सुनो !
मैंने कहा
मुक्त कर दो मुझे
तुम बिना कुछ कहे चल दीं
मेरी उंगलियों में अपनी उंगलियां
पहनाए , घूमे अनजान रास्तों पर ।
संवाद के सारे तार टूटे रहे
पैरों की थकान जाती रही
रात भर सूखे पत्ते
आवाज़ करते रहे कहीं दूर
हमारे कदमों के नीचे
सुबह मैं नही मिला
अपने बिस्तर पर
कोई निशान नही पाए
अपनी उंगलियों में
रास्ते के सारे सूखे पत्ते
फिर से जा चिपके
अपनी टहनियों से।
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