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सोमवार, 7 अगस्त 2017


खलीफाओं का बिरहा

पन्ना लाल ख़लीफ़ा एक हाँथ में गमछा और दूसरे हाँथ में माइक पकड़े पहले लंबी तान लगाते हैं। फिर मंच के नीचे बैठे रमेश ख़लीफ़ा, मुन्नी लाल ख़लीफ़ा से बिरहा गाने की इज़ाज़त लेते हैं। अपने सहयोगी नगाड़े पर तैयार बाबा की सहमति से शुरू हो जाते हैं बिरहा गाने। पन्ना लाल ख़लीफ़ा दिन में चाट बताशे का खोमचा लगाते हैं और अक्सर शाम को बिरहा के मंच के बेताज बादशाह हो जाते हैं। वो बिरहा की विशेष धुन में गांधी- गोडसे, नेहरू-इंदिरा, शंकर पार्वती, पाकिस्तान - चाइना की चालाकियां, युद्ध के दृश्य, कुरान, गीता, बाइबल, समेत तमाम किस्सों को सुनाते हैं। कुछ तथ्यों के आधार पर कुछ अपनी गढ़ी हुई कहानियों पर। बीच बीच में गमछे को झटकते हुए, सामने कुर्सियों पर बैठे दर्शकों की आंख में आंख डाल के बैठते हैं और खड़े होते हैं जिससे कहानी का रोमांच बना रहे, और वो अपनी इसी अदा के लिए पहचाने जाते हैं । बिरहा गाते वक़्त आनंदित दर्शकों के इनाम का सिलसिला जारी रहता है।


    ....और नक्कारा बजता है
इस मंच पर सबसे महत्वपूर्ण होता है नगाड़ा वादक। जिसे नक्कारा भी कहते हैं। नक्कारे पर बाबा का जोश दर्शकों और ख़लीफ़ा की आंखों में ,थिरकन में साफ दिखता है। बगैर नक्कारा इस परंपरागत बिरहा का गायन संभव नही। बाबा बिरहा के तोड़ के बीच में सिगरेट जला लेते हैं, कभी एक घूंट में ठंढी चाय पी डालते हैं, तो कभी हीटर की आंच में सूखते नगाड़े को बदल लेते हैं, पर गायन की लय टूटने नही देते। बाबा के मुंह में भांग चढ़ी पान की गिलौरी उनके जोश को ठंढा नही होने देती। कड़..कड़..कड़..कड़म..कड़म..कड़..कड़..कड़ की झन्नाटेदार ताल और गायक की त्योरियों का तालमेल इतना जबरदस्त होता है, कि आये हुए इनाम का हक बिना मांगे दूसरे के पास चला जाता है। नक्कारे वाले कि सेवा सत्कार में एक दो लोग स्वेक्षा से लगे रहते हैं।

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लोक संगीत की तमाम विधाओं में बिरहा अपनी खास पहचान रखता है। पर इस दम तोड़ती बेहद पुरानी लोक कला को ज़िंदा रखने के लिए पुराने कलाकार अपनी दम पर इन्हें जिंदा रखे हुए हैं। ताज़्ज़ुब की बात है कि शहर लखनऊ में यह कला इन कलाकारों की वजह से सांस ले रही है। शहर के बीचो बीच निशातगंज में अक्सर बिरहा की महफिलें सजती हैं। लोगों में अभी भी इस लुप्त होती लोक कला के लिए प्यार है, उत्साह है और चाह है। खस्ताहाल जिंदगी की थकावट भरी शामों में बिरहा की शामें उनको तरो ताज़ा कर देती हैं।

      ....महफ़िल जो ख़त्म होने पर हिसाब न मांगे
बिरहा की महफ़िल सजने से पहले बाकायदा हाँथ से लिखे हुए पर्चे जगह जगह चाय, पान की दुकानों पर लगाये जाते हैं। नगाड़ा, दो या तीन तख्त, माइक/साउंड सिस्टम, एक हीटर (नगाड़े को गर्म करने के लिए) हैलोजन, रात की चाय का इंतज़ाम...बस....शाम की महफ़िल बिरहा के खलीफाओं के लिए तैयार। पुराने सुप्रसिद्ध बिरहा गायकों को ख़लीफ़ा कहा जाता है। ख़लीफ़ा मंच से एक दूसरे को मुंह तोड़ जवाब देते हैं, यहाँ तक गालियां भी गा सकते हैं। पर मंच के नीचे महफ़िल के बाद बेहिसाब इज़्ज़त देते हैं। खलीफाओं के अलग अलग घराने होते हैं, ये घराने अन्य जनपदों के भी हो सकते हैं और मोहल्लों के भी। ख़लीफ़ा की जीत और उसका रुतबा उसके दूसरे खलीफाओं को दिए गए करारे जवाब और देर तक मंच पर डटे रहने पर होता है। जिसका जितना करारा जवाब वो उतना बड़ा ख़लीफ़ा। जुगलबंदी में एक ख़लीफ़ा को जवाब देने में 2 घंटे तक लग सकते हैं। जो ज्यादा बेहतर तरीके से मंच लूट ले वो खलीफाओं का ख़लीफ़ा होता है। उनके अपने नियम हैं, कायदे हैं। न हिन्दू न मुसलमान। ख़लीफ़ा सिर्फ ख़लीफ़ा होता है बिरहा का। न चाट वाला, न मजदूर, न रिक्शा वाला, न मिस्त्री, न मिट्टी के बर्तन बनाने वाला।


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