"सीट"
4July 2017
ट्रेन की साइड बर्थ पर माँ लेटी थी। लड़की माँ के पैरों की तरफ बैठी खिड़की के बाहर हाँथ निकाले बारिश की बौछारों से खेल रही थी। पूरे कंपार्टमेंट में केवल उसी सीट के पास बामुश्किल खड़े होने की जगह थी। पिछले स्टेशन पर कंपार्टमेंट में दूसरे छोर के दरवाज़े से भीगता हुआ एक लड़का घुसा। कम्पार्टमेंट में वैसे भी खड़े होने तक कि जगह नही थी। ऊपर से लड़का भीगा। गैलरी में पड़े आड़े तिरछे लोगों को फांदते लड़का उस सीट के पास खड़ा हो जाता है। लड़की अभी भी बाहर हथेली में बूंदों को ठहरने देती और छोड़ देती। लड़का काफी देर पीठ पर टंगे भारी बैग और खड़े होने की कम जगह से असहज होता रहा। लड़की के बूंदों वाले खेल में अब लड़का भी शरीक हो गया था अपनी जगह पर खड़े खड़े। लड़की का ध्यान रह रह कर बूंदों के खेल से लड़के की असहजता पर जाता आता रहा।
कुछ घंटे बीतने के बाद लड़की खिड़की से एकदम सट कर कोने भर की जगह बनाती है। लड़का उस छूटी जगह को निहारता रहता है। लड़की खिड़की की तरफ ठिठकी बैठी रहती है। बूंदों का खेल कबका खत्म हो चुका है। अगले स्टेशन पर उतरने वालों की हलचल शुरू हो जाती है। लड़का लड़की की आंख से आंख मिला कर पलक झुकाते हुए दरवाज़े की ओर बढ़ जाता है। लड़की शुकराना में झुकी पलक का जवाब मुस्कुरा कर देती है और सहजता से बैठ जाती है।
कुछ घंटे बीतने के बाद लड़की खिड़की से एकदम सट कर कोने भर की जगह बनाती है। लड़का उस छूटी जगह को निहारता रहता है। लड़की खिड़की की तरफ ठिठकी बैठी रहती है। बूंदों का खेल कबका खत्म हो चुका है। अगले स्टेशन पर उतरने वालों की हलचल शुरू हो जाती है। लड़का लड़की की आंख से आंख मिला कर पलक झुकाते हुए दरवाज़े की ओर बढ़ जाता है। लड़की शुकराना में झुकी पलक का जवाब मुस्कुरा कर देती है और सहजता से बैठ जाती है।
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