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सोमवार, 24 जुलाई 2017

जून 17 

जब शहर के शहर पहाड़ों की ओर दौड़े चले जा रहे हों, तो क्यों न शहर में ही मिट्टी के टीले को पहाड़, घने शहर के बीच ठहरी नदी के किनारे को किसी घाटी के बीच कल कल बहती नदी, घिरती घटाओं को भरे बादल, कुछ जंगली पेड़ों को चीड़ देवदार, घुमावदार पगडंडियों को घूमते पहाड़ी रास्ते और तेज़ धूल भरी आंधी को बर्फीली हवाएं मान लिया जाए। मान लिया जाए कि ये सब वहीं से आ रहा है, जहां हम जाना चाहते हैं। हां वहां मैं तब जाना चाहूंगा जब वहां कोई नही जाएगा। जैसे अभी यहां कोई नही है।

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