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शुक्रवार, 9 मार्च 2018


लखनऊ - बनारस का होली मिलन

होली के एक दिन पहले बनारस लखनऊ से मिलने आया ! बनारस बता के नही आया, कि लखनऊ से मिलने जा रहा हूँ। बताता तो शायद बनारस वहीं छूट जाता, और लखनऊ से मिलने शहर नही आ पाता। लखनऊ पहले अपनी अना में रहा, जैसे ही बनारस से मिला वो अना अमाँ में बदल गयी। बनारस और लखनऊ की मुलाकात का वक़्त और जगह मुकर्रर होने के बावजूद भी, बड़ा प्रश्न था...कि इस मुलाकात का कौन सा हिस्सा तमाशे से उकताए हुए दोनों शहरों को सुकून दे पाएगा।
    फन मॉल की रंगीनी, मिस्टर ब्राउन के दिल शेप वाली काफी को नज़रअंदाज़ करते हुए दोनों गोमती किनारे बैठ जाते हैं उस काली बदबू देती मृतप्राय गोमती किनारे । स्कूली बच्चे अबीर गुलाल का खेल खेल रहे थे। लखनऊ गहरी सोच में डूबते हुए दास्तान की गलियों में बनारस को ले जा रहा था । कभी शहर के बीचों बीच खिलखिलाती नदी, पीपे वाला हिलता डुलता पुल, लखनऊ हज़रत गंज से देर रात पैदल आता, पीपे वाले पुल पर खड़ा होकर उस नदी की उमंग को महसूस करता। 15 सालों में लखनऊ ने गोमती को मरते हुए देखा है। लंदन की थेम्स नदी की तर्ज़ पर बनने वाले गोमती रिवर फ्रंट की आहट से गोमती कभी मुस्कुराई होगी। लखनऊ की गोद में गोमती की किलकारियां भरने की उम्मीद जगी होगी। पर गोमती मर चुकी है कब की। गोमती का शव काला पड़ गया था। बनारस डबडबाई आंखों से लखनऊ के कंधे पर हाँथ रख सांत्वना देता है, ढांढस के पुल बाँधता है। अपने कोख में पल रही गंगा के कुछ दुख भरे किस्से सुनाता है।
        बनारस लखनऊ को कुछ और महसूस करना चाहता था। दोनों निकल पड़ते हैं पैदल एक अदत अच्छी चाय की तलाश में। 5 कालिदास मार्ग, माल एवेन्यू, हज़रत गंज, लालबाग...! शाम-ए-अवध में शायद चाय का चलन अब रहा ही नही हो, ऐसा लगता रहा। बनारस को उसकी संकरी गलियों में मिलने वाली 5 रुपये वाली बढ़िया चाय का लोभ छोड़ना ही पड़ा। बनारस को पुराने लखनऊ की तलब थी। बेगम हज़रत महल पार्क टैक्सी स्टैंड पर चौक चौक की आवाज़ उसे अपनी ओर आकर्षित कर रही थी। बनारस टैक्सी में ड्राइवर वाली सीट के पास बैठ के दाएं बाएं लखनऊ को देखना चाह रहा था। लखनऊ पीछे वाली सीट पर बैठता है। वो अब नए लखनऊ में रहता है, जहाँ से पुराने लखनऊ की दूरी बहुत ज़्यादा लगती है। पीछे वाली सीट पर एक परिवार लखनवी तलफ़्फ़ुज़ में किसी ब्याह के दस्तरख़्वान की बातें करता है। लखनऊ उनकी गोद में बैठी नन्ही बच्ची की आंखों में खो जाता है।
         200 रुपये में चिकेन के कुर्ते, 400 रुपये की जैकेट, 100 रुपये में दो शर्ट और कई तरह के सस्ते माल की आवाजों से चौक गुलज़ार था। सड़क किनारे दोनों पैदल पटरियां बेचनेवालों ख़रीदारों से भरी। बड़े बड़े चाय की केतलियों में मसाला कश्मीरी चाय, छोटे छोटे खाने पीने की दुकानों में शीरमाल, ख़मीरी, क़बाब, कलेजी, वेज क़बाब, हलवा पराठा, मलाई मक्खन, गर्म दूध ... ! बाज़ार में भीड़ थी, शोर था, सड़के जाम होती चलती। जब नए लखनऊ का दिन मानसिक शारीरिक थकन से परेशान देर शाम घर की तरफ रुख करता है। तब पुराना लखनऊ सड़कों पर निकल आता है।
          लखनऊ बनारस के हाँथ में हाँथ डाले लोगों से उन गलियों का पता पूछता है, जहाँ वो अपनी शामें गुजरता था। अगला पड़ाव अकबरी गेट है। चहकते चौक चौराहों से अंधेरी गलियों को पार करना लखनऊ की रवायत है। अकबरी गेट पास था। टुंडे के क़बाब, रहीम की निहारी कुलचा, मुबीन की बिरयानी...! जैसे खाना पीना, खिलाना रात की इबादत हो। लखनऊ और बनारस दोनों टाइम मशीन में बैठे सदियों की यात्रा में थे। यात्रा के हर पड़ाव में सलाहियत थी, सलीका था, साथ लेकर बढ़ने का हौसला था। भेद नही मिला किसी जगह। हिन्दू - मुसलमान, हिन्दी-उर्दू, मंदिर - मस्जिद, बड़े का गोश्त- मटन, साइकिल- कार..सब अपने अपने रास्ते मिलते झूलते टकराते। आधी रात बीत चुकी थी उन गलियों में। लखनऊ बनारस को इन्ही हल्के फुल्के लम्हों के साथ विदा करना चाहता था। जिससे बनारस में लखनऊ से फिर मिलने की तलब बनी रहे। दोनों टैक्सी में बैठ चारबाग की राह लेते हैं। रास्ते में नए पुराने समय के इश्तिहार नही लगे थे, अलग अलग नाम, मज़हब, फितरत के लोग भी नही थे। खाली सड़क पर टैक्सी तेज़ चल पा रही थी, फिर भी नए पुराने लखनऊ की दूरी दशकों की लगी। बनारस इस नए पुराने का लखनऊ संस्करण लेकर विदा लेता है। लखनऊ यादगार संग साथ और दशकों की यात्रा को एक दिन में जी कर अपने नए पन में गायब हो जाता है।

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