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रविवार, 25 मार्च 2018

रचनाकार के नाम एक पाठक का ख़त !


ओ मेरे प्रिय रचनाकार,


मेरे भीतर तुम्हारे शब्दों की स्वर लहरियाँ बजती हैं। उनके हाव भाव, उन शब्दों की स्पष्ट आवाज़े गूँजती हैं कानों में मेरे । उन्हें जज़्ब कर के , अगली रचना के इंतज़ार में बैठता हूँ। वो रचनाएं जो मुझसे संवाद करती हैं, मैं उन शब्दों के भीतर की कशिश महसूस कर सकता हूँ। पढ़ी जा चुकी रचना और आने वाली रचना के बीच का समय उन्ही पढ़ी जा चुकी रचना के रंग में रहता है।
         नई रचना अवाक कर देती है नए रंग लाकर । बेहद संतुलन बना के चलना पड़ता है, इन ऊँचें नीचे टेढ़े मेढ़े रास्तों पर चलते वक़्त। न जाने कौन सा हवा का झोंका उड़ा दे उदासियों की परतों को। इतनी उम्मीदें जगती हैं इन शब्दों से, इतनी ऊर्जा मिलती है कि मन कहता है प्रेम से खूबसूरत तो दुनिया की कोई शै, है ही नही। मैं उन पंक्तियों के आखीर को जरूर देखता हूँ, उनमें लिखा होता है "प्रेम में खिलना"। उन पंक्तियों को लेकर मैं भागता हूँ नई नई जगहों पर।
         विस्तार के संकुचन से आहत सभ्यताएं मिलती हैं। जिये के निशान नही मिलते। कोई कुछ भी महसूस नही कर पा रहा है। जिस धरती के गुरुत्वाकर्षण से उनमें भार की अनुभूति जगी होगी, जिस आसमान से उन्हें छत का आभास हुआ होगा, जिस पानी, हवा, प्रकृति के स्पर्श से जीवन के संकेत मिले होंगे...वो सब उनके जीवन में अब नही दिखते। मैं तुम्हारे शब्दों की जैविक खाद डाल देता हूँ उनकी जड़ों में, फिर भागता हूँ अपने ठीये पर । एक नई रचना, एक नया राग, प्रेम में बुझी हुई कहानी, टूटते हुए तारों के रूमान से भरी आकाशगंगा भर देती है मुझे प्रेम के संसार से। मुझे तुम्हारे शब्द मुक्त करते हैं, बंधनों से, दुनियावी झंझावातों से, जमा पुंजियों से, भविष्य के खतरों से।
        "प्रेम में खिलना" का अर्थ क्या सही पढ़ पाया हूँ मैं ? या प्रेम का लिखा जाना अभी बाकी है ?

 एक पाठक

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