

जानते नहीं पीर

प्रीत की रेत में

तपना खरा होना है।



जमीन

जमीन पर उगता पौधा

नहीं जानता 

उसे किसके हिस्से उगना है !

वह बेलौस उगता 

हवा पानी पाकर 

कांटे फूल फल बन

मिलता मिट्टी में देर सबेर ।



बुधवार, 10 फ़रवरी 2021

ऐतबार !

चौबीस घण्टों में

कोई दस मिनट

कई कई बार

सेकण्ड की सुई

पर सवार

मैं देखता हूँ

संग सार के पार ।


कई घड़ियाँ

एकांत ढूँढती

लिपट जाती हैं

धुएँ से 

बुनती आकृतियाँ

जोड़ती दीद के तार।


कोई सिरा 

जीवन की अंतिम 

कहानी कहने को 

आतुर

समय से बैर करता

लिखता है

ऐतबार !

मंगलवार, 9 फ़रवरी 2021

काठी का घोड़ा !

बिट्टी का चेहरा दमका
दाँतों की अग्रिम पंक्तियाँ चमकी
आँखों से मासूमियत छलकी
कमर पर हाँथ धरे उठी
लमकी कच्ची पगडण्डी पर !

सोची , माँ खुश होगी
लकड़ी के गट्ठर में
भाई से कुछ ज्यादा 
हिम्मत बँधी
सर से पाँव तक
जिम्मेदारी का असर
चूल्हे की रोटियों में आया।

स्कूल जाते बच्चों से
उपजी बिट्टी की उदासी
चूल्हे में खप जाती
इक्कम दुक्कम
गेंद ताड़ी, लबबा लोई
पिरोड़ की मिट्टी से
बनते बिगड़ते घर
बिट्टी का ईंधन होते।


सोमवार, 8 फ़रवरी 2021

मिलन !


तुम्हे समय नही मिलता ?

मुझे भी नही मिलता !

ये सोचकर बोलूं 

कि मैं तुमसे मिलूं 

हुँह !

नही मिलना 

मिलकर प्रीत के मीठे कीड़े

रेंगते हैं दिमाग में

रहा बचा की उलझन

गुम होती है

न मिलने में !

शनिवार, 6 फ़रवरी 2021

पाकड़ !

 तुम्हारी छांव की ठंढक

तुम्हारी साँस का जलना



तुम्हारी याद के डैनों में

दराजें उम्र की होना


नज़र से देख भर लेना

कहानी बाल से लिखना


तुम्हारी जिद्द का वो कोना

वफ़ा -ए- हिज़्र में रोना


बने किस चीज़ के तुम 

भरा कैसा रसायन 

धरा की नाक के नीचे

फले फूले तन मन ।

मंगलवार, 2 फ़रवरी 2021

सुनो !



सुनो !

मैंने कहा 

मुक्त कर दो मुझे 

तुम बिना कुछ कहे चल दीं

मेरी उंगलियों में अपनी उंगलियां

पहनाए , घूमे अनजान रास्तों पर ।


संवाद के सारे तार टूटे रहे 

पैरों की थकान जाती रही


रात भर सूखे पत्ते

आवाज़ करते रहे कहीं दूर

हमारे कदमों के नीचे 


सुबह मैं नही मिला

अपने बिस्तर पर 

कोई निशान नही पाए

अपनी उंगलियों में

रास्ते के सारे सूखे पत्ते

फिर से जा चिपके

अपनी टहनियों से।

रविवार, 31 जनवरी 2021

नो इंट्री !













 

आज का दिन बड़ा ही अशुभ रहा।  रास्ता दोबारा तय करने से उभाऊ और नीरस हो जाता है। यूँ तो दोबारा आधा रास्ता ही तय करना पड़ा। पर आधा रास्ता पूरा करना सा लगा। सुबह सुबह वहाँ सब को काम समझाया। एक ठीहे से दूसरे ठीहे के लिए निकलने पर तमाम सारी तैयारी करनी पड़ती हैं।  काम की अधिकता के कारण जाना कई बार टालता रहा। हालांकि जाना इतना जरूरी भी नही था। फिर भी घने कोहरे को भेदता निकल पड़ा। हर बार की तरह जरूरत से ज्यादा सामान मेरे कंधे पर लदा था। मेरा बैग दूसरे ठीये से भेजी गई लंबी चौड़ी घर गिरहस्ति की लिस्ट के अनुसार भरा था ।

     बैग के कलम वाले पॉकेट में मैं न जाने कब से एक महत्वपूर्ण चाबी रखा रहा। आधा रास्ता तय करने के बाद उस चाबी की जरूरत का फोन आया। वापस आना पड़ा । चाबी दी। कुछ देर रुका और वापस अपने रास्ते चल पड़ा। चाबी के चक्कर में 4 घंटे का रास्ता 6 घंटे में बदलने जा रहा था। मैंने सुनीता को फोन कर के आज की देरी का कारण बताना चाहा। उसने बीच में ही मेरी बात काट दी।  " मुझे मालूम था , तुम आज भी लेट आओगे"  कहते हुए उसने फोन काट दिया। काश फोन न होते। तो हमारे रिश्ते समय का एतिहाद बरतते।
     इस बात ने मेरे भीतर झुंझलाहट पैदा कर दी थी। रास्ते भर जो अभी कुछ देर पहले देख रहा था, सोच रहा था । वो अब वैसा एक दम नही था । पहले इस रास्ते पर चलते हुए सब कुछ ताज़ा लग रहा था। पर अब उसी दिशा में हवा रोक रही थी।  कंधे पर टंगा बैग और भारी हो चला था। कोहरा अब नही था।  बाएं तरफ सूरज सरसों के खेतों के और करीब आता जा रहा था। शाम और चढ़ी जा रही थी। हवा में सिहरन बढ़ गयी थी । पछुआ हवा ने पुरवैया हवा की जगह ले ली थी। बचा हुआ रास्ता लंबा होने लगा था।
    सुबह सोचा था कहीं रुक के एक चाय पियूँगा। मैंने इस रास्ते कई चाय के ठीहे बना रखे हैं। हर बार बदल बदल के इस रास्ते पर ब्रेक लेना मेरी आदत में हो गया था। पर आज तो जैसे यह रास्ता एक अजनबी की तरह व्यवहार कर रहा था। बाइक की बत्ती कम होने से अंधेरा होने से पहले दूसरे ठीये पहुँचना था। सर्दियों के दिन छोटे न होते तो इस रास्ते की इतनी हड़बड़ाहट न होती।
     बच्चे की बीमारी की ख़बर सभी को विचलित करती होगी। मुझे भी कर रही थी। ऐसा मैं लगातार महसूस करने की कोशिश कर रहा था। मन कर रहा था जल्द से जल्द बच्चे के सिरहाने लेट जाऊँगा। हम दोनों मुस्कुरायेंगे, खेलेंगे और ढिशुम ढिशुम करेंगे। उसकी तबियत और मेरी थकान ठीक हो जाएगी।  सुनीता सुबह सुबह फोन पर विचलित थी। सुबह फोन कर के पता नही क्या अजीब अजीब बोल रही थी। कह रही थी मेरी यादाश्त कहीं खो गयी है। तुम्हे कुछ याद नही रहता है।  उस समय मन में  मैं बार बार खुद से यही सवाल कर रहा था। पर मुझे ऐसा महसूस नही हुआ। मुझे अपने बारे में कम से कम औरों से ज्यादा मालूम रहता है।
कल शाम उसने बच्चे की तबियत के बारे में बताया था। मुझे इस सुबह भी याद है। तभी निकला। फिर भी यह सवाल अटक गया दिमाग में। उसको आज सुबह फोन ही तो नही कर पाया। भूल गया फोन करने को। जैसे महत्वपूर्ण चाबी भूल गया था। वहां देने को। जहाँ से आ रहा था।
फिर से उसी रास्ते पर आधा रास्ता तय कर चुका था। थोड़ी देर पहले क्रॉसिंग के ब्रेकर पर ट्रक , ट्रेलर व अन्य  गाड़ियां मटक मटक के गुजर रहीं थी। दूर से देखा तो अब उसी रेलवे क्रॉसिंग के पास पुलिस दिख रही थी। मैंने क्रासिंग के इस तरफ बाइक खड़ी की। अपने सारे कागज़ चेक किये। सभी कागज़ पूरे थे। हेलमेट पहना हुआ था। आश्वस्त था कि कागज़ पूरे हैं। कोई व्यवधान नही होगा। देर से ही सही पर दिन रहते पहुच जाऊंगा। कागज़ ऊपर वाली जेब में रख के वापस ड्राइव करने लगा। क्रोसिंग के उस पार पुलिस कुछ लिख रही थी। मोड़ पर सड़क किनारे कुछ पड़ा हुआ था। पास जाकर देखा तो एक साइकिल पड़ी थी। साइकिल के कैरियर में कुछ लकड़ियां बंधी हुई थी। साइकिल का हैंडल सड़क में धँसा था। आगे और पीछे का पहिया ठीक ठाक था। उसी के पास में एक बच्चा पड़ा हुआ था। बच्चे का दाहिना हाँथ सड़क किनारे जंगली घास पकड़े हुए था। बच्चे का चेहरा देख ऐसा लग रहा था जैसे बच्चा अभी अभी सोया हो। पर उसके पेट की अंतड़ियाँ बाहर थीं। पैर मुड़े हुए थे। माँस से सफेद हड्डियाँ निकली पड़ रही थी। सड़क के एक तरफ खून से सने बड़े बड़े टायरों के निशान थे। एक लल गुदिया अमरूद सड़क पर छितरा पड़ा था।
   पुलिस वाले आपस में लड़के की शिनाख्त करने की कोशिश कर रहे थे। पंचनामा भर रहे थे। कुछ दूर पर एक ट्रक खड़ा हुआ था। उसमें कोई नही था। आस पास के पेड़ मौन थे। मैंने उस ट्रक के केबिन से एक सफेद रंग का गमछा देखा। और पुलिस की इजाज़त से उस बच्चे को ढाँक दिया। मुझे लगा कि यदि उस बच्चे का पेट और पैर न होते तो वो जरूर उठ खड़ा होता। लकड़िया उठाता और साइकिल से चल देता। घर की ओर।
  मौका ए वारदात पर भीड़ इकट्ठा होने लगी थी। स्थानीय लोग उस बच्चे का नाम अल्ताफ़ बता रहे थे। जो कल ही अपनी मौसी के यहां आया था। जंगल से लकड़ी बीनने गया था। कुछ ही देर में एक और बच्चा आया। अल्ताफ़ के ऊपर गिर गिर के रोने लगा। पुलिस उससे पूछताछ करती रही। वह दूसरे बच्चे पर बिलख बिलख के रोटा रहा। मैं दूर खड़ा रोने को था। तभी मुझे अपने बच्चे का ध्यान हो आया। मैंने फिर से बाइक स्टार्ट की। चलने लगा। मैं उस दृश्य से जल्द से जल्द दूर हो जाना चाहता था। पर वह मेरे साथ चलता रहा। मैं दाएं बाएं कहीं कुछ देख नही पा रहा था। बस बाइक पर एक्सेलरेटर खींचे पड़ा था। बाइक की आवाज़ ट्रक की जान पड़ रही थी। जहाँ जाना था , वहाँ जल्द से जल्द पहुँचना था। एक समय मुझे लगा कि मुझे कुछ दिखाई नही दे रहा है। लगातार उबकाई आये जा रही थी। मैंने शहर के थोड़े पहले सड़क के किनारे नो इन्ट्री बैरिकेडिंग के पास बाइक रोकी। चाय की दुकान पर एक बुजुर्ग महिला से चाय बनाने को कहा। वह एक दम तैयार नही थी। उसने चाय बनाने की प्रक्रिया चूल्हा जलाने से शुरू की। चूल्हे में सूखी लकड़ियां डाली। आग जलाई। चाय का खाली बर्तन रखा। मैं उनसे कुछ पूछता। उन्होंने कहा । अब भइया यहां बहुत कम गाड़ियाँ रुकती हैं। पुलिस वाले ले देकर नो इंट्री से गाड़ी जाने देते हैं। मैं उस महिला से सड़क के जानलेवा होने की बातें सुनता रहा। और चाय पर चाय पीता रहा। 

रविवार, 24 जनवरी 2021

पहली किताब !

 तुम्हारी किताब का अक्षर

प्रेम में भीगा हुआ

तर बतर आंखों में 

तैरता मासूम मुलायम

ख़्वाब हो जाता बादल


आकाश में उड़ता

पैर पसारे एक साँझ

जा बैठता है

रोओं के पास 


पढ़ने की तीव्र ललक

पीछे खींचती पढ़ने से

मन व्याकुल छटपटाता

भागता अक्षरों के पीछे


मायनों की तलाश में

उल्टे सीधे रास्तों का डर जाता

सींचता लम्हों को

बहने की प्रेरक कहानियों में


जीवन की पहली किताब

पहला अक्षर

नई किताब का नशा

चढ़ता सिर जाकर ।

सोमवार, 18 जनवरी 2021

माया !

गहरी भूरी आंखों ने

पीकर अथाह खारापन

रचा चित्र संसार

नभ के विशाल आंगन में


नीला समंदर देंह पर

सींचता स्वर्ण कमल

पैरों में मील का पत्थर

होता पहाड़, जंगल


अधरों का दावानल

पिघलाता बर्फ की चट्टाने

सोख लेता रोम रोम

रेत का खुरदुरापन 


आग से राग का खेल

खेलता जीवन

पानी से पानी खेलता

चिर यौवन 


जाने कहाँ रहता मन

बहता , जड़ हो जाता

ढूँढता एकांत ।


शनिवार, 16 जनवरी 2021

मुबारक



 बीती रात सोच लिया था

सुबह, बीती चाहत बिसराऊ  

मिटने के नज़दीक जीवन 

कही जाकर रख आऊँ 


अंजुरी भर प्रेम , नोंक भर दुःख 

महसूसने के खाली भण्डार रख आया 

चिड़ियों  के घोसलों में  

मजदूरों की कोठरी में 


वापस आया खाली घर कर के 

आसमानी रंग की दीवारों पर 

लिखता रहा बीता 


रात बरसने को भूल गयी थी 

कोई नशा नहीं था 

सुबह नेमतों की बारिश 

मुझे भिगो के उड़ गयी 

धरती जैसे आज ही हरी हुयी थी .

गुरुवार, 14 जनवरी 2021

माफीनामा

 अरे अरे अरे ......

तमीज से पेश आइये , आप मुझे धक्का क्यों दे रहे हैं ? मैं चल रहा हूँ ना 

... चल बे (गर्दन के पीछे कॉलर पकडे हुए सिपाही जैसे हांक रहे हों )

देखिये आप लोग समझ नहीं रहे हैं . मैंने उसे हाँथ तक नहीं लगाया . 

... चल ना . अभी निकलती है तेरी गर्मी . सब पता चल जायेगा किसने मारा, किसने नहीं मारा .

साहब यही है (रोते हुए , लंगड़ाते हुए एक रिक्शेवाला उनके पीच्चे चलता हुआ ) साहब इसी ने मुझे मारा है . गिरा गिरा के मारा .

रोहन को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या हो रहा है . वो अच्छा भला रोज़ कि तरह ट्रेन से उतरा और स्टैंड से अपनी बैक उठाने जा रहा था . कि अचानक दो सिपाहियों ने उसे दबोच लिया .ऊपर से वो रिक्शे वाला जिसे वह अक्सर अन्य रिक्शे वालों के साथ स्टैंड पर देखता था . कभी कभी गांजे और शराब की बैठकी लगते हुए .आज वह अजीब अजीब हरकतें कर रहा था . 

     सभी रेलवे चौकी पहुंचे . रोहन का हाँथ सिपहियोंन ने चौकी पहुचते छोड़ा . चौकी कोठरीनुमा तीन शेड से बनी कम चौड़ी , लम्बाई में ज्यादा दीख रही थी . दीवान जी काला चश्मा पहने , पान चब्लाते हुए फोन पर किसी की क्लास ले रहे थे . टेबल के नीच पान कि पीक मारते रोहन की तरफ देखते दीवान जी बोले ... " क्या हुआ , कहा रहते हो ? गरीब को मारोगे स्साले ....

   देखिये मैंने इसे नहीं मारा है . मैं इसके पास तक नहीं गया . मैं डेली अप डाउन करता हूँ . जैसे ही मैं ट्रेन से उतरा . स्टेशन के पोर्च से बाहर निकला . तो देखा एक आदमी किसी यात्री पर ऊँची आवाज़ में गालियाँ देकर बात कर रहा था . कुछ देर मैंने दूर से ही उस तमाशे को देखा फिर स्टैंड कि तरफ आगे बढ़ गया . न जाने कहाँ से और क्यों उस यात्री को छोड़ वो मेरे पीछे लग गया . 

  " अच्छा हजारों आदमी स्टेशन पर आ जा रहे हैं . इसने केवल तुम्ही को देखा . और तुम पर मार पीट का इलज़ाम लगाने लगा . वो रिक्शे वाला झूठ बोल रहा है क्या ? उसे क्या पड़ी झूठ बोलने की . क्या करते हो ? " दीवान ने रोहन से पूछा . 

सर मैं पत्रकार हूँ , रहने वाला सीतापुर का हूँ . लखनऊ अप डाउन करता हूँ रोज़ . यहाँ एक हिंदी दैनिक में काम करता हूँ . और सच कह रहा हूँ . मैंने इसे हाँथ तक नहीं लगाया . 

ओह तो आप पत्रकार हैं . ( दीवान ने त्योरियां चढाते हुए कहा ) तो पत्रकार हैं तो तोप हो गए हैं आप . किसी को भी राह चलते मार उठाओगे . अच्छी तरह से जानता हूँ . तुम जैसे लोगों को . गरीबों को सताने में तुम्हे मज़ा आता है . और पत्रकार होने का धौंस भी ज़माना है . मैंने कई पत्रकारों को लाइन पर ला दिया है . राम लाल इन पत्रकार महोदय को एक सादा कागज़ दो . सिपाही रामलाल ने सादा कागज़ और एक कलम रोहन के सामने टेबल पर रख दिया . 

इस पर एक माफीनामा लिख दो . कि तुमने जो भी कुछ किया वह आवेश में आ कर हुआ . आगे से ऐसा कभी नहीं होगा ...

लेकिन मैंने तो कुछ किया ही नहीं है . माफीनामा क्यों लिखूं . आप मुझे जाने दीजिये . मुझे काम के लिए लेट हो रहा है . कल गणतंत्र दिवस के अवसर पर ज्यादा काम है . यह देखिये मेरा पहचान पत्र ....

अब तुम मुझे क़ानून सिखाओगे . मुझे मेरा काम सिखाओगे . दाल दूंगा लॉकअप में सही हो जाओगे . माफीनामा लिख दो और चले जाओ . 

नहीं ... मैं माफीनामा नहीं लिख सकता . जो काम मैंने किया नहीं उसके लिए कैसा माफीनामा . 

सिपाही रामलाल रोहन के कान में फुसफुसाता है ... " लिख दीजिये माफीनामा . क्या जाता है . दीवान जी ऐसे नहीं छोड़ने वाले हैं .. पर रोहन को माफीनामा लिखना बिलकुल मंजूर नहीं हुआ . 

दीवान साहब को यह बात करेंट की तरह लगी . " आप अपना नाम पता , पिता का नाम और मोबाईल नंबर कागज़ पर लिख दो . रामलाल इससे इनका मोबाईल , पर्स , बेल्ट और सारा सामान जमा करवा लो . रोहन के मना करने के बावजूद रामलाल ने सारा सामान एक रुमाल में बाँध के चौकी की अलमारी में बन्द कर दिया . अब तुम्हे हवालात की सैर कराता हूँ ... दीवान साहब बोले ...

ठीक है जैसा आप उचित समझें ( रोहन निराश हो कर बोला ) . क्या मैं एक कॉल कर सकता हूँ घर ?

बड़ा आया कॉल कर सकता हूँ ... पहले एक करेगा फिर दूसरा करेगा . मैंने यहाँ कॉल सेंटर खुलवाया है . 

रामलाल ले जाओ पत्रकार साहब और इस रिक्शे वाले को . बन्द कर दो लॉकअप में . कुछ देर में अक्ल ठिकाने आ जाएगी . 

यह तो सरासर अन्याय है . आप मेरी बात सुन ही नहीं रहे हैं . बस एक पक्षीय कार्यवाई कर रहे हैं . यह अच्छा नहीं हो रहा है . आप चाहे तो स्टेशन का सी सी टी वी फुटेज देख लें . उससे पता चल जाएगा सच झूठ का .

  उसकी किसी बात का चौकी की दीवारों पर कोई असर नहीं हो रहा था . दो सिपाही दोनों रोहन को पकडे लॉकअप की तरफ ले जाते हैं . वह रिक्शे वाला खुद बा खुद लॉकअप की और बढ़ चला . दोनों को सीलन भरे अँधेरी कोठरी में बन्द कर दिया गया . लॉकअप जी आर पी थाने के गलियारे में पड़ता है . गलियारे के दूसरी तरफ बड़ी सी ऊँची मेज पड़ी है . मेज के उस पार बड़ी बड़ी कुर्सिया पड़ी हैं . कुर्सियों पर एक महिला कांस्टेबल , मुंशी और कुछ सिपाही बैठे हैं . 

रोहन सलाखें पकड़ महिला कांस्टेबल की तरफ देख कर बुलाता है ... सुनिए सुनिए ...

महिला कांस्टेबल ने रोहन को एक नज़र देखा फिर अपने काम में व्यस्त हो गयी . बारी बारी से सभी ने रोहन को लॉकअप के भीतर असहज मचलता हुआ देखा . रोहन थक हार के वहीँ रिक्शेवाले के पास जाकर बैठ जाता है . रिक्शेवाला साढ़े 6 फीट का लंबा चौड़ा . तन पर फटे , मैले और बदबूदार कपड़े . दाढ़ी बेतरतीब छाती तक बढ़ी हुयी . बाल औघड़ की तरह . होंठ मोटे मोटे एक दम काले . बड़ी बड़ी आँखों में लाल धागों में बंधी नशे की पोटलियाँ. 

" झूठा इल्जाम क्यों लगाया मुझ पर ? , फंसा दिया तुमने नाटक फैला कर . तुम लोग इतना नशा क्यों करते हो कि कुछ होश ही न रहे . घर वालों तक नहीं बता पाया .... क्या नाम है तुम्हारा ?  रोहन ने रिक्शेवाले से पूछा . 

सरजू 

कहाँ के रहने वाले हों ? 

सीतापुर 

सीतापुर में कहाँ से ?

सिन्धोली 

और घर में कौन कौन है ?. 

घर बाहर सब छोड़ के चले आये रहन दस साल की उम्र मां . ओकरे बाद यहीं दाना पानी चलि रहा है . 

रिक्शा कब से चला रहे हो ?

पांच साल से यहीं स्टेशन पर चलाये रहे हन , उससे पहले मजदूरी , उससे पहले खेती ....सब बेकि लिहिन ... फेर भागे का भा .

कितना कमा लेते हो दिन भर में ? 

दिन भर वही 300 से 400 ...

इतना कमा लेते हो फि?र भी तुम्हारी दशा इतनी ख़राब है . इतने मैले कि तुम्हारे हाँथ का कोई पानी भी न पिए . 

क्या करते हो पैसे का ? 

बस खाने पीने में सब चला जात है ... जो कुछ बचत है ... वो साहेब के भेंट चढ़ी जात है ...

लॉकअप में पहली बार आए हो ?

नाही जब तब नंबर लागि जात है ... जब साहेब (दीवान साहेब ) की नज़र टेढ़ी हुयी जात है ... धर लीन जात हन ... फिर वही जी हुजूरी , बेगार ....

कोई दूसरी जगह चले जाओ , पुलिस किसी की नहीं होती .

सरजू फिर जोर जोर से कराहने लगा . हाय .... अम्मा मरी गैएं ... बहुत पिरात है .... 

मतलब तुम्हारे कोई चोट नहीं लगी ... तुम्हे किसी ने नहीं मारा ? फिर तुम लंगडा क्यों रहे थे ?

बचपने में एक पाँव टूटी गवा रहे ...

अरे तो तुमने मुझे क्यों फंसाया ...... रोहन खीजते हुए ... 

हाय अम्मा .... मरि गएँ .... बहुत पिरात है ... मारि डारा .... गिराए गिराए मारा .....


चुप .... चुप ... बन्द करो यह  नाटक ...( रामलाल सिपाही ने लॉकअप के पास आकर उसे फटकारा और रोहन को सलाखों के पास बुलाया )

पत्रकार जी माफीनामा लिख दीजिये . साहेब छोड़ेंगे नहीं ऐसे ..

मैंने कहा मुझे नहीं देना माफीनामा . मुझे झूठा फंसाया गया है .... क्या चाहते हो तुम सब लोग ?... खुल के बताओ .. (रोहन का जवाब साफ़ था ) 

जैसी आप की मर्जी . कुछ रूपया पैसा का जुगाड़ हो तो बताईये . साहेब से बात की जाए . आज न छूटेंगे तो एक हफ्ते के लिए अन्दर ही रहेंगे . 26 जनवरी यानी गणतंत्र दिवस . पूरा सरकारी अमला और पुलिस महीनों तयारी करती  है इस दिन के लिए .... फिर आगे इतवार... सबकी खुमारी उतरने में टाइम लगता है .... 10000 रुपये की व्यवस्था कर लेयो . साहब के हाँथ पैसा पहुचते ही ढीले हो जायेंगे . .....( सिपाही की आवाज़ में दया का भाव साफ़ छलक  रहा था )


सरजू ... तुम कुछ क्यों नहीं बोलते कुछ ? सब तुम्हारा ही करा धरा है .... बताओ कि सब झूठ है .... (रोहन रिक्शे वाले के कंधे पर हाँथ रख के पूछता है )

साहब अब हामरे हाँथ में कुछ नहीं है . जोने कुछ है साहेब के हाँथ में है ...


4 घंटे बीत चुके थे . रोहन को लॉकअप में बन्द हुए . सरजू वहीँ लोट के खर्राटे लगाने लगा था ...

शाम होगी .... फिर रात होगी ... पूरी रात लॉकअप में ... इस बदबूदार रिक्शे वाले के साथ ....फिर पुलिस का क्या .... क्या पकड़ा दे हाँथ में ... चरस, गांजा , कट्टा , हथियार धर के चालन कर दे ...सब कुछ तो धरा लिया है ...कोई संपर्क नहीं हो पायेगा ...झूठ जब असरदार तरीके से बार बार कहा जाए तो वह क़ानून की नज़र में भी सच लगने लगता है ... उसके बाद धीरे धीरे समाज की नज़रों में ... फिर परिवार की नज़रों ....मैंने कितनी दलीलें दी .... क्या किसी को पकड़ना , लॉकअप में डालना इतना आसान होता है .... लॉकअप खुद में एक प्रताड़ना है ... ऊपर से अमानवीय व्यवहार ....( रोहन गहरी सोच में डूबा हुआ )

रामलाल सिपाही फिर आया " पत्रकार जी , क्या सोचा है ? जल्दी फैसला करो ... शाम होने को है साहब निकल जायेंगे चारबाग़ की रात सूंघने ...

ठीक है मैं लिखता हूँ माफीनामा ... पर पैसे वैसे नहीं दे पाउँगा . मेरे पास उतने पैसे नहीं होते .. (रोहन पूरी तरह से सरेंडर था ) 

अब आप साहेब से ही बात कर लीजियेगा . सिपाही बोला 

लॉकअप का दरवाज़ा खोला गया ....

चौकी पहुचते ही दीवान साहेब बोले ... क्यों पत्रकार साहेब ठंढे हो गए ? 

रोहन के में फिर से कागज़ कलम आ गया . 

हाँ .. तो लिखिए ( दीवान साहेब टेबल पर उचकते हुए बोले ) 


   मैं रोहन उम्र 25 वर्ष पुत्र श्री रामेन्द्र विक्रम सिंह निवासी कस्बा सिन्दोली जिला सीतापुर यहाँ स्थानीय अखबार में पत्रकार हूँ . रोज़ की तरह आज भी मैं अपने जनपद से यहाँ आया रहा था . ट्रेन से उतरते ही मेरी किसी बात को लेकर सरजू पुत्र स्वर्गीय अशर्फीलाल से कहा सुनी हो गयी . तैश में आकर हमारी हान्था पाई हो गयी . सरजू के कुछ छोटे आयीं . आपसी सहमती से 1000 रुपये सरजू को दवा इलाज वास्ते दे रहा हूँ . प्रार्थी कभी ऐसे काम नहीं करेगा . जो हुआ उसके लिए मैं माफ़ी माँगता हूँ .

नाम - पता , मोबाईल नंबर , पिता का नाम , एवं अन्य स्थानीय जान पहचान के व्यक्ति का पता व मोबाईल नंबर ....

रोहन के दस्तखत ......................... सरजू का अंगूठा ...

राम लाल ने रोहन का सारा सामान वापस कर दिया . रोहन वहां से निकलने लगा . 

रोहन वहाँ से निकलने लगा . 

तभी दीवान साहेब ने कहा " रामलाल इन्हें और कुछ नहीं बताया था . 

बताया था साहेब .... तो कह रहे थे .... इतने पैसे नहीं हैं ... 

चलिए कोई नहीं .... आप पत्रकार हैं तो छोड़े दे रहे हैं वरना आप की रेल बना देते .....

सुन बे सरजुआ ज्यादा नशाखोरी न किया कर . चल कूलर में पानी भर दे . पत्रकार जी से पैसे लेकर चाय समोसा नाश्ता बोल दे रतन सेठ के यहाँ . 

रोहन के भीतर अभी अभी एक कैदी रिहा हुआ था . उसमें यह अनुभव किसी से साझा करने का मन नहीं हो रहा था . और न ही ऑफिस या  फील्ड पर जाने का ही .  कोई खबर , रिपोर्ट लिखनी दूर की बात थी . रोहन ने वह शाम और रात स्टेशन पर ही गुजार दी . उसके भीतर गुस्सा नहीं था . बस हतास्षा थी , निराशा थी और अचम्भे का भाव था .  






बुधवार, 13 जनवरी 2021

जाना



शिवानी : तुम्हारी ट्रेन कितने बजे की  है ?

मनीष : क्यों ?

शिवानी : क्यों का क्या मतलब है . जाओ जल्दी यहाँ से

अच्छा , तुम मुझसे भागना चाहती हो .

शिवानी : हाँ 

मनीष : 9 बजे आएगी 

शिवानी : अब क्यों बोले  ? 

मनीष : यार मेरा भेजा मत खराब करो . शांति से चले जाने दो बस .

शिवानी : और मैं कहाँ जाऊं इस बच्चे को लेकर .

मनीष : क्या चिपका रहूँ मैं हमेशा तुमसे ? मेरा अपना काम है . काम नहीं करूँगा ... क्या .....

कुछ सेकण्ड खामोशी के बाद 

शिवानी : फिर कब आओगे ?

मनीष : जल्द ही .

शिवानी : कब ?

मनीष : मुझे नहीं पता . तुम हर बार जाने के समय कब आओगे .... कब आओगे ... की र्र्ट लगा देती हो . तीन महीने में एक बार फुर्सत मिलती है . यहाँ का सारा वक़्त तुम्हारे साथ ही गुजारता हूँ . फिर भी तुम्हारा पेट नहीं भरता .


शिवानी : तुम जल्दी जल्दी आ जाया करो . मैं नहीं पूछूंगी आने को . 

मनीष : ठीक है कोशिश करूँगा .

शिवानी : तुम मुझसे आँख में आँख दाल के बात क्यों नहीं करते . जरुर तुम्हारे भीतर मेरे लिए चाहत कम होती जा रही है . तीन साल में पांचवी बार आये हो . मैं तुम्हारे इंतज़ार में दिन गिना करती हूँ . यह बच्चा न होता . तो मैं भी आ जा सकती  तुम्हारे पास . 

मनीष : मैंने कहा था बच्चा करने को ? अब है सो बरतो ....

शिवानी : तुम्हे तो बस अपनी ही सूझती है .. मेरे पास तो तब आते हो . जब तुम्हारा मन करता है .. आये ऐयाशी की और चल दिए ..फिर अपनी दुनिया में मस्त . तुम्हारा परिवार , तुम्हारे लोग , तुम्हारा काम और मेरा क्या ??

तुम्हे पता भी है कि मैं यहाँ कैसे रहती हूँ . घर का काम . ऑफिस का काम . बच्चे की देख भाल ...

जब आते हो यहाँ कुछ भी व्यवस्था करके कैसे ब्व्ही तुमसे मिलने आ जाती हूँ . तुम्हारे साथ बिताये गए एक एक पल को मैं भरपूर जी लेना चाहती हूँ . पर तुम्हारी आँखों में रत्ती भर भी नमी नहीं पाती . तुम्हारी आँखें चुभती हैं . ये तुम ही समझते होगे .

मनीष : क्या बोले जा रही हो अंट संत जीवन में थोडा व्यवहारिक होना पड़ता है . अपने पैरों पर खड़ा होना पड़ता है . मैं हमेशा निश्चिंत रहता हूँ . कि तुम जहाँ कहीं भी होगी , ठीक ही होगी .मैं तुमसे मिलना चाहता हूँ . लेकिन इतनी दूर ..... यहाँ जल्दी जल्दी आना संभव नहीं हो पाता . अव्वल तो रिज़र्वेशन नहीं मिलता . रिज़र्वेशन मिलने के बाद सीट नहीं मिलती . फिर काम का बोझ . तुम्हे मालूम है कि मैं अपने काम से कितना प्यार करता हूँ . और हमारा रिश्ता आज का तो है नहीं . जीवन भर का है .

शिवानी : मैं कुछ नहीं जानती . आज तुम्हे जाने से पहले हर महीने आने का वादा कर के जाना पडेगा .

मनीष : तुम चाहती हो कि मैं तुमसे हर महीने कि फलाना तारीख को तुमसे मिलने आया करूँ ...झूठा वादा कर के तोड़ता रहूँ .. लेकिन मैं झूठ नहीं बोलता . खासतौर से तुम्हारे को लेकर . 

शिवानी : तुम यहाँ नहीं आ सकते . पर अपने घर तो हर हफ्ते चले जाया करते हो . वहां जाने का जैसे बहाना खोजा करते . मुझे समझ नहीं आता कोई आदमी दो लोगों से एक साथ प्रेम कैसे कर सकता है ..

मनीष : तुम बकवास कर रही हो . इसीलिए मुझे आने की इच्छा नहीं होती तुम्हारे पास . तुम्हारे पास आओ तो उत्साह से ... और जाओ दिल में कसक लेकर ...जाते वक्त तुम अपनी खरी खोटी से मुझे लाड देती हो . कभी भी हल्का महसूस कर के तुमने मुझे विदा नहीं किया .

शिवानी : आ गए न असलियत पर . तुम्हारी मेरे पास आने कि इच्छा ही नहीं होती . 

मनीष : यार बकवास न करो ... नाटक बना रही हो स्टेशन पर ....

अब नहीं आउंगा यहाँ . तुम्हारी बकवास सुनने नहीं आता हूँ इतनी दूर . तुम्हारी प्यार की इमरजेंसी हमेशा लगी रहती है . घर से बहाने कर के कितने जतन कर के मैं यहाँ आता हूँ . कभी चौदह पंद्रह घंटे की बस की यात्रा . कभी चालु डिब्बे की ठोकरें . ...

शिवानी : तुम्हे सलीके से आना नहीं आया तो मैं क्या करूँ ? आने की इच्छा हो तो हज़ार रास्ते खुल जाते हैं . रास्ते सरल हो जाते हैं . यात्रा सरल नहीं भी हुयी तो मिलने पर उसकी थकान चली जाती है .... मेरे साथ तो ऐसा ही होता है ... तुम थके के थके रह जाते हो तो तुम जानो ...

मनीष : हाँ , जैसा तुम समझो .... हार गया मैं तुमसे और तुम्हारे तर्कों से ..... बस थोड़ी देर और सह लो .... फिर मैं कभी नहीं आउंगा .  तुम रहना चैन से .... सुकून से..... 

शिवानी : ठीक है ...... मैं चाहती हूँ .... कि तुम चैन से रहो ........रखो अपना सामान .... मैं चली ....

मनीष : शिवानी ..... शिवानी ... कहाँ भागे जा रही हो रेल की पटरियों पर ? रुको ..... रुक जाओ शिवानी ..... अपने बच्चे के लिए रुक जाओ ..... शिवानी ... शिवानी ... शिवानी .... 

शिवानी दूसरी तीसरी रेलवे लाइन के बीच की चलती ट्रेनों में अलोप हो जाती है ...

शिवानी और ट्रेनें जा चुकी होती हैं ....

मनीष के कानों में अब बच्चे का रोना सुनाई देता है ...... 


शनिवार, 2 जनवरी 2021

चाहत !





विरक्ति की चाहत भर

भर दे तीक्ष्ण ज्वर

देंह पर काले निशान

नीले हो जाते

धमनियां रुक जाती

होंठ सी जाते ।


छूटते आस पास

विरह आलाप करते

रूठते एकाकी से 

बंधन जाप करते


रोम रोम कुंठित , कलुषित

भीतर के नाले

कल कल बहते

बाहर की ओर


जीवन को तरसते

हम भागते 

भागते भागते 

तोड़ देते डोर

साँसों की ।

मैं आ रहा हूं ... #imamdasta

  जो सिनेमा हमारे नज़दीक के थिएटर या ओ टी टी प्लेटफार्म पर पहुंचता है । वह हम दर्शकों को तश्तरी में परसा हुआ मिलता है । 150 से लेकर 600 रुपए...