ना उम्मीदी के सूखे पन से धरती की नमी सूखने लगी थी। ये सूखना दर असल सूखना नहीं था, ये ख़त्म होना था। ख़त्म होना उसे महसूस हो रहा था लंबे समय से। लगातार ख़त्म होने के एहसास के साथ साथ एक बिंदु पर उम्मीद ने भी साथ छोड़ दिया। पिछली बार प्रेम की पैदाइश के बाद धरती की कोख को आग के हवाले कर दिया गया था। वो अंदर ही अंदर सुलग रही थी। भीतर की आग और सूरज की बे रोक टोक तपिश सब कुछ भस्म कर देने को तड़प रही थी। गर्म सूखी हवा से परत दर परत मिट्टी उखड़ते हुए धूल बनकर आसमान को छू लेना चाहती थी।
फेफड़ों में धूल और धुएं की परतें जैसे ही सांस के बीच आने लगी, हर तरफ अफरा तफरी मच गयी। लोगों का दम घुटने लगा। धरती के उस रौद्र रूप के काल से बचने के सारे प्रयास विफल होने लगे। जो कभी जीवन देती थी, उसने जीवन ले लेने का थोड़ा सा आभास कराया तो सारी समझ धरी की धरी रह गयी। ना समझी जब समझ का ताज़ पेहेन ले तब ना समझी से उपजी आपदा की आहट तक महसूस नहीं होती।
पर धरती तो धरती ही है। उसका निश्छल और अथाह प्रेम ही उसकी असीमित ताकत है। प्रेम में गहरे से गहरे घाव जज़्ब कर लेने की ताकत है। हर आघात उसकी ऊर्जा बन जाती है। इस सुबह जब कुछ नमी लिए कोहरे की सफ़ेद चादर छायी दिखी, तो लगा किसी प्रेम के आँचल ने फिर से ढाँक लिया हो। जीवन फिर से कौंधने लगा है। पर उस आँचल में संघर्ष की थकावट है। उस आँचल को प्रेम के बदले प्रेम की सख्त ज़रूरत है। जो उसकी पनपने की ऊर्जा भी है और सब कुछ तहस नहस कर देने की ताकत भी। उसके इस आँचल को सहेज लो, उसके प्रेम को सीने से लगा लो, उसे महसूस करो। वो धरा है, और प्रेम की धारा भी।
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