बहुत बड़े बड़े किले हैं ऊँचे ऊँचे,
शब्दों की तेज आँधियाँ कुछ नही कर पातीं,
किले की कीलें जंग खा गई हैं,
पत्थर सख्त होने का ढोंग रचता है,
दरवाजों की लकड़ियाँ उम्र की फिक्र में
उम्र दराज़ हो रहीं हैं।
इन किलों के मालिकों के चेहरों पर
अपने टिके रहने की गिल्ट नहीं होती ?
या इन शब्दों के बुने आड़े तिरछे जालों में कोई दम नहीं ?
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें