परछाइयाँ
परछाईं जब सीढ़िया चढ़ती हैंवो गंतव्य तक पहुँच
किसी जानी पहचानी दीवाल से
सर टकराती हैं
या
वो सीढ़ियों के आखीर से
मिल जाती हैं ।
न जाने क्यों !
न जाने क्यों वो मुझेकोई हिलते हुए कवि दिखते हैं
कभी दाएं, कभी बाएं हाँथ
कुछ लिखते हुए
आसमान से पाताल तक
कमाल कहते कलम से !
कलम की नोक भर स्याही में
डुबोना चाहते ब्रम्हांड को ।
बातों का क्या !
आओ चलो, भर दें आकाश बातों से।अच्छी बातें, बुरी बातें ।
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