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शनिवार, 8 दिसंबर 2018

इश्क शहर !

एक शहर जिसकी तस्वीर किशोरावस्था से मेरे दिमाग में अलग अलग रंगों वाले ख़्वाब बुना करती थी। मैं उस शहर में कैसे बस जाउँ और क्यों जाना बन्द कर दूँ ?
      कभी 500 किलोमीटर की दूरी बहुत ज्यादा लगती थी। मेरे लिए तब तक ट्रेनें, बसें कुछ पचास किलोमीटर का सफर तय करती थी। मेरे शहर के आस पास के गाँव शहर आते। कचहरी, अस्पताल, डाकखाना उन लोगों से पटा रहता। कौन जाता होगा आने शहर । और क्यों जाता होगा। कभी यह प्रश्न उठा ही नही। मेरा शहर भी मोहल्ले की गली, हद से हद मोहल्ले में दोस्त की गली बस। सुबह स्कूल बस स्टैंड और शाम स्कूल बस स्टैंड। बजरिया तक जाने की इजाज़त तब मिली जब मैं 9वीं कक्षा में पहुँचा।
   मोहल्ले के ऊँचे खानदानों के हम उम्र लड़के सुबह सुबह न जाने कहाँ निकल जाते। दोपहर खाने और कई बार आराम को घर आते। शाम को फिर सज धज के निकल जाते। कई बार उन्हें आस्तीन चढ़ाते अपनी देहरी पर पीछे गर्दन कर चिल्लाते हुए सुना। ज़रा चौराहे तक जा रहे हैं। उन्होंने भी किसी अन्य शहर का ज़िक्र नही किया।
    10 वीं की परीक्षाओं ने एक रुपहले शहर से कुछ ऐसा परिचय कराया कि मोहब्बत हो गयी उस शहर से पहली नज़र में। सब सुध बुध खो बैठे। यूँ तो कही कहाई, सुनी सुनाई बातों से उस वो नया शहर महसूस होने लगा था। अपने शहर के स्टेशन से छूटते वक़्त कुछ भी अजीब नही लगा।
     एक शहर से दूसरे शहर की दूरी केवल एक रात भर की नही रही उस रात। रात ठंढी, और ठंढी होती चली गयी। रात इतनी रूमानी कभी नही रही। खिली खिली साफ सुथरी सुबह। सुबह के सूरज में इतनी सौम्यता कभी महसूस नही हुई थी पहले। ठंढी हवा पूरे शरीर के रोगटों से खेलती रही। पहले दिन ने रात को चुपके से मेरे हाँथ में थमा दिया, और विदा ली। खुले खुले शीशों वाली खिड़की से आसमान में जुगनू की तरह कुछ गाँव चमकते दिखाई देते। टिम टिमाती रोशनी, शांत नीला आसमान, सर्द मौसम और रात में हरे पहाड़ों की काली आकृति। दिन भर बादलों का आना जाना।
       शरीर में मौसम को धुलते महसूस करना, ज़र्रे ज़र्रे का मेरे लिए खुल जाना। आह.....! देंह उस सर्द मौसम को बिल्कुल बर्दाश्त नही कर पाती। सर्दी के संपर्क में आते ही पूरा शरीर लाल उभरे हुए चकत्तों से भर जाता। एक्जामिनेशन सेंटर के बाहर धूप में अकेले बैठ के परीक्षा देने की इजाज़त केवल मुझे मिली। उस शहर में बैठ के कोर्स का लिखना सहज नही रहा । पहले के लिखे पढ़े को उस शहर में कनेक्ट कर पाना मुश्किल था । परीक्षाएं खत्म हुई जैसे तैसे। पर वो शहर जीवन के कोर्स में हमेशा हमेशा के लिए जुड़ गया।
       क्या कहते हैं उसे "इश्क शहर " । शहर से दूसरी मुलाकात में शहर का नाम बदल गया। इस बार उसमें कुछ अलग बात थी। उसने हाँथ पकड़ा और मैं हो चला भीतर और भीतर। इतने सालों के बाद मुकम्मल मुलाकात। भर भीतर रहने, बसने का मन नही हुआ। मालूम था, बसना प्रेम को खा जाता है।
        

मंगलवार, 23 अक्तूबर 2018

आंधियों के डर से !

घर का अंधेरा बर्दाश्त है
खिड़कियों से झाँकती इच्छाएं
दुबक कर बैठीं हैं
आंधियों के डर से अंधेरे में !

उन अंधेरों में छिप कर
क्या पाया होगा उन्होंने,
डर के सिवा ?

बहुत लोग हाँफ के मर गए
जीना जैसा जीकर
सड़क दुर्घटनाओं से ज्यादा
आत्महत्याएं हैं घर के भीतर

वो इतना डरें हुए हैं
पुरवाई उन्हें आँधी लगती है !



छोड़ने से पहले !

छोड़ने से पहले कुछ आवाज़े
आकाश से आती हैं
कान में उम्मीद की कुहू करके
आवाज़े वापस चली जाती हैं

बहुत से तार संवाद के
कम्पन महसूस करते हैं
कसके पकड़ते हैं
छूटने को

क्यों न सुना गया होगा
उस आह को
जो एकदम करीब से चीखी गयी होगी
सुनने वाला बहरा हो गया
या कहने वाला थक रहा होगा

वो सम जहाँ वो सबसे करीब थे
क्यों नही सुन पाए, एक दूसरे को

या ये तय होता है
मिलने के बाद खोना
खोने के बाद पाना
कुछ नया !

कुछ नया भी
भीतर या बाहर ?



हम्म !

जब से तुम
मर गयी हो,
तबसे
मैं तुम्हें जीने लगा हूँ

तुम वाकई
मर गई हो न ?
फिर, मैं ज़िन्दा कैसे !

बच्चा बड़ा हो गया है !

घर की मजबूत दीवारों में
बच्चे की ऊर्जा ने
थका दिया, छका दिया
कई बड़े बड़े लोगों को

वो दिन भर सुनता है
चीखती हुई आवाज़ें
किसी भी दिशा से, किसी भी समय
डराने वाली, धमकाने वाली,
 शिकायत करने वाली

हाँ, डराने वाली आवाज़ें
"बाबा आ जाएगा"
गन्दी बातें सीखते हो
शान्त बैठो
गब्बर हो रहे हो
सुनते नही हो

उनके कान कोमल हैं
कहानी सुनने
संगीत सुनने
को होते हैं उनके कान

दिन भर मासूम बच्चे के साथ
साजिशें होती हैं
उसे पुलिस तक का डर दिखाया जाता है
घर में बच्चा अकेला रहता है
कुछ बड़े मोबाइल हैं, दो बड़ी टी वी हैं
एक अख़बार
सिर्फ  एक आराम दायक कुर्सी

बड़े डरते हैं छिपकली से
बच्चा कॉकरोच से डरता है।




ट्रेसपासिंग !

पुलिस बहुत मारती है
दीवारें फाँद
कूदते चोरों को देख

चुराते हुए देखा गया उन्हें आज
छिपती,समय से तेज़
भूत भविष्य का आधा आधा हिस्सा
देखती नजरों को
पकड़ लिया गया
रंगे हाँथ

पुलिस भावनाओं में
इतना रूखापन क्यों होता है ?
वो उस चोरी पर
हाहाकार
मचा देती है
रौंदना चाहती हैं
अपने बूटों से

एक चोर को !

रोटी चोर,
चिल्लर चोर
छोटे छोटे सुख बटोरने वाले
बेहद अभाव में पले बढ़े बच्चे !

बहुत मारते हैं वो
थाने की ओट में
लोहे के इंजन वाले मोटे पटे से
दोनों की चमड़ी
मोटी होती जाती

रोज सुबह चाय की दुकान के पास
पुलिस, ट्रकों के ड्राइवर केबिन को
जोर से हिलाती है
उनसे कुछ चिल्लर झरते हैं
राह चलते लोग देखते हैं
मुस्कुरा के आगे बढ़ जाते हैं

पुलिस से मुस्कुराया नही जाता
उनके व्यस्ततम जीवन में
प्रेम का समय नही
एक छूटे हुए जीवन की याद में
एक काम में गुजारते
ठूँठ हो जाते हैं

नमी
खत्म हो जाती है
दो तरह की आवाज़ों में
मौन, हिंसक होता जाता है

थाने में पुलिस की मार
से उपजी टीस
हदों की दीवारें फाँदते
बड़ी होती हैं

आज फिर
कोरे कागज़ पर
सफेद झूठ से माफी लिखवाई गयी
लॉक अप में एक साथ
सच झूठ बन्द किए गए

थानों की दीवारें बहुत मोटी
और सख्त होती हैं
आवाज़ें दीवारें फाँद जाती हैं।



आठ बजे !

भीतर के बच्चे ने
शाम होते ही कुलाँचे भरना
शुरू कर दिया

शाम के साथ साथ
उसकी आँखों का डर जाता रहा
 खेल खेल में
अपने भीतर की आग को
दबाता है
आग कई बार दावानल
होने से रह जाती  है

शाम और गाढ़ी और गाढ़ी
शाम की शराब के शीशे से
ट्यूबलाइट की रोशनी
बादामी हो जाती है

रोज़ शाम को
बच्चा बाल्यावस्था से
युवा तो कभी प्रौढ़
तो महिला होता है

भीतर
काली स्क्रीन पर रंगारंग कार्यक्रम
सच बोलूँ तो
18 घण्टे
चलता है ।




स्टूडियो !

स्टूडियो में प्रोपर्टी नई नही हैं
बहुत कुछ तीन पाँवों या एक वाला
लुढ़कता रहता है इधर से उधर
ईंधन की राख की पुती दीवारों
के बीच सफ़ेद बल्ब
टेबल के बेहद करीब लटका हुआ है

ऑडिशन में आए किरदार
घर से उस किरदार में आएं हैं
रास्ते भर उनके सामने
हज़ारों लोगों के बीच
किरदार लांघते चले आते हैं

पिछली शूट की लोकेशन
दीवार से उतरी नही है
हर नई कहानी के
निशान दीवारों पर मिलते हैं

किसी और किरदार
की याद को देखते देखते कलाकार
गपशप में सीरियल/ऐडवर्टीज़मेंट/फ़िल्म
में झगड़ता है



कहानी

कहानियाँ खत्म न हों
किरदार खत्म कर दो

ये सीख नही
कोई अनुभव भी नही
बीच का
कोई करार होगा शायद

भूल गलतियों के
न जाने कितने टेक चलते रहे
कहानी किरदार
आमने सामने
गुथते रहते

भीड़ के सामने दोनों
ऐसे खत्म होना चाहते हैं
याद किए जाएं वो
एक कहानी एक किरदार की तरह
अपनी आस पास की
कहानियों में !

पहाड़ गंज की नियॉन लाइट्स !


दिल्ली के पहाड़ गंज की नियॉन लाइट्स कोई तिलिस्म सा रचती हैं। लाल, पीली हरी, सफेद नियॉन लाइट्स दोनों किनारों पर अकड़ू खड़ी हुई। हज़ारों की तादात में चमकती नियॉन लाइट्स पर लिखे होटलों के नाम बार बार गुम हो जाते हैं। कभी कभी अपने ठौर को ढूंढने के लिए पूछना पड़ता है। होटल का नाम कुछ भी हो, अपनी विशेषताएं लिए वो सड़क पर घूमता है । रिक्शे वाला, ऑटो वाला या सड़क किनारे खड़ा कोई भी होटल हो सकता है। गलियों में आदमकद ऊँचाईं पर चहलकदमी के साथ फुसफुसाहट होती है। आँख में आँख डाल के आवाज़ें पूछती फिरती हैं ..... होटल, एसी नॉन एसी... मसाज...या कोई व्यवस्था ?
    पतली- पतली गलियों में खड़ी सीढियाँ एक पहाड़ पर ले जाती हैं। उन पहाड़ों के खोहों में बन्द दुनिया खुलती है। सुरक्षित और असुरक्षित दोनों बराबर बराबर।
      गली के छोटे छोटे होटलों का पता किसी बड़े होटल के लैंडमार्क से जुड़ा होता है। 'उससे बढ़िया' और 'उससे सस्ता' उलझे रहते हैं आपस में। बाहर से आए हुए यात्रियों के दिल ओ दिमाग में नियॉन लाइट रोशनी करना चाहती है। न जाने क्यों, शहर के लोगों के लिए ये होटल वर्जित फल हो जाते हैं।
        200- 500 - 800- 1200 - 1500 कुछ ऐसे ही रेट हैं बन्द दुनिया के। कुछ और खर्चने में बन्द कमरों के ए.सी रहस्यमयी तरीके से चल जाते हैं। अधिकतर एसी का टम्प्रेचर 18 रहता है। गर्मी बरसात या गुलाबी मौसम। टम्प्रेचर 18। उन कमरों में सब कुछ 24 घण्टे के लिए निजी हांथों में थमा दिया जाता है। हर सुविधा का रिमोट कंट्रोल रिसेप्शनिष्ट के पास सुरक्षित रहता है।  चेक इन करने से पहले कोई न कोई कान में फूँक ही डालता है " सर और कोई जरूरत हो तो कभी भी बताइएगा...मसाज या कुछ भी...।
      गर होटल का नाम पहले से तय नही है, तो सड़क पर टहलते होटलों की आँखें किसी अकेले को खोजती हैं। इशारों इशारों में महफूज़ जगह का इत्मिनान दिखाती हैं। अकेले की परिभाषाएं बदलती हुई महसूस होने लगती है। कोई निपट अकेला पहाड़ गंज के होटल की खिड़की खोलता है। धूल के साथ खिड़की के पीछे दो कबूतर फड़फड़ा कर उड़ते हैं।
     नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से लेकर आर के आश्रम मेट्रो स्टेशन तक, पहाड़गंज बदलता रहता है। देश और दुनिया के सैलानी अपनी पसंद का पहाड़गंज खोज लेते हैं।
      घर, होटल एक दूसरे से पीठ लगाए बैठे रहते हैं। घर और होटल की गलियां एक ही हैं। बहुत मुमकिन है, कोई जानने वाला, पहचानने वाला नज़र झुकाए करीब से निकल जाए। 10 साल के अंतराल का पहाड़गंज निकल जाता है सामने से सर झुकाए। मंदिरों वाली माता के जगराते कैसेट्स रात भर बजते  हैं।
       पहाड़गंज की 'ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर' वाली अदा निराली है। उसकी घड़ी की सुईओं ने सूरज का साथ न जाने कब से छोड़ दिया है। सिर्फ 2 घण्टे से लेकर 24 घण्टे में कभी भी दिन बदल सकता है। साफ सुथरी नई सुबह कोई नया शहर पहाड़गंज की नियॉन लाइट्स में खो जाता है। मुख्य सड़कों पर रात दिन, शीशे और स्टील का कारोबार पसरा रहता है।

शनिवार, 30 जून 2018



तुम्हारी यादों के तार
तुम्हारी यादों के सन्दूक से
मुझे कुछ तार मिले
उन सैकड़ों वर्षों से जिये हुए
पलों के तार
उन्हें निकाला,धोया,पोछा
तार चमकने लगे

सैकड़ों वर्षों का जिया
थोड़ा नही होता
याद का सन्दूक जितना बड़ा हो
छोटा पड़ जाता है

तुम्हारे "न" का सम्मान था वो
जिए हुए को मोड़ मोड़ के
रखना पड़ा
एक सन्दूक में

आज सैकड़ों वर्षों बाद
फिर से वो तार चमकें हैं
तार का टूटना जारी है
उन मोड़ों से
जहाँ से मोड़े गए थे।

उस तार का नाम सुना है ?
"संगीत"
जितने टूटे तार
उतना मधुर " संगीत "
तुम्हारा "संगीत" !

तस्वीर - भोपाल के जंगल की

परछाइयाँ 

परछाईं जब सीढ़िया चढ़ती हैं
वो गंतव्य तक पहुँच
किसी जानी पहचानी दीवाल से
सर टकराती हैं
या
वो सीढ़ियों के आखीर से
मिल जाती हैं ।

न जाने क्यों ! 

न जाने क्यों वो मुझे
कोई हिलते हुए कवि दिखते हैं
कभी दाएं, कभी बाएं हाँथ
कुछ लिखते हुए
आसमान से पाताल तक
कमाल कहते कलम से !

कलम की नोक भर स्याही में
डुबोना चाहते ब्रम्हांड को ।


बातों का क्या ! 

आओ चलो, भर दें आकाश बातों से।
अच्छी बातें, बुरी बातें ।



मरने के बाद

मरने के बाद, इंसान
इंसान नही रहता

सबसे पहले उसकी रूह
सफ़ेद होती है
फिर उसकी देंह

फिर उसकी याद
धुएँ सी सफ़ेद

सारा सफ़ेद आसमान में टँग जाता है
धीरे धीरे वो काला होता है

काला भारी कुछ
ढ़ेर सारा बरस जाता है

तीन आम 

आम का बुख़ार कुछ इस तरह चढ़ा मियाँ गुमसुम बाज़ार से दो किलो आम ले आए। आम के मौसम में मियाँ के नथुने ख़ुशबू से रुँधे जा रहे थे। बत्तो रानी की जबरदस्त याद में मियाँ ने बागों में जा जा के बौर तक सूंघे थे। अब आम का मौसम आया तो वो अपनी तंगहाली को रोए ?  बत्तों रानी का शहर आम की ख़ुशबू से बहुत दूर है। 
    मियाँ ने सुन रखा था। प्रकृति दो बहुत दूर हुए दिलों को मिला देती है। मियाँ को एक ही ठेले पर दशहरी के विकृत रूप नज़र आए। मियाँ ने सब दो किलो में तौलवा दिए। कुल तीन बड़े आम। एक कुछ कुछ शंख के आकार का, एक गणेश के आकार का, एक दिल के आकार का। मियाँ की धड़कने तेज़ थीं। मियाँ ने उस शहर की ओर जाने वाली ट्रेन पकड़, शंखाकार आम को शगुन के तौर पर खा लिया। ट्रेन ने रफ़्तार पकड़ी। मियाँ ने आम वाले बैग को कसके अपने सीने में भीच लिया। बैग के ज़िप के छोटे छोटे छेदों से आम महकने के लिए अमादा हुआ जा रहा था। 
   मियाँ के ठीक सामने बैठी एक महिला को मायके में खाए आम की हिचकियाँ आ रही थी । और उसका पति चलती ट्रेन से आम के बागों को निहार रहा था। दोनों में बहुत देर से बात नही हुई थी। मियाँ की नज़र ने आम के खेल को पकड़ लिया था। मियाँ ने एक आम निकाल कर उन दोनों के नज़र कर दिया। 
     मियाँ तीसरे आम पर एकदम सख्त थे मन ही मन। आम की ख़ुशबू अब पूरे कूपे में फैल गयी । मलिहाबाद और आम के किस्से कहानियाँ होने लगे । मियाँ उस एक बचे हुए आम को हरगिज़ खर्च नही करना चाहते थे। पता नही क्यों मियाँ उदास होने लगे। मियाँ के सामने अपने घर से लेकर दूर तक के लोग की फिल्में घूमने लगीं। मियाँ जहाँ जा रहा है वो आख़री आम लेकर । वो शहर बहुत दूर लगने लगा। उसको डर लग रहा था। उस एक बचे हुए आम को पूरे कूपे में बाँटने का मन कर रहा था मियाँ का। मियाँ ने झट से उस आख़री आम को निकाल साइड अपर बर्थ पर बैठे युगल को दे दिया।
      वो आख़री आम दिलाकार था। मियाँ ने आधे रास्ते में ही आम के आकारों को ख़त्म कर दिया । मियाँ गुमसुम अगले स्टेशन पर उतर गए। उन्हें यकीन है, वह ट्रेन, वे लोग उस ख़ुशबू और स्वाद को बत्तों रानी के शहर ले जाएँगे।  उन आमों की गुठलियाँ पेड़ भी बन सकती हैं कहीं रास्ते में। एक उस शहर को जाते हुए, एक शहर से आते हुए। 

रविवार, 25 मार्च 2018

प्रिय मनीष,
    आप बहुत अच्छा काम कर रहे हो, कमाल का डायरेक्शन है, और विषय वस्तुओं का चुनाव भी। अक्सर कुछ ऐसा दिख जाता है, जिससे दिन बन जाये। कभी कल्पना में भी नहीं सोचा था, ऐसा काम देखने को मिलेगा। कभी कभी सोचता हूँ, कि हिन्दी कविता, हिन्दी स्टूडियो की शुरुआत किन हालातों में हुई होगी। जिसने एक इन्सान के अन्दर इतनी ऊर्जा दे दी, हिम्मत दे दी। वो रुक नही रहा, थक नही रहा, विचलित नही हो रहा है। वैसे मैं इस सफर में क-से-कविता के माध्यम से आपके साथ मात्र दो सालों से जुड़ा हूँ। उससे पहले का सफर कैसा रहा होगा, केवल अंदाज़ा ही लगा सकता हूँ। मैं वाकई इक्छुक हूँ यह जानने में। इतने सारे लोग, इतनी तरह के लोग, इतने तरह के काम...सब स्थापित होते हुए। क्या कारण है ? इस यात्रा से जुड़ा व्यक्ति अपने आप को झोंक देने की हद तक दीवानों की तरह काम करता है। मुस्कुराते हुए, मैराथन के बैटन की तरह यात्रा में दौड़ने लगता है। दूर दराज, बिना व्यक्तिगत जान पहचान, बिना मिले, सैकड़ों लोग एक जैसा ही सपना देख रहे होते हैं। क्या ही लालच होगा ? साहित्य,कला, प्रेम के सिवा। पर कहीं कुछ दरक रहा है, उसकी आवाज़ यहाँ एक इकाई तक पहुँचती है। आप सब की मेहनत, समय, स्नेह, काम के प्रति लगाव, प्रतिफल हम सब को बांधे रखता है। प्रेरणा देता है। उत्साहित करता है। हिन्दी स्टूडियो, हिन्दी कविता, क से कविता सब एक ही तो हैं...हम ।
क से कविता- लखनऊ

रचनाकार के नाम एक पाठक का ख़त !


ओ मेरे प्रिय रचनाकार,


मेरे भीतर तुम्हारे शब्दों की स्वर लहरियाँ बजती हैं। उनके हाव भाव, उन शब्दों की स्पष्ट आवाज़े गूँजती हैं कानों में मेरे । उन्हें जज़्ब कर के , अगली रचना के इंतज़ार में बैठता हूँ। वो रचनाएं जो मुझसे संवाद करती हैं, मैं उन शब्दों के भीतर की कशिश महसूस कर सकता हूँ। पढ़ी जा चुकी रचना और आने वाली रचना के बीच का समय उन्ही पढ़ी जा चुकी रचना के रंग में रहता है।
         नई रचना अवाक कर देती है नए रंग लाकर । बेहद संतुलन बना के चलना पड़ता है, इन ऊँचें नीचे टेढ़े मेढ़े रास्तों पर चलते वक़्त। न जाने कौन सा हवा का झोंका उड़ा दे उदासियों की परतों को। इतनी उम्मीदें जगती हैं इन शब्दों से, इतनी ऊर्जा मिलती है कि मन कहता है प्रेम से खूबसूरत तो दुनिया की कोई शै, है ही नही। मैं उन पंक्तियों के आखीर को जरूर देखता हूँ, उनमें लिखा होता है "प्रेम में खिलना"। उन पंक्तियों को लेकर मैं भागता हूँ नई नई जगहों पर।
         विस्तार के संकुचन से आहत सभ्यताएं मिलती हैं। जिये के निशान नही मिलते। कोई कुछ भी महसूस नही कर पा रहा है। जिस धरती के गुरुत्वाकर्षण से उनमें भार की अनुभूति जगी होगी, जिस आसमान से उन्हें छत का आभास हुआ होगा, जिस पानी, हवा, प्रकृति के स्पर्श से जीवन के संकेत मिले होंगे...वो सब उनके जीवन में अब नही दिखते। मैं तुम्हारे शब्दों की जैविक खाद डाल देता हूँ उनकी जड़ों में, फिर भागता हूँ अपने ठीये पर । एक नई रचना, एक नया राग, प्रेम में बुझी हुई कहानी, टूटते हुए तारों के रूमान से भरी आकाशगंगा भर देती है मुझे प्रेम के संसार से। मुझे तुम्हारे शब्द मुक्त करते हैं, बंधनों से, दुनियावी झंझावातों से, जमा पुंजियों से, भविष्य के खतरों से।
        "प्रेम में खिलना" का अर्थ क्या सही पढ़ पाया हूँ मैं ? या प्रेम का लिखा जाना अभी बाकी है ?

 एक पाठक

शुक्रवार, 23 मार्च 2018


क्या ये नाटक है ?

भीड़ तमाशा देख रही
चोर तमाशा देख रहे 
फिर भी घण्टी बजती है
लुटने की, लुटवाने की ! 

नाटक है ? क्या ये नाटक है ? 

भोम्पू भों भों भौंक रहे 
सुनने वाले छौंक रहे
भजनदास जी कहते हैं
भजनू, भजना, भजनदास !

नाटक है ? क्या ये नाटक है ?

नाज़ुक नाज़ुक कहते कहते
पंजों में नाखून पहन कर
वो गीत राष्ट्र के गाते हैं
गाते नहीं..... ! गवाते हैं !

नाटक है ? क्या ये नाटक है ?

जन से खाली जन नायक
काली कुर्सी - काला खेल
सफल हुए तो, हरि गंगा
विफल हुए तो जनता फेल

नाटक है ? क्या ये नाटक है ?

घोर निराशा की बदरी में
पानी घट घट बढ़ता जाए
ऊसर की धरती कहती है
मिट ले तू, मैं भी मिट लूँ  !

नाटक है ? क्या ये नाटक है ? 

शनिवार, 17 मार्च 2018



संभालना एक छोर कोई...!

संभालना एक छोर कोई
कोमल हांथों से
लकीरें मिटने तक

मरी हुई लकीरें
हाँथ छुड़ा लेती हैं।

चलना एक राह कोई
आहिस्ता कदमों से
मंजिलें गुम होने तक

फिसलती रेत
तलुओं में चिपक जाती हैं।

रजना रंग में कोई
उम्मीदों के फूलों से
रंग बे-रंग होने तक

रंगों की अपनी
सीमाएं होती हैं।

लिखना भाषा में कोई
पनीले अक्षरों से
सैलाब आने तक

बहुत खारे से अब
आँखें सुलगती हैं।

लावारिस लाशों का अंतिम संस्कार

शहर में अब एक भी लाश लावारिस नही दिखती। लाश के लावारिस होने की घोषणा के बाद एक शक्श उस लाश का वारिस हो जाना चाहता है। लाश के लावारिस होने की वजहों पर अपना समय बर्बाद किए बगैर, वो लाश को अपने नाम से जोड़ देता है। लावारिस लाश के साथ वारिस के जुड़ते ही, शहर में मसीही गुदगुदी होने लगती है। ऐंठी, सूखी, सड़ रही लाश के इर्द गिर्द आम शहरियों की भीड़ जमने लगती है। भीड़ लाश को उचक उचक के देखती है, और उस शख्स की करुणामयी आंखों में खो जाती है। बेचारगी, मुफ़लिसी,अकेलेपन से ऊब चुकी लाश भी कुछ बेहतर महसूस करती है। उसे आभास होने लगता है, कि अंतिम संस्कार के अभाव में उसे भटकना नही पड़ेगा। वह शक्स भी जानता है, मरने के बाद अंतिम संस्कार कितना जरूरी होता है। वो अंतिम संस्कार के सारे पुण्यों का वारिस हो जाना चाहता है। अख़बार लाल हेडिंग के साथ काली स्याही से लिख देता है, पुण्य कर्म की गाथा। शहर लावारिस लाशों के अंतिम संस्कार की हर कहानी को अपने जहन में दर्ज करता रहता है। उसके चर्चे करता है। पर  उसे शायद नही मालूम इस पुण्य कर्म के आभा में न जाने कितने सवाल दब गए हैं। सवाल लावारिस होने के... सवाल वारिस बनने के...सवाल पाप के पुण्य की सराहना के। हर अंतिम संस्कार के बाद सरकार, शहर पाप के खेमें में खड़े होकर उस शख्स के जयकारे लगाते हैं। उन्हें नही मालूम भविष्य में पुण्य कर्म के पहाड़ पर बैठा वो शख्स क्या माँग ले। उन्हें नही मालूम शायद पाप पुण्य की फसलें हर पाँच साल में काटी जाती हैं।  "राम नाम सत्य है, सत्य बोलो मुक्ति है" नही बोला जाता लावारिस लाशों के अंतिम संस्कार में।

शुक्रवार, 16 मार्च 2018

ऊभ की दूब
सूखती हरी होती
दूब खर पतवार है
कहीं भी कभी भी
सलीके, समय तो गमलों में खिलते हैं
सूखते नहीं, मर जाते हैं 

शुक्रवार, 9 मार्च 2018


लखनऊ - बनारस का होली मिलन

होली के एक दिन पहले बनारस लखनऊ से मिलने आया ! बनारस बता के नही आया, कि लखनऊ से मिलने जा रहा हूँ। बताता तो शायद बनारस वहीं छूट जाता, और लखनऊ से मिलने शहर नही आ पाता। लखनऊ पहले अपनी अना में रहा, जैसे ही बनारस से मिला वो अना अमाँ में बदल गयी। बनारस और लखनऊ की मुलाकात का वक़्त और जगह मुकर्रर होने के बावजूद भी, बड़ा प्रश्न था...कि इस मुलाकात का कौन सा हिस्सा तमाशे से उकताए हुए दोनों शहरों को सुकून दे पाएगा।
    फन मॉल की रंगीनी, मिस्टर ब्राउन के दिल शेप वाली काफी को नज़रअंदाज़ करते हुए दोनों गोमती किनारे बैठ जाते हैं उस काली बदबू देती मृतप्राय गोमती किनारे । स्कूली बच्चे अबीर गुलाल का खेल खेल रहे थे। लखनऊ गहरी सोच में डूबते हुए दास्तान की गलियों में बनारस को ले जा रहा था । कभी शहर के बीचों बीच खिलखिलाती नदी, पीपे वाला हिलता डुलता पुल, लखनऊ हज़रत गंज से देर रात पैदल आता, पीपे वाले पुल पर खड़ा होकर उस नदी की उमंग को महसूस करता। 15 सालों में लखनऊ ने गोमती को मरते हुए देखा है। लंदन की थेम्स नदी की तर्ज़ पर बनने वाले गोमती रिवर फ्रंट की आहट से गोमती कभी मुस्कुराई होगी। लखनऊ की गोद में गोमती की किलकारियां भरने की उम्मीद जगी होगी। पर गोमती मर चुकी है कब की। गोमती का शव काला पड़ गया था। बनारस डबडबाई आंखों से लखनऊ के कंधे पर हाँथ रख सांत्वना देता है, ढांढस के पुल बाँधता है। अपने कोख में पल रही गंगा के कुछ दुख भरे किस्से सुनाता है।
        बनारस लखनऊ को कुछ और महसूस करना चाहता था। दोनों निकल पड़ते हैं पैदल एक अदत अच्छी चाय की तलाश में। 5 कालिदास मार्ग, माल एवेन्यू, हज़रत गंज, लालबाग...! शाम-ए-अवध में शायद चाय का चलन अब रहा ही नही हो, ऐसा लगता रहा। बनारस को उसकी संकरी गलियों में मिलने वाली 5 रुपये वाली बढ़िया चाय का लोभ छोड़ना ही पड़ा। बनारस को पुराने लखनऊ की तलब थी। बेगम हज़रत महल पार्क टैक्सी स्टैंड पर चौक चौक की आवाज़ उसे अपनी ओर आकर्षित कर रही थी। बनारस टैक्सी में ड्राइवर वाली सीट के पास बैठ के दाएं बाएं लखनऊ को देखना चाह रहा था। लखनऊ पीछे वाली सीट पर बैठता है। वो अब नए लखनऊ में रहता है, जहाँ से पुराने लखनऊ की दूरी बहुत ज़्यादा लगती है। पीछे वाली सीट पर एक परिवार लखनवी तलफ़्फ़ुज़ में किसी ब्याह के दस्तरख़्वान की बातें करता है। लखनऊ उनकी गोद में बैठी नन्ही बच्ची की आंखों में खो जाता है।
         200 रुपये में चिकेन के कुर्ते, 400 रुपये की जैकेट, 100 रुपये में दो शर्ट और कई तरह के सस्ते माल की आवाजों से चौक गुलज़ार था। सड़क किनारे दोनों पैदल पटरियां बेचनेवालों ख़रीदारों से भरी। बड़े बड़े चाय की केतलियों में मसाला कश्मीरी चाय, छोटे छोटे खाने पीने की दुकानों में शीरमाल, ख़मीरी, क़बाब, कलेजी, वेज क़बाब, हलवा पराठा, मलाई मक्खन, गर्म दूध ... ! बाज़ार में भीड़ थी, शोर था, सड़के जाम होती चलती। जब नए लखनऊ का दिन मानसिक शारीरिक थकन से परेशान देर शाम घर की तरफ रुख करता है। तब पुराना लखनऊ सड़कों पर निकल आता है।
          लखनऊ बनारस के हाँथ में हाँथ डाले लोगों से उन गलियों का पता पूछता है, जहाँ वो अपनी शामें गुजरता था। अगला पड़ाव अकबरी गेट है। चहकते चौक चौराहों से अंधेरी गलियों को पार करना लखनऊ की रवायत है। अकबरी गेट पास था। टुंडे के क़बाब, रहीम की निहारी कुलचा, मुबीन की बिरयानी...! जैसे खाना पीना, खिलाना रात की इबादत हो। लखनऊ और बनारस दोनों टाइम मशीन में बैठे सदियों की यात्रा में थे। यात्रा के हर पड़ाव में सलाहियत थी, सलीका था, साथ लेकर बढ़ने का हौसला था। भेद नही मिला किसी जगह। हिन्दू - मुसलमान, हिन्दी-उर्दू, मंदिर - मस्जिद, बड़े का गोश्त- मटन, साइकिल- कार..सब अपने अपने रास्ते मिलते झूलते टकराते। आधी रात बीत चुकी थी उन गलियों में। लखनऊ बनारस को इन्ही हल्के फुल्के लम्हों के साथ विदा करना चाहता था। जिससे बनारस में लखनऊ से फिर मिलने की तलब बनी रहे। दोनों टैक्सी में बैठ चारबाग की राह लेते हैं। रास्ते में नए पुराने समय के इश्तिहार नही लगे थे, अलग अलग नाम, मज़हब, फितरत के लोग भी नही थे। खाली सड़क पर टैक्सी तेज़ चल पा रही थी, फिर भी नए पुराने लखनऊ की दूरी दशकों की लगी। बनारस इस नए पुराने का लखनऊ संस्करण लेकर विदा लेता है। लखनऊ यादगार संग साथ और दशकों की यात्रा को एक दिन में जी कर अपने नए पन में गायब हो जाता है।

शनिवार, 3 मार्च 2018


बहुत बड़े बड़े किले हैं ऊँचे ऊँचे,
शब्दों की तेज आँधियाँ कुछ नही कर पातीं,
किले की कीलें जंग खा गई हैं,
पत्थर सख्त होने का ढोंग रचता है,
दरवाजों की लकड़ियाँ उम्र की फिक्र में
उम्र दराज़ हो रहीं हैं।
इन किलों के मालिकों के चेहरों पर
अपने टिके रहने की गिल्ट नहीं होती ?
या इन शब्दों के बुने आड़े तिरछे जालों में कोई दम नहीं ?





मैं आ रहा हूं ... #imamdasta

  जो सिनेमा हमारे नज़दीक के थिएटर या ओ टी टी प्लेटफार्म पर पहुंचता है । वह हम दर्शकों को तश्तरी में परसा हुआ मिलता है । 150 से लेकर 600 रुपए...