इश्क शहर !
एक शहर जिसकी तस्वीर किशोरावस्था से मेरे दिमाग में अलग अलग रंगों वाले ख़्वाब बुना करती थी। मैं उस शहर में कैसे बस जाउँ और क्यों जाना बन्द कर दूँ ?
कभी 500 किलोमीटर की दूरी बहुत ज्यादा लगती थी। मेरे लिए तब तक ट्रेनें, बसें कुछ पचास किलोमीटर का सफर तय करती थी। मेरे शहर के आस पास के गाँव शहर आते। कचहरी, अस्पताल, डाकखाना उन लोगों से पटा रहता। कौन जाता होगा आने शहर । और क्यों जाता होगा। कभी यह प्रश्न उठा ही नही। मेरा शहर भी मोहल्ले की गली, हद से हद मोहल्ले में दोस्त की गली बस। सुबह स्कूल बस स्टैंड और शाम स्कूल बस स्टैंड। बजरिया तक जाने की इजाज़त तब मिली जब मैं 9वीं कक्षा में पहुँचा।
मोहल्ले के ऊँचे खानदानों के हम उम्र लड़के सुबह सुबह न जाने कहाँ निकल जाते। दोपहर खाने और कई बार आराम को घर आते। शाम को फिर सज धज के निकल जाते। कई बार उन्हें आस्तीन चढ़ाते अपनी देहरी पर पीछे गर्दन कर चिल्लाते हुए सुना। ज़रा चौराहे तक जा रहे हैं। उन्होंने भी किसी अन्य शहर का ज़िक्र नही किया।
10 वीं की परीक्षाओं ने एक रुपहले शहर से कुछ ऐसा परिचय कराया कि मोहब्बत हो गयी उस शहर से पहली नज़र में। सब सुध बुध खो बैठे। यूँ तो कही कहाई, सुनी सुनाई बातों से उस वो नया शहर महसूस होने लगा था। अपने शहर के स्टेशन से छूटते वक़्त कुछ भी अजीब नही लगा।
एक शहर से दूसरे शहर की दूरी केवल एक रात भर की नही रही उस रात। रात ठंढी, और ठंढी होती चली गयी। रात इतनी रूमानी कभी नही रही। खिली खिली साफ सुथरी सुबह। सुबह के सूरज में इतनी सौम्यता कभी महसूस नही हुई थी पहले। ठंढी हवा पूरे शरीर के रोगटों से खेलती रही। पहले दिन ने रात को चुपके से मेरे हाँथ में थमा दिया, और विदा ली। खुले खुले शीशों वाली खिड़की से आसमान में जुगनू की तरह कुछ गाँव चमकते दिखाई देते। टिम टिमाती रोशनी, शांत नीला आसमान, सर्द मौसम और रात में हरे पहाड़ों की काली आकृति। दिन भर बादलों का आना जाना।
शरीर में मौसम को धुलते महसूस करना, ज़र्रे ज़र्रे का मेरे लिए खुल जाना। आह.....! देंह उस सर्द मौसम को बिल्कुल बर्दाश्त नही कर पाती। सर्दी के संपर्क में आते ही पूरा शरीर लाल उभरे हुए चकत्तों से भर जाता। एक्जामिनेशन सेंटर के बाहर धूप में अकेले बैठ के परीक्षा देने की इजाज़त केवल मुझे मिली। उस शहर में बैठ के कोर्स का लिखना सहज नही रहा । पहले के लिखे पढ़े को उस शहर में कनेक्ट कर पाना मुश्किल था । परीक्षाएं खत्म हुई जैसे तैसे। पर वो शहर जीवन के कोर्स में हमेशा हमेशा के लिए जुड़ गया।
क्या कहते हैं उसे "इश्क शहर " । शहर से दूसरी मुलाकात में शहर का नाम बदल गया। इस बार उसमें कुछ अलग बात थी। उसने हाँथ पकड़ा और मैं हो चला भीतर और भीतर। इतने सालों के बाद मुकम्मल मुलाकात। भर भीतर रहने, बसने का मन नही हुआ। मालूम था, बसना प्रेम को खा जाता है।
एक शहर जिसकी तस्वीर किशोरावस्था से मेरे दिमाग में अलग अलग रंगों वाले ख़्वाब बुना करती थी। मैं उस शहर में कैसे बस जाउँ और क्यों जाना बन्द कर दूँ ?
कभी 500 किलोमीटर की दूरी बहुत ज्यादा लगती थी। मेरे लिए तब तक ट्रेनें, बसें कुछ पचास किलोमीटर का सफर तय करती थी। मेरे शहर के आस पास के गाँव शहर आते। कचहरी, अस्पताल, डाकखाना उन लोगों से पटा रहता। कौन जाता होगा आने शहर । और क्यों जाता होगा। कभी यह प्रश्न उठा ही नही। मेरा शहर भी मोहल्ले की गली, हद से हद मोहल्ले में दोस्त की गली बस। सुबह स्कूल बस स्टैंड और शाम स्कूल बस स्टैंड। बजरिया तक जाने की इजाज़त तब मिली जब मैं 9वीं कक्षा में पहुँचा।
मोहल्ले के ऊँचे खानदानों के हम उम्र लड़के सुबह सुबह न जाने कहाँ निकल जाते। दोपहर खाने और कई बार आराम को घर आते। शाम को फिर सज धज के निकल जाते। कई बार उन्हें आस्तीन चढ़ाते अपनी देहरी पर पीछे गर्दन कर चिल्लाते हुए सुना। ज़रा चौराहे तक जा रहे हैं। उन्होंने भी किसी अन्य शहर का ज़िक्र नही किया।
10 वीं की परीक्षाओं ने एक रुपहले शहर से कुछ ऐसा परिचय कराया कि मोहब्बत हो गयी उस शहर से पहली नज़र में। सब सुध बुध खो बैठे। यूँ तो कही कहाई, सुनी सुनाई बातों से उस वो नया शहर महसूस होने लगा था। अपने शहर के स्टेशन से छूटते वक़्त कुछ भी अजीब नही लगा।
एक शहर से दूसरे शहर की दूरी केवल एक रात भर की नही रही उस रात। रात ठंढी, और ठंढी होती चली गयी। रात इतनी रूमानी कभी नही रही। खिली खिली साफ सुथरी सुबह। सुबह के सूरज में इतनी सौम्यता कभी महसूस नही हुई थी पहले। ठंढी हवा पूरे शरीर के रोगटों से खेलती रही। पहले दिन ने रात को चुपके से मेरे हाँथ में थमा दिया, और विदा ली। खुले खुले शीशों वाली खिड़की से आसमान में जुगनू की तरह कुछ गाँव चमकते दिखाई देते। टिम टिमाती रोशनी, शांत नीला आसमान, सर्द मौसम और रात में हरे पहाड़ों की काली आकृति। दिन भर बादलों का आना जाना।
शरीर में मौसम को धुलते महसूस करना, ज़र्रे ज़र्रे का मेरे लिए खुल जाना। आह.....! देंह उस सर्द मौसम को बिल्कुल बर्दाश्त नही कर पाती। सर्दी के संपर्क में आते ही पूरा शरीर लाल उभरे हुए चकत्तों से भर जाता। एक्जामिनेशन सेंटर के बाहर धूप में अकेले बैठ के परीक्षा देने की इजाज़त केवल मुझे मिली। उस शहर में बैठ के कोर्स का लिखना सहज नही रहा । पहले के लिखे पढ़े को उस शहर में कनेक्ट कर पाना मुश्किल था । परीक्षाएं खत्म हुई जैसे तैसे। पर वो शहर जीवन के कोर्स में हमेशा हमेशा के लिए जुड़ गया।
क्या कहते हैं उसे "इश्क शहर " । शहर से दूसरी मुलाकात में शहर का नाम बदल गया। इस बार उसमें कुछ अलग बात थी। उसने हाँथ पकड़ा और मैं हो चला भीतर और भीतर। इतने सालों के बाद मुकम्मल मुलाकात। भर भीतर रहने, बसने का मन नही हुआ। मालूम था, बसना प्रेम को खा जाता है।
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