गोरखपुर के अस्पताल में आक्सीजन की कमी के चलते 60 बच्चों की मौत पर खुद और अपनी बिरादरी से सवाल
पत्रकार क्यों बचे जवाबदेही से ?
गोरखपुर की घटना के बाद सरकार कटघरे में है, प्रशासनिक व्यवस्था कटघरे में है, व्यवसायी कटघरे में है और पत्रकार ? चौथा खंभा...? दैनिक अखबार, इलेक्ट्रॉनिक चैनेल, न्यूज़ पोर्टल, सैकड़ों की संख्या में पत्रकार को इस काण्ड में अपनी विफलता दिखती है कहीं ? सी एच सी, पी एच सी से लेकर जिला अस्पताल - मेडिकल कालेज के गेट, कैंटीन या दफ्तरों पर यह भीड़ झुंड में रहती है। क्राइम के बाद अस्पताल सबसे महत्वपूर्ण बीट मानी जाती है। फिर इतनी पारखी नज़रों से ये चूक कैसे ?...क्यों नही घटना से पहले खामियों की खबरों से हाहाकार मच गया, क्यों इतनी बड़ी खबर स्थानीय संस्करणों के पहले पन्ने पर बैनर की तरह घटना से पहले नही चमकी ? क्यों नही किसी खबर की कॉपी में इतनी धार थी कि शासन प्रशासन मजबूर हो जाता उस खामी को दूर करने पर।
प्रदेश के मुख्यमंत्री का गोरखपुर अस्पताल दौरा केवल सरकार और जिला व अस्पताल प्रशासन के लिए महत्वपूर्ण नही था, पत्रकारों के लिए भी उतना ही था। उतनी ही जिम्मेदारी, उतनी ही लापरवाही, उतनी ही फिरी आंखें पत्रकारों की भी है, जो दिन के कम से कम 4 घंटे अस्पताल में बिताता है। सरकार, अधिकारी, कर्मचारियों, ठेकेदारों की बदली होती है, पर बीट का रिपोर्टर सालों साल वहीं रहता है, बढ़ता भी है तो उसकी नज़र और पैनी होती है। पर पत्रकार कहीं न कहीं समझौता करता है, कुंद हो जाता है।
अस्पताल की हर सुविधा पर उसका हक़ आम जनता से पहले बन जाता है। अस्पताल की ठेकेदारी में उसका हिस्सा किसी न किसी रूप में मिल ही जाता है। बीट का रिपोर्टर अस्पताल की रग रग से वाकिफ होता है। क्यों नही वरिष्ठ/तेज़ तर्रार/तोपची/कलम उखाड़ पत्रकारों में से किसी एक कि आँखों में यह कमी किरकिरी नही बनी ?...हम बतौर पत्रकार इस जिम्मेदारी से बच नही सकते। हम हर घटना के बाद सरकार, प्रशासन, जनता को आइना दिखाते हैं और उस आईने के पीछे रह कर बाइज़्ज़त बरी हो जाते हैं। हमें ऐसी घटनाओं के बाद कुछ महत्वपूर्ण छूट जाने की ग्लानि तक नही होती। क्यों नही ऐसा महसूस होता कि हाँ उस जगह पर था पर ये खामी नही सूंघ पाया, ऐसा कुछ लिख नही पाया।
क्यों कि हम उसी सिस्टम के पहिये हो जाते हैं, सिस्टम की खामियों से उपजे संकट के बाद उसी सिस्टम के प्यादों को फांसी पर चढ़ा देने की बात करते हैं। "खबर का असर" का असर दूसरे दिन के प्रकाशन में दिखता है, बेअसर खबर का कोई जिक्र नही होता। हमारी खबरें सिस्टम की तरह बासी हो चुकी हैं, अपनी धार खो चुकी हैं। हम उतने ही लापरवाह हैं, गैर जिम्मेदार हैं जितना सरकार और प्रशासन।
तस्वीर: सांकेतिक (साभार गूगल से)
पत्रकार क्यों बचे जवाबदेही से ?
गोरखपुर की घटना के बाद सरकार कटघरे में है, प्रशासनिक व्यवस्था कटघरे में है, व्यवसायी कटघरे में है और पत्रकार ? चौथा खंभा...? दैनिक अखबार, इलेक्ट्रॉनिक चैनेल, न्यूज़ पोर्टल, सैकड़ों की संख्या में पत्रकार को इस काण्ड में अपनी विफलता दिखती है कहीं ? सी एच सी, पी एच सी से लेकर जिला अस्पताल - मेडिकल कालेज के गेट, कैंटीन या दफ्तरों पर यह भीड़ झुंड में रहती है। क्राइम के बाद अस्पताल सबसे महत्वपूर्ण बीट मानी जाती है। फिर इतनी पारखी नज़रों से ये चूक कैसे ?...क्यों नही घटना से पहले खामियों की खबरों से हाहाकार मच गया, क्यों इतनी बड़ी खबर स्थानीय संस्करणों के पहले पन्ने पर बैनर की तरह घटना से पहले नही चमकी ? क्यों नही किसी खबर की कॉपी में इतनी धार थी कि शासन प्रशासन मजबूर हो जाता उस खामी को दूर करने पर।
प्रदेश के मुख्यमंत्री का गोरखपुर अस्पताल दौरा केवल सरकार और जिला व अस्पताल प्रशासन के लिए महत्वपूर्ण नही था, पत्रकारों के लिए भी उतना ही था। उतनी ही जिम्मेदारी, उतनी ही लापरवाही, उतनी ही फिरी आंखें पत्रकारों की भी है, जो दिन के कम से कम 4 घंटे अस्पताल में बिताता है। सरकार, अधिकारी, कर्मचारियों, ठेकेदारों की बदली होती है, पर बीट का रिपोर्टर सालों साल वहीं रहता है, बढ़ता भी है तो उसकी नज़र और पैनी होती है। पर पत्रकार कहीं न कहीं समझौता करता है, कुंद हो जाता है।
अस्पताल की हर सुविधा पर उसका हक़ आम जनता से पहले बन जाता है। अस्पताल की ठेकेदारी में उसका हिस्सा किसी न किसी रूप में मिल ही जाता है। बीट का रिपोर्टर अस्पताल की रग रग से वाकिफ होता है। क्यों नही वरिष्ठ/तेज़ तर्रार/तोपची/कलम उखाड़ पत्रकारों में से किसी एक कि आँखों में यह कमी किरकिरी नही बनी ?...हम बतौर पत्रकार इस जिम्मेदारी से बच नही सकते। हम हर घटना के बाद सरकार, प्रशासन, जनता को आइना दिखाते हैं और उस आईने के पीछे रह कर बाइज़्ज़त बरी हो जाते हैं। हमें ऐसी घटनाओं के बाद कुछ महत्वपूर्ण छूट जाने की ग्लानि तक नही होती। क्यों नही ऐसा महसूस होता कि हाँ उस जगह पर था पर ये खामी नही सूंघ पाया, ऐसा कुछ लिख नही पाया।
क्यों कि हम उसी सिस्टम के पहिये हो जाते हैं, सिस्टम की खामियों से उपजे संकट के बाद उसी सिस्टम के प्यादों को फांसी पर चढ़ा देने की बात करते हैं। "खबर का असर" का असर दूसरे दिन के प्रकाशन में दिखता है, बेअसर खबर का कोई जिक्र नही होता। हमारी खबरें सिस्टम की तरह बासी हो चुकी हैं, अपनी धार खो चुकी हैं। हम उतने ही लापरवाह हैं, गैर जिम्मेदार हैं जितना सरकार और प्रशासन।
तस्वीर: सांकेतिक (साभार गूगल से)
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