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बुधवार, 29 जनवरी 2014

ओ पेड़ !
तुम बोलते क्यूँ नहीं ?

क्यों नहीं बताते
कैसे खड़े हो वर्षों से
एक ही जगह पर
निस्वार्थ,निर्भीक
आंधी,तूफान,बारिश,बर्फ
कुम्हला देने वाली तेज़ धुप
को कैसे झेलते हो
अपने नंगे बदन पर
कैसे चीर देते हो सख्त चट्टानों को
अपनी अंतर्मुखी भुजाओं से

ओ पेड़ !
तुम बोलते क्यों नहीं ?

कितनी बार तुम्हे काटा गया
रत्ती रत्ती
कितनी बार जलाया गया
तुम्हारे अंश को
पीढ़ी दर पीढ़ी उपभोग करती रही
तुम्हारा
अपने फायदे के लिए
पत्ते,टहनी,फल,छाल,जड़
यहाँ तक रिसता पारदर्शी सुनहरा गोंद
सब तुम्हारा ही तो है
कैसे भरते हैं तुम्हारे घाव

ओ पेड़ !
तुम बोलते क्यों नहीं ?

तुम्हे प्रेम नहीं होता ?
अनगिनत शाखाओं पर
विचरते परजीवियों से
घोसलों  से निखर
ऊँची उड़ान भरते पंछियो से
स्तनधारी निशाचर
चमगादड़ों से
इठलाती बल-खाती लिपटीं
लताओं से
छाँव में दम लेने वाले
पथिक से

ओ पेड़ !
तुम बोलते क्यों नहीं ? …… प्रभात सिंह

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