मैं जब भी
अपने घर में घुसता हूं
चीजें जगह
छोड़ चुकी होती है
बड़ा सा आंगन
उनमें तरह तरह के लोग
फूल पौधे
वातानुकूलित कमरे
स्वस्थ खाना
और प्यारे बच्चे
न जाने कौन सा बैर
अपने माथे लिए फिरता हूं
देखने सुनने की गुंजाइश
मेरी फिक्र में नहीं रहती
मैं सुनाता हूं अनमने कानों को
अपना दुख
कि मुझे यहां कोई नहीं जानता
रोशनदान वही है
दराजें वही है
हर जगह मोहरें
वही लगी हैं
टेबल पर परसी थाली छोड़
वक़्त की गहरी खाइं
या किसी ख्वाब में
मैं डूब जाता हूं
शोर से आहत कुछ कांधे
क्षत विक्षत पड़े रहते हैं
अपने उदास कमरों में
मैं आंगन में झांकता
चांद हो जाता हूं ।
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