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मंगलवार, 21 जनवरी 2014

तेरा न होना
अब होने जैसा लगता है
किसी किताब के पन्ने  का
कोने ऐसा लगता है।
हज़ारों अक्षरों में पिरोये हुए
किस्से, कहानियां, कविताओं
से अनिभिज्ञ कोना
अपने होने पर गुमान करता है।
ताकता   रहता है
पन्ने  के आखिरी अक्षर के पढ़े जाने तक।
बेजान अक्षरों से निकले
भिन्न भिन्न भावों से संचालित चुटकी
कभी नरम तो कभी सख्त दाब से
पलटती रहती हैं कोना पकड़ के पन्ना।
छूट जातें हैं निशान उँगलियों के पोरों के
और हर पन्ने का सारांश।
कभी सोचा नहीं
साफ़ पन्नों में कोना ही
गन्दा क्यों होता है ?
मत बंद करना पढ़ना
किताबों को
घुमते रहो अक्षरों के जंगल में
पलटते रहो पन्ने
चुटकियों से मसल मसल कर
गन्दा,और गन्दा होने दो
कोने को काला होने तक
सफ़ेद पन्नों में काला कोना
कभी तो चमकेगा
तेरा न होना
अब होने जैसा लगता है
किसी किताब के पन्नों का
कोने ऐसा लगता है। …प्रभात सिंह

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