तस्वीरों से भागा हुआ आदमी !
16 July 2017
फोटोग्राफी का ख्याल करीब 20 साल पुराना है। और शौक 7 साल पहले का, जब पहली बार एक डिजिटल कॉम्पैक कैमरा लिया था। 20 साल पहले याशिका का रोल वाला कैमरा लिया था। रोल हमेशा पॉकेट खर्च पर महंगे पड़ते रहे। लेकिन इधर उधर आते जाते उसका इस्तेमाल हो जाता था। एक दिन एक कबाड़ी के ठेले पर जर्जर हालत में ऐग्फ़ा का ओपन शटर वाला कैमरा दिखा। अजीब सी सिहरन दौड़ गयी पूरे शरीर में। ले लिया उसे, लखनऊ दिल्ली में बड़े से बड़े कैमरा साज़ों को दिखाया पर बनने की कोई गुंजाइश नही थी। अब तक घर वालों के द्वारा कई बार उसे कबाड़ में बेचे जाने से बचा कर रखा है। 2008 के लमसम दिल्ली में साथ काम करने वालेRohitash Jaiswal जी के एस एल आर के दांव देख कर कैमरे की दबी हुई चाहत अखरने लगी। लगा कि लिया जाएगा कभी। 2010 में डिजिटल कैमरे से कुछ बेहतर समझने करने की शुरुआत की। तस्वीर खींचने की लत और भुलक्कड़ी के चलते 4 कैमरे खो दिए एक के बाद एक। पर उन कैमरों की तस्वीरों में हमेशा एक अधूरा पन रहा। दृश्य और तस्वीर के रंगों में बहुत अंतर रहा हमेशा। हरा कभी वैसा हरा नही दिखा, नीला कभी नीला नही जैसा दृश्य में होता।
उन कॉम्पैक कैमरों से खेलने के दौरान DSLR लेने की ख्वाहिश हमेशा रही। लिहाज़ा कई साल गुल्लक में 100 - 50 रुपये जुटाता रहा। 2012 में घर में हुई चोरों की नज़र-ए-इनायत से गुल्लक के कैमरा होने का होते होते ख्वाब बिखर गया। 2014 में हमारे अखबार में काम करने वाले फोटो जर्नलिस्ट का dsrl कैमरा मांग कर निकल गया पहाड़ों की सैर करने। कैमरे की खामियों को पहले से ही बता दिया गया था। तकनीकी खराबी के बावजूद कुछ फ्रेम अच्छे निकले। पिछले कुछ सालों से मोबाइल से तस्वीरें खींचता हूँ। मन बहलाने के लिहाज से ये ठीक ही लगता है। फिर भी हर तस्वीर में परफेक्ट नेस की कमी लगती है। मैं हर वक़्त उस कैमरे को मिस करता हूँ जो अभी तक मेरे हाँथ लगा ही नही। कैमरों और लेंस की रेंज के बारे में सुनता देखता हूँ तो बहुत घबराहट होती है। इतने महंगे कैमरे और उनके लेंस। पर भागने से क्या होता है, डरने से क्या होता है।
मुझे अपनी तस्वीर खींचना और खिंचवाना बिल्कुल अच्छा नही लगता। पर फेसबुक ने कुछ साल पहले की तस्वीर पटक दी सामने। मुझे मालूम है जिस दिन कैमरे को मिस करने की हूक पहाड़ हो जाएगी, उस दिन डर घबराहट पीछे छूटेंगे। बस ये मिस करने वाला एलिमेंट, अच्छी तस्वीरें खींचने की भूख और प्रेम जीवित रहे।
उन कॉम्पैक कैमरों से खेलने के दौरान DSLR लेने की ख्वाहिश हमेशा रही। लिहाज़ा कई साल गुल्लक में 100 - 50 रुपये जुटाता रहा। 2012 में घर में हुई चोरों की नज़र-ए-इनायत से गुल्लक के कैमरा होने का होते होते ख्वाब बिखर गया। 2014 में हमारे अखबार में काम करने वाले फोटो जर्नलिस्ट का dsrl कैमरा मांग कर निकल गया पहाड़ों की सैर करने। कैमरे की खामियों को पहले से ही बता दिया गया था। तकनीकी खराबी के बावजूद कुछ फ्रेम अच्छे निकले। पिछले कुछ सालों से मोबाइल से तस्वीरें खींचता हूँ। मन बहलाने के लिहाज से ये ठीक ही लगता है। फिर भी हर तस्वीर में परफेक्ट नेस की कमी लगती है। मैं हर वक़्त उस कैमरे को मिस करता हूँ जो अभी तक मेरे हाँथ लगा ही नही। कैमरों और लेंस की रेंज के बारे में सुनता देखता हूँ तो बहुत घबराहट होती है। इतने महंगे कैमरे और उनके लेंस। पर भागने से क्या होता है, डरने से क्या होता है।
मुझे अपनी तस्वीर खींचना और खिंचवाना बिल्कुल अच्छा नही लगता। पर फेसबुक ने कुछ साल पहले की तस्वीर पटक दी सामने। मुझे मालूम है जिस दिन कैमरे को मिस करने की हूक पहाड़ हो जाएगी, उस दिन डर घबराहट पीछे छूटेंगे। बस ये मिस करने वाला एलिमेंट, अच्छी तस्वीरें खींचने की भूख और प्रेम जीवित रहे।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें