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गुरुवार, 27 जुलाई 2017


भीगने की ज़िद पर हम बड़े छाता लगा देते हैं, न खुद भीगने का साहस जुटा पाते हैं, न बच्चों की भीगने की चाह को एक बार भी पूरा होने देते हैं।कपड़े गीले हो जाएंगे, ज़ुकाम हो जाएगा, बुखार आ जायेगा, अभी नही भीगना, शाम को मत भीगना, दिन में होगी तब भीगना, अगले साल भीगना इस साल इम्तिहान हैं । भीगना उत्सव नही होता हम रूखे सूखे लोगों के लिए। सुरक्षा के लिए हमेशा असुरक्षित रहना हमारा शगल बन गया है।
     भीगने का डर इतना घर कर गया है, कि शदीद इच्छा के बावजूद भी पूरी बारिश निकल जाती हैं एक बार भी भीगने का साहस नही जुटा पाते, मजबूरन फंस जाने पर भीगना अभिशाप सा लगता है। शहर के लोग नाज़ुक हो जाते हैं पर शहर की बारिशें वैसी ही होती हैं । जैसे गावों के गलियारों में, विद्यालय की टूटी छतों पर, हाट बाज़ारों में, खेतों में।
      मैंने इस बारिश एक प्रयोग किया शहर में ही। वो भीगने का डर निकाल दिया, बचने की कोशिशों को किनारे रख दिया। खूब भीगा, सूखा फिर भीगा, भीगा फिर सूखा, यहाँ तक पूरी तरह भीग कर एकदम चिल्ड सिनेमा हॉल में 2 घंटे मूवी देखी, उसके बाद फिर भीगा। इस बार कि बारिश ने मुझे कहीं निकलने से नही रोका, न छाता न रेन कोट। इससे पहले के सालों में बचता रहा, एक हल्की बारिश भी बीमार सी कर देती थी। पर इस बार बारिश खिला देती है। हालांकि न हो तो उदास भी करती है। पर भीगना जरूरी है बेहद, अक्ल के छाते हटा के, भीगना जरूरी है बारिश को समझने के लिए, भीगना जरूरी है प्रकृति को महसूस करने के लिए। बच्चे को भी भीगने दिया पर एतिहाद के साथ।

तस्वीर - मेरे बेटे की

#monsoondiary

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