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शनिवार, 2 जनवरी 2021

चाहत !





विरक्ति की चाहत भर

भर दे तीक्ष्ण ज्वर

देंह पर काले निशान

नीले हो जाते

धमनियां रुक जाती

होंठ सी जाते ।


छूटते आस पास

विरह आलाप करते

रूठते एकाकी से 

बंधन जाप करते


रोम रोम कुंठित , कलुषित

भीतर के नाले

कल कल बहते

बाहर की ओर


जीवन को तरसते

हम भागते 

भागते भागते 

तोड़ देते डोर

साँसों की ।

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