चौबीस घण्टों में
कोई दस मिनट
कई कई बार
सेकण्ड की सुई
पर सवार
मैं देखता हूँ
संग सार के पार ।
कई घड़ियाँ
एकांत ढूँढती
लिपट जाती हैं
धुएँ से
बुनती आकृतियाँ
जोड़ती दीद के तार।
कोई सिरा
जीवन की अंतिम
कहानी कहने को
आतुर
समय से बैर करता
लिखता है
ऐतबार !
मैं गया था और लौट आया सकुशल बगैर किसी शारीरिक क्षति और धार्मिक ठेस के घनी बस्ती की संकरी गलियों की नालियों में कहीं खून का एक कतरा न दिखा ...
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