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शनिवार, 30 जून 2018

परछाइयाँ 

परछाईं जब सीढ़िया चढ़ती हैं
वो गंतव्य तक पहुँच
किसी जानी पहचानी दीवाल से
सर टकराती हैं
या
वो सीढ़ियों के आखीर से
मिल जाती हैं ।

न जाने क्यों ! 

न जाने क्यों वो मुझे
कोई हिलते हुए कवि दिखते हैं
कभी दाएं, कभी बाएं हाँथ
कुछ लिखते हुए
आसमान से पाताल तक
कमाल कहते कलम से !

कलम की नोक भर स्याही में
डुबोना चाहते ब्रम्हांड को ।


बातों का क्या ! 

आओ चलो, भर दें आकाश बातों से।
अच्छी बातें, बुरी बातें ।


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