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शनिवार, 17 मार्च 2018

लावारिस लाशों का अंतिम संस्कार

शहर में अब एक भी लाश लावारिस नही दिखती। लाश के लावारिस होने की घोषणा के बाद एक शक्श उस लाश का वारिस हो जाना चाहता है। लाश के लावारिस होने की वजहों पर अपना समय बर्बाद किए बगैर, वो लाश को अपने नाम से जोड़ देता है। लावारिस लाश के साथ वारिस के जुड़ते ही, शहर में मसीही गुदगुदी होने लगती है। ऐंठी, सूखी, सड़ रही लाश के इर्द गिर्द आम शहरियों की भीड़ जमने लगती है। भीड़ लाश को उचक उचक के देखती है, और उस शख्स की करुणामयी आंखों में खो जाती है। बेचारगी, मुफ़लिसी,अकेलेपन से ऊब चुकी लाश भी कुछ बेहतर महसूस करती है। उसे आभास होने लगता है, कि अंतिम संस्कार के अभाव में उसे भटकना नही पड़ेगा। वह शक्स भी जानता है, मरने के बाद अंतिम संस्कार कितना जरूरी होता है। वो अंतिम संस्कार के सारे पुण्यों का वारिस हो जाना चाहता है। अख़बार लाल हेडिंग के साथ काली स्याही से लिख देता है, पुण्य कर्म की गाथा। शहर लावारिस लाशों के अंतिम संस्कार की हर कहानी को अपने जहन में दर्ज करता रहता है। उसके चर्चे करता है। पर  उसे शायद नही मालूम इस पुण्य कर्म के आभा में न जाने कितने सवाल दब गए हैं। सवाल लावारिस होने के... सवाल वारिस बनने के...सवाल पाप के पुण्य की सराहना के। हर अंतिम संस्कार के बाद सरकार, शहर पाप के खेमें में खड़े होकर उस शख्स के जयकारे लगाते हैं। उन्हें नही मालूम भविष्य में पुण्य कर्म के पहाड़ पर बैठा वो शख्स क्या माँग ले। उन्हें नही मालूम शायद पाप पुण्य की फसलें हर पाँच साल में काटी जाती हैं।  "राम नाम सत्य है, सत्य बोलो मुक्ति है" नही बोला जाता लावारिस लाशों के अंतिम संस्कार में।

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