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शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2021

शिवालय !

 


मैं मेरी होती 

तो सीकर में न बहती

खिलखिलाती अपनों के बीच

आँगन में

खलिहान होती 


सर छिपाने को

विधर्मी से ब्याह न करती

धूनी की राख

न खरकती मेरी माँग में


चिलम में फूंकता

मूंछों के ताव

कुछ नया जमाना चाहता

आदमी

मेरा मुंसिफ नही

शिव होना चाहता है


दरकती शिवालय की थाती

शिवलिंग से लिपटे सर्प

मेरी छाती पर लौटते

सोमवार का व्रत लेकर

मैं उन्हें दूध पिलाती


बड़े से वृक्ष के नीचे

अनगिनत खंडित मूर्तियां

ढूँढती तालाब

मैं अपना अस्तित्व छिपा देती

तालाब में सूखे पत्तों के नीचे


मेरी आँखों में 

अब मेरे बच्चे नही आते

मेरी तकलीफ़ में

मैं नही होती।

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